Books - विवेक जगे तो—युग धर्म अपनायें
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Language: HINDI
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युगधर्म अपनाने का साहस जुटायें
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जिन्हें रावण की तरह सोने की लंका बनाने का लालच और एक लाख पूत सवा लाख नाती बढ़ाने का व्यामोह गधे वाले सिर की तरह उन्माद बनकर छाया हो उनसे किसी को न कुछ कहना है और न लेना देना है। उसका राज मार्ग खुला पड़ा है। हिरण्यकश्यप, वृत्तासुर, महिषासुर, भस्मासुर, कंस, दुर्योधन, जरासिन्ध, सिकन्दर, नैपोलियन, चंगेज खां आदि की लम्बी श्रृंखला उनका मार्गदर्शन करने और परिणाम बताने के लिए विद्यमान है। जिन्हें वही सुहाता हो, वे दिन रात कोल्हू के बैल की तरह चलें, श्रम, समय, चातुर्य और ईमान बेचकर वासना तृप्त करें, वैभव से दूसरों की आंखों में चकाचौंध उत्पन्न करें, सात पीढ़ी के लिए आराम से गुजारा देने वाली सम्पदा संग्रह करें, उत्पादन का आतंक जमाकर अपनी समर्थता सिद्ध करें। इतना ही जिन्हें पसन्द है, जो इसी का दुराग्रह अपनाये बैठे हैं, उन्हें धर्म, अध्यात्म, आदर्श की बात कहना व्यर्थ है। मनोकामना पूर्ति के लिए भले ही वे इसकी चर्चा की भी विडम्बना रखें, वस्तुतः स्वार्थ ही उनका इष्ट देव है। धन ही उनका परमात्मा, स्त्री पुत्र से आगे तो इस संसार में ऐसा कुछ है नहीं जिसके लिए सोचने करने की आवश्यकता समझी जाय। जिनकी चतुरता इतनी ही सीमा तक आबद्ध है जिनके लिए देवी, देवता, सिद्ध पुरुष तो मछली मुर्गी की तरह हैं जिन्हें वे आखेट के लिए ही ढूंढ़ते तलाशते रहते हैं। पूजा, पाठ मन्त्र तन्त्र का जंजाल भी वे उसी उपक्रम के लिए बुनते बखेरते हैं। यह एक विचित्र दुनिया है। उसमें रमण करने वाले कितने सफल, कितने असफल रहे, इसका लेखा जोखा तुलनात्मक अध्ययन करके, परिणामों को देखकर लगाया जा सकता है। सिकन्दर की तरह पछताते तो ऐसे लोभ भी हैं पर आंखें समय बीत जाने पर खुलती हैं और तब विकट आत्म प्रताड़ना सहने के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं रहता।
लालच, व्यामोह और दर्प से भरा हुआ यह मार्ग अपनाने पर भी कौन कितना सफल हो पाया यह कहना कठिन है। हजारों में से किसी एक का राई रत्ती मनोरथ पूरा होता है शेष तो हाथ मलते, रोना रोते झक-मारते और दुसह दुःख सहते ही मौत के दिन पूरे करते हैं। दृष्टि पसार कर चारों ओर देखा जा सकता है। लिप्सा और कुत्सा से ग्रस्त लोगों की ही सर्वत्र भरमार है। उनकी दुर्गति देखते ही बनती है। आटे के लालच में जान गंवाने वाली मछली दाने के लोभ में गर्दन कटाने वाले पक्षी, चासनी में पंख लपेट कर बेमौत मरने वाली मक्खी जैसी दुर्दशा सहन करते ही यह सम्प्रदाय देखा जाता है। यही है भव बन्धनों के निविड़ जाल जंजाल में जकड़ा सम्प्रदाय जो आशा तृष्णा तो पहाड़ की तरह संजोये रहता है, पर सब कुछ गंवा बैठने पर भी हाथ में निराशा, थकान खीज और दुर्गति के अतिरिक्त और कुछ पड़ता नहीं। जिन्हें दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाना न हो, अपना निज का प्रयोग परीक्षण नये सिरे से करना हो वे खुशी खुशी गर्त में गिरने और सिर धुन-धुन कर पछताने की राह अपनायें। दुराग्रही उन्मादी किसी की सुनते भी कब हैं। जिन्हें न स्वयं सूझता है और न जिन्हें दूरदर्शियों के परामर्श पर विश्वास, उनके लिए कोई करे भी तो क्या करे? सोचे भी तो क्या सोचे। जिन्हें आत्म हत्या ही अभीष्ट है वे विज्ञजनों का आग्रह अनुरोध भी कहां मानते हैं। दुर्गति ही उन्हें सिखा पढ़ा सकती है। खेद इस बात का है कि जब तक पुनर्विचार की सूझ उगती है जब तक हाट उठ चुकी होती है, बिस्तर बंध चुके होते हैं।
दूसरा अल्प संख्यकों का एक और समुदाय है। जिन्हें लोक परलोक सूझता है, ईमान भगवान पर भरोसा रहता है, जो सुर दुर्लभ जीवन संपदा का मूल्यांकन करते हैं भविष्य के सम्बन्ध में सही सोच सकने की क्षमता जिनमें होती है ऐसे लोग होते तो थोड़े ही हैं पर उन्हें ही नर रत्न कहना चाहिए। ऐसे ही विचारशील उदारमना लोगों के ऊपर धरती टिकी है। शेष तो नर पामरों की तरह आतंक मचाते और नर वानरों की तरह निरर्थक उचक मचक करते हुए समय गंवाते हैं। मनुष्य जन्म ईश्वर का अनुपम अनुदान है। इसमें चौरासी के चक्र व्यूह से निकलने, भव बन्धनों से उबरने, पूर्णता का लक्ष्य पाने और परमार्थ प्रयोजनों द्वारा आत्म सन्तोष एवम् लोक सम्मान का उल्लास आनन्द उपलब्ध कर सकने की पूरी-पूरी सुविधा है। महामानवों का विवेक इसी तथ्य को सुझाता है। जिनके अन्तःकरण में मानवी गरिमा जीवन्त है उनका साहस अन्धी भेड़ों के समुदाय से अलग हटकर स्वतन्त्र चिन्तन अपनाने और आदर्शों के मृग पर एकाकी चल पड़ने का पराक्रम प्रदान करता है। यही हैं वे महा मानव, भूदेव, नर-नारायण जो स्वयं पार होते दूसरों को पार करते हैं। मूढ़मति कहती है कि बीजारोपण में जो किया और लगाया जाता है उसमें घाटा है। दूरदर्शिता कहती है उसमें हजारों गुना अधिक पाने की सुनिश्चित सम्भावना है। बीज न बोकर उसे खाने वालों की कमी नहीं, पर किसान, माली, विद्यार्थी, व्यवसायी सभी जानते हैं कि सत्प्रयोजनों के लिए आरम्भ में कोई हानि नहीं है। परमार्थ पथ ऐसा ही है जिस पर कोई विरले विवेकवान ही एकाकी पराक्रम के सहारे चल पड़ने का निश्चय करते हैं। यही हैं जिनका इतिहास ऋणी रहता है, यही हैं जिनके पद चिन्हों पर चलकर अनेकों महान बनते हैं। यही हैं जिन पर आत्मा का आशीर्वाद और परमात्मा का वरदान अहिर्निश बरसता है। सच्चे अर्थों में इन्हें ही बुद्धिमान कहना चाहिए। शेष की दुर्मति तो उन्हें अपराधी, आततायियों, लालची मोहान्धों की श्रेणी में ही ला खड़ी करती है। खोया-पाया का हिसाब लगाने पर कोई गणितज्ञ जब बैठता है तो देखता है कि कुच कृत्यों ने कुछ पाया नहीं और उदात्तों ने कुछ गंवाया नहीं। सच तो यह है कि कुछ ही समय की अग्नि परीक्षा में गुजरने के उपरान्त आदर्श अपनाने वाले ही नफे में रहते हैं। वे परलोक ही नहीं बनाते लौकिक क्षेत्रों में भी मूर्धन्य स्तर तक पहुंचते हैं। वैभव उनके चरणों पर लोटता है यह दूसरी बात है कि वे उस उपलब्धि को स्वयं न खाकर दूसरों को खिलायें और बदले में इतना पायें जितने पर जीवन को हर दृष्टि से सफल सार्थक कहा जा सके।
प्रज्ञा परिवार की जागृत आत्माओं की युग संधि के इस प्रभात पर्व पर तन्द्रा छोड़ने और विवेकवानों जैसी जागरूकता अपनाने के लिए आग्रह अनुरोध किया गया है वे समय का महत्व समझें। अपनी विशिष्टता और गरिमा का अनुभव करें। अन्धी भेड़ों का अनुकरण कर करें, दृष्टिकोण, साहस और पराक्रम को युग निमन्त्रण के साथ जोड़ें। ईमान और भगवान के परामर्श को पर्याप्त मानें और युग धर्म के अनुरूप अपनी दिशा धारा का स्वयं निर्णय करें। भावी रीति नीति का स्वयं निर्णय करें और प्रवाह प्रचलन की परवाह न करते हुए तथा कथित हितैषियों की मोहान्धता की उपेक्षा करते हुए उस मार्ग पर चल पड़ें जिस पर इस आपत्ति काल में भावनाशीलों को चलना ही चाहिए। प्रस्तुत विभीषिकाओं से जूझने और उज्ज्वल भविष्य के अभिनव सृजन में जुट पड़ने का ठीक यही समय है। इन दिनों लालच और व्यामोह को आड़े नहीं आने देना चाहिए। सोचने का तरीका भर बदलने से वे सभी समस्याएं चुटकी बजाते सुलझ जाती हैं जिनके बहाने युग निमन्त्रण को स्वीकार कर सकने की विवशता व्यक्ति की जा रहती है। समस्या निर्वाह नहीं, संकट महत्वकांक्षाएं उपस्थित करती है। निर्वाह में सन्तोष अपनाया जा सके और महत्वाकांक्षाओं को युग धर्म के साथ नियोजित करने की बात सोची जाय तो इस सन्दर्भ में किसी की समस्या न उलझी रही, न रहेगी, एक भी अड़चन अड़ी न रहेगी।
बैलों, भैंसों आदि जानवरों के पेट बड़े और भरने के साधन छोटे होते हैं पर मनुष्य को बीस उंगलियों वाले हाथ, साथ ही बुद्धि क्षेत्र के अनेकानेक कौशल, ऐसे हैं जो छः इंच गहराई के पेट को कुछ ही मिनटों में परिश्रम से भर सकते हैं। परिवार तो एक सहकारी संस्था है। उसे घर के सभी सदस्य मिल-जुलकर चलायें और सद्गुणों के अभ्यास की, व्यक्तित्व के विकास की, पाठशाला समझें तो उनमें से कोई किसी के लिए भार न बने। हंसते-हंसाते हलकी-फुलकी गाड़ी अपनी सड़क पर सरपट चाल से दौड़े। कठिनाई तब पड़ती है, जब मनुष्य लालची, विलासी और संग्रही बनकर कुबेर की सम्पदा समेटने और इन्द्र का वैभव भोगने के लिए आतुर होता है। इसी ललक में उसे व्यस्त, उद्विग्न एवं अनैतिक स्वार्थी जीवन जीना पड़ता है। यही बात परिवार के सम्बन्ध में भी है। सदस्यों की संख्या बढ़ाने, उनकी कुरुचि भड़काने तथा मनचाहे उपहार देकर प्रसन्न करने की वितृष्णा में वह समूचा समुदाय कुसंस्कारी बन जाता है। स्वयं दुःख पाता, संचालक को उसकी पथ भ्रष्टता का दंड देता है। यदि इस अदूरदर्शिता से बचा जा सके तो परिवार निर्वाह का ढर्रा तो शान्तिपूर्वक चले ही, साथ ही मनुष्य को इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भी अवसर मिले, जिसके लिए अमानत एवं परीक्षा के रूप में यह अनुदान मिला है। मनुष्य जन्म सृष्टा की उच्चस्तरीय अमानत है। जो किसी को नहीं मिला, ऐसा सुर दुर्लभ जीवन किसी पक्षपात या सनक मौज से प्रेरित होकर नहीं दिया गया वरन् इसलिए मिला है कि इस अद्भुत समर्थता के सहारे वह सृष्टा के व्यवस्था क्रम में हाथ बटाये। इस विश्व उद्यान को समुन्नत, सुव्यवस्थित, सुसंस्कृत बनाये रखने में कंधा लगाये। इस निर्धारण में जहां सृष्टा का बोझ हल्का होता है वहां मनुष्य को भी युवराज की भूमिका निभाते हुए महामानवों, ऋषि, देवात्मा स्तर की प्रगति करते हुए पूर्णता के लक्ष्य तक जा पहुंचने का अवसर मिले।
हर विवेकशील का कर्त्तव्य है कि इस सुर दुर्लभ सुयोग का श्रेष्ठतम उपयोग करने की बात सोचे। बदले में आत्मसंतोष, लोक सम्मान और ईश्वरीय अनुग्रह का तिहरा लाभ हाथों हाथ प्राप्त करे। पेट और प्रजनन की पशु प्रवृत्तियों के लिए इस सौभाग्य को कौड़ी मोल गंवा देना मानवी गरिमा के अनुरूप नहीं बैठता। उसे लोभ, मोह की हथकड़ी, बेड़ी पहन कर अपने आपे को स्वयं ही भव बन्धनों से नहीं जकड़ना चाहिए। स्वयं पार होने और दूसरों को पार करने की सुविधा को लात मारकर उस प्रवाह में नहीं बहना चाहिए जिसमें कि बहुसंख्यक नर-पामर, नर-वानर, अदूरदर्शिता के मार्ग पर चलते और दुर्गति के गर्त में गिनते रहते हैं। प्रत्येक विवेकशील को अपना रास्ता आप निर्धारित करना चाहिए। उत्कृष्टता अपनानी है तो सूर्य, चन्द्र की तरह साहस पूर्वक एकाकी चलना चाहिए इसमें ईमान और भगवान, दो का परामर्श प्रोत्साहन पर्याप्त है। लोग तो लोग ही हैं। वे हेय स्तर के दृष्टिकोण और क्रिया कलाप के अभ्यस्त रहे हैं। उनसे वैसा ही परामर्श बन पड़ेगा। आदर्शवाद अपनाने पर जो उपलब्धियां हस्तगत होती हैं वे उनने कभी प्रत्यक्ष देखी नहीं। ऐसी दशा में वे उत्कृष्टता अपनाने पर उपहास असहयोग, विरोध की कर सकते हैं। तथाकथित स्वजन सम्बन्धियों का प्रोत्साहन उत्कृष्टता की नीति अपनाने के लिए इन दिनों प्रायः किसी को भी नहीं मिलता। जन्म अकेले लिया। चिता पर भी अकेले ही सोना है। शौच, स्नान, भोजन, शयन भी अकेले ही करना पड़ता है। जीवन को सार्थक बनाने वाले शिखर पर चढ़ने के लिए भी अपने ही पैरों का सहारा लेना पड़ता है। इससे कम में बात बनती ही नहीं। स्वार्थ के साथ परमार्थ भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ना चाहिए। शारीरिक हित स्वार्थ में है और आत्म कल्याण परमार्थ में। इन दोनों में से एक भी ऐसा नहीं जिसकी उपेक्षा की जाय।
भारत की देव संस्कृति ने हर सोपान में मनुष्य को एक ही शिक्षा दी है कि वह लोभ, मोह, विलास और अहंकार के भव बन्धन शिथिल करे। आदर्शों के समुच्चय समष्टि रूपी विराट भगवान को प्राप्त करने का परम पुरुषार्थ अपनाये। परिवार को छोटा रखे। स्वावलम्बी, सुसंस्कारी भर बनाने का उत्तरदायित्व निभाये। कुटुम्बियों पर वैभव लुटाने की दुर्बुद्धि न अपनाये। बहुसंख्यक प्रपंचियों से अपना रास्ता अलग बनाये और आत्मा और परमात्मा को प्रसन्न करने पर मिलने वाले सत्परिणाम का महत्व समझे। जो ऐसा कर सकेगा वह इसी जीवन में अपने को आत्म प्रवंचना के भव बन्धनों से मुक्त अनुभव करेगा। उच्चस्तरीय दृष्टिकोण अपनाना और तदनुरूप जीवनचर्या बनाना कितना सुखद, कितना आनन्ददायक और मंगलमय है इसको कोई भी अनुभव कर सकता है। इसी मनःस्थिति को स्वर्ग कहा गया है। व्यवहार में से पशु प्रवृत्तियों को हटा लेना ही मुक्ति है। परमपुरुषार्थ इसी को कहा गया है। अध्यात्म भाषा में इसी को आत्मा और परमात्मा की प्राप्ति, लक्ष्य की उपलब्धि कहते हैं। इस स्तर तक पहुंचना ही भारत की देव संस्कृति के तत्व दर्शन का आधार भूत उद्देश्य है।
व्यक्तित्व ही मनुष्य की वास्तविक गरिमा और सम्पदा है। उसे हेय स्तर से उठाकर गौरवान्वित बनाने के लिए सद्गुणों की विभूतियां चाहिए। उन्हें अर्जित कर सकना एकाकी रहकर सम्भव नहीं हो सकता। दूसरे के साथ उदार सद्भावना पूर्ण व्यवहार का अभ्यास करने के माध्यम से ही आत्मिक उत्कर्ष बन पड़ता है। पूजा पाठ उन्हीं प्रसुप्त सत्प्रवृत्तियों को जगाने के लिए किया जाता है।
संसार के समस्त महामानवों में से प्रत्येक की अनिवार्यतः सेवा धर्म अपनाना पड़ा है और अपनी आन्तरिक वरिष्ठता का परिचय लोक-साधना की परमार्थ परायणता के रूप में देना पड़ा है। साधु ब्राह्मण, वानप्रस्थ, देशभक्त, विश्व विभूति, ऋषि मनीषी, इसी ढांचे में अपने ढंग से जीवनचर्या ढालते रहे हैं। यह शाश्वत सत्य अभी भी यथावत है और अनादि काल की तरह अनन्त काल तक चलता रहेगा। जिसे भी आत्मिक दृष्टि से ऊंचा उठना है उसे सेवा साधना के लिए समयदान अंशदान निकालना ही पड़ेगा। जो आप ही कमाता और आप ही खाता है वह चोर है। इस आप्त-वचन में मानवी सत्ता को विकसित करने वाले आधारभूत तथ्य का समावेश है।
सेवा को योग, तप, व्रत, धर्म, पुण्य आदि किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है। आत्मा और परमात्मा को प्राप्त करने का, इस लोक में श्रेय और सन्तोष पाने का यही सुनिश्चित राजमार्ग है। इस पर चलने वाले को भौतिक आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं में कटौती करके समय और साधनों की बचत करनी पड़ती है। उसी को परमार्थ में लगाया जा सकता है। जिनकी अपनी लिप्सा, लालसा जितनी बढ़ी-चढ़ी है उन्हें उसी अनुपात से तृष्णा घेरे रहेगी। फलतः परमार्थ के लिए न समय बचेगा, न मन, न धन। ऐसी दशा में निरर्थक कल्पनाएं ही की जा सकती हैं। सार्थक सेवाधर्म अपनाने में तो समय और मन ही नहीं अपने साधन भी लगाने पड़ते हैं। यह पहला, बचत कटौती वाला कदम बढ़े तो ही परमार्थ कर सकने का दूसरा चरण प्रगति पथ पर उठे।
पशु पक्षियों के बालक थोड़े दिन तक ही अपनी माता का सहयोग लेने के उपरान्त अपना गुजारा आप करने लगते हैं। पर मनुष्यों के कमाऊ बनने, योग्य आयु आने तक- अभिभावकों पर आश्रित रहना पड़ता है। आरम्भिक दिनों में तो वह करवट बदलने और दूध तलाश करने तक की स्थिति में नहीं होता। आरम्भ में अभिभावकों, भविष्य में आजीविका, अन्न, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा आदि के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। सुयोग्य पत्नी ससुराल वालों के अनुग्रह से ही मिलती है। भाषा, अनुभव, कला, साहित्य आदि के क्षेत्रों में समाज के अनुदानों से ही अनेकानेक उपलब्धियां मिलती हैं। वे न मिलें तो रामू भेड़िये अथवा वन मानुषों की तरह पिछड़ा जीवन जीना पड़े। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज ऋण से ही वह स्वावलम्बी एवं प्रगतिशील कहलाने की स्थिति तक पहुंचता है। ऐसी दशा में उसके लिए आवश्यक ही जाता है कि समाज ऋण चुकाये। निर्वाह जुटाने के अतिरिक्त समाजगत प्रगति के लिए, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए, बढ़-चढ़ कर योगदान दे। और ऋण मुक्ति का कर्त्तव्य निवाहे। पारस्परिक आदान-प्रदान की दृष्टि से जो लोक सेवा करते हैं वे लोक सम्मान और जन सहयोग पाते तथा बहुमुखी प्रगति पथ पर अग्रसर होते हैं। जो नितान्त स्वार्थरत रहते हैं, वे अपनी क्षमता का स्वयं भर के लिए लाभ लेते रहने की सुविधा तो पाते हैं, किन्तु अन्यान्यों की मैत्री, सद्भावना से बुरी तरह से वंचित रहते हैं। इसलिए स्वार्थ में लाभ कम और घाटा अधिक रहता है। दूरदर्शी सत्परिणाम उत्पन्न करने वाले स्वार्थ को ही परमार्थ कहते हैं।
सेवा धर्म अपना कर सच्चे अर्थों में सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर चलने की बात उनके गले उतरे उन्हें इस सन्दर्भ में दूसरा चिन्तन यह करना चाहिए कि पुण्य परमार्थ के लिए कौन सा क्षेत्र चुने? क्षेत्र दो ही हैं। एक शरीरगत भौतिक। दूसरा आत्मा से सम्बन्धित, प्रेरणा स्तर का। लोगों की असुविधा हटाने के लिए साधनों का दान किया जाता है। अन्न, वस्त्र, औषधि की सहायता करके अभाव ग्रस्तों एवं कष्ट पीड़ितों की सहायता की जाती है। यह समय धर्म है। विपत्ति काल में असमर्थों के लिए ही इस प्रकार के दया का उपयोग किया जाता है। अनाधिकारियों के लिए साधन सुविधा प्रस्तुत करने से ही उलटा अनाचार फैलता है। भिक्षा व्यवसाय बनता है और कुपात्र उससे लाभ उठाकर अधिक आलसी एवं दुर्व्यसनी बनते हैं इसलिए कष्ट पीड़ितों को स्वावलम्बी बनाने तक सहायता पहुंचाना उचित है और आवश्यक भी। किन्तु ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि मात्र इतने भर में सेवा की परिधि समाप्त हो जाती है। चींटियों को आटा, पक्षियों को दाना, पशुओं को चारा देकर तात्कालिक सन्तोष तो मिल सकता है पर इससे किसी का कोई स्थाई समाधान नहीं होता। मनुष्यों में से अधिकांश का पतन पराभव उनके अचिन्त्य चिन्तन के कारण होता है। आन्तरिक निकृष्टता ही समस्त समस्याओं और विपत्तियों की जन्म दात्री है। उसके रहते कोई कभी चैन से न बैठ सकेगा। भले ही उसे स्वर्ण मुद्राओं से क्यों न लाद दिया जाय। इसलिए समस्याओं का आत्मिक समाधान करने वाली, व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने वाली दानशीलता एक ही है कि व्यक्ति के चिन्तन में उत्कृष्टता, चरित्र में आदर्शवादिता एवं व्यवहार में सज्जनता, सुसंस्कारिता का समावेश किया जाय। इसी में किसी की वास्तविक सेवा है। विपत्तियों का स्थाई निवारण इस उपचार के बिना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का एक मात्र निर्धारण इतना ही है कि किसी की आस्थाओं, विचारणाओं, आदतों एवं गतिविधियों में उच्चस्तरीय परिवर्तन सम्भव किया जाय, यही सर्वोपरि सेवा है। दोनों में सर्वोपरि दान ब्रह्मदान है। ब्रह्मदान अर्थात् सद्ज्ञान दान। प्रज्ञा अभियान द्वारा जागृत आत्माओं को समय की मांग को पूरा करने, प्रस्तुत आपत्ति काल को निरस्त करने, मानवी गरिमा को जीवन्त रखने तथा स्नेह सहयोग का सतयुग वापिस लाने के लिए सब काम छोड़कर इसी युग धर्म के निर्वाह में जुट पड़ने का अनुरोध किया है। आज की सेवा साधना इसी एक केन्द्र पर आधारित समझी जा सकती है।
इन दिनों आस्था संकट से जूझने और लोक मानस का परिष्कृत निर्माण करने के लिए प्रबुद्ध प्रतिभाओं की असाधारण आवश्यकता पड़ रही है। जागृत आत्माओं को बहुत आगा पीछा सोचे बिना नव सृजेताओं की अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना चाहिए और प्रज्ञा अभियान के सुनियोजित, सुगठित कार्यक्रमों में सम्मिलित होकर उन प्रयासों में जुट पड़ना चाहिए, जिन पर व्यक्ति और समाज का भविष्य पूरी तरह आधारित है। किसे क्या करना है? कहां रहना है? इस बात का निर्णय पीछे होता रहेगा। बात अपने समयदान की सोचनी चाहिए। एकाकी कार्यक्रम सोचने, अलग योजना बनाने से काम नहीं चलेगा। अपनी ढपली अपनी राग बजाने से बात बनती नहीं, न ढाई चावल की खिचड़ी पकती है और न डेढ़ ईंट की मस्जिद खड़ी होती है। स्वयं संस्थापक, संचालक बनने का श्रेय लूटने की लिप्सा में कितनों ने ही अपने चित्र विचित्र अड़ंगे सोचे और धन तथा श्रम गंवाकर बुरी तरह पछताये। विवेकवान ऐसी भूल नहीं करते। वे योजना बनाने का काम अनुभवी शक्तिशालियों पर छोड़ते हैं और हनुमान, अंगद, अर्जुन, भीम की भूमिका निभाते हुए अनुशासन पालते और कृतकृत्य होते हैं। इन दिनों भी यही श्रेयस्कर है। बड़े काम, बड़े संगठन के अन्तर्गत रहकर बड़ी योजनाओं के अंग बनकर ही सम्भव हो सकते हैं। बुद्ध, गांधी, राम, कृष्ण आदि के अनुयायी एक तन्त्र के नीचे संगठित हुए और सुगठित सेना के रूप में प्रयत्नरत हुए थे। इन दिनों तो इसके अतिरिक्त और कोई चारा है ही नहीं। स्वतंत्र योजनायें बनाने में और अपना कार्यक्रम स्वयं बनाने में शक्ति का अपव्यय ही अपव्यय है। ठोस काम करना हो तो साधन सम्पन्न सेना का अनुशासन प्रिय सैनिक बनकर ही बड़ी सफलता का स्वप्न संजोना चाहिए। इसके लिए प्रज्ञा अभियान के तूफानी प्रवाह में सम्मिलित रहकर तिनके और पत्ते की तरह हलके लोग भी आकाश चूमने जैसी गरिमा उपलब्ध कर सकते हैं। इन दिनों किसी भी विचारशील को पृथकतावादी, अहमन्यता को आड़े नहीं आने देना चाहिए। जो करना है उसे बुहारी, रस्सी, दीवार की तरह छोटे घटकों के एकीकरण की नीति अपना कर ही सम्पन्न करना चाहिए। रीछ, वानरों, ग्वालबालों, सत्याग्रहियों, बौद्ध परिव्राजकों ने यही किया था। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत महान परिवर्तनों की आवश्यकता पूरी करने का और कोई उपाय है नहीं।
प्रज्ञा अभियान ने नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्रान्ति के, व्यक्ति परिवार और समाज निर्माण के अगणित नियोजन खड़े किये हैं जिनमें हर योग्यता और हर स्थिति के व्यक्ति को खपने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। कम समय देने वाले और आने ही घर रहकर समीपवर्ती क्षेत्र में अवैतनिक रूप से सेवा साधना करने वालों के लिए नव निर्माण की पंच सूत्री योजना में संलग्न होने की बात सरल भी है और साथ ही दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाली भी। सदुद्देश्य के लिए किया जाने वाला नियमित जन सम्पर्क, जन समर्थन के रूप में विकसित और जन सहयोग के रूप में फलित होता है। सृजन की पक्षधर लोक शक्ति को इसी प्रकार ढूंढ़ा, उबारा और कार्यरत किया जा सकता है। अगले दिनों सहस्रों अति महत्वपूर्ण सृजनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम खड़े किये जाने हैं उसके लिए विशाल परिणाम में श्रद्धा, साहस, श्रम एवं साधनों की विपुल आवश्यकता पड़ेगी। इसे जुटाने के लिए जिस प्रबुद्ध जन शक्ति का संयोजन आवश्यक है उसे प्रज्ञा अभियान की पंच सूत्री योजना द्वारा जिस प्रकार सुनियोजित ढंग से पूरा किया जा सकता है वैसा अन्य किसी प्रकार कदाचित ही संभव हो सके। अस्तु जिनके अन्तराल में समय की मांग के अनुरूप सेवा साधना की उमंग उठे उन्हें परमार्थ प्रयोजन के लिए लग सकने वाला समय उसी पुण्य प्रक्रिया में जुटा देना चाहिए। घर रहकर समीपवर्ती क्षेत्र में उपयुक्त लोक मंगल की यही सर्वोत्तम प्रक्रिया है।
जिनके अन्तःकरण में इस दिशा में कुछ उल्लेखनीय भूमिका निभाने की उमंग हो उन्हें एकबार शान्तिकुंज, हरिद्वार पहुंचने की बात सोचना चाहिए। देश-विदेश में अगणित कार्यक्रम ऐसे हैं जिसमें हर योग्यता के निष्ठावान लोगों को लगाया जा सकता है। कौन किस स्तर का है इसकी जांच पड़ताल करने के बाद ऐसे परमार्थ परायणों में से प्रत्येक को लगाया जा सकता है। कठिनाई तो वे खड़े करते हैं जो अपनी मर्जी का नेतृत्व प्रधान काम चाहते हैं और हलके समझे जाने वाले काम करने में अपनी तौहीन समझते हैं। अनुशासन प्रिय सच्चे सेवा भावियों, सरल स्वभाव और परिश्रम प्रिय अभ्यास के रहते हर व्यक्ति नव सृजन की किसी न किसी प्रक्रिया में कहीं न कहीं फिट हो सकता है। इसके लिए एक महीने का परीक्षण काल नियत है। किसे क्या करना चाहिए इसका निर्धारण स्वभाव और दृष्टि को देखकर ही किया जा सकता है। इसके लिए हर पूर्ण समय दानी, वानप्रस्थ, परिव्राजक परम्परा अपनाकर भावी कार्यक्रम बनाने वालों के लिए एक महीना परीक्षा काल रखा गया है। स्थिर निर्णय इसके बिना सम्भव नहीं। संचित पशु प्रवृत्तियों, अभ्यस्त कुसंस्कारों और हेय प्रचलनों के प्रवाह में जीवन क्रम एक ऐसे ढर्रे पर घूमने लगता है, जिसकी कोल्हू के बैल से तुलना की जा सके। इस चक्र व्यूह से निकलने के लिए एकान्त चिन्तन की, कुसंस्कारों का उन्मूलन करने वाले तप साधना की तथा उज्ज्वल भविष्य के लिए योजना बद्ध निर्धारण की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रक्रिया को प्रकारान्तर से ‘महान परिवर्तन’ ‘काया कल्प’ आदि नामों से पुकारा जाता है। द्विजत्व भी इसी को कहा गया है। इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए शास्त्रकारों ने तीर्थों के प्राणवान वातावरण में कुछ समय निवास करने की आवश्यकता पर बहुत जोर दिया है। तथ्यतः तीर्थ सेवन सेनीटोरियम में भर्ती होकर रुग्णता का उपचार और आरोग्य संवर्धन का दूसरा लाभ लेने जैसा निर्धारण है। शान्तिकुंज की सत्र साधनाएं अपने समय की सर्वोपरि तीर्थ साधना है।
साधना का एक महत्वपूर्ण पक्ष है अन्तः मन्थन और भविष्य निर्धारण। तीर्थ सेवन की अवधि में यह प्रक्रिया परिपूर्ण भाव से श्रद्धा के साथ चलनी चाहिए। अभ्यस्त ढर्रे में इतना हेर फेर किया जाना चाहिए और सोचा जाना चाहिए कि जीवन नीति में मात्र स्वार्थ सब कुछ न रहे वरन् परमार्थ को भी स्थान मिले। हर किसी को भगवान ने समय और विचार की दो शक्तियां समान रूप से प्रदान की हैं। इस दृष्टि से कोई भी निर्धन नहीं। धन अपने निजी पुरुषार्थ का प्रतिफल है। वह न्यूनाधिक हो सकता है फिर भी इतनी गुंजायश तो रहती है कि अपनी रोटी में से एक टुकड़ा ईश्वरीय प्रयोजनों के निमित्त, अंशदान के रूप में निकाला जा सके। इस प्रकार की सन्तुलित उदारता अपनाने में मात्र अनुदारिता एवं कृपणता ही बाधक होती है। अन्तःकरण को तनिक अधिक चौड़ा किया जा सके तो उसमें परमार्थ के भगवान को भी विराजने की गुंजायश बिना किसी कठिनाई के निकल सकती है और कुछ न सही आधे से अधिक आलस्य-प्रमाद में जाने वाले समय का एक छोटा अंश उस प्रयोजन की पूर्ति में लग सकता है जिसके लिए सृष्टा ने अपनी समूची कला संजोयी और बड़ी आशा लेकर मनुष्य को जीवन सम्पदा की धरोहर सौंपी है।
रोज कुंआ खोदने, रोज पानी पीने वाले भी आठ घंटा कमाने के लिए, सात घंटा सोने के लिए, पांच घंटा अन्याय कार्यों के लिए लगाकर उपार्जन और परिवार का उत्तरदायित्व भली प्रकार निर्वाह कर सकते हैं। बीस घंटा शरीर के लिए लगाने से यदि सन्तोष हो सके तो चार घंटा युगान्तरीय चेतना का आलोक वितरण करने के लिए बिना किसी प्रकार के असमंजस में पड़े भली प्रकार निकलते रह सकते हैं। यह बात व्यस्त, निर्धन समझे जाने वाले, परिवार निर्वाह के भारी उत्तरदायित्वों वाले लोगों के लिए कही गयी है। जिनके पास अपेक्षाकृत भावना और समय की उतनी कमी नहीं है उन्हें परिव्राजक स्तर का समयदान करना चाहिए। वे अपने समय में से जितना अधिक निकाल सकें अपने समीपवर्ती क्षेत्र में भी उसे सेवा साधना के लिए नियोजित रखे रह सकते है।
जिनके उपार्जन उत्तरदायित्व हलके हैं ऐसे लोगों को वानप्रस्थ स्तर अपनाना चाहिए और अपने समय को युगान्तरीय चेतना का आलोक बखेरने के लिए जहां तक पहुंच और परिचय हो वहां ही धर्म प्रचार यात्रा पर प्रव्रज्या के लिए निकालना चाहिए। यों वानप्रस्थ आधी आयु के पश्चात लेने की परम्परा है, प्राचीन काल में सौ वर्ष तक जीते थे तब पचास वर्ष इसकी आयु निर्धारित थी, पर अब तो आयु घटकर सत्तर अस्सी से भी कम रह गई है ऐसी दशा में पैंतीस चालीस की आयु को भी पूर्वार्ध, उत्तरार्द्ध में बांटा जा सकता है। बात आयु की नहीं, जिम्मेदारियों से निवृत्त होने की है। इसके लिए कौन क्या योजना बनाता है, किस प्रकार का ताना बाना बुनता है। बात बहुत कुछ इसी पर निर्भर करती है। आकांक्षा हो तो यथाक्रम चलते रहने के हजार रास्ते बन सकते हैं, पर यदि मन व्यामोह के कीचड़ में फंसे रहने का हो तो फिर हजार बहाने गढ़े जा सकते हैं। समस्याओं में से अधिकांश वास्तविक नहीं होतीं। वे गढ़ी जाती हैं। आदमी अपने ढंग से सोचता और चाहता है। परिस्थितियां इच्छित स्तर की बनें, तब वह अपने को हल्का अनुभव करे यह सोचना असंगत है। वस्तुतः मनः स्थिति को सुधारना, संभालना पड़ता है। उसे एक केन्द्र से हटाकर दूसरे के साथ जोड़ा जा सके तो प्रतीत होगा कि जिस प्रकार सोचा जाता रहा है वही एक मात्र उपाय नहीं है, उसके अतिरिक्त भी ढेरों रास्ते हैं जिनके अनुसार आज की परिस्थितियों में भी थोड़ा सा उलट-पुलट करने भर से वैसा उपाय निकल सकता है जिसमें काल्पनिक पर्वत को राई के समान हल्का किया जा सके और परमार्थ पथ पर चला जा सके। ऐसे प्रसंगों में शंकराचार्य, समर्थ राम दास, विवेकानन्द, ज्ञानेश्वर, कबीर, बुद्ध आदि का उदाहरण स्मरण किया जा सकता है, जिनको उनकी पारिवारिक व्यवस्था ने भी चोट नहीं पहुंचाई। वे लोग भी सुख पूर्वक जिये और इन महा मानवों को कृत-कृत्य होने का अवसर भी मिल गया।
देव युग, प्रज्ञा युग आना है तो उसकी उदीयमान किरणें सर्वप्रथम जागृत आत्माओं का अन्तःकरण मथेंगी और अग्रगामियों को उन पंक्तियों में खड़ा करेंगी जिनके साहस एवम् मार्गदर्शन का सामान्य जन अनुकरण करते हैं। हनुमान आगे चले तो रीछ वानर भी पीछे न रहे। बुद्ध ने साहस किया तो परिव्राजकों की संख्या लाखों तक पहुंच गई। गांधी ने कदम बढ़ाया तो सत्याग्रही आश्चर्य जनक संख्या में पीछे चलने लगे। धर्म सम्प्रदायों में भी यही होता रहा है। मनस्वी लोगों ने एकाकी अपनी योजना बनाई, बात कही और उसे पूरा करने में जुट गये। इतना जो कोई भी कर सकेगा उसे यह प्रमाण भी मिलेगा कि वह एकाकी चला तो, पर कुछ ही समय उपरान्त साथी सहयोगियों की, समर्थकों, प्रशंसकों की कमी नहीं रही। शर्त एक ही है कि लक्ष्य ऊंचा, विश्वास अडिग और प्रयास में प्रखर पुरुषार्थ भरा रहना चाहिए। पुरातन काल में वानप्रस्थ, लोक सेवा का व्रत धारण करते थे तो समूचा समाज ही उनके चरणों में नत मस्तक होता था और श्रद्धापूर्वक उनके मार्गदर्शन, अनुशासन को अपनाकर कृत-कृत्य होता था। संसार में कुछ समय पूर्व तक बुद्ध धर्म की एक मात्र सरकार कम्बोडिया में थी। वहां प्रचलन था कि हर प्रजाजन जीवन में एक वर्ष का वानप्रस्थ ले। बौद्ध-विहार में रहे। साधना और सेवा का कार्यक्रम अपनाये। उस योजना के अनुसार उस देश में उन दिनों हर स्तर के हजारों सुयोग्य लोक सेवी बिना वेतन के मिलते थे। वे देश में अनेकानेक आवश्यकताओं की पूर्ति में निरन्तर संलग्न रहते थे अपनी उपासना को लोक साधना के तवे में पकाकर परिपक्व करते थे। इन उदारमना लोक सेवियों का आदेश जनता श्रद्धा पूर्वक पालन करती थी फलतः वहां अपराधों की प्रवृत्ति की समाप्त हो गयी थी। सभी लोग मिल जुल कर कमाते-खाते, हंसते-हंसाते और सज्जनोचित सादगी अपनाकर कठोर श्रम में लगे रहते थे। इस आधार पर उस देश की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति ऐसी सुदृढ़ और समुन्नत रही कि सर्वत्र उसे आदर्श माना और सराहा जाता था। प्राचीन काल की भारतीय वानप्रस्थ परम्परा का यह एक आधुनिक संस्करण था। समय से उसे भी लड़खड़ा तो दिया है पर हर भावनाशील के सामने यह तथ्य प्रस्तुत है कि वे अनावश्यक व्यामोह में न बंधें, बंधन यदि थोड़े ढीले कर सकें और लोक मंगल की, युग की पुकार की ओर ध्यान दे सकें तो सर्वतोमुखी श्रेय साधन की पृष्ठभूमि बनते देर नहीं लेगेगी।
धर्म, संस्कृति और समाज की जराजीर्ण परम्पराओं के पुनर्निर्माण के लिए सारी सामग्री उपलब्ध है। ईंट, रेत, बजरी, सुर्खी, चूना, सीमेंट, लोहा, लकड़ी सब कुछ है, नींव खुदी तैयार है, गाड़ी शिल्पियों के अभाव में रुक गई। इस मिशन के लिए यह अतीव सौभाग्य की बात है कि उसे ऋषि कल्प संरक्षण, मार्गदर्शन एवं दिशा निर्देशन प्राप्त है। अपने आदर्श और सिद्धान्त महानता के उच्च शिखर पर आसीन हैं, धर्म और संस्कृति के प्राचीन आधारों को बुद्धिवाद ने लड़खड़ा दिया था उसे फिर से बुद्धि संगत और विज्ञान सम्मत ढंग से प्रस्तुत किया गया है। सांस्कृतिक परम्पराओं को प्राचीन काल के आदर्शों के अनुरूप प्रगतिशील परिवेश प्रदान किया गया है, नास्तिकतावादी, साम्यवादी सिद्धान्त भी उनके आगे नत मस्तक हो जाते हैं। प्रतिगामिता हतप्रभ हो उठी है, इधर-उधर बगलें झांक रही है। पूर्वाग्रह वश गाली देने वाली प्रतिगामिता और परम्परावादी भी भीतर-भीतर आत्म दुर्बलता अनुभव करते हैं और यह मानते हैं कि अन्ततः प्रज्ञा अभियान ही राष्ट्र को सशक्त और समर्थ बना सकता है। धर्म और संस्कृति की टूटी हुई कड़ियां यहीं जुड़ सकती हैं। अनेक मूर्धन्य विचारकों ने ऐसी घोषणाएं करके उक्त मान्यता को पुष्ट कर दिया है।
कहते हैं संत सुकरात के पास एक ‘‘डेमन’’(प्रेत) छाया की तरह रहता था। वही उनकी सेवा सहायता भी करता था तथा अदृश्य जगत के रहस्यों की जानकारी भी देता रहता था। ऐसी ही एक पितर आत्मा ‘‘जन शक्ति’’ के रूप में इस अभियान को भी उपलब्ध है। उसने समर्थन और सहयोग में रत्ती भर कमी नहीं आने दी। श्रद्धा, श्रम साधन जो कुछ भी जब भी आवश्यक हुआ उसने देकर अपनी भावभरी कृतज्ञता ज्ञापित की, कमी उन मूर्धन्य सृजन शिल्पियों भर की है जो ईंट गारे से विशाल भवन निर्मित करते हैं, समूचे तंत्र का संचालन करने में सहायक होते हैं।
रावण को मारने का श्रेय भगवान राम को दिया जाता है पर इतिहास इस बात का साक्षी है कि सुग्रीव, अंगद, हनुमान, जाम्वन्त, नल नील, शबरी, जटायु, गिलहरी जैसी देव-आत्माओं के सहयोग से इतना बड़ा कार्य सम्भव हो सका था। गौतम बुद्ध को कुमारजीव, आनन्द, अम्बपाली, महेन्द्र और संघमित्रा जैसी मूर्धन्य आत्माएं मिली नहीं होतीं तो बुद्ध धर्म को समूचे एशिया में विस्तार का पुण्य सुयोग मिल नहीं पाता। संचालन सूत्र एक हाथ में रहने पर ही कोई भी अभियान मूर्धन्य आत्माओं, वरिष्ठ सहयोग से ही सफल हो सकी है। स्वाधीनता संग्राम की बागडोर गांधीजी के हाथ थी, पर उसे सफलता तक पहुंचाने में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधा कृष्ण, राजगोपालाचार्य, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल, अब्दुल कलाम आजाद सहायक बने थे।
प्रज्ञा अभियान में वरिष्ठों की कमी नहीं है पर वे सब व्यामोह की जड़ता में जकड़ी पड़ी हैं, मलाई तक से सतह में आने से कतरा रही है, हीरे को जमीन में गड़े रहने में भलाई दीख रही है जबकि उसे राज मुकुट में शोभायमान होना चाहिए था। वाराह भगवान की तरह देवात्माओं की यह जड़ता ही बाधक सिद्ध हो रही है अन्यथा इतने सुदृढ़ आधार वाला प्रज्ञा अभियान सारे विश्व की जड़ता मिटा देने में समर्थ हो गया। किसी भी तरह उन वाराहों के न तो पेट फटते हैं और न वे श्रेय पथ पर आगे आने की कल्पना करते हैं। यह अवरोध दूर हो पाता तो प्रज्ञा अभियान कुछ ही समय में कुछ से कुछ कर गुजरता।
आवश्यक हो गया है कि मनस्वी युग धर्म के लिए समय निकालें। जिनके पास संचित पूंजी है अथवा जमीन, मकान, जेवल आदि बेच कर पूंजी खड़ी की जा सकती है, वे उसके ब्याज से काम चलायें। परिवार में अन्य कमाने वाले हों अथवा अपनी पेन्शन आदि के आधार पर गुजारे की व्यवस्था हो वे उस आधार पर आगे आयें। पर जिनके पास वैसा नहीं है या कम है उनके लिए निर्वाह व्यवस्था जुटाने में शान्तिकुंज भी कुछ सहायता कर सकता है। जिनकी बहुत बड़ी गृहस्थी है, बच्चे ब्याह शादी के लायक हैं और खर्च सैकड़ों हजारों रुपये महीने का है, उनका भार उठा सकना तो मिशन के बलबूते की बात नहीं है। पर जिनकी छोटी गृहस्थी है और कम खर्च में काम चलाने का अभ्यास है उनका निर्वाह प्रबन्ध आसानी से हो सकता है। कुछ घर की, कुछ संस्था की मिलीजुली व्यवस्था भी हो सकती है। अपनी व्यवस्था में जितना कम पड़े उतना मिशन से मिल सकता है। जिनके पास कुछ भी नहीं है किन्तु परिवार छोटा है उनके पूरे खर्च की व्यवस्था भी हो सकती है किन्तु शर्त यही है कि निर्वाह व्यय औसत भारतीय स्तर का तथा ब्राह्मणोचित होना चाहिए।
इन दिनों तीर्थ परम्परा के पुनर्जीवन का अभिनव प्रयास पूरे उत्साह के साथ चला है। देश के कोने-कोने में जन जागरण की योजना बनी है। युग निर्माण चित्र प्रदर्शनी के साथ संगीत मण्डलियों के जत्थे जीप गाड़ियों में अपनी प्रचार सामग्री लेकर प्रव्रज्या पर निकले हैं। रास्ते में मिलने वाले राहगीरों से सम्पर्क साध कर युग चेतना के तूफानी प्रवाह से अवगत कराते हैं। मार्ग में पड़ने वाले गांवों की दीवारों पर आदर्श भरी प्रेरणाओं के वाक्य लिखते हैं। रात्रि को निर्धारित विराम पर पहुंचते हैं। वहां दो दिन का कार्यक्रम रहता है। सामूहिक जप, गायत्री यज्ञ, प्रज्ञा पुराण कथा, जागृति कीर्तन, रात्रि का प्रज्ञा आयोजन, संगीत, प्रवचन का कार्यक्रम रहता है। विचारशील धर्म प्रेमियों की मध्याह्न में विचार गोष्ठी होती है। नव स्थापित स्वाध्याय मण्डलों का उद्घाटन भी इसी अवसर पर विधि पूर्वक धार्मिक कर्म काण्डों के साथ सम्पन्न कर दिया जाता है। जहां भी यह जत्थे विराम लेते हैं, वहां नव चेतना का संचार होता है और अनेकों अनुप्राणित लोग सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रमों में जुट जाते हैं। दस जीप गाड़ियों में पांच-पांच प्रचारकों के परिव्राजक जत्थे इन दिनों युग चेतना का अलख जगाने में निरत हैं। इन्हें सुगम संगीत की शिक्षा दी गयी है। ताकि उस आधार पर लोक रंजन के साथ लोक मंगल का दुहरा प्रयोजन पुरा हो सके। शिक्षित अशिक्षित, बाल वृद्ध सभी इस आधार पर बड़े चाव पूर्वक युग परिवर्तन में प्रज्ञा अभियान की भूमिका एवम् रूपरेखा समझ सकने में समर्थ होते हैं।
अभी यह प्रक्रिया और भी अधिक बढ़ाई जानी है। प्रचारक जत्थों की और भी अधिक आवश्यकता पड़ेगी। समय दानियों को इस प्रयोजन के लिए प्रवास पर निकलने के लिए तीर्थ जत्थों में सम्मिलित होकर देश व्यापी परिभ्रमण पर निकलने के लिए उत्साहित किया जा रहा है। जिन्हें संगीत नहीं आता उनका कण्ठ यदि सुरीला है तो कुछ समय में उसका अभ्यास करा दिया जाता है। जिन्हें पहले से ही कुछ आता है उन्हें और भी अधिक सरलता पड़ती है। जिन्हें संगीत का थोड़ा सा अभ्यास है उन्हें स्थायी रूप से कार्य के लिए शान्तिकुंज में निवास करने के लिए आ बसने का निमंत्रण भेजा गया है। छोटे कुटुम्ब वालों की निर्वाह व्यवस्था भी यहां भली प्रकार बन जाती है। अड़चने उन्हीं के सम्बन्ध में पड़ती है जिनके कुटुम्ब बड़े या खर्च अधिक है।
समय दानियों के लिए कुछ कार्य शान्तिकुंज में रहकर करने के भी हैं। जैसे साहित्य सृजन में योगदान, अध्यापन, पत्र व्यवहार, अतिथियों का स्वागत सत्कार, परामर्श एवम् विचार विनियम, उद्यान तथा सफाई चौकीदारी आदि का श्रम दान। सेवा भावी, अनुशासन प्रिय एवम् परिश्रमी प्रकृति के व्यक्तियों के लिए इन कार्यों में से किसी में अपनी योग्यतानुसार काम करने के लिए हरिद्वार भी आमंत्रित किया गया है। यहां के वातावरण में रहकर अनगढ़ भी अपने आपको सुसंस्कारी बनाते चलते हैं और यहां के निवास के साथ जुड़ी हुई सुख-शान्ति एवं प्रगति से लाभान्वित होकर अपने को कृत-कृत्य मानते हैं। प्रवास पर निकलना या शान्तिकुंज रहना यह समय दानियों की परिस्थिति एवं मिशन की आवश्यकता के साथ ताल-मेल बिठाकर किया जाता है। देश भर में बन चुकी और बन रही प्रज्ञापीठों में रहकर भी उन क्षेत्रों को पंचसूत्री योजना के आधार पर प्राण संचार करना भी इतना महत्वपूर्ण कार्य है। इनके लिए भी बड़ी संख्या में परिव्राजकों की समय दानियों की इन दिनों आवश्यकता पड़ रही है।
विलासिता और आलस्य प्रमाद भरे जीवन के अभ्यस्तों का जीवनदान तो पहाड़ जैसा भारी पड़ जाता है। ऐसों का परामर्श का नशा कुछ ही दिनों में ठंडा पड़ जाता है फिर न आगे बढ़ पाते हैं और न ही पीछे लौट पाते हैं। अस्तु युग धर्म की पुकार के निमित्त उन्हें सेवा साधना में निरत होने की उमंग उठे उन्हें दो बातें सोचनी चाहिए एक यह कि घर परिवार की व्यवस्था चलाते हुए समीपवर्ती क्षेत्र में ही अधिकाधिक समय नियमित रूप से दें और एक क्षेत्र में ही चेतना उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व उठायें। दूसरी यह कि पूरा समय दें, व्यापक क्षेत्र में बादलों की तरह बरसे, सूर्य चंद्रमा की तरह प्रव्रज्या करते हुए सुदूर क्षेत्रों में आलोक वितरण के लिए चल पड़े। कुछ की शान्तिकुंज की स्थानीय व्यवस्था में भी आवश्यकता हो सकती है पर प्रमुख आवश्यकता जन सम्पर्क की ही है।
प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत अनेकानेक कार्यक्रम सामने हैं। बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रान्ति के अन्तर्गत व्यक्ति परिवार और समाज निर्माण योजना के अन्तर्गत अनेकानेक कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये हैं उनमें से अपनी योग्यता और रुचि का कार्य कोई भी चुन सकता है। स्वाध्याय, सत्संग और संगठन और बौद्ध काल जैसी अनिवार्य आवश्यकताएं अभी भी पूरी करने को पड़ी हैं और उनके लिए ज्ञानरथ, स्लाइड प्रोजेक्टर, जन्म दिवसोत्सव, आदर्श वाक्य लेखन आदि ढेरों काम तत्काल हाथ में लिए जाने हैं ताकि सेवा साधना के माध्यम से जन सम्पर्क सधे और बदले में समर्थन सहयोग बरसे। इतनी सफलता मिलते ही सहयोगी जन शक्ति के सहारे निरक्षरता, निर्धनता, पिछड़ापन, रुग्णता, अन्ध परम्परा, अवांछनीयता, अनैतिकता, उद्दण्डता जैसी अनेकों दुष्प्रवृत्तियों से जूझ पड़ना, उखाड़ फेंकना संभव हो सकता है। साथ ही सहकारिता, स्वच्छता, सुव्यवस्था, सज्जनता, श्रमशीलता, दूरदर्शिता जैसी सत्प्रवृत्तियों का जीवन में समावेश करने के लिए साहित्य, कला, शिक्षा जैसे प्रशिक्षण परक और उपयोग उद्योगों के रूप में रचनात्मक और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के लिए संघर्षात्मक कदम उठाये जा सकते हैं। अधिक समय देने वाले वानप्रस्थों की तरह, कम समय देने वाले परिव्राजक भी अपनी छोटी बड़ी श्रद्धांजलियां प्रस्तुत कर सकते हैं। समयदानियों के निर्वाह शिक्षण व मार्ग व्यय आदि में भी अगले दिनों ढेरों खर्च बढ़ने वाला है। समय के बदले या साथ साथ अंशदान देकर भी नव सृजन के यज्ञ में उदार चेता अपनी-अपनी श्रद्धांजलियां दे सकते हैं।
लोक मानस के परिष्कार, युगान्तरीय चेतना के आलोक वितरण की यही प्रमुख प्रक्रिया है। जिन्हें भी इन दिनों युग सृजन में संलग्न होना हो उन्हें उपरोक्त दृष्टिकोण से सोचना और दूरदर्शिता भरा कार्यक्रम अपनाना चाहिए। ऐसे उदारमना दूरदर्शी शान्तिकुंज से सम्पर्क साधें और अपनी भावी दिशा धारा के सम्बन्ध में विचार विनिमय के उपरान्त किसी सुनिश्चित निष्कर्ष पर पहुंचे।
लालच, व्यामोह और दर्प से भरा हुआ यह मार्ग अपनाने पर भी कौन कितना सफल हो पाया यह कहना कठिन है। हजारों में से किसी एक का राई रत्ती मनोरथ पूरा होता है शेष तो हाथ मलते, रोना रोते झक-मारते और दुसह दुःख सहते ही मौत के दिन पूरे करते हैं। दृष्टि पसार कर चारों ओर देखा जा सकता है। लिप्सा और कुत्सा से ग्रस्त लोगों की ही सर्वत्र भरमार है। उनकी दुर्गति देखते ही बनती है। आटे के लालच में जान गंवाने वाली मछली दाने के लोभ में गर्दन कटाने वाले पक्षी, चासनी में पंख लपेट कर बेमौत मरने वाली मक्खी जैसी दुर्दशा सहन करते ही यह सम्प्रदाय देखा जाता है। यही है भव बन्धनों के निविड़ जाल जंजाल में जकड़ा सम्प्रदाय जो आशा तृष्णा तो पहाड़ की तरह संजोये रहता है, पर सब कुछ गंवा बैठने पर भी हाथ में निराशा, थकान खीज और दुर्गति के अतिरिक्त और कुछ पड़ता नहीं। जिन्हें दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाना न हो, अपना निज का प्रयोग परीक्षण नये सिरे से करना हो वे खुशी खुशी गर्त में गिरने और सिर धुन-धुन कर पछताने की राह अपनायें। दुराग्रही उन्मादी किसी की सुनते भी कब हैं। जिन्हें न स्वयं सूझता है और न जिन्हें दूरदर्शियों के परामर्श पर विश्वास, उनके लिए कोई करे भी तो क्या करे? सोचे भी तो क्या सोचे। जिन्हें आत्म हत्या ही अभीष्ट है वे विज्ञजनों का आग्रह अनुरोध भी कहां मानते हैं। दुर्गति ही उन्हें सिखा पढ़ा सकती है। खेद इस बात का है कि जब तक पुनर्विचार की सूझ उगती है जब तक हाट उठ चुकी होती है, बिस्तर बंध चुके होते हैं।
दूसरा अल्प संख्यकों का एक और समुदाय है। जिन्हें लोक परलोक सूझता है, ईमान भगवान पर भरोसा रहता है, जो सुर दुर्लभ जीवन संपदा का मूल्यांकन करते हैं भविष्य के सम्बन्ध में सही सोच सकने की क्षमता जिनमें होती है ऐसे लोग होते तो थोड़े ही हैं पर उन्हें ही नर रत्न कहना चाहिए। ऐसे ही विचारशील उदारमना लोगों के ऊपर धरती टिकी है। शेष तो नर पामरों की तरह आतंक मचाते और नर वानरों की तरह निरर्थक उचक मचक करते हुए समय गंवाते हैं। मनुष्य जन्म ईश्वर का अनुपम अनुदान है। इसमें चौरासी के चक्र व्यूह से निकलने, भव बन्धनों से उबरने, पूर्णता का लक्ष्य पाने और परमार्थ प्रयोजनों द्वारा आत्म सन्तोष एवम् लोक सम्मान का उल्लास आनन्द उपलब्ध कर सकने की पूरी-पूरी सुविधा है। महामानवों का विवेक इसी तथ्य को सुझाता है। जिनके अन्तःकरण में मानवी गरिमा जीवन्त है उनका साहस अन्धी भेड़ों के समुदाय से अलग हटकर स्वतन्त्र चिन्तन अपनाने और आदर्शों के मृग पर एकाकी चल पड़ने का पराक्रम प्रदान करता है। यही हैं वे महा मानव, भूदेव, नर-नारायण जो स्वयं पार होते दूसरों को पार करते हैं। मूढ़मति कहती है कि बीजारोपण में जो किया और लगाया जाता है उसमें घाटा है। दूरदर्शिता कहती है उसमें हजारों गुना अधिक पाने की सुनिश्चित सम्भावना है। बीज न बोकर उसे खाने वालों की कमी नहीं, पर किसान, माली, विद्यार्थी, व्यवसायी सभी जानते हैं कि सत्प्रयोजनों के लिए आरम्भ में कोई हानि नहीं है। परमार्थ पथ ऐसा ही है जिस पर कोई विरले विवेकवान ही एकाकी पराक्रम के सहारे चल पड़ने का निश्चय करते हैं। यही हैं जिनका इतिहास ऋणी रहता है, यही हैं जिनके पद चिन्हों पर चलकर अनेकों महान बनते हैं। यही हैं जिन पर आत्मा का आशीर्वाद और परमात्मा का वरदान अहिर्निश बरसता है। सच्चे अर्थों में इन्हें ही बुद्धिमान कहना चाहिए। शेष की दुर्मति तो उन्हें अपराधी, आततायियों, लालची मोहान्धों की श्रेणी में ही ला खड़ी करती है। खोया-पाया का हिसाब लगाने पर कोई गणितज्ञ जब बैठता है तो देखता है कि कुच कृत्यों ने कुछ पाया नहीं और उदात्तों ने कुछ गंवाया नहीं। सच तो यह है कि कुछ ही समय की अग्नि परीक्षा में गुजरने के उपरान्त आदर्श अपनाने वाले ही नफे में रहते हैं। वे परलोक ही नहीं बनाते लौकिक क्षेत्रों में भी मूर्धन्य स्तर तक पहुंचते हैं। वैभव उनके चरणों पर लोटता है यह दूसरी बात है कि वे उस उपलब्धि को स्वयं न खाकर दूसरों को खिलायें और बदले में इतना पायें जितने पर जीवन को हर दृष्टि से सफल सार्थक कहा जा सके।
प्रज्ञा परिवार की जागृत आत्माओं की युग संधि के इस प्रभात पर्व पर तन्द्रा छोड़ने और विवेकवानों जैसी जागरूकता अपनाने के लिए आग्रह अनुरोध किया गया है वे समय का महत्व समझें। अपनी विशिष्टता और गरिमा का अनुभव करें। अन्धी भेड़ों का अनुकरण कर करें, दृष्टिकोण, साहस और पराक्रम को युग निमन्त्रण के साथ जोड़ें। ईमान और भगवान के परामर्श को पर्याप्त मानें और युग धर्म के अनुरूप अपनी दिशा धारा का स्वयं निर्णय करें। भावी रीति नीति का स्वयं निर्णय करें और प्रवाह प्रचलन की परवाह न करते हुए तथा कथित हितैषियों की मोहान्धता की उपेक्षा करते हुए उस मार्ग पर चल पड़ें जिस पर इस आपत्ति काल में भावनाशीलों को चलना ही चाहिए। प्रस्तुत विभीषिकाओं से जूझने और उज्ज्वल भविष्य के अभिनव सृजन में जुट पड़ने का ठीक यही समय है। इन दिनों लालच और व्यामोह को आड़े नहीं आने देना चाहिए। सोचने का तरीका भर बदलने से वे सभी समस्याएं चुटकी बजाते सुलझ जाती हैं जिनके बहाने युग निमन्त्रण को स्वीकार कर सकने की विवशता व्यक्ति की जा रहती है। समस्या निर्वाह नहीं, संकट महत्वकांक्षाएं उपस्थित करती है। निर्वाह में सन्तोष अपनाया जा सके और महत्वाकांक्षाओं को युग धर्म के साथ नियोजित करने की बात सोची जाय तो इस सन्दर्भ में किसी की समस्या न उलझी रही, न रहेगी, एक भी अड़चन अड़ी न रहेगी।
बैलों, भैंसों आदि जानवरों के पेट बड़े और भरने के साधन छोटे होते हैं पर मनुष्य को बीस उंगलियों वाले हाथ, साथ ही बुद्धि क्षेत्र के अनेकानेक कौशल, ऐसे हैं जो छः इंच गहराई के पेट को कुछ ही मिनटों में परिश्रम से भर सकते हैं। परिवार तो एक सहकारी संस्था है। उसे घर के सभी सदस्य मिल-जुलकर चलायें और सद्गुणों के अभ्यास की, व्यक्तित्व के विकास की, पाठशाला समझें तो उनमें से कोई किसी के लिए भार न बने। हंसते-हंसाते हलकी-फुलकी गाड़ी अपनी सड़क पर सरपट चाल से दौड़े। कठिनाई तब पड़ती है, जब मनुष्य लालची, विलासी और संग्रही बनकर कुबेर की सम्पदा समेटने और इन्द्र का वैभव भोगने के लिए आतुर होता है। इसी ललक में उसे व्यस्त, उद्विग्न एवं अनैतिक स्वार्थी जीवन जीना पड़ता है। यही बात परिवार के सम्बन्ध में भी है। सदस्यों की संख्या बढ़ाने, उनकी कुरुचि भड़काने तथा मनचाहे उपहार देकर प्रसन्न करने की वितृष्णा में वह समूचा समुदाय कुसंस्कारी बन जाता है। स्वयं दुःख पाता, संचालक को उसकी पथ भ्रष्टता का दंड देता है। यदि इस अदूरदर्शिता से बचा जा सके तो परिवार निर्वाह का ढर्रा तो शान्तिपूर्वक चले ही, साथ ही मनुष्य को इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भी अवसर मिले, जिसके लिए अमानत एवं परीक्षा के रूप में यह अनुदान मिला है। मनुष्य जन्म सृष्टा की उच्चस्तरीय अमानत है। जो किसी को नहीं मिला, ऐसा सुर दुर्लभ जीवन किसी पक्षपात या सनक मौज से प्रेरित होकर नहीं दिया गया वरन् इसलिए मिला है कि इस अद्भुत समर्थता के सहारे वह सृष्टा के व्यवस्था क्रम में हाथ बटाये। इस विश्व उद्यान को समुन्नत, सुव्यवस्थित, सुसंस्कृत बनाये रखने में कंधा लगाये। इस निर्धारण में जहां सृष्टा का बोझ हल्का होता है वहां मनुष्य को भी युवराज की भूमिका निभाते हुए महामानवों, ऋषि, देवात्मा स्तर की प्रगति करते हुए पूर्णता के लक्ष्य तक जा पहुंचने का अवसर मिले।
हर विवेकशील का कर्त्तव्य है कि इस सुर दुर्लभ सुयोग का श्रेष्ठतम उपयोग करने की बात सोचे। बदले में आत्मसंतोष, लोक सम्मान और ईश्वरीय अनुग्रह का तिहरा लाभ हाथों हाथ प्राप्त करे। पेट और प्रजनन की पशु प्रवृत्तियों के लिए इस सौभाग्य को कौड़ी मोल गंवा देना मानवी गरिमा के अनुरूप नहीं बैठता। उसे लोभ, मोह की हथकड़ी, बेड़ी पहन कर अपने आपे को स्वयं ही भव बन्धनों से नहीं जकड़ना चाहिए। स्वयं पार होने और दूसरों को पार करने की सुविधा को लात मारकर उस प्रवाह में नहीं बहना चाहिए जिसमें कि बहुसंख्यक नर-पामर, नर-वानर, अदूरदर्शिता के मार्ग पर चलते और दुर्गति के गर्त में गिनते रहते हैं। प्रत्येक विवेकशील को अपना रास्ता आप निर्धारित करना चाहिए। उत्कृष्टता अपनानी है तो सूर्य, चन्द्र की तरह साहस पूर्वक एकाकी चलना चाहिए इसमें ईमान और भगवान, दो का परामर्श प्रोत्साहन पर्याप्त है। लोग तो लोग ही हैं। वे हेय स्तर के दृष्टिकोण और क्रिया कलाप के अभ्यस्त रहे हैं। उनसे वैसा ही परामर्श बन पड़ेगा। आदर्शवाद अपनाने पर जो उपलब्धियां हस्तगत होती हैं वे उनने कभी प्रत्यक्ष देखी नहीं। ऐसी दशा में वे उत्कृष्टता अपनाने पर उपहास असहयोग, विरोध की कर सकते हैं। तथाकथित स्वजन सम्बन्धियों का प्रोत्साहन उत्कृष्टता की नीति अपनाने के लिए इन दिनों प्रायः किसी को भी नहीं मिलता। जन्म अकेले लिया। चिता पर भी अकेले ही सोना है। शौच, स्नान, भोजन, शयन भी अकेले ही करना पड़ता है। जीवन को सार्थक बनाने वाले शिखर पर चढ़ने के लिए भी अपने ही पैरों का सहारा लेना पड़ता है। इससे कम में बात बनती ही नहीं। स्वार्थ के साथ परमार्थ भी अविच्छिन्न रूप से जुड़ना चाहिए। शारीरिक हित स्वार्थ में है और आत्म कल्याण परमार्थ में। इन दोनों में से एक भी ऐसा नहीं जिसकी उपेक्षा की जाय।
भारत की देव संस्कृति ने हर सोपान में मनुष्य को एक ही शिक्षा दी है कि वह लोभ, मोह, विलास और अहंकार के भव बन्धन शिथिल करे। आदर्शों के समुच्चय समष्टि रूपी विराट भगवान को प्राप्त करने का परम पुरुषार्थ अपनाये। परिवार को छोटा रखे। स्वावलम्बी, सुसंस्कारी भर बनाने का उत्तरदायित्व निभाये। कुटुम्बियों पर वैभव लुटाने की दुर्बुद्धि न अपनाये। बहुसंख्यक प्रपंचियों से अपना रास्ता अलग बनाये और आत्मा और परमात्मा को प्रसन्न करने पर मिलने वाले सत्परिणाम का महत्व समझे। जो ऐसा कर सकेगा वह इसी जीवन में अपने को आत्म प्रवंचना के भव बन्धनों से मुक्त अनुभव करेगा। उच्चस्तरीय दृष्टिकोण अपनाना और तदनुरूप जीवनचर्या बनाना कितना सुखद, कितना आनन्ददायक और मंगलमय है इसको कोई भी अनुभव कर सकता है। इसी मनःस्थिति को स्वर्ग कहा गया है। व्यवहार में से पशु प्रवृत्तियों को हटा लेना ही मुक्ति है। परमपुरुषार्थ इसी को कहा गया है। अध्यात्म भाषा में इसी को आत्मा और परमात्मा की प्राप्ति, लक्ष्य की उपलब्धि कहते हैं। इस स्तर तक पहुंचना ही भारत की देव संस्कृति के तत्व दर्शन का आधार भूत उद्देश्य है।
व्यक्तित्व ही मनुष्य की वास्तविक गरिमा और सम्पदा है। उसे हेय स्तर से उठाकर गौरवान्वित बनाने के लिए सद्गुणों की विभूतियां चाहिए। उन्हें अर्जित कर सकना एकाकी रहकर सम्भव नहीं हो सकता। दूसरे के साथ उदार सद्भावना पूर्ण व्यवहार का अभ्यास करने के माध्यम से ही आत्मिक उत्कर्ष बन पड़ता है। पूजा पाठ उन्हीं प्रसुप्त सत्प्रवृत्तियों को जगाने के लिए किया जाता है।
संसार के समस्त महामानवों में से प्रत्येक की अनिवार्यतः सेवा धर्म अपनाना पड़ा है और अपनी आन्तरिक वरिष्ठता का परिचय लोक-साधना की परमार्थ परायणता के रूप में देना पड़ा है। साधु ब्राह्मण, वानप्रस्थ, देशभक्त, विश्व विभूति, ऋषि मनीषी, इसी ढांचे में अपने ढंग से जीवनचर्या ढालते रहे हैं। यह शाश्वत सत्य अभी भी यथावत है और अनादि काल की तरह अनन्त काल तक चलता रहेगा। जिसे भी आत्मिक दृष्टि से ऊंचा उठना है उसे सेवा साधना के लिए समयदान अंशदान निकालना ही पड़ेगा। जो आप ही कमाता और आप ही खाता है वह चोर है। इस आप्त-वचन में मानवी सत्ता को विकसित करने वाले आधारभूत तथ्य का समावेश है।
सेवा को योग, तप, व्रत, धर्म, पुण्य आदि किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है। आत्मा और परमात्मा को प्राप्त करने का, इस लोक में श्रेय और सन्तोष पाने का यही सुनिश्चित राजमार्ग है। इस पर चलने वाले को भौतिक आवश्यकताओं और महत्वाकांक्षाओं में कटौती करके समय और साधनों की बचत करनी पड़ती है। उसी को परमार्थ में लगाया जा सकता है। जिनकी अपनी लिप्सा, लालसा जितनी बढ़ी-चढ़ी है उन्हें उसी अनुपात से तृष्णा घेरे रहेगी। फलतः परमार्थ के लिए न समय बचेगा, न मन, न धन। ऐसी दशा में निरर्थक कल्पनाएं ही की जा सकती हैं। सार्थक सेवाधर्म अपनाने में तो समय और मन ही नहीं अपने साधन भी लगाने पड़ते हैं। यह पहला, बचत कटौती वाला कदम बढ़े तो ही परमार्थ कर सकने का दूसरा चरण प्रगति पथ पर उठे।
पशु पक्षियों के बालक थोड़े दिन तक ही अपनी माता का सहयोग लेने के उपरान्त अपना गुजारा आप करने लगते हैं। पर मनुष्यों के कमाऊ बनने, योग्य आयु आने तक- अभिभावकों पर आश्रित रहना पड़ता है। आरम्भिक दिनों में तो वह करवट बदलने और दूध तलाश करने तक की स्थिति में नहीं होता। आरम्भ में अभिभावकों, भविष्य में आजीविका, अन्न, वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा आदि के लिए दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। सुयोग्य पत्नी ससुराल वालों के अनुग्रह से ही मिलती है। भाषा, अनुभव, कला, साहित्य आदि के क्षेत्रों में समाज के अनुदानों से ही अनेकानेक उपलब्धियां मिलती हैं। वे न मिलें तो रामू भेड़िये अथवा वन मानुषों की तरह पिछड़ा जीवन जीना पड़े। मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज ऋण से ही वह स्वावलम्बी एवं प्रगतिशील कहलाने की स्थिति तक पहुंचता है। ऐसी दशा में उसके लिए आवश्यक ही जाता है कि समाज ऋण चुकाये। निर्वाह जुटाने के अतिरिक्त समाजगत प्रगति के लिए, सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए, बढ़-चढ़ कर योगदान दे। और ऋण मुक्ति का कर्त्तव्य निवाहे। पारस्परिक आदान-प्रदान की दृष्टि से जो लोक सेवा करते हैं वे लोक सम्मान और जन सहयोग पाते तथा बहुमुखी प्रगति पथ पर अग्रसर होते हैं। जो नितान्त स्वार्थरत रहते हैं, वे अपनी क्षमता का स्वयं भर के लिए लाभ लेते रहने की सुविधा तो पाते हैं, किन्तु अन्यान्यों की मैत्री, सद्भावना से बुरी तरह से वंचित रहते हैं। इसलिए स्वार्थ में लाभ कम और घाटा अधिक रहता है। दूरदर्शी सत्परिणाम उत्पन्न करने वाले स्वार्थ को ही परमार्थ कहते हैं।
सेवा धर्म अपना कर सच्चे अर्थों में सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर चलने की बात उनके गले उतरे उन्हें इस सन्दर्भ में दूसरा चिन्तन यह करना चाहिए कि पुण्य परमार्थ के लिए कौन सा क्षेत्र चुने? क्षेत्र दो ही हैं। एक शरीरगत भौतिक। दूसरा आत्मा से सम्बन्धित, प्रेरणा स्तर का। लोगों की असुविधा हटाने के लिए साधनों का दान किया जाता है। अन्न, वस्त्र, औषधि की सहायता करके अभाव ग्रस्तों एवं कष्ट पीड़ितों की सहायता की जाती है। यह समय धर्म है। विपत्ति काल में असमर्थों के लिए ही इस प्रकार के दया का उपयोग किया जाता है। अनाधिकारियों के लिए साधन सुविधा प्रस्तुत करने से ही उलटा अनाचार फैलता है। भिक्षा व्यवसाय बनता है और कुपात्र उससे लाभ उठाकर अधिक आलसी एवं दुर्व्यसनी बनते हैं इसलिए कष्ट पीड़ितों को स्वावलम्बी बनाने तक सहायता पहुंचाना उचित है और आवश्यक भी। किन्तु ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि मात्र इतने भर में सेवा की परिधि समाप्त हो जाती है। चींटियों को आटा, पक्षियों को दाना, पशुओं को चारा देकर तात्कालिक सन्तोष तो मिल सकता है पर इससे किसी का कोई स्थाई समाधान नहीं होता। मनुष्यों में से अधिकांश का पतन पराभव उनके अचिन्त्य चिन्तन के कारण होता है। आन्तरिक निकृष्टता ही समस्त समस्याओं और विपत्तियों की जन्म दात्री है। उसके रहते कोई कभी चैन से न बैठ सकेगा। भले ही उसे स्वर्ण मुद्राओं से क्यों न लाद दिया जाय। इसलिए समस्याओं का आत्मिक समाधान करने वाली, व्यक्तित्व को ऊंचा उठाने वाली दानशीलता एक ही है कि व्यक्ति के चिन्तन में उत्कृष्टता, चरित्र में आदर्शवादिता एवं व्यवहार में सज्जनता, सुसंस्कारिता का समावेश किया जाय। इसी में किसी की वास्तविक सेवा है। विपत्तियों का स्थाई निवारण इस उपचार के बिना और किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। उज्ज्वल भविष्य की सम्भावना का एक मात्र निर्धारण इतना ही है कि किसी की आस्थाओं, विचारणाओं, आदतों एवं गतिविधियों में उच्चस्तरीय परिवर्तन सम्भव किया जाय, यही सर्वोपरि सेवा है। दोनों में सर्वोपरि दान ब्रह्मदान है। ब्रह्मदान अर्थात् सद्ज्ञान दान। प्रज्ञा अभियान द्वारा जागृत आत्माओं को समय की मांग को पूरा करने, प्रस्तुत आपत्ति काल को निरस्त करने, मानवी गरिमा को जीवन्त रखने तथा स्नेह सहयोग का सतयुग वापिस लाने के लिए सब काम छोड़कर इसी युग धर्म के निर्वाह में जुट पड़ने का अनुरोध किया है। आज की सेवा साधना इसी एक केन्द्र पर आधारित समझी जा सकती है।
इन दिनों आस्था संकट से जूझने और लोक मानस का परिष्कृत निर्माण करने के लिए प्रबुद्ध प्रतिभाओं की असाधारण आवश्यकता पड़ रही है। जागृत आत्माओं को बहुत आगा पीछा सोचे बिना नव सृजेताओं की अग्रिम पंक्ति में खड़ा होना चाहिए और प्रज्ञा अभियान के सुनियोजित, सुगठित कार्यक्रमों में सम्मिलित होकर उन प्रयासों में जुट पड़ना चाहिए, जिन पर व्यक्ति और समाज का भविष्य पूरी तरह आधारित है। किसे क्या करना है? कहां रहना है? इस बात का निर्णय पीछे होता रहेगा। बात अपने समयदान की सोचनी चाहिए। एकाकी कार्यक्रम सोचने, अलग योजना बनाने से काम नहीं चलेगा। अपनी ढपली अपनी राग बजाने से बात बनती नहीं, न ढाई चावल की खिचड़ी पकती है और न डेढ़ ईंट की मस्जिद खड़ी होती है। स्वयं संस्थापक, संचालक बनने का श्रेय लूटने की लिप्सा में कितनों ने ही अपने चित्र विचित्र अड़ंगे सोचे और धन तथा श्रम गंवाकर बुरी तरह पछताये। विवेकवान ऐसी भूल नहीं करते। वे योजना बनाने का काम अनुभवी शक्तिशालियों पर छोड़ते हैं और हनुमान, अंगद, अर्जुन, भीम की भूमिका निभाते हुए अनुशासन पालते और कृतकृत्य होते हैं। इन दिनों भी यही श्रेयस्कर है। बड़े काम, बड़े संगठन के अन्तर्गत रहकर बड़ी योजनाओं के अंग बनकर ही सम्भव हो सकते हैं। बुद्ध, गांधी, राम, कृष्ण आदि के अनुयायी एक तन्त्र के नीचे संगठित हुए और सुगठित सेना के रूप में प्रयत्नरत हुए थे। इन दिनों तो इसके अतिरिक्त और कोई चारा है ही नहीं। स्वतंत्र योजनायें बनाने में और अपना कार्यक्रम स्वयं बनाने में शक्ति का अपव्यय ही अपव्यय है। ठोस काम करना हो तो साधन सम्पन्न सेना का अनुशासन प्रिय सैनिक बनकर ही बड़ी सफलता का स्वप्न संजोना चाहिए। इसके लिए प्रज्ञा अभियान के तूफानी प्रवाह में सम्मिलित रहकर तिनके और पत्ते की तरह हलके लोग भी आकाश चूमने जैसी गरिमा उपलब्ध कर सकते हैं। इन दिनों किसी भी विचारशील को पृथकतावादी, अहमन्यता को आड़े नहीं आने देना चाहिए। जो करना है उसे बुहारी, रस्सी, दीवार की तरह छोटे घटकों के एकीकरण की नीति अपना कर ही सम्पन्न करना चाहिए। रीछ, वानरों, ग्वालबालों, सत्याग्रहियों, बौद्ध परिव्राजकों ने यही किया था। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत महान परिवर्तनों की आवश्यकता पूरी करने का और कोई उपाय है नहीं।
प्रज्ञा अभियान ने नैतिक, बौद्धिक, सामाजिक क्रान्ति के, व्यक्ति परिवार और समाज निर्माण के अगणित नियोजन खड़े किये हैं जिनमें हर योग्यता और हर स्थिति के व्यक्ति को खपने की पूरी-पूरी गुंजाइश है। कम समय देने वाले और आने ही घर रहकर समीपवर्ती क्षेत्र में अवैतनिक रूप से सेवा साधना करने वालों के लिए नव निर्माण की पंच सूत्री योजना में संलग्न होने की बात सरल भी है और साथ ही दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाली भी। सदुद्देश्य के लिए किया जाने वाला नियमित जन सम्पर्क, जन समर्थन के रूप में विकसित और जन सहयोग के रूप में फलित होता है। सृजन की पक्षधर लोक शक्ति को इसी प्रकार ढूंढ़ा, उबारा और कार्यरत किया जा सकता है। अगले दिनों सहस्रों अति महत्वपूर्ण सृजनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रम खड़े किये जाने हैं उसके लिए विशाल परिणाम में श्रद्धा, साहस, श्रम एवं साधनों की विपुल आवश्यकता पड़ेगी। इसे जुटाने के लिए जिस प्रबुद्ध जन शक्ति का संयोजन आवश्यक है उसे प्रज्ञा अभियान की पंच सूत्री योजना द्वारा जिस प्रकार सुनियोजित ढंग से पूरा किया जा सकता है वैसा अन्य किसी प्रकार कदाचित ही संभव हो सके। अस्तु जिनके अन्तराल में समय की मांग के अनुरूप सेवा साधना की उमंग उठे उन्हें परमार्थ प्रयोजन के लिए लग सकने वाला समय उसी पुण्य प्रक्रिया में जुटा देना चाहिए। घर रहकर समीपवर्ती क्षेत्र में उपयुक्त लोक मंगल की यही सर्वोत्तम प्रक्रिया है।
जिनके अन्तःकरण में इस दिशा में कुछ उल्लेखनीय भूमिका निभाने की उमंग हो उन्हें एकबार शान्तिकुंज, हरिद्वार पहुंचने की बात सोचना चाहिए। देश-विदेश में अगणित कार्यक्रम ऐसे हैं जिसमें हर योग्यता के निष्ठावान लोगों को लगाया जा सकता है। कौन किस स्तर का है इसकी जांच पड़ताल करने के बाद ऐसे परमार्थ परायणों में से प्रत्येक को लगाया जा सकता है। कठिनाई तो वे खड़े करते हैं जो अपनी मर्जी का नेतृत्व प्रधान काम चाहते हैं और हलके समझे जाने वाले काम करने में अपनी तौहीन समझते हैं। अनुशासन प्रिय सच्चे सेवा भावियों, सरल स्वभाव और परिश्रम प्रिय अभ्यास के रहते हर व्यक्ति नव सृजन की किसी न किसी प्रक्रिया में कहीं न कहीं फिट हो सकता है। इसके लिए एक महीने का परीक्षण काल नियत है। किसे क्या करना चाहिए इसका निर्धारण स्वभाव और दृष्टि को देखकर ही किया जा सकता है। इसके लिए हर पूर्ण समय दानी, वानप्रस्थ, परिव्राजक परम्परा अपनाकर भावी कार्यक्रम बनाने वालों के लिए एक महीना परीक्षा काल रखा गया है। स्थिर निर्णय इसके बिना सम्भव नहीं। संचित पशु प्रवृत्तियों, अभ्यस्त कुसंस्कारों और हेय प्रचलनों के प्रवाह में जीवन क्रम एक ऐसे ढर्रे पर घूमने लगता है, जिसकी कोल्हू के बैल से तुलना की जा सके। इस चक्र व्यूह से निकलने के लिए एकान्त चिन्तन की, कुसंस्कारों का उन्मूलन करने वाले तप साधना की तथा उज्ज्वल भविष्य के लिए योजना बद्ध निर्धारण की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रक्रिया को प्रकारान्तर से ‘महान परिवर्तन’ ‘काया कल्प’ आदि नामों से पुकारा जाता है। द्विजत्व भी इसी को कहा गया है। इस प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए शास्त्रकारों ने तीर्थों के प्राणवान वातावरण में कुछ समय निवास करने की आवश्यकता पर बहुत जोर दिया है। तथ्यतः तीर्थ सेवन सेनीटोरियम में भर्ती होकर रुग्णता का उपचार और आरोग्य संवर्धन का दूसरा लाभ लेने जैसा निर्धारण है। शान्तिकुंज की सत्र साधनाएं अपने समय की सर्वोपरि तीर्थ साधना है।
साधना का एक महत्वपूर्ण पक्ष है अन्तः मन्थन और भविष्य निर्धारण। तीर्थ सेवन की अवधि में यह प्रक्रिया परिपूर्ण भाव से श्रद्धा के साथ चलनी चाहिए। अभ्यस्त ढर्रे में इतना हेर फेर किया जाना चाहिए और सोचा जाना चाहिए कि जीवन नीति में मात्र स्वार्थ सब कुछ न रहे वरन् परमार्थ को भी स्थान मिले। हर किसी को भगवान ने समय और विचार की दो शक्तियां समान रूप से प्रदान की हैं। इस दृष्टि से कोई भी निर्धन नहीं। धन अपने निजी पुरुषार्थ का प्रतिफल है। वह न्यूनाधिक हो सकता है फिर भी इतनी गुंजायश तो रहती है कि अपनी रोटी में से एक टुकड़ा ईश्वरीय प्रयोजनों के निमित्त, अंशदान के रूप में निकाला जा सके। इस प्रकार की सन्तुलित उदारता अपनाने में मात्र अनुदारिता एवं कृपणता ही बाधक होती है। अन्तःकरण को तनिक अधिक चौड़ा किया जा सके तो उसमें परमार्थ के भगवान को भी विराजने की गुंजायश बिना किसी कठिनाई के निकल सकती है और कुछ न सही आधे से अधिक आलस्य-प्रमाद में जाने वाले समय का एक छोटा अंश उस प्रयोजन की पूर्ति में लग सकता है जिसके लिए सृष्टा ने अपनी समूची कला संजोयी और बड़ी आशा लेकर मनुष्य को जीवन सम्पदा की धरोहर सौंपी है।
रोज कुंआ खोदने, रोज पानी पीने वाले भी आठ घंटा कमाने के लिए, सात घंटा सोने के लिए, पांच घंटा अन्याय कार्यों के लिए लगाकर उपार्जन और परिवार का उत्तरदायित्व भली प्रकार निर्वाह कर सकते हैं। बीस घंटा शरीर के लिए लगाने से यदि सन्तोष हो सके तो चार घंटा युगान्तरीय चेतना का आलोक वितरण करने के लिए बिना किसी प्रकार के असमंजस में पड़े भली प्रकार निकलते रह सकते हैं। यह बात व्यस्त, निर्धन समझे जाने वाले, परिवार निर्वाह के भारी उत्तरदायित्वों वाले लोगों के लिए कही गयी है। जिनके पास अपेक्षाकृत भावना और समय की उतनी कमी नहीं है उन्हें परिव्राजक स्तर का समयदान करना चाहिए। वे अपने समय में से जितना अधिक निकाल सकें अपने समीपवर्ती क्षेत्र में भी उसे सेवा साधना के लिए नियोजित रखे रह सकते है।
जिनके उपार्जन उत्तरदायित्व हलके हैं ऐसे लोगों को वानप्रस्थ स्तर अपनाना चाहिए और अपने समय को युगान्तरीय चेतना का आलोक बखेरने के लिए जहां तक पहुंच और परिचय हो वहां ही धर्म प्रचार यात्रा पर प्रव्रज्या के लिए निकालना चाहिए। यों वानप्रस्थ आधी आयु के पश्चात लेने की परम्परा है, प्राचीन काल में सौ वर्ष तक जीते थे तब पचास वर्ष इसकी आयु निर्धारित थी, पर अब तो आयु घटकर सत्तर अस्सी से भी कम रह गई है ऐसी दशा में पैंतीस चालीस की आयु को भी पूर्वार्ध, उत्तरार्द्ध में बांटा जा सकता है। बात आयु की नहीं, जिम्मेदारियों से निवृत्त होने की है। इसके लिए कौन क्या योजना बनाता है, किस प्रकार का ताना बाना बुनता है। बात बहुत कुछ इसी पर निर्भर करती है। आकांक्षा हो तो यथाक्रम चलते रहने के हजार रास्ते बन सकते हैं, पर यदि मन व्यामोह के कीचड़ में फंसे रहने का हो तो फिर हजार बहाने गढ़े जा सकते हैं। समस्याओं में से अधिकांश वास्तविक नहीं होतीं। वे गढ़ी जाती हैं। आदमी अपने ढंग से सोचता और चाहता है। परिस्थितियां इच्छित स्तर की बनें, तब वह अपने को हल्का अनुभव करे यह सोचना असंगत है। वस्तुतः मनः स्थिति को सुधारना, संभालना पड़ता है। उसे एक केन्द्र से हटाकर दूसरे के साथ जोड़ा जा सके तो प्रतीत होगा कि जिस प्रकार सोचा जाता रहा है वही एक मात्र उपाय नहीं है, उसके अतिरिक्त भी ढेरों रास्ते हैं जिनके अनुसार आज की परिस्थितियों में भी थोड़ा सा उलट-पुलट करने भर से वैसा उपाय निकल सकता है जिसमें काल्पनिक पर्वत को राई के समान हल्का किया जा सके और परमार्थ पथ पर चला जा सके। ऐसे प्रसंगों में शंकराचार्य, समर्थ राम दास, विवेकानन्द, ज्ञानेश्वर, कबीर, बुद्ध आदि का उदाहरण स्मरण किया जा सकता है, जिनको उनकी पारिवारिक व्यवस्था ने भी चोट नहीं पहुंचाई। वे लोग भी सुख पूर्वक जिये और इन महा मानवों को कृत-कृत्य होने का अवसर भी मिल गया।
देव युग, प्रज्ञा युग आना है तो उसकी उदीयमान किरणें सर्वप्रथम जागृत आत्माओं का अन्तःकरण मथेंगी और अग्रगामियों को उन पंक्तियों में खड़ा करेंगी जिनके साहस एवम् मार्गदर्शन का सामान्य जन अनुकरण करते हैं। हनुमान आगे चले तो रीछ वानर भी पीछे न रहे। बुद्ध ने साहस किया तो परिव्राजकों की संख्या लाखों तक पहुंच गई। गांधी ने कदम बढ़ाया तो सत्याग्रही आश्चर्य जनक संख्या में पीछे चलने लगे। धर्म सम्प्रदायों में भी यही होता रहा है। मनस्वी लोगों ने एकाकी अपनी योजना बनाई, बात कही और उसे पूरा करने में जुट गये। इतना जो कोई भी कर सकेगा उसे यह प्रमाण भी मिलेगा कि वह एकाकी चला तो, पर कुछ ही समय उपरान्त साथी सहयोगियों की, समर्थकों, प्रशंसकों की कमी नहीं रही। शर्त एक ही है कि लक्ष्य ऊंचा, विश्वास अडिग और प्रयास में प्रखर पुरुषार्थ भरा रहना चाहिए। पुरातन काल में वानप्रस्थ, लोक सेवा का व्रत धारण करते थे तो समूचा समाज ही उनके चरणों में नत मस्तक होता था और श्रद्धापूर्वक उनके मार्गदर्शन, अनुशासन को अपनाकर कृत-कृत्य होता था। संसार में कुछ समय पूर्व तक बुद्ध धर्म की एक मात्र सरकार कम्बोडिया में थी। वहां प्रचलन था कि हर प्रजाजन जीवन में एक वर्ष का वानप्रस्थ ले। बौद्ध-विहार में रहे। साधना और सेवा का कार्यक्रम अपनाये। उस योजना के अनुसार उस देश में उन दिनों हर स्तर के हजारों सुयोग्य लोक सेवी बिना वेतन के मिलते थे। वे देश में अनेकानेक आवश्यकताओं की पूर्ति में निरन्तर संलग्न रहते थे अपनी उपासना को लोक साधना के तवे में पकाकर परिपक्व करते थे। इन उदारमना लोक सेवियों का आदेश जनता श्रद्धा पूर्वक पालन करती थी फलतः वहां अपराधों की प्रवृत्ति की समाप्त हो गयी थी। सभी लोग मिल जुल कर कमाते-खाते, हंसते-हंसाते और सज्जनोचित सादगी अपनाकर कठोर श्रम में लगे रहते थे। इस आधार पर उस देश की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति ऐसी सुदृढ़ और समुन्नत रही कि सर्वत्र उसे आदर्श माना और सराहा जाता था। प्राचीन काल की भारतीय वानप्रस्थ परम्परा का यह एक आधुनिक संस्करण था। समय से उसे भी लड़खड़ा तो दिया है पर हर भावनाशील के सामने यह तथ्य प्रस्तुत है कि वे अनावश्यक व्यामोह में न बंधें, बंधन यदि थोड़े ढीले कर सकें और लोक मंगल की, युग की पुकार की ओर ध्यान दे सकें तो सर्वतोमुखी श्रेय साधन की पृष्ठभूमि बनते देर नहीं लेगेगी।
धर्म, संस्कृति और समाज की जराजीर्ण परम्पराओं के पुनर्निर्माण के लिए सारी सामग्री उपलब्ध है। ईंट, रेत, बजरी, सुर्खी, चूना, सीमेंट, लोहा, लकड़ी सब कुछ है, नींव खुदी तैयार है, गाड़ी शिल्पियों के अभाव में रुक गई। इस मिशन के लिए यह अतीव सौभाग्य की बात है कि उसे ऋषि कल्प संरक्षण, मार्गदर्शन एवं दिशा निर्देशन प्राप्त है। अपने आदर्श और सिद्धान्त महानता के उच्च शिखर पर आसीन हैं, धर्म और संस्कृति के प्राचीन आधारों को बुद्धिवाद ने लड़खड़ा दिया था उसे फिर से बुद्धि संगत और विज्ञान सम्मत ढंग से प्रस्तुत किया गया है। सांस्कृतिक परम्पराओं को प्राचीन काल के आदर्शों के अनुरूप प्रगतिशील परिवेश प्रदान किया गया है, नास्तिकतावादी, साम्यवादी सिद्धान्त भी उनके आगे नत मस्तक हो जाते हैं। प्रतिगामिता हतप्रभ हो उठी है, इधर-उधर बगलें झांक रही है। पूर्वाग्रह वश गाली देने वाली प्रतिगामिता और परम्परावादी भी भीतर-भीतर आत्म दुर्बलता अनुभव करते हैं और यह मानते हैं कि अन्ततः प्रज्ञा अभियान ही राष्ट्र को सशक्त और समर्थ बना सकता है। धर्म और संस्कृति की टूटी हुई कड़ियां यहीं जुड़ सकती हैं। अनेक मूर्धन्य विचारकों ने ऐसी घोषणाएं करके उक्त मान्यता को पुष्ट कर दिया है।
कहते हैं संत सुकरात के पास एक ‘‘डेमन’’(प्रेत) छाया की तरह रहता था। वही उनकी सेवा सहायता भी करता था तथा अदृश्य जगत के रहस्यों की जानकारी भी देता रहता था। ऐसी ही एक पितर आत्मा ‘‘जन शक्ति’’ के रूप में इस अभियान को भी उपलब्ध है। उसने समर्थन और सहयोग में रत्ती भर कमी नहीं आने दी। श्रद्धा, श्रम साधन जो कुछ भी जब भी आवश्यक हुआ उसने देकर अपनी भावभरी कृतज्ञता ज्ञापित की, कमी उन मूर्धन्य सृजन शिल्पियों भर की है जो ईंट गारे से विशाल भवन निर्मित करते हैं, समूचे तंत्र का संचालन करने में सहायक होते हैं।
रावण को मारने का श्रेय भगवान राम को दिया जाता है पर इतिहास इस बात का साक्षी है कि सुग्रीव, अंगद, हनुमान, जाम्वन्त, नल नील, शबरी, जटायु, गिलहरी जैसी देव-आत्माओं के सहयोग से इतना बड़ा कार्य सम्भव हो सका था। गौतम बुद्ध को कुमारजीव, आनन्द, अम्बपाली, महेन्द्र और संघमित्रा जैसी मूर्धन्य आत्माएं मिली नहीं होतीं तो बुद्ध धर्म को समूचे एशिया में विस्तार का पुण्य सुयोग मिल नहीं पाता। संचालन सूत्र एक हाथ में रहने पर ही कोई भी अभियान मूर्धन्य आत्माओं, वरिष्ठ सहयोग से ही सफल हो सकी है। स्वाधीनता संग्राम की बागडोर गांधीजी के हाथ थी, पर उसे सफलता तक पहुंचाने में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधा कृष्ण, राजगोपालाचार्य, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल, अब्दुल कलाम आजाद सहायक बने थे।
प्रज्ञा अभियान में वरिष्ठों की कमी नहीं है पर वे सब व्यामोह की जड़ता में जकड़ी पड़ी हैं, मलाई तक से सतह में आने से कतरा रही है, हीरे को जमीन में गड़े रहने में भलाई दीख रही है जबकि उसे राज मुकुट में शोभायमान होना चाहिए था। वाराह भगवान की तरह देवात्माओं की यह जड़ता ही बाधक सिद्ध हो रही है अन्यथा इतने सुदृढ़ आधार वाला प्रज्ञा अभियान सारे विश्व की जड़ता मिटा देने में समर्थ हो गया। किसी भी तरह उन वाराहों के न तो पेट फटते हैं और न वे श्रेय पथ पर आगे आने की कल्पना करते हैं। यह अवरोध दूर हो पाता तो प्रज्ञा अभियान कुछ ही समय में कुछ से कुछ कर गुजरता।
आवश्यक हो गया है कि मनस्वी युग धर्म के लिए समय निकालें। जिनके पास संचित पूंजी है अथवा जमीन, मकान, जेवल आदि बेच कर पूंजी खड़ी की जा सकती है, वे उसके ब्याज से काम चलायें। परिवार में अन्य कमाने वाले हों अथवा अपनी पेन्शन आदि के आधार पर गुजारे की व्यवस्था हो वे उस आधार पर आगे आयें। पर जिनके पास वैसा नहीं है या कम है उनके लिए निर्वाह व्यवस्था जुटाने में शान्तिकुंज भी कुछ सहायता कर सकता है। जिनकी बहुत बड़ी गृहस्थी है, बच्चे ब्याह शादी के लायक हैं और खर्च सैकड़ों हजारों रुपये महीने का है, उनका भार उठा सकना तो मिशन के बलबूते की बात नहीं है। पर जिनकी छोटी गृहस्थी है और कम खर्च में काम चलाने का अभ्यास है उनका निर्वाह प्रबन्ध आसानी से हो सकता है। कुछ घर की, कुछ संस्था की मिलीजुली व्यवस्था भी हो सकती है। अपनी व्यवस्था में जितना कम पड़े उतना मिशन से मिल सकता है। जिनके पास कुछ भी नहीं है किन्तु परिवार छोटा है उनके पूरे खर्च की व्यवस्था भी हो सकती है किन्तु शर्त यही है कि निर्वाह व्यय औसत भारतीय स्तर का तथा ब्राह्मणोचित होना चाहिए।
इन दिनों तीर्थ परम्परा के पुनर्जीवन का अभिनव प्रयास पूरे उत्साह के साथ चला है। देश के कोने-कोने में जन जागरण की योजना बनी है। युग निर्माण चित्र प्रदर्शनी के साथ संगीत मण्डलियों के जत्थे जीप गाड़ियों में अपनी प्रचार सामग्री लेकर प्रव्रज्या पर निकले हैं। रास्ते में मिलने वाले राहगीरों से सम्पर्क साध कर युग चेतना के तूफानी प्रवाह से अवगत कराते हैं। मार्ग में पड़ने वाले गांवों की दीवारों पर आदर्श भरी प्रेरणाओं के वाक्य लिखते हैं। रात्रि को निर्धारित विराम पर पहुंचते हैं। वहां दो दिन का कार्यक्रम रहता है। सामूहिक जप, गायत्री यज्ञ, प्रज्ञा पुराण कथा, जागृति कीर्तन, रात्रि का प्रज्ञा आयोजन, संगीत, प्रवचन का कार्यक्रम रहता है। विचारशील धर्म प्रेमियों की मध्याह्न में विचार गोष्ठी होती है। नव स्थापित स्वाध्याय मण्डलों का उद्घाटन भी इसी अवसर पर विधि पूर्वक धार्मिक कर्म काण्डों के साथ सम्पन्न कर दिया जाता है। जहां भी यह जत्थे विराम लेते हैं, वहां नव चेतना का संचार होता है और अनेकों अनुप्राणित लोग सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए रचनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रमों में जुट जाते हैं। दस जीप गाड़ियों में पांच-पांच प्रचारकों के परिव्राजक जत्थे इन दिनों युग चेतना का अलख जगाने में निरत हैं। इन्हें सुगम संगीत की शिक्षा दी गयी है। ताकि उस आधार पर लोक रंजन के साथ लोक मंगल का दुहरा प्रयोजन पुरा हो सके। शिक्षित अशिक्षित, बाल वृद्ध सभी इस आधार पर बड़े चाव पूर्वक युग परिवर्तन में प्रज्ञा अभियान की भूमिका एवम् रूपरेखा समझ सकने में समर्थ होते हैं।
अभी यह प्रक्रिया और भी अधिक बढ़ाई जानी है। प्रचारक जत्थों की और भी अधिक आवश्यकता पड़ेगी। समय दानियों को इस प्रयोजन के लिए प्रवास पर निकलने के लिए तीर्थ जत्थों में सम्मिलित होकर देश व्यापी परिभ्रमण पर निकलने के लिए उत्साहित किया जा रहा है। जिन्हें संगीत नहीं आता उनका कण्ठ यदि सुरीला है तो कुछ समय में उसका अभ्यास करा दिया जाता है। जिन्हें पहले से ही कुछ आता है उन्हें और भी अधिक सरलता पड़ती है। जिन्हें संगीत का थोड़ा सा अभ्यास है उन्हें स्थायी रूप से कार्य के लिए शान्तिकुंज में निवास करने के लिए आ बसने का निमंत्रण भेजा गया है। छोटे कुटुम्ब वालों की निर्वाह व्यवस्था भी यहां भली प्रकार बन जाती है। अड़चने उन्हीं के सम्बन्ध में पड़ती है जिनके कुटुम्ब बड़े या खर्च अधिक है।
समय दानियों के लिए कुछ कार्य शान्तिकुंज में रहकर करने के भी हैं। जैसे साहित्य सृजन में योगदान, अध्यापन, पत्र व्यवहार, अतिथियों का स्वागत सत्कार, परामर्श एवम् विचार विनियम, उद्यान तथा सफाई चौकीदारी आदि का श्रम दान। सेवा भावी, अनुशासन प्रिय एवम् परिश्रमी प्रकृति के व्यक्तियों के लिए इन कार्यों में से किसी में अपनी योग्यतानुसार काम करने के लिए हरिद्वार भी आमंत्रित किया गया है। यहां के वातावरण में रहकर अनगढ़ भी अपने आपको सुसंस्कारी बनाते चलते हैं और यहां के निवास के साथ जुड़ी हुई सुख-शान्ति एवं प्रगति से लाभान्वित होकर अपने को कृत-कृत्य मानते हैं। प्रवास पर निकलना या शान्तिकुंज रहना यह समय दानियों की परिस्थिति एवं मिशन की आवश्यकता के साथ ताल-मेल बिठाकर किया जाता है। देश भर में बन चुकी और बन रही प्रज्ञापीठों में रहकर भी उन क्षेत्रों को पंचसूत्री योजना के आधार पर प्राण संचार करना भी इतना महत्वपूर्ण कार्य है। इनके लिए भी बड़ी संख्या में परिव्राजकों की समय दानियों की इन दिनों आवश्यकता पड़ रही है।
विलासिता और आलस्य प्रमाद भरे जीवन के अभ्यस्तों का जीवनदान तो पहाड़ जैसा भारी पड़ जाता है। ऐसों का परामर्श का नशा कुछ ही दिनों में ठंडा पड़ जाता है फिर न आगे बढ़ पाते हैं और न ही पीछे लौट पाते हैं। अस्तु युग धर्म की पुकार के निमित्त उन्हें सेवा साधना में निरत होने की उमंग उठे उन्हें दो बातें सोचनी चाहिए एक यह कि घर परिवार की व्यवस्था चलाते हुए समीपवर्ती क्षेत्र में ही अधिकाधिक समय नियमित रूप से दें और एक क्षेत्र में ही चेतना उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व उठायें। दूसरी यह कि पूरा समय दें, व्यापक क्षेत्र में बादलों की तरह बरसे, सूर्य चंद्रमा की तरह प्रव्रज्या करते हुए सुदूर क्षेत्रों में आलोक वितरण के लिए चल पड़े। कुछ की शान्तिकुंज की स्थानीय व्यवस्था में भी आवश्यकता हो सकती है पर प्रमुख आवश्यकता जन सम्पर्क की ही है।
प्रज्ञा अभियान के अन्तर्गत अनेकानेक कार्यक्रम सामने हैं। बौद्धिक, नैतिक और सामाजिक क्रान्ति के अन्तर्गत व्यक्ति परिवार और समाज निर्माण योजना के अन्तर्गत अनेकानेक कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये हैं उनमें से अपनी योग्यता और रुचि का कार्य कोई भी चुन सकता है। स्वाध्याय, सत्संग और संगठन और बौद्ध काल जैसी अनिवार्य आवश्यकताएं अभी भी पूरी करने को पड़ी हैं और उनके लिए ज्ञानरथ, स्लाइड प्रोजेक्टर, जन्म दिवसोत्सव, आदर्श वाक्य लेखन आदि ढेरों काम तत्काल हाथ में लिए जाने हैं ताकि सेवा साधना के माध्यम से जन सम्पर्क सधे और बदले में समर्थन सहयोग बरसे। इतनी सफलता मिलते ही सहयोगी जन शक्ति के सहारे निरक्षरता, निर्धनता, पिछड़ापन, रुग्णता, अन्ध परम्परा, अवांछनीयता, अनैतिकता, उद्दण्डता जैसी अनेकों दुष्प्रवृत्तियों से जूझ पड़ना, उखाड़ फेंकना संभव हो सकता है। साथ ही सहकारिता, स्वच्छता, सुव्यवस्था, सज्जनता, श्रमशीलता, दूरदर्शिता जैसी सत्प्रवृत्तियों का जीवन में समावेश करने के लिए साहित्य, कला, शिक्षा जैसे प्रशिक्षण परक और उपयोग उद्योगों के रूप में रचनात्मक और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के लिए संघर्षात्मक कदम उठाये जा सकते हैं। अधिक समय देने वाले वानप्रस्थों की तरह, कम समय देने वाले परिव्राजक भी अपनी छोटी बड़ी श्रद्धांजलियां प्रस्तुत कर सकते हैं। समयदानियों के निर्वाह शिक्षण व मार्ग व्यय आदि में भी अगले दिनों ढेरों खर्च बढ़ने वाला है। समय के बदले या साथ साथ अंशदान देकर भी नव सृजन के यज्ञ में उदार चेता अपनी-अपनी श्रद्धांजलियां दे सकते हैं।
लोक मानस के परिष्कार, युगान्तरीय चेतना के आलोक वितरण की यही प्रमुख प्रक्रिया है। जिन्हें भी इन दिनों युग सृजन में संलग्न होना हो उन्हें उपरोक्त दृष्टिकोण से सोचना और दूरदर्शिता भरा कार्यक्रम अपनाना चाहिए। ऐसे उदारमना दूरदर्शी शान्तिकुंज से सम्पर्क साधें और अपनी भावी दिशा धारा के सम्बन्ध में विचार विनिमय के उपरान्त किसी सुनिश्चित निष्कर्ष पर पहुंचे।