Books - युग नेतृत्व की दिशा में कदम यों बढ़ें
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Language: HINDI
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युग नेतृत्व की दिशा में कदम यों बढ़ें
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नाविक, नाव खोता है। उसमें बिठाकर सारे दिन यात्रियों को इस पार से उस पार पहुंचाता है। गड़रिया भेड़ों को भटकने नहीं देना और वहां ले पहुंचता है जहां घास पानी की बहुतायत है। सेनापति सैनिकों की टुकड़ी पर नियंत्रण रखता है और योजना बद्ध नीति बनाकर सेना को विजय श्री से लाभान्वित करता है। इंजन रेल के माल से भरे हुए डिब्बों को खींचता है और सैकड़ों हजारों मीलों की दूरी पार करता है। इसे कहते हैं नेतृत्व। सूझ-बूझ वाले, आदर्शों का अवलम्बन करने वाले प्रतिभावान इस रीति नीति को अपनाते हैं। दीपक की तरह अपने प्रभाव क्षेत्र में प्रकाश उत्पन्न करते हैं। जनरेटरों की तरह अपने क्षेत्र में शक्ति वितरित करते हैं। नल कूपों की तरह जमीन से खींच कर पानी ऊपर लाते और पूरे इलाके को हरीतिमा से भरा पूरा बनाते हैं। इंजीनियर अपनी योजना कार्यान्वित करने के लिए श्रम साधन जुटाते और बड़े-बड़े पुल, बांध, नहर, सड़क आदि का निर्माण करते हैं। ऐसे लोगों को सराहा जाता है, उनके वर्चस्व को मस्तक झुकाया जाता है। स्वयं आत्मगौरव भरे आनन्द का अनुभव करते हैं और दूसरे उनका गुणानुवाद गाते-गाते नहीं थकते। ऐसे जीवनों को ही सार्थक कहा जा सकता है। उन्हें इतिहास सराहता है और जनसमुदाय बनाये पदचिह्नों पर चल कर श्रेयाधिकारी बनता है।
भारत भूमि ऐसे नर रत्नों की खदान रहा है। यहां देव मानवों ने अपनी मातृभूमि को स्वर्गादपि गरीयसी बनाया और समस्त संसार को प्रगति, सभ्यता, कला, शिल्प, व्यवसाय, अध्यात्म दर्शन आदि की शिक्षा देकर अवगति से उबारकर उन्नति के उच्चशिखर पर पहुंचाया। ऐसा है हमारे पूर्वजों का महान कर्तृत्व जिसने धरती पर सतयुग का वातावरण उतार कर दिखाया। इन महामानवों को यदि इतिहास में से निकाल दें तो फिर सामान्य लोगों के जन समुदाय को अनगढ़ भीड़ ही कह सकते हैं।
महत्वाकांक्षायें अनेक हो सकती हैं। धनी, मानी, ज्ञानी, अधिकारी, कलाकार आदि होने का इच्छा सामान्य जनों को भी होती है। वे इनकी पूर्ति के लिए प्रयत्न भी करते हैं और योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप थोड़ा बहुत सफल भी होते हैं। फिर भी उनकी उपलब्धियां सीमित ही रहती हैं। असीम उत्कंठाओं से भरी महत्वाकांक्षा वह है जिस में निजी व्यक्तित्व को महान और प्रभाव क्षेत्र को समुन्नत बनाया जाता है। जिनने इस स्थिति को प्राप्त करने की उमंग जगाई और ऐसी दिशा धारा पर जीवन चक्र को चलाया, जिससे समय को अपना प्रवाह मोड़ने में सहायता मिले। ऐसे लोग ही धन्य हैं। अन्य लोग तो पेट पालते बच्चे जनते और उन्हीं की साज संभाल में कोल्हू के बैल की तरह स्वयं घूमते और दूसरों को पीसते रहते हैं। यह नर पशु का जीवन है जिसमें लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के लिए विविध विडम्बनायें रचते हुये आयुष्य का समापन किया जाता है।
व्यक्ति का समग्र विकास और युग धर्म का परिपालन यदि सुहा सके, जीवन का लक्ष्य बन सके तो फिर उस दिशा में चल पड़ना और सुनिश्चित सफलता प्राप्त कर सकना कुछ भी कठिन नहीं है। ऐसी उच्च स्थिति को प्राप्त करने के लिए जो साधना करनी पड़ती है वह भी कुछ विशेष कठिन नहीं हैं। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह—परिवार को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाने उसे छोटा रखने का निश्चय, उत्तराधिकार में आदर्शवादी अवलम्बन का अधिग्रहण; यही हैं वे साधनायें-उपासनायें- आराधनायें —जिनके माध्यम से हाथों हाथ श्रेय, सम्मान, यश, अभ्युदय एवं आत्मिक आनन्द, ईश्वरीय वरदान की तरह प्राप्त किया जा सकता है। यही है वह मार्ग जिस पर चल कर स्वर्ग-मुक्ति शान्ति, सद्गति जैसे दिव्य वरदानों को हाथों हाथ पाया जा सकता है।भारत की गौरव गरिमा उसके महामानवों के अस्तित्व पर निर्भर है। बुद्ध, गांधी, सुभाष, पटेल, तिलक, नेहरू, अरविन्द, रमण, परमहंस, नानक, कबीर, चैतन्य, दयानन्द, विवेकानन्द, जैसी हस्तियों के बिना भारत की गरिमा कहां रह जाती है। मनीषी, और तपस्वी ही अपने महान व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व के आधार पर सतयुगी वातावरण का निर्माण कर सके हैं। अपने को आराध्य बनाकर दूसरों को उत्थान के चरम लक्ष्य तक पहुंचा सके। नेतृत्व की प्रतिभा ही ईश्वर का अजस्र वरदान है और जीवन की सराहनीय सफलता।
यह तथ्य शाश्वत है, जो सदा मान्यता प्राप्त करता रहा है। इन दिनों तो उसकी आपत्तिकालीन आवश्यकता है। युग धर्म की पुकार ऐसे लोगों के लिए है जो सड़ी दलदल में फंसी मानवता को उबार सकें और उसका परित्राण उत्थान कर सकें। अपना समय ऐसा है जिसमें हम अवांछनीयताओं, मूढ़ मान्यताओं, अनैतिकताओं, कुरीतिओं और दुष्प्रवृत्तियों से बुरी तरह घिर गये हैं। भौतिक वातावरण में प्रदूषण, विकिरण, अशिक्षा, बीमारी, आपाधापी, विषमता की अभिवृद्धि इस सीमा तक हो चली है कि हर व्यक्ति को असंतोष, उद्वेग, आतंक, अविश्वास से भरी हुई खिन्न परिस्थितियों में रहना पड़ रहा है। इस पतन आर पराभव से जन समाज का उद्धार करना-गजग्राह की लड़ाई जीतने जैसा-द्रौपदी का चीर बढ़ाने जैसा है। इस भगवत कार्य का हमें मानवी काया के अन्तर्गत ही कर दिखाना चाहिए। इसके लिए आज ही सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त है उसे फिर कभी के लिए नहीं टाला जा सकता।
समग्र नेतृत्व के लिए जिस गुण, कर्म, स्वभाव, जिस अनुभव-अभ्यास की आवश्यकता है उसे सिखाने के लिए शान्ति कुञ्ज में एक-एक मास का प्रज्ञा प्रशिक्षण चल रहा है। उसमें पढ़ाये जाने वाले विषयों में आत्म निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण है। इसके लिए लेखनी और वाणी का रचनात्मक कार्यक्रमों का किस प्रकार प्रयोग किया जाना चाहिए, उसके सभी पक्ष पढ़ाये जाते हैं। सबसे बड़ी बात है वहां के दिव्य वातावरण को जिसके प्रभाव को वर्षा काल जैसा सजल और बसंत जैसा सुरभित देखा जा सकता है। भाषण, संभाषण, चिकित्सा, संगीत, कर्मकाण्डों द्वारा लोक शिक्षण रचनात्मक कार्यक्रमों की-जनसम्पर्क द्वारा जन समर्थन और जन सहयोग की विधियों का पाठ्यक्रम की तरह समावेश है। साथ ही गायत्री और यज्ञ के समन्वय की वे आध्यात्मिक विधियां भी जुड़ी हैं जो मनुष्य के अन्तराल को उच्च स्तरीय बनाती और व्यवहारिक जीवन में निखार लाती हैं।
प्रज्ञा परिवार के प्रत्येक सुसंस्कारी परिजन को इसके लिए आमंत्रित किया गया है कि वे अपनी सुविधानुसार एक महीने के लिए अपने पूरे परिचय के साथ आवेदन भेजें और प्रवेश की स्वीकृति प्राप्त करें।
हिसाब लगाकर देखा गया है कि इतने भर से एक लाख युग सृजेता बनाने की आवश्यकता पूरी नहीं होती। देश और विश्व की गड़बड़ाती व्यवस्था को संभालने वाले व्यक्तित्वों की ऐसी आवश्यकता इन्हीं दिनों है जिसे फिर कभी के लिए नहीं टाला जा सकता है। देश के 70 करोड़ और संसार के 500 करोड़ व्यक्तित्वों पर छाया हुआ अनास्था संकट दर करना है और उन्हें एक क्रिया कृत्य में लगाना है जिससे वे समय की विषमताओं को दूर करते हुये नव निर्माण का वातावरण बना सकें। यह क्षमता बिना प्रज्ञा प्रशिक्षण के पूरी नहीं हो सकती। शांति कुञ्ज में स्थान सीमित है। वहां एक लाख युग शिल्पियों के निर्माण का कार्य उतनी जल्दी नहीं हो सकता जितनी कि समय की मांग है। नालन्दा, तक्षशिला विश्व विद्यालय जैसा लक्ष्य तो पूरा करना है उसके लिए वैसे साधनों का अभाव है। स्थिति का संतुलन मिलाते हुये यही मार्ग निकाला गया है कि सभी समर्थ शाखाओं में प्रज्ञा पाठशालायें चलें। उनका प्रशिक्षण वे करें जो सन् 86 में केन्द्र से अभिनव प्रज्ञा प्रशिक्षण प्राप्त करके गये हैं और जिन्हें नवीनतम शिक्षा व्यवस्था का अनुभव, अभ्यास है, जो युग नेतृत्व की क्षमता रखते हैं, दबंग हैं तथा संगठन बनाने का कला कौशल जिन्हें आता है।
स्थानीय प्रज्ञा पाठशालाओं का पाठ्यक्रम पन्द्रह दिन का रखा गया है और उनके चलाने का समय प्रातः सायं दो-दा घंटे रखा गया है। ताकि शिक्षार्थी निजी काम धंधा करते हुए भी चार घंटे नित्य का समय निकाल सकें। इसमें शिक्षित महिलायें भी सम्मिलित हो सकती हैं। ऐसा भी हो सकता है—शान्ति कुञ्ज में प्रशिक्षण प्राप्त महिलायें केवल नारियों के लिए तीसरे पहर अलग पाठशाला चलाया करें और उनका कार्य क्षेत्र, दायित्व ऐसा रखें जो उनके लिए सरलतापूर्वक करने योग्य है। परिवार ही नर रत्नों की खदान है। तपोभूमि में घर बनाने की अपेक्षा यह सरल है कि घरों को तपोभूमि बनाया जाय। अगला युग महिला प्रधान युग है। वे ही परिवारों को सुधारेंगी और नई पीढ़ियों को इन स्तर का विनिर्मित करेंगी जो देश, धर्म, समाज और संस्कृति को ऊंचा उठाने में गोवर्धन उठाने या समुद्र का पुल बनाने जैसी भूमिका निभा सकें। प्रज्ञा प्रशिक्षण के लिए सम्मिलित सत्रों में महिलाओं को लिया जाय और जहां संभव हो उनके लिए अलग से भी व्यवस्था की जाय।
जो लोग शान्ति कुंज में प्रज्ञा प्रशिक्षण प्राप्त करके गये हैं उन सभी को दो कार्य गुरुदक्षिणा के रूप में सौंपे गये हैं। एक यह कि अपने यहां एक प्रज्ञा पाठशाला चलायें और दूसरा यह कि परिचितों में से न्यूनतम एक परखा हुआ व्यक्ति शान्ति कुंज प्रशिक्षण के लिए भेजें। पाठशाला चलाना सरल है। मिशन से परिचित सभी स्थानीय लोगों को एकत्रित करके उनसे पूछा जाय कि कौन-कौन दो-दो घण्टा प्रातः सायं इस प्रशिक्षण में पन्द्रह दिन तक सम्मिलित रहने के लिए समय निकाल सकेंगे। जो तैयार हों उनके नाम नोट कर लेने चाहिए। जो बुलाने पर नहीं आ सके हैं उनके घर जा कर इसके लिए समझाया और सहमत किया जाय। प्रशिक्षण में एक-एक रुपये वाली 15 पुस्तकें (जो 36 के सेट में से छांट कर निकाली गई हैं) बौद्धिक प्रशिक्षण के लिए आवश्यक हैं और ढपली, मजीरा यह दो वाद्य यंत्र तो न्यूनतम चाहिए ही। संभव हो तो यह साधन सभी वरिष्ठ शिक्षार्थी अपने निजी खरीद लें जो नहीं खरीद सकते वह साथियों की सामग्री का मिल जुल कर उपयोग करें। इन माध्यमों से वक्ता और गायक बना जा सकता है। अध्यापन के लिए इन दो कार्यों के लिए दो अध्यापक चाहिए। विवशता में एक बैल से भी गाड़ी लुढ़काई जा सकती है। यदि स्थानीय अध्यापक का प्रबन्ध न हो सके तो शान्ति कुंज से भी इस हेतु दो कार्यकर्ता बुलाये जा सकते हैं। पर उनके भोजन व्यय और मार्ग व्यय की पूर्ति तो बुलाने वालों को ही करनी पड़ेगी।
पन्द्रह दिन में अभ्यास अनुभव का प्रथम चरण पूरा होता है पर प्रवीण पारंगत होने के लिए वह क्रम लम्बे समय तक चलाना पड़ेगा जो घर रहते हुए अभ्यास क्रम चलाते रहने से परिपक्व हो सकता है। एक बार में 10 से 20 तक ही छात्र रखे जायं। अधिक हो तो उन्हें दूसरी तीसरी चौथी पारी के लिए रोक लिया जाय। पन्द्रह दिन पढ़ने पर जो पढ़ा है जो समझा है उसकी जांच पड़ताल करने के लिए शान्ति कुंज से प्रश्न पत्र भेजे जाते हैं और उनके उत्तरों के आधार पर उत्तीर्ण होने के प्रवर प्रमाण पत्र दिये जाते हैं और उन्हें पंजीकृत प्रज्ञा परिजनों में गिना जाने लगता है।
प्रज्ञा पाठशाला चलाने वालों को कुछ उपकरणों का प्रबंध स्वयं करना चाहिए।
(1) दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने के लिए डिब्बे, लाल या नीला रंग।
(2) जन्म दिवसोत्सव हर सदस्य का मनाने के लिए छोटी यज्ञशाला का सरंजाम। पन्द्रह दिनों की प्रशिक्षण अवधि में निश्चित रूप से सभी को एक कुण्डी यज्ञ शाला खड़ी करने, यज्ञ सम्पन्न करने, जन्मदिन मनाने का शिक्षण ले लेना है।
(3) स्लाइड प्रोजेक्टर, के सहारे हर छात्र को प्रवचन का अभ्यास हो सके।
(4) इसके अतिरिक्त झोला पुस्तकालय चलाने के लिए पुस्तकें, युग साहित्य का सेट जो प्रशिक्षण सेट से अलग होगा। टेपरिकॉर्डर, लाउडस्पीकर भी साथ में रह, तो शान्ति कुंज के गीत और प्रवचन न केवल छात्रों को, वरन् सर्वसाधारण को भी मिलने का अवसर मिल सकता है। लाउडस्पीकर होने पर उससे अधिक संख्या में उपस्थित जनता को भी लाभान्वित किया जा सकता है। बैठने के लिए बिछावन, रात्रि रोशनी के समय रोशनी का प्रबंध भी संचालकों को ही करना चाहिए। जहां बिजली नहीं है, वहां 12 वोल्ट की बैटरी और चार्जर के समन्वय से एक छोटा बिजलीघर भी बन सकता है। संचालकों को उपरोक्त साधनों में से जो कम पड़ते हों, उन्हें हरिद्वार आदमी भेज कर मंगा लेना चाहिए। वहां बाजार में यह सभी वस्तुएं उचित मूल्य पर मिल जाती है। डाक या रेलवे पार्सल से इन वस्तुओं को भेजा जा सकना संभव नहीं। उपरोक्त सारे सरंजाम के लिए यदि पांच हजार की व्यवस्था कर लेने से सदा-सर्वदा के लिए आवश्यक उपकरण हस्तगत हो जायेंगे और उनके सहारे अपने यहां तथा पड़ोस के गांवों में सतत् ये प्रज्ञा सत्र चलाये जा सकते हैं। हर केन्द्र के पास आवश्यक उपकरण तो चाहिए ही। हर जीवन्त कार्यकर्त्ता, संगठन, प्रज्ञासंस्थान को इनकी व्यवस्था तो कर ही लेना चाहिए। मिल जुलकर भी इन साधनों को जुटाया जा सकता है।
क्षेत्रीय प्रज्ञा सत्र अर्थात् प्रज्ञा पाठशालाएं जहां चल सकें, उन्हीं केन्द्रों को सजीव माना जायेगा। प्रज्ञापीठें, स्वाध्याय मण्डल, समर्थ शाखाएं उन्हीं को कहा जायेगा, जिनसे कार्यकर्ता उत्पादन के लिए कृषि कार्य उद्यान आरोपण जैसा यह कार्य होता है। जो कभी पिछले दिनों मनोकामना पूर्ति के लिए गायत्री की उल्टी सीधी माला फेर लेते और गायत्री परिवार के सदस्य कहते थे, उनके साथ ‘भूतपूर्व’ शब्द और जोड़ दिया जाना चाहिए। अब तो प्रज्ञापुत्र उन्हीं को कहा जायेगा, जो युग धर्म की चुनौती और पुकार सुन कर तदनुरूप कदम उठाने के लिए कटिबद्ध होते हैं। ऐसे सभी लोगों को प्रज्ञा प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा, भले ही वह एक महीने हरिद्वार रहकर प्राप्त किया गया हो या पन्द्रह दिन के स्थानीय शिविर में सम्मिलित रह कर उसकी अवधारणा की गई हो। ऐसे सभी सदस्यों को बीस पैसे रोज के ज्ञान घट चलाने चाहिए और प्रायः दो घंटे नित्य समय देने का व्रत लेना चाहिए। गतिविधियां समयदान से चलेंगी और आये दिन साधनों की जो आवश्यकता पड़ती है, उसकी पूर्ति ज्ञानघटों की नियमित राशि से तथा समय-समय पर उदारता-पूर्वक दिये गये अनुदानों से सम्पन्न होगी। उसके लिए अपनी कमाई का एक अंश, महीने में एक दिन की आजीविका देते रहने का आदर्श भी अपनाया जा सकता है। इससे दूसरों का साहस बढ़ेगा और काम भी रुकने न पायेगा।
जिन्हें प्रज्ञा प्रशिक्षण के माध्यम से लोकनेतृत्व की शिक्षा दी जा रही है; उनके लिए कार्यक्षेत्र भी विनिर्मित किया जाना चाहिए। नये निर्धारण के अनुसार दस-दस गांवों का या तीन-तीन मील चारों ओर लेने पर जितने गांव उतनी परिधि में आते हों, उनका एक मण्डल बनाया जायेगा। प्रज्ञा पाठशाला केन्द्र रहेगी, प्रज्ञा मण्डल कहलायेगी और अपने इर्द-गिर्द के दस गांव वाली परिधि में मिशन का आलोक फैलाने का काम करेगी। घर-घर अलख जगाने का और समर्थक तैयार करने का काम स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप करना होगा।
कहा जा चुका है कि मण्डल के हर शिक्षित तक प्रज्ञा साहित्य पहुंचाने और वापिस लेने का प्रबन्ध, हर सदस्य का जन्म दिवसोत्सव, दीवारों पार आदर्श वाक्य लेखन और अपनी निजी उपासना-श्रद्धा का भली प्रकार निर्वाह—यह सभी कार्य सर्वत्र किये जाने हैं। इसके अतिरिक्त जिनमें परिपक्वता विकसित हो, उन्हें समयदान, अंशदान के लिए ज्ञानघट की स्थापना भी आवश्यक होगी। मण्डल के पास साधन जितने अधिक होंगे, वह उसी अनुपात से काम भी अधिक कर सकेगा। कार्य क्षेत्र में से जहां कार्यकर्ता उभारने हैं, वहां आवश्यक प्रयोजनों के लिए साधन जुटाने हैं। दोनों कार्य साथ-साथ चलने चाहिए।
शहरों में समीपवर्ती गांवों में पहुंचना कठिन पड़ता है, वहां उस नगर को ही दस खण्डों में बांट कर उन्हें एक-एक गांव मान लेना चाहिए और उसमें जन सम्पर्क तथा चेतना उत्पादन का कार्य उसी प्रकार करना चाहिए जैसा कि देहातों में तीन-तीन मील के मण्डल बना कर किया जाना है। कार्यक्रम देहात और शहर सभी में एक जैसे रहेंगे बहुत घेरा समेट कर थोड़ा काम करने की अपेक्षा यह नीति कहीं अच्छी है कि थोड़ी परिधि में अधिक ठोस और कारगर काम किया जाय।
देश में अभी 70 करोड़ करीब आबादी है। यह युग सन्धि की वेला पूरी होते-होते 100 करोड़ तक पहुंच जायेगी। प्रत्येक 1000 व्यक्तियों पीछे एक मार्गदर्शक दिशा निर्धारक हो, तो इसके लिए एक लाख कार्यकर्ता चाहिए। इन्हें उत्पन्न करना प्राप्त करना प्रज्ञा मिशन का काम है। बुद्ध, गांधी और बिनोवा का छोड़ा हुआ काम प्रज्ञा मिशन को ही पूरा करना है।
देश की साज संभाल तो अनिवार्य कर्त्तव्यों में है; पर चरण रुकने इस परिधि में भी नहीं है सारा विश्व अपना है। इन दिनों आबादी 500 करोड़ के करीब है। अनुमान है कि सन् 2000 तक वह 1000 करोड़ होगी। इस समूची परिधि को अपना कार्य क्षेत्र बनाया जाना है, तब कितने अधिक जन-नेताओं की आवश्यकता पड़ेगी, इसका अनुमान अभी से लगाया जा सकता है। तीन करोड़ प्रवासी भारतीय भी तब तक छः करोड़ हो चुके होंगे; उनके लिए भी न्यूनतम 600 कार्यकर्ता भारत से भेजने होंगे, भले ही उनमें से आधे अभी और आधे बाद में जायं। अभी तो जिन एक दो को भेजा गया था, वे लड़खड़ा गये। दूसरा तथ्य जांचे परखे लोगों का होगा, जिसमें मिशन को निन्दा और भर्त्सना का पात्र न बनना पड़े।
अभी बाल कक्षाओं की तरह सामान्य स्तर के कार्यक्रम एवं पाठ्यक्रम बनाये गये हैं; पर जैसे-जैसे प्रौढ़ता-परिपक्वता बढ़ेगी, वैसे-वैसे न केवल कार्यक्षेत्र ही व्यापक बनेगा, बड़े काम हाथ में लेने होंगे और वे सभी कार्य ऐसे होंगे, जिनमें से प्रत्येक की प्रभाव शक्ति, परिधि और जिम्मेदारी असाधारण और असीम हो।
इस शताब्दी के दो आन्दोलन व्यापक बने और जड़ जमा सके हैं- एक क्रिश्चियन मिशन, जिसके एक लाख पादरी और 60 हजार संगठन संसार के कोने-कोने में फैले हैं साथ ही बाइबिल और दूसरी पुस्तकें संसार की 600 भाषाओं में छपती हैं। दो तिहाई जनता को अपने धर्म में दीक्षित कर चुके। दूसरा आन्दोलन है—कम्युनिज्म, जिसने बुद्धि जीवियों में से हर एक को प्रभावित और सहमत किया है। एक तिहाई जनता पर जिसका शासन है और समर्थकों का बहुत बड़ा समुदाय संसार भर में है। यह सब भी लेखनी, वाणी और सघन सम्पर्क साधने वाले रचनात्मक प्रयासों से ही बन पड़ा है। योजना की दृष्टि से युग निर्माण योजना की गरिमा इन सबसे आगे है। उसके तर्क, तथ्य, प्रमाण और आधार ऐसे हैं; जिनसे संसार के हर वर्ग को सहमत और प्रभावित होना चाहिए।
प्रज्ञा मिशन का चरम लक्ष्य सार्वभौम एकता, समता और सुव्यवस्था है। एक राष्ट्र, एक दर्शन, एक भाषा, एक संस्कृति के चार आधार ऐसे हैं, जिनको सर्वत्र मान्यता दिलाने के लिए प्रबल प्रयास किये जाने हैं। शिक्षितों के लिए साहित्य और अशिक्षितों के लिए उनकी भाषा में टेप उपलब्ध कराये जाने हैं, साथ ही ऐसे आन्दोलनों का सूत्र संचालन किया जाना है, जिसके सहारे प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन हो सके और उस स्थान पर न्याय और विवेक को प्रश्रय मिल सके। इसके लिए साहित्य सृजन, संगीत अभिनय का प्रयोग, सम्मेलन, समारोहों की धूम तथा परिस्थितियों के अनुरूप छोटे-बड़े आन्दोलनों का सूत्र संचालन किया जाना है। इसके लिए ऐसे सृजनशिल्पियों की बड़ी संख्या में आवश्यकता है, जिनमें प्रतिभा, मनीषा और सुसंस्कारिता की कमी न हो, जो लोभ, मोह और अहंकार प्रदर्शन से अपना सामर्थ्य बना कर अपने आप में देवता के चरणों पर समर्पित कर सकें। ऐसे लोग बने-बनाये नहीं मिलते, उगाये और ढाले जाते हैं। प्रज्ञा प्रशिक्षण के केन्द्रीय, स्थानीय पाठशाला योजना इसी प्रयोजन के लिए है।
संसार में अशिक्षित अधिक हैं। फिर भाषाओं की विविधता भी कम छोटी अड़चन नहीं है। इस प्रकार साहित्य तो आधार ही बन सकता है पर उसके प्रयोग में वाणी ही आती हैं। वाणी की दृष्टि से हर युग सृजेता को मुखर होना चाहिए। वाणी में आकर्षण पैदा करने के लिए लोकमंगल के साथ लोक रंजन का समावेश करने के लिए उसे गायन वादन भी आना चाहिए। इन दोनों शिक्षणों के लिए दो माध्यम बड़े उपयोगी उपकरण सिद्ध हो सकते हैं।
स्लाइड प्रोजेक्ट की एक हलकी सी मशीन साथ में रखी जाय तो रंगीन चित्र प्रदर्शन के किए किसी गांव मुहल्ले में मिनटों की सूचना पर जन समुदाय एकत्रित किया जा सकता है और प्रकाश चित्रों की व्याख्या करते हुए जहां अपनी मान्यताएं सुनने वालों के गले उतारी जा सकती है वहां दुहरा लाभ यह भी हो सकता है कि व्याख्या करने के बहाने अपनी वाक्पटुता को निखारते हुए उस स्तर तक पहुंचा जा सकता है। कुशल, मुखर और प्रभावशाली वक्ता बना जा सकता है।
अच्छे गायकों के भावभरे गीत और मूर्धन्य व्यक्तित्वों के सन्देश टेप रिकॉर्डर के माध्यम से छोटी-छोटी मंडलियों और गोष्ठियों में सुनाते रहने का क्रम चलता रह सकता है। उपरोक्त दोनों उपकरण एक हजार की पूंजी में खरीदे जा सकते हैं। जरूरत आ पड़ने पर उन्हें कुछ कम दाम में उन्हें खड़े-खड़े बेचा जा सकता है। इन दोनों के साथ यदि पांच सौ के करीब का लाउड स्पीकर भी हो तो बड़े समुदाय को एकत्रित करके उन्हें सभा सम्मेलन को प्राणवान नव चेतना से लाभान्वित कराया जा सकता है। इसलिए प्रचार योजना के अन्तर्गत दो हजार के करीब की साधन सामग्री भी इकट्ठी करली जाय तो उससे जन्म दिवसोत्सव मनाने की यज्ञशाला, आदर्श वाक्य लिखने के उपकरण और झोला पुस्तकालय एक सैट बन सकता है। इसे पारी-पारी से दसों गांवों के संगठन में पहुंचाते रहा जा सकता है। यदि आर्थिक साधन जुट सके तो यह सामग्री निर्धारित मंडल के हर गांव में भी हो सकती है और उससे अनेक गुना काम हो सकता है। समीपवर्ती मण्डल अपने कार्यकर्ताओं और साधन उपकरणों की अदला−बदली भी करते रह सकते हैं।
दस गांवों के मण्डल में वर्ष में एक वार्षिकोत्सव भी हो। उन्हीं में हरिद्वार की प्रचार मण्डली जीप गाड़ी द्वारा सभी आवश्यक उपकरणों के साथ पहुंचा करेगी। दसों गांवों के प्रतिनिधि उस ढाई दिन के कार्यक्रम में साथ-साथ रहा करें। एक साथ खायें सोयें। चावल, दाल का सस्ता और सुगम प्रीति भोज होता रहे। सम्मेलन समारोहों के लिए अतिरिक्त धन्य तथा धन का चन्दा किया जा सकता है। ज्ञानघटों के पैसे तो चालू खर्च ही पूरा कर सकेंगे। इस प्रकार के सम्मेलन सहयोग और उत्साह उभारने के लिए महती भूमिका निभा सकते हैं। और जहां ऐसी व्यवस्था बनती दीखे वहां उसके लिए शान्ति कुंज से प्रचारकों की मण्डली आने की तारीखें निश्चित करा लेनी चाहिए। प्रवास चक्र के अनुसार ही स्वीकृति मिलती है।
पढ़ाई भी चलती रहे, अभ्यास भी बढ़ता रहे और साथ-साथ दस गांव में जन जागरण का लोक मानस के परिष्कार का रचनात्मक कार्य भी चलता रहे। एक कार्यकर्त्ता को एक गांव बांट देने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि दस या पांच कार्यकर्ताओं की टोली पदयात्रा या साइकिल यात्रा पर निकलें और सामूहिक प्रदर्शन से दूना चौगुना उत्साह उत्पन्न करें। सप्ताह या महीने में एक बार एक गांव का सम्मेलन समारोह एक दिन का कर लिया जाय। तो उन सभी गांवों में उत्साह बना रहेगा और पारस्परिक घनिष्ठता सुदृढ़ सुनिश्चित होती जायेगी।
जो भी सज्जन शान्ति कुंज से एक माह का सत्र पूरा करके गए हैं, उन्हें अपना स्थान समर्थ शाखा के रूप में विकसित करना चाहिए। अच्छा हो, वे अपने यहां एक प्रज्ञा पाठशाला चलाएं और जितने अधिक कार्यकर्त्ता प्रशिक्षित कर सकें, उन्हें करें; पर यदि पाठशाला का प्रबन्ध न हो सकता हो तो तीन साथी सहयोगी गणों की एक टोली मण्डली बना लें। एक स्वयं दो अन्य। इस प्रकार तीन सक्रिय कार्यकर्त्ताओं का एक मण्डल ही दस गांवों को न सही-अपने एक गांव को तो सजीव सक्रिय रख ही सकता है। यह मण्डली अपने गांवों में दीवारों पार आदर्श वाक्य लेखन, झोला पुस्तकालय एवं जन्मदिनों का प्रचलन तो करा ही सकती है। एक दो साथी अपने गांव या क्षेत्र से शान्ति कुंज के शिविरों में भेजे जा सकें तो उसके लौटने पर सहयोगी मण्डली और भी जोरदार हो सकती है। जिनके पीछे परिवार की बहुत बड़ी जिम्मेदारी नहीं है, जो परिवार का निर्वाह ब्राह्मणोचित अपरिग्रह के साथ कर सकते हैं, वे शान्ति कुंज रह कर अपना भावी समय नव-निर्माण के पुण्य प्रयोजन के लिए खपा देने का प्रयत्न करें। ऐसे कार्यकर्त्ताओं के लिए निवास निर्वाह की सुविधाएं शान्ति कुंज में मौजूद हैं।
सौंपे हुए कार्यक्रमों में झोला पुस्तकालय और जन्मदिवसोत्सव प्रक्रिया पर पूरा जोर देना चाहिए। प्रयत्न यह करना चाहिए कि अपने नगर या मुहल्ले में एक भी शिक्षित व्यक्ति ऐसा न मिले जिसे युग साहित्य नियमित रूप से पढ़ने को न मिलता हो। एक भी अशिक्षित ऐसा न रहे जिसे युग चेतना की विचारधारा नियमित रूप से सुनने को न मिल जाती हो, जन्मदिवसोत्सव न मनाया जाता हो। इससे घर-घर पहुंचने और हर परिवार से घनिष्ठता साधने का अवसर मिलता है। इस आधार पर भावी समाज की संरचना और प्रतिभा निखारने का अवसर मिलता है। इसलिए तीन व्यक्तियों की टोली ही यदि बन सकी है तो उसका काम यह होना चाहिए कि स्थानीय प्रतिभाशाली विचारशील जनों में से एक का भी जन्मदिवसोत्सव मनाये बिना छूटने न पाए। इसके लिए उन्हें पहले ही रुचे तब उत्साहित करने की आवश्यकता पड़ेगी।
यह कार्य कुछ कठिन नहीं है। मात्र जागरूकता और तत्परता बरतने की आवश्यकता है। एक कुण्डी यज्ञ घर आंगन में, मित्र-पड़ोसी-संबंधियों की उपस्थिति में बिना कठिनाई के मनाया जा सकता है। अन्य वस्तुएं न मिलने पर गुड़ व घर के निकाले घी को उसमें मिला कर हवन किया जा सकता है। सूखा करना हो तो आम के पत्तों को, बौरों को मिला कर चूर्ण सा बना कर गुड में मिला कर अच्छी खासी हवन सामग्री बनाई जा सकती है। उस अवसर पर मानव जीवन की गरिमा से लेकर व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण संबंधी जो बातें जिन परिस्थितियों में कहे जाने योग्य हैं, उन्हें कहा जा सकता है या उन्हें कर गुजरने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
ज्ञान घट रखने की परम्परा अब शिथिल हो गई है उसे तीव्र करना चाहिए। कोई भी प्रज्ञा परिजन ऐसा न बचे जो न्यूनतम दस-बीस पैसे ज्ञान घट में जमा न करता हो। यह नियमित आजीविका का स्रोत खुला रहे तो स्थानीय शाखा को अनेकों उपयोगी उपकरण मंगाने और समय-समय पर आयोजन सम्मेलन करते रहने का प्रयोजन पूरा हो सकता है। प्रयत्न किया जाना चाहिए कि प्रज्ञा परिजनों में से एक भी ऐसा न बचे किसके यहां ज्ञान घट में अनुदान डालने का धर्म कृत्य नियमित रूप से न चलता हो। तुलसी या आंवला भी हर आंगन में आरोपित स्थापित होना चाहिए।
शान्ति कुंज से आने वाली प्रचार गाड़ी द्वारा आयोजन हर दस गांव पीछे न्यूनतम एक में तो करना आवश्यक ही समझा जाय। सभी गांवों के दो-दो चार प्रतिनिधि उसमें दोनों दिन सम्मिलित रहें। दस गांव पीछे अदल-बदल कर इसी प्रकार के सम्मेलन चाहते रहें तो मंडल के पूरी तरह मिशन की विचार धारा से ओतप्रोत हो जाना स्वाभाविक है। दसों गांव पारी-पारी अपने यहां सम्मेलन बुलाते रहने की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चला सकते हैं। जहां कहीं भी संगठन नहीं खड़ा हो सकता वहां कम से कम एक छोटी तीन व्यक्तियों की मंडली तो आसानी से बन ही सकती है। तीन उत्साही कार्यकर्ताओं की यह टोली यदि जीवन्त हो तो उसका दबदबा सारे क्षेत्र में अनेक रचनात्मक प्रवृत्तियों को जन्म दे सकता है। प्रौढ़ शिक्षा व बाल संस्कारशाला का प्रबन्ध भी वे तीनों मिल-जुलकर कर सकते हैं। इन तीनों का मिलन ऐसा होना चाहिए जिससे न तो मनोमालिन्य पनपने पाए, न ही शिथिलता की बहानेबाजी ही चलने पाए।
व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के क्षेत्र अछूते हैं। राजनीति में धकापेल चल रही है पर राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने वाले इन महत्वपूर्ण विषयों की ओर किसी का ध्यान नहीं है। अभी राजनैतिक क्रान्ति हो चुकी है सरकार आर्थिक एवं सुरक्षा मोर्चे को प्रधानता दे रही है। किन्तु नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र में परिवर्तन किए जाने हैं उनकी ओर उपेक्षा ही बरती जा रही है। पत्ते सींचे जा रहे हैं पर जड़ सींचने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। हमें अपनी गतिविधियों को इन्हीं क्षेत्रों में नियोजित करना चाहिए। लोकमानस को जागृत बनाया जा सका तो शासनसूत्र संभालने वाले सुयोग विवेकवान एवं चरित्रवान प्रतिनिधियों का चयन भी कठिन न रहेगा। तब वह आवश्यकता भी पूरी हो सकेगी जिसे लोग राजनीति में प्रवेश के लिए आतुरता बरतकर हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं। जादुई मिठाई से पेट भरना चाहते हैं।
आरंभिक और आधारभूत कार्यक्रम की चर्चा ऊपर हुई। यह उत्साह उभारने और सेवा भावना की प्रवृत्ति जगाने के लिए है। जन जागरण और लोकमानस का परिष्कार भी उन माध्यमों से हो सकता है पर उनमें स्थायित्व लाने के लिए हर परिपक्व संगठन को प्रौढ़ शिक्षा का बाल संस्कार शाला का काम हाथ में लेना चाहिए। यह दोनों ही कार्य ऐसे हैं जिनसे राष्ट्र की प्राथमिक आवश्यकता पूरी होती है। साक्षरता के बिना विचारोत्तेजक साहित्य नहीं पढ़ा जा सकता और उनके बिना चिन्तन चरित्र और व्यवहार में सुधार लाने वाली समयानुकूल जानकारियों से अवगत नहीं हुआ जा सकता। इसलिए हमें वयस्क और व्यस्त नर-नारियों को साक्षर बनाने एवं समस्याओं का समाधान बताने वाला साहित्य उपलब्ध कराना चाहिए। पुस्तकालय एक स्थान पर बना देने से अरुचि को सुरुचि में नहीं बदला जा सकता। इसके लिए घर-घर जाना और झोला पुस्तकालय से पुस्तकें लेने वापिस करने का चस्का लगाना पड़ेगा। प्रौढ़ शिक्षा के उपरान्त यही दूसरा कदम है।
ईसाई चर्चों में से प्रत्येक में डिस्पेंसरी रहती है ताकि स्वास्थ्य सेवा का पुण्य अर्जित करने के अतिरिक्त जन साधारण की सहानुभूति आकर्षित कर सकें। यह कार्य प्रत्येक प्रज्ञा मंडल कर सकता है। रसोई में काम आने वाले मसाले तथा आस-पास उगने वाली जड़ी बूटियों के सहारे बिना किसी खर्च के घरेलू चिकित्सा की जा सकती है। एक दो क्यारी जमीन में उन्हें बोया उगाया जा सकता है। तुलसी अकेली ही ऐसी है जिसकी स्थापना देवी स्थापना के समान श्रद्धास्पद होती है और अनुमान भेद से अनेकों रोगों में काम आती है। प्रज्ञामण्डल यह स्थापना भी कराये और स्वास्थ्य संवर्धन के लिए व्यायामशालाओं की स्थापना का भी प्रबन्ध करें। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी को उनकी शारीरिक स्थिति के अनुरूप व्यायाम सिखाये जा सकते हैं। स्वच्छता, आहार संयम आदि के बारे में भी आवश्यक जानकारियां देकर स्वास्थ्य संवर्धन तथा स्वच्छता सुरुचि को विकसित किया जा सकता है।
बाल संस्कारशाला को भी प्रज्ञा प्रशिक्षण के अन्तर्गत ही सम्मिलित करना चाहिए। उसके दो विभाग रहें एक कार्यकर्ता प्रशिक्षण एवं जन जागरण, दूसरा स्कूली बालकों को उनके बचे हुए समय में पाठ्यक्रम परिपक्व करना एवं शिष्टाचार को स्वभाव में सम्मिलित करना। इससे उस अभाव की पूर्ति होगी जो अभिभावकों और अध्यापकों से प्रायः छूट ही जाता है। घर पर पढ़े बिना मात्र स्कूली पढ़ाई के आधार पर अब कोई बालक अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण नहीं हो सकता और अपना भविष्य नहीं बना सकता। शिष्टाचार, सुसंस्कारिता, नागरिकता, सामाजिकता, के अंग हैं। यह धर्मतत्व का सार है। इसे भी स्कूलों में इतनी गंभीरता से नहीं पढ़ाया जाता कि छात्रों के गले उतर सके और जीवनचर्या में सम्मिलित हो सके। यह कार्य बाल संस्कार शालाएं कर सकती हैं। जिनके पास भावनायें हैं, जो थोड़ा समय सेवा कार्य के लिए लगा सकते हैं ऐसे लोगों से विद्याऋण चुकाने के लिए पाठशाला में पढ़ाने हेतु समय मांगना चाहिए। फीस देकर बच्चों को पढ़ाने का प्रचलन तो सम्पन्न वर्ग में है। गरीबों के बच्चे तो परिवार में संस्कार के अभाव में पढ़ने से जी चुराते हैं। उन्हें किसी प्रकार घेर-बटोर कर एक जगह इकट्ठा कर लिया जाय और पढ़ने में रुचि लेने लगने की सफलता प्राप्त कर ली जाय तो समझना चाहिए कि बहुत बड़ा काम हो गया। इतना ही बड़ा जितना कि खाली समय वाले शिक्षितों को बिना पैसा लिये पढ़ाने के लिए सेवा भावना के आधार पर तैयार करना।
स्कूली पढ़ाई घर पर चलाने के लिए अभिभावकों और बालकों को यह समझाया जा सकता है कि अभ्यास के आधार पर वे अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होंगे। पर वास्तविक रहस्य यह है कि उन्हें इसके साथ ही सुसंस्कारिता के सांचे में ढाला जाय। उनके गुण, कर्म स्वभाव में शालीनता और सज्जनता की गहरी छाप डाली जाय, क्योंकि व्यक्तित्व का उभार और प्रगति का आधार वस्तुतः यही है। दुर्गुणी व्यक्ति सम्पन्न और शिक्षित होते हुए भी पतन के गर्त में गिरते हैं। स्वयं दुख पाता और साथियों का जी जलाता है। इसके विपरीत जिसमें सद्गुणों का भण्डार है जो चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में यथार्थवादी है वह न तो पिछड़ी स्थिति में रहेगा और न गरीबी में दिन काटेगा। जिस भी परिस्थिति में उसे रहना पड़े उसी में हंसते हंसाते समय बितायेगा और स्वयं प्रसन्न रहते हुए साथियों पर उल्लास बिखेरेगा।
समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी यह चार गुण मनुष्यता के चार अलंकार आभूषण हैं जो इनसे सुसज्जित हैं समझना चाहिए कि वह हर दृष्टि से भाग्यशाली है, उसका भविष्य उज्ज्वल है।
इसी प्रकार श्रमशीलता, सुव्यवस्था, मितव्ययिता, शिष्टता, सज्जनता, सहकारिता, उदारता, स्वच्छता, सुव्यवस्था जिसके स्वभाव में सम्मिलित हो गई वह स्वयं बढ़ेगा और अपने साथियों को बढ़ावा देगा। इसी प्रकार समय संयम, विचार संयम भी उच्च कोटि का सद्गुण है। जो अनुशासन का महत्व समझता है, नियमितता अपनाता है, हाथ के काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर तत्परता एवं तन्मयता के साथ करता है, आलस्य प्रमाद से बचता है, स्वच्छ रहता और अपने वस्त्र उपकरणों को साफ सुथरा सुसज्जित रखता है, समझना चाहिए कि उसने शालीनता का पाठ पढ़ लिया। मानवी गरिमा का रहस्य समझ लिया।
इन सद्गुणों को गले कैसे उतारा जाय? इसके लिए मोटा स्वरूप तो यही है कि सद्गुणों को अपनाने के लाभ और उनसे रहित होने के नुकसान तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरणों समेत बताते रहा जाय। इस कार्य में युग साहित्य की कई पुस्तकें सहायता कर सकती हैं। ट्रैक्ट भी इस संदर्भ में छपे हैं। उन्हें पढ़ते पढ़ाते रहना प्रश्नोत्तर करते रहना साधारण तरीका है। पर विशेष बात यह है कि पाठशाला में सम्मिलित होने वाले छात्रों में कौन गुण विकसित हैं कौन अविकसित। जो विकसित हों उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए और सुधार की दिशा में आगे बढ़ चलने का सैद्धान्तिक ही नहीं व्यवहारिक मार्ग दर्शन भी करना चाहिए। जिनमें श्रेष्ठता के गुण अविकसित हैं उन्हें भी डांटना फटकारना तो नहीं चाहिए पर प्यार के साथ मीठे शब्दों में यह समझाना चाहिए कि अपने स्वभाव में इतना अन्तर और ला सकें तो तुम सभी की आंखों के तारे बन सकते हो।इस संदर्भ में व्यक्तिगत निरीक्षण और व्यक्तिगत परामर्श ही वास्तविक काम करता है। पुस्तक का कोई पन्ना सबको बिठाकर सुना देना तो एक लाठी से सब भेड़ों को हांकने के समान है उतने भर से तो चिह्न पूजा ही होती है और लकीर ही पिटती है जैसा लाभ मिलना चाहिए वैसा नहीं मिलता। यह शिक्षण अध्यापक की अपनी सूझबूझ, परख और शालीनता पर निर्भर है। ऐसे अध्यापक समयदानियों में से न मिलें तो उतना दायित्व संस्था संचालकों को स्वयं वहन करना चाहिए। जिस उत्साह से प्रज्ञा प्रशिक्षण चलाया था उसी उत्साह से उसी का अविच्छिन्न अंग मानकर इसके सुसंचालन का भी प्रबंध करना चाहिए।
लोक नेतृत्व में आत्म गौरव की झलक झांकी प्रत्यक्ष होती हैं। जो कार्य दूसरे नहीं कर सकते उसे कर दिखाना जन साधारण पर गहरी छाप छोड़ता और अपनी अन्तरात्मा उस गरिमा को उपलब्ध करके प्रमुदित उल्लासित होती है। लोक श्रद्धा और जन सहयोग की कमी नहीं रहती। इस आधार पर सेवाभावी का ऊंचा उठना आगे बढ़ना स्वाभाविक है। दूसरे दुर्बल मानस वालों को भी ऐसी आदर्शवादिता का अनुसरण करने की हिम्मत पड़ती है। इससे वातावरण बनता है। आत्मकल्याण, जन कल्याण और विश्वकल्याण के तीनों ही प्रयोजन जिस सेवा, साधना से सधते हैं वह प्रज्ञा अभियान की निर्धारित कार्य परिस्थितियों की जन्मदात्री मनःस्थिति है। लोगों की मनःस्थिति बदली जा सके तो उनकी परिस्थितियां भी बदलेंगी और कठिनाइयां भी सरल होंगी। उस सर्वतोमुखी उत्सर्ग का श्रेय प्रायः उसी को मिलता है जिसने लोकहित के मार्ग पर साहसिक कदम बढ़ाते हुए अग्रगामियों में अपना नाम लिखाया। इसका आरंभिक अभ्यास प्रज्ञा आयोजनों में सम्मिलित होकर किया जा सकता है और उसका सत्परिणाम हाथों हाथ उपलब्ध होते देखा जा सकता है।
अपने देश में पिछले दिनों राजनैतिक क्षेत्र में एक से एक बढ़कर उज्ज्वल नक्षत्र चमके हैं और लम्बी गुलामी की कलंक कालिमा से मुक्ति दिलाने में समर्थ हुए हैं। उनकी यशो गाथा सदा अमर रहेगी। समझा जाता है कि लोग अधिकतर पशु प्रवृत्ति के होते हैं तात्कालिक लाभ देखते और उसके लिए अनर्थ अपनाने में लगे रहते हैं; पर यह आंशिक सत्य है। जब कोई प्रतिभावान आदर्शवादी सामने आता है तो उसका अनुकरण करने में भी विलम्ब नहीं करते। कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने संकल्प किये, योजनाबद्ध अभियान चलाये। उस साहस से प्रभावित होकर लोगों की श्रद्धा-सद्भावना उभरी और वे उस कार्य की पूर्ति में प्राणप्रण से जुट गए। पर ऐसी गरिमा उन्हीं को प्राप्त होती है जो अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को आदर्शों की कसौटी पर खरा सिद्ध करते हुए जनता के सामने आते हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपतियों में अब्राहम लिंकन, जार्ज वाशिंगटन, गारफील्ड जैसे कई ऐसे हुए हैं जो जन्मजात रूप से निर्धन एवं संकट ग्रस्त थे। पर उनने अपने व्यक्तित्व को इस प्रकार निखारा कि हर किसी को उनका समर्थन करना पड़ा। आदर्शों में हजार हाथी का बल होता है। इस अवधारणा के पीछे ईश्वर की अदृश्य सहायता काम करती है। असुर दमन और राम राज्य-स्थापना का लक्ष्य लेकर कार्यरत राम के पीछे रीछ वानरों की सेना चल पड़ी थी और अंगद हनुमान, जामवन्त जैसे सहायक अनायास ही उनसे आ जुड़े थे। छोटी गिलहरी तक ने अपने बालों में बालू भर कर समुद्र पाटने का सहयोग दिया था। राम के आदर्शवाद को भरत ने अपनाया और उस कारण वह समूचा परिवार ही कुछ से कुछ बन गया।
नेतृत्व का छोटा अभ्यास करने वाले समय आने पर महान कार्य कर गुजरने की भूमिका निभाते हैं। ऐसे ही लोगों ने श्रमिकों को साथ लेकर चीन में दस फुट चौड़ी और 500 मील लम्बी वृक्षों की एक सुहावनी कतार रेगिस्तान रोकने के लिए खड़ी की है। स्वेज और पनामा नहरें बन जाने से समय, श्रम और साधन की भारी बचत होने लगी। यह कार्य जन सहयोग से ही संभव हुए और वह सहयोग जुटाया उनने जिनकी वाणी ही नहीं क्रिया और भावना भी बोलती थी। संसार में अनेकों राज्यक्रांतियां हुई, अनेकों देश गुलामी के बन्धनों से छूटकर अपने भाग्य निर्माण का अधिकार प्राप्त कर चुके हैं। यह सब अनायास ही नहीं हो गया। इसके लिए जन सहयोग उन लोगों ने उभारा था जो नेतृत्व के लिए आवश्यक गुणों से अपने को सज्जित कर चुके थे। प्रभावशाली वाणी ऐसे ही लोगों की होती है। योजनाएं उन्हीं की मान्यताएं प्राप्त करती हैं। मात्र वाचालता से कोई नेता नहीं बन सकता। वह चीख चिल्ला कर मजमा इकट्ठा कर सकता है और लोगों के लिए एक दर्शनीय कौतूहल बन सकता है। ठोस काम कर सकना और करा सकना प्रतिभाशाली व्यक्तियों के लिए ही संभव होता है। प्रज्ञा प्रशिक्षण के माध्यम से उसी दिव्य क्षमता को असंख्यों में उभारा जा रहा है। नदी पार करने का कौशल अर्जित करने से पूर्व तालाब में तैरना सीखना पड़ता है प्रज्ञा अभियान की आरंभिक गतिविधियां ऐसी ही हैं जिन्हें भावना और सक्रियता का थोड़ा सा अंश उभार कर अपनाया जा सकता है। इसके बाद उस आधार को अपनाकर ऐसा आनन्द उठाया जा सकता है जो जीवन भर चलता रहे। आग को ईंधन मिलता रहे भावना को क्रिया मिलती रहे तो उसकी ज्योति बुझने नहीं पाती।
अपने देश में करने को बहुत कुछ पड़ा है। इसमें साक्षरता से लेकर समस्याओं के समाधान का मार्ग बताना प्रथम कार्य है। सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार दूसरा। कुरीतियों में खर्चीली शादियां, पर्दाप्रथा, जातिगत ऊंच-नीच, भिक्षा व्यवसाय, नशेबाजी जैसी कुरीतियां ऐसी हैं जिनके विरुद्ध समर्थ मोर्चा खोलकर उन्हें निरस्त किया जा सकता है; पर इनके विरुद्ध भी वैसे ही आन्दोलन की आवश्यकता पड़ेगी जैसी की पिछले दिनों दास प्रथा, जमींदारी आदि के विरुद्ध लड़नी पड़ी। व्यक्ति, परिवार और समाज को सुसंस्कारी बनाने के लिए मिशन की बहुमुखी योजनायें कार्यान्वित होने के लिए समर्थ कार्यकर्ताओं की प्रतीक्षा कर रही है। उसकी पूर्ति हमें ही करनी पड़ेगी और शुभारम्भ का मुहूर्त आज का दिन ही मानना होगा।
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*समाप्त*
भारत भूमि ऐसे नर रत्नों की खदान रहा है। यहां देव मानवों ने अपनी मातृभूमि को स्वर्गादपि गरीयसी बनाया और समस्त संसार को प्रगति, सभ्यता, कला, शिल्प, व्यवसाय, अध्यात्म दर्शन आदि की शिक्षा देकर अवगति से उबारकर उन्नति के उच्चशिखर पर पहुंचाया। ऐसा है हमारे पूर्वजों का महान कर्तृत्व जिसने धरती पर सतयुग का वातावरण उतार कर दिखाया। इन महामानवों को यदि इतिहास में से निकाल दें तो फिर सामान्य लोगों के जन समुदाय को अनगढ़ भीड़ ही कह सकते हैं।
महत्वाकांक्षायें अनेक हो सकती हैं। धनी, मानी, ज्ञानी, अधिकारी, कलाकार आदि होने का इच्छा सामान्य जनों को भी होती है। वे इनकी पूर्ति के लिए प्रयत्न भी करते हैं और योग्यता एवं परिस्थिति के अनुरूप थोड़ा बहुत सफल भी होते हैं। फिर भी उनकी उपलब्धियां सीमित ही रहती हैं। असीम उत्कंठाओं से भरी महत्वाकांक्षा वह है जिस में निजी व्यक्तित्व को महान और प्रभाव क्षेत्र को समुन्नत बनाया जाता है। जिनने इस स्थिति को प्राप्त करने की उमंग जगाई और ऐसी दिशा धारा पर जीवन चक्र को चलाया, जिससे समय को अपना प्रवाह मोड़ने में सहायता मिले। ऐसे लोग ही धन्य हैं। अन्य लोग तो पेट पालते बच्चे जनते और उन्हीं की साज संभाल में कोल्हू के बैल की तरह स्वयं घूमते और दूसरों को पीसते रहते हैं। यह नर पशु का जीवन है जिसमें लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के लिए विविध विडम्बनायें रचते हुये आयुष्य का समापन किया जाता है।
व्यक्ति का समग्र विकास और युग धर्म का परिपालन यदि सुहा सके, जीवन का लक्ष्य बन सके तो फिर उस दिशा में चल पड़ना और सुनिश्चित सफलता प्राप्त कर सकना कुछ भी कठिन नहीं है। ऐसी उच्च स्थिति को प्राप्त करने के लिए जो साधना करनी पड़ती है वह भी कुछ विशेष कठिन नहीं हैं। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह—परिवार को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाने उसे छोटा रखने का निश्चय, उत्तराधिकार में आदर्शवादी अवलम्बन का अधिग्रहण; यही हैं वे साधनायें-उपासनायें- आराधनायें —जिनके माध्यम से हाथों हाथ श्रेय, सम्मान, यश, अभ्युदय एवं आत्मिक आनन्द, ईश्वरीय वरदान की तरह प्राप्त किया जा सकता है। यही है वह मार्ग जिस पर चल कर स्वर्ग-मुक्ति शान्ति, सद्गति जैसे दिव्य वरदानों को हाथों हाथ पाया जा सकता है।भारत की गौरव गरिमा उसके महामानवों के अस्तित्व पर निर्भर है। बुद्ध, गांधी, सुभाष, पटेल, तिलक, नेहरू, अरविन्द, रमण, परमहंस, नानक, कबीर, चैतन्य, दयानन्द, विवेकानन्द, जैसी हस्तियों के बिना भारत की गरिमा कहां रह जाती है। मनीषी, और तपस्वी ही अपने महान व्यक्तित्व और कर्त्तृत्व के आधार पर सतयुगी वातावरण का निर्माण कर सके हैं। अपने को आराध्य बनाकर दूसरों को उत्थान के चरम लक्ष्य तक पहुंचा सके। नेतृत्व की प्रतिभा ही ईश्वर का अजस्र वरदान है और जीवन की सराहनीय सफलता।
यह तथ्य शाश्वत है, जो सदा मान्यता प्राप्त करता रहा है। इन दिनों तो उसकी आपत्तिकालीन आवश्यकता है। युग धर्म की पुकार ऐसे लोगों के लिए है जो सड़ी दलदल में फंसी मानवता को उबार सकें और उसका परित्राण उत्थान कर सकें। अपना समय ऐसा है जिसमें हम अवांछनीयताओं, मूढ़ मान्यताओं, अनैतिकताओं, कुरीतिओं और दुष्प्रवृत्तियों से बुरी तरह घिर गये हैं। भौतिक वातावरण में प्रदूषण, विकिरण, अशिक्षा, बीमारी, आपाधापी, विषमता की अभिवृद्धि इस सीमा तक हो चली है कि हर व्यक्ति को असंतोष, उद्वेग, आतंक, अविश्वास से भरी हुई खिन्न परिस्थितियों में रहना पड़ रहा है। इस पतन आर पराभव से जन समाज का उद्धार करना-गजग्राह की लड़ाई जीतने जैसा-द्रौपदी का चीर बढ़ाने जैसा है। इस भगवत कार्य का हमें मानवी काया के अन्तर्गत ही कर दिखाना चाहिए। इसके लिए आज ही सबसे श्रेष्ठ मुहूर्त है उसे फिर कभी के लिए नहीं टाला जा सकता।
समग्र नेतृत्व के लिए जिस गुण, कर्म, स्वभाव, जिस अनुभव-अभ्यास की आवश्यकता है उसे सिखाने के लिए शान्ति कुञ्ज में एक-एक मास का प्रज्ञा प्रशिक्षण चल रहा है। उसमें पढ़ाये जाने वाले विषयों में आत्म निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण है। इसके लिए लेखनी और वाणी का रचनात्मक कार्यक्रमों का किस प्रकार प्रयोग किया जाना चाहिए, उसके सभी पक्ष पढ़ाये जाते हैं। सबसे बड़ी बात है वहां के दिव्य वातावरण को जिसके प्रभाव को वर्षा काल जैसा सजल और बसंत जैसा सुरभित देखा जा सकता है। भाषण, संभाषण, चिकित्सा, संगीत, कर्मकाण्डों द्वारा लोक शिक्षण रचनात्मक कार्यक्रमों की-जनसम्पर्क द्वारा जन समर्थन और जन सहयोग की विधियों का पाठ्यक्रम की तरह समावेश है। साथ ही गायत्री और यज्ञ के समन्वय की वे आध्यात्मिक विधियां भी जुड़ी हैं जो मनुष्य के अन्तराल को उच्च स्तरीय बनाती और व्यवहारिक जीवन में निखार लाती हैं।
प्रज्ञा परिवार के प्रत्येक सुसंस्कारी परिजन को इसके लिए आमंत्रित किया गया है कि वे अपनी सुविधानुसार एक महीने के लिए अपने पूरे परिचय के साथ आवेदन भेजें और प्रवेश की स्वीकृति प्राप्त करें।
हिसाब लगाकर देखा गया है कि इतने भर से एक लाख युग सृजेता बनाने की आवश्यकता पूरी नहीं होती। देश और विश्व की गड़बड़ाती व्यवस्था को संभालने वाले व्यक्तित्वों की ऐसी आवश्यकता इन्हीं दिनों है जिसे फिर कभी के लिए नहीं टाला जा सकता है। देश के 70 करोड़ और संसार के 500 करोड़ व्यक्तित्वों पर छाया हुआ अनास्था संकट दर करना है और उन्हें एक क्रिया कृत्य में लगाना है जिससे वे समय की विषमताओं को दूर करते हुये नव निर्माण का वातावरण बना सकें। यह क्षमता बिना प्रज्ञा प्रशिक्षण के पूरी नहीं हो सकती। शांति कुञ्ज में स्थान सीमित है। वहां एक लाख युग शिल्पियों के निर्माण का कार्य उतनी जल्दी नहीं हो सकता जितनी कि समय की मांग है। नालन्दा, तक्षशिला विश्व विद्यालय जैसा लक्ष्य तो पूरा करना है उसके लिए वैसे साधनों का अभाव है। स्थिति का संतुलन मिलाते हुये यही मार्ग निकाला गया है कि सभी समर्थ शाखाओं में प्रज्ञा पाठशालायें चलें। उनका प्रशिक्षण वे करें जो सन् 86 में केन्द्र से अभिनव प्रज्ञा प्रशिक्षण प्राप्त करके गये हैं और जिन्हें नवीनतम शिक्षा व्यवस्था का अनुभव, अभ्यास है, जो युग नेतृत्व की क्षमता रखते हैं, दबंग हैं तथा संगठन बनाने का कला कौशल जिन्हें आता है।
स्थानीय प्रज्ञा पाठशालाओं का पाठ्यक्रम पन्द्रह दिन का रखा गया है और उनके चलाने का समय प्रातः सायं दो-दा घंटे रखा गया है। ताकि शिक्षार्थी निजी काम धंधा करते हुए भी चार घंटे नित्य का समय निकाल सकें। इसमें शिक्षित महिलायें भी सम्मिलित हो सकती हैं। ऐसा भी हो सकता है—शान्ति कुञ्ज में प्रशिक्षण प्राप्त महिलायें केवल नारियों के लिए तीसरे पहर अलग पाठशाला चलाया करें और उनका कार्य क्षेत्र, दायित्व ऐसा रखें जो उनके लिए सरलतापूर्वक करने योग्य है। परिवार ही नर रत्नों की खदान है। तपोभूमि में घर बनाने की अपेक्षा यह सरल है कि घरों को तपोभूमि बनाया जाय। अगला युग महिला प्रधान युग है। वे ही परिवारों को सुधारेंगी और नई पीढ़ियों को इन स्तर का विनिर्मित करेंगी जो देश, धर्म, समाज और संस्कृति को ऊंचा उठाने में गोवर्धन उठाने या समुद्र का पुल बनाने जैसी भूमिका निभा सकें। प्रज्ञा प्रशिक्षण के लिए सम्मिलित सत्रों में महिलाओं को लिया जाय और जहां संभव हो उनके लिए अलग से भी व्यवस्था की जाय।
जो लोग शान्ति कुंज में प्रज्ञा प्रशिक्षण प्राप्त करके गये हैं उन सभी को दो कार्य गुरुदक्षिणा के रूप में सौंपे गये हैं। एक यह कि अपने यहां एक प्रज्ञा पाठशाला चलायें और दूसरा यह कि परिचितों में से न्यूनतम एक परखा हुआ व्यक्ति शान्ति कुंज प्रशिक्षण के लिए भेजें। पाठशाला चलाना सरल है। मिशन से परिचित सभी स्थानीय लोगों को एकत्रित करके उनसे पूछा जाय कि कौन-कौन दो-दो घण्टा प्रातः सायं इस प्रशिक्षण में पन्द्रह दिन तक सम्मिलित रहने के लिए समय निकाल सकेंगे। जो तैयार हों उनके नाम नोट कर लेने चाहिए। जो बुलाने पर नहीं आ सके हैं उनके घर जा कर इसके लिए समझाया और सहमत किया जाय। प्रशिक्षण में एक-एक रुपये वाली 15 पुस्तकें (जो 36 के सेट में से छांट कर निकाली गई हैं) बौद्धिक प्रशिक्षण के लिए आवश्यक हैं और ढपली, मजीरा यह दो वाद्य यंत्र तो न्यूनतम चाहिए ही। संभव हो तो यह साधन सभी वरिष्ठ शिक्षार्थी अपने निजी खरीद लें जो नहीं खरीद सकते वह साथियों की सामग्री का मिल जुल कर उपयोग करें। इन माध्यमों से वक्ता और गायक बना जा सकता है। अध्यापन के लिए इन दो कार्यों के लिए दो अध्यापक चाहिए। विवशता में एक बैल से भी गाड़ी लुढ़काई जा सकती है। यदि स्थानीय अध्यापक का प्रबन्ध न हो सके तो शान्ति कुंज से भी इस हेतु दो कार्यकर्ता बुलाये जा सकते हैं। पर उनके भोजन व्यय और मार्ग व्यय की पूर्ति तो बुलाने वालों को ही करनी पड़ेगी।
पन्द्रह दिन में अभ्यास अनुभव का प्रथम चरण पूरा होता है पर प्रवीण पारंगत होने के लिए वह क्रम लम्बे समय तक चलाना पड़ेगा जो घर रहते हुए अभ्यास क्रम चलाते रहने से परिपक्व हो सकता है। एक बार में 10 से 20 तक ही छात्र रखे जायं। अधिक हो तो उन्हें दूसरी तीसरी चौथी पारी के लिए रोक लिया जाय। पन्द्रह दिन पढ़ने पर जो पढ़ा है जो समझा है उसकी जांच पड़ताल करने के लिए शान्ति कुंज से प्रश्न पत्र भेजे जाते हैं और उनके उत्तरों के आधार पर उत्तीर्ण होने के प्रवर प्रमाण पत्र दिये जाते हैं और उन्हें पंजीकृत प्रज्ञा परिजनों में गिना जाने लगता है।
प्रज्ञा पाठशाला चलाने वालों को कुछ उपकरणों का प्रबंध स्वयं करना चाहिए।
(1) दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने के लिए डिब्बे, लाल या नीला रंग।
(2) जन्म दिवसोत्सव हर सदस्य का मनाने के लिए छोटी यज्ञशाला का सरंजाम। पन्द्रह दिनों की प्रशिक्षण अवधि में निश्चित रूप से सभी को एक कुण्डी यज्ञ शाला खड़ी करने, यज्ञ सम्पन्न करने, जन्मदिन मनाने का शिक्षण ले लेना है।
(3) स्लाइड प्रोजेक्टर, के सहारे हर छात्र को प्रवचन का अभ्यास हो सके।
(4) इसके अतिरिक्त झोला पुस्तकालय चलाने के लिए पुस्तकें, युग साहित्य का सेट जो प्रशिक्षण सेट से अलग होगा। टेपरिकॉर्डर, लाउडस्पीकर भी साथ में रह, तो शान्ति कुंज के गीत और प्रवचन न केवल छात्रों को, वरन् सर्वसाधारण को भी मिलने का अवसर मिल सकता है। लाउडस्पीकर होने पर उससे अधिक संख्या में उपस्थित जनता को भी लाभान्वित किया जा सकता है। बैठने के लिए बिछावन, रात्रि रोशनी के समय रोशनी का प्रबंध भी संचालकों को ही करना चाहिए। जहां बिजली नहीं है, वहां 12 वोल्ट की बैटरी और चार्जर के समन्वय से एक छोटा बिजलीघर भी बन सकता है। संचालकों को उपरोक्त साधनों में से जो कम पड़ते हों, उन्हें हरिद्वार आदमी भेज कर मंगा लेना चाहिए। वहां बाजार में यह सभी वस्तुएं उचित मूल्य पर मिल जाती है। डाक या रेलवे पार्सल से इन वस्तुओं को भेजा जा सकना संभव नहीं। उपरोक्त सारे सरंजाम के लिए यदि पांच हजार की व्यवस्था कर लेने से सदा-सर्वदा के लिए आवश्यक उपकरण हस्तगत हो जायेंगे और उनके सहारे अपने यहां तथा पड़ोस के गांवों में सतत् ये प्रज्ञा सत्र चलाये जा सकते हैं। हर केन्द्र के पास आवश्यक उपकरण तो चाहिए ही। हर जीवन्त कार्यकर्त्ता, संगठन, प्रज्ञासंस्थान को इनकी व्यवस्था तो कर ही लेना चाहिए। मिल जुलकर भी इन साधनों को जुटाया जा सकता है।
क्षेत्रीय प्रज्ञा सत्र अर्थात् प्रज्ञा पाठशालाएं जहां चल सकें, उन्हीं केन्द्रों को सजीव माना जायेगा। प्रज्ञापीठें, स्वाध्याय मण्डल, समर्थ शाखाएं उन्हीं को कहा जायेगा, जिनसे कार्यकर्ता उत्पादन के लिए कृषि कार्य उद्यान आरोपण जैसा यह कार्य होता है। जो कभी पिछले दिनों मनोकामना पूर्ति के लिए गायत्री की उल्टी सीधी माला फेर लेते और गायत्री परिवार के सदस्य कहते थे, उनके साथ ‘भूतपूर्व’ शब्द और जोड़ दिया जाना चाहिए। अब तो प्रज्ञापुत्र उन्हीं को कहा जायेगा, जो युग धर्म की चुनौती और पुकार सुन कर तदनुरूप कदम उठाने के लिए कटिबद्ध होते हैं। ऐसे सभी लोगों को प्रज्ञा प्रशिक्षण प्राप्त करना होगा, भले ही वह एक महीने हरिद्वार रहकर प्राप्त किया गया हो या पन्द्रह दिन के स्थानीय शिविर में सम्मिलित रह कर उसकी अवधारणा की गई हो। ऐसे सभी सदस्यों को बीस पैसे रोज के ज्ञान घट चलाने चाहिए और प्रायः दो घंटे नित्य समय देने का व्रत लेना चाहिए। गतिविधियां समयदान से चलेंगी और आये दिन साधनों की जो आवश्यकता पड़ती है, उसकी पूर्ति ज्ञानघटों की नियमित राशि से तथा समय-समय पर उदारता-पूर्वक दिये गये अनुदानों से सम्पन्न होगी। उसके लिए अपनी कमाई का एक अंश, महीने में एक दिन की आजीविका देते रहने का आदर्श भी अपनाया जा सकता है। इससे दूसरों का साहस बढ़ेगा और काम भी रुकने न पायेगा।
जिन्हें प्रज्ञा प्रशिक्षण के माध्यम से लोकनेतृत्व की शिक्षा दी जा रही है; उनके लिए कार्यक्षेत्र भी विनिर्मित किया जाना चाहिए। नये निर्धारण के अनुसार दस-दस गांवों का या तीन-तीन मील चारों ओर लेने पर जितने गांव उतनी परिधि में आते हों, उनका एक मण्डल बनाया जायेगा। प्रज्ञा पाठशाला केन्द्र रहेगी, प्रज्ञा मण्डल कहलायेगी और अपने इर्द-गिर्द के दस गांव वाली परिधि में मिशन का आलोक फैलाने का काम करेगी। घर-घर अलख जगाने का और समर्थक तैयार करने का काम स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप करना होगा।
कहा जा चुका है कि मण्डल के हर शिक्षित तक प्रज्ञा साहित्य पहुंचाने और वापिस लेने का प्रबन्ध, हर सदस्य का जन्म दिवसोत्सव, दीवारों पार आदर्श वाक्य लेखन और अपनी निजी उपासना-श्रद्धा का भली प्रकार निर्वाह—यह सभी कार्य सर्वत्र किये जाने हैं। इसके अतिरिक्त जिनमें परिपक्वता विकसित हो, उन्हें समयदान, अंशदान के लिए ज्ञानघट की स्थापना भी आवश्यक होगी। मण्डल के पास साधन जितने अधिक होंगे, वह उसी अनुपात से काम भी अधिक कर सकेगा। कार्य क्षेत्र में से जहां कार्यकर्ता उभारने हैं, वहां आवश्यक प्रयोजनों के लिए साधन जुटाने हैं। दोनों कार्य साथ-साथ चलने चाहिए।
शहरों में समीपवर्ती गांवों में पहुंचना कठिन पड़ता है, वहां उस नगर को ही दस खण्डों में बांट कर उन्हें एक-एक गांव मान लेना चाहिए और उसमें जन सम्पर्क तथा चेतना उत्पादन का कार्य उसी प्रकार करना चाहिए जैसा कि देहातों में तीन-तीन मील के मण्डल बना कर किया जाना है। कार्यक्रम देहात और शहर सभी में एक जैसे रहेंगे बहुत घेरा समेट कर थोड़ा काम करने की अपेक्षा यह नीति कहीं अच्छी है कि थोड़ी परिधि में अधिक ठोस और कारगर काम किया जाय।
देश में अभी 70 करोड़ करीब आबादी है। यह युग सन्धि की वेला पूरी होते-होते 100 करोड़ तक पहुंच जायेगी। प्रत्येक 1000 व्यक्तियों पीछे एक मार्गदर्शक दिशा निर्धारक हो, तो इसके लिए एक लाख कार्यकर्ता चाहिए। इन्हें उत्पन्न करना प्राप्त करना प्रज्ञा मिशन का काम है। बुद्ध, गांधी और बिनोवा का छोड़ा हुआ काम प्रज्ञा मिशन को ही पूरा करना है।
देश की साज संभाल तो अनिवार्य कर्त्तव्यों में है; पर चरण रुकने इस परिधि में भी नहीं है सारा विश्व अपना है। इन दिनों आबादी 500 करोड़ के करीब है। अनुमान है कि सन् 2000 तक वह 1000 करोड़ होगी। इस समूची परिधि को अपना कार्य क्षेत्र बनाया जाना है, तब कितने अधिक जन-नेताओं की आवश्यकता पड़ेगी, इसका अनुमान अभी से लगाया जा सकता है। तीन करोड़ प्रवासी भारतीय भी तब तक छः करोड़ हो चुके होंगे; उनके लिए भी न्यूनतम 600 कार्यकर्ता भारत से भेजने होंगे, भले ही उनमें से आधे अभी और आधे बाद में जायं। अभी तो जिन एक दो को भेजा गया था, वे लड़खड़ा गये। दूसरा तथ्य जांचे परखे लोगों का होगा, जिसमें मिशन को निन्दा और भर्त्सना का पात्र न बनना पड़े।
अभी बाल कक्षाओं की तरह सामान्य स्तर के कार्यक्रम एवं पाठ्यक्रम बनाये गये हैं; पर जैसे-जैसे प्रौढ़ता-परिपक्वता बढ़ेगी, वैसे-वैसे न केवल कार्यक्षेत्र ही व्यापक बनेगा, बड़े काम हाथ में लेने होंगे और वे सभी कार्य ऐसे होंगे, जिनमें से प्रत्येक की प्रभाव शक्ति, परिधि और जिम्मेदारी असाधारण और असीम हो।
इस शताब्दी के दो आन्दोलन व्यापक बने और जड़ जमा सके हैं- एक क्रिश्चियन मिशन, जिसके एक लाख पादरी और 60 हजार संगठन संसार के कोने-कोने में फैले हैं साथ ही बाइबिल और दूसरी पुस्तकें संसार की 600 भाषाओं में छपती हैं। दो तिहाई जनता को अपने धर्म में दीक्षित कर चुके। दूसरा आन्दोलन है—कम्युनिज्म, जिसने बुद्धि जीवियों में से हर एक को प्रभावित और सहमत किया है। एक तिहाई जनता पर जिसका शासन है और समर्थकों का बहुत बड़ा समुदाय संसार भर में है। यह सब भी लेखनी, वाणी और सघन सम्पर्क साधने वाले रचनात्मक प्रयासों से ही बन पड़ा है। योजना की दृष्टि से युग निर्माण योजना की गरिमा इन सबसे आगे है। उसके तर्क, तथ्य, प्रमाण और आधार ऐसे हैं; जिनसे संसार के हर वर्ग को सहमत और प्रभावित होना चाहिए।
प्रज्ञा मिशन का चरम लक्ष्य सार्वभौम एकता, समता और सुव्यवस्था है। एक राष्ट्र, एक दर्शन, एक भाषा, एक संस्कृति के चार आधार ऐसे हैं, जिनको सर्वत्र मान्यता दिलाने के लिए प्रबल प्रयास किये जाने हैं। शिक्षितों के लिए साहित्य और अशिक्षितों के लिए उनकी भाषा में टेप उपलब्ध कराये जाने हैं, साथ ही ऐसे आन्दोलनों का सूत्र संचालन किया जाना है, जिसके सहारे प्रचलित दुष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन हो सके और उस स्थान पर न्याय और विवेक को प्रश्रय मिल सके। इसके लिए साहित्य सृजन, संगीत अभिनय का प्रयोग, सम्मेलन, समारोहों की धूम तथा परिस्थितियों के अनुरूप छोटे-बड़े आन्दोलनों का सूत्र संचालन किया जाना है। इसके लिए ऐसे सृजनशिल्पियों की बड़ी संख्या में आवश्यकता है, जिनमें प्रतिभा, मनीषा और सुसंस्कारिता की कमी न हो, जो लोभ, मोह और अहंकार प्रदर्शन से अपना सामर्थ्य बना कर अपने आप में देवता के चरणों पर समर्पित कर सकें। ऐसे लोग बने-बनाये नहीं मिलते, उगाये और ढाले जाते हैं। प्रज्ञा प्रशिक्षण के केन्द्रीय, स्थानीय पाठशाला योजना इसी प्रयोजन के लिए है।
संसार में अशिक्षित अधिक हैं। फिर भाषाओं की विविधता भी कम छोटी अड़चन नहीं है। इस प्रकार साहित्य तो आधार ही बन सकता है पर उसके प्रयोग में वाणी ही आती हैं। वाणी की दृष्टि से हर युग सृजेता को मुखर होना चाहिए। वाणी में आकर्षण पैदा करने के लिए लोकमंगल के साथ लोक रंजन का समावेश करने के लिए उसे गायन वादन भी आना चाहिए। इन दोनों शिक्षणों के लिए दो माध्यम बड़े उपयोगी उपकरण सिद्ध हो सकते हैं।
स्लाइड प्रोजेक्ट की एक हलकी सी मशीन साथ में रखी जाय तो रंगीन चित्र प्रदर्शन के किए किसी गांव मुहल्ले में मिनटों की सूचना पर जन समुदाय एकत्रित किया जा सकता है और प्रकाश चित्रों की व्याख्या करते हुए जहां अपनी मान्यताएं सुनने वालों के गले उतारी जा सकती है वहां दुहरा लाभ यह भी हो सकता है कि व्याख्या करने के बहाने अपनी वाक्पटुता को निखारते हुए उस स्तर तक पहुंचा जा सकता है। कुशल, मुखर और प्रभावशाली वक्ता बना जा सकता है।
अच्छे गायकों के भावभरे गीत और मूर्धन्य व्यक्तित्वों के सन्देश टेप रिकॉर्डर के माध्यम से छोटी-छोटी मंडलियों और गोष्ठियों में सुनाते रहने का क्रम चलता रह सकता है। उपरोक्त दोनों उपकरण एक हजार की पूंजी में खरीदे जा सकते हैं। जरूरत आ पड़ने पर उन्हें कुछ कम दाम में उन्हें खड़े-खड़े बेचा जा सकता है। इन दोनों के साथ यदि पांच सौ के करीब का लाउड स्पीकर भी हो तो बड़े समुदाय को एकत्रित करके उन्हें सभा सम्मेलन को प्राणवान नव चेतना से लाभान्वित कराया जा सकता है। इसलिए प्रचार योजना के अन्तर्गत दो हजार के करीब की साधन सामग्री भी इकट्ठी करली जाय तो उससे जन्म दिवसोत्सव मनाने की यज्ञशाला, आदर्श वाक्य लिखने के उपकरण और झोला पुस्तकालय एक सैट बन सकता है। इसे पारी-पारी से दसों गांवों के संगठन में पहुंचाते रहा जा सकता है। यदि आर्थिक साधन जुट सके तो यह सामग्री निर्धारित मंडल के हर गांव में भी हो सकती है और उससे अनेक गुना काम हो सकता है। समीपवर्ती मण्डल अपने कार्यकर्ताओं और साधन उपकरणों की अदला−बदली भी करते रह सकते हैं।
दस गांवों के मण्डल में वर्ष में एक वार्षिकोत्सव भी हो। उन्हीं में हरिद्वार की प्रचार मण्डली जीप गाड़ी द्वारा सभी आवश्यक उपकरणों के साथ पहुंचा करेगी। दसों गांवों के प्रतिनिधि उस ढाई दिन के कार्यक्रम में साथ-साथ रहा करें। एक साथ खायें सोयें। चावल, दाल का सस्ता और सुगम प्रीति भोज होता रहे। सम्मेलन समारोहों के लिए अतिरिक्त धन्य तथा धन का चन्दा किया जा सकता है। ज्ञानघटों के पैसे तो चालू खर्च ही पूरा कर सकेंगे। इस प्रकार के सम्मेलन सहयोग और उत्साह उभारने के लिए महती भूमिका निभा सकते हैं। और जहां ऐसी व्यवस्था बनती दीखे वहां उसके लिए शान्ति कुंज से प्रचारकों की मण्डली आने की तारीखें निश्चित करा लेनी चाहिए। प्रवास चक्र के अनुसार ही स्वीकृति मिलती है।
पढ़ाई भी चलती रहे, अभ्यास भी बढ़ता रहे और साथ-साथ दस गांव में जन जागरण का लोक मानस के परिष्कार का रचनात्मक कार्य भी चलता रहे। एक कार्यकर्त्ता को एक गांव बांट देने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि दस या पांच कार्यकर्ताओं की टोली पदयात्रा या साइकिल यात्रा पर निकलें और सामूहिक प्रदर्शन से दूना चौगुना उत्साह उत्पन्न करें। सप्ताह या महीने में एक बार एक गांव का सम्मेलन समारोह एक दिन का कर लिया जाय। तो उन सभी गांवों में उत्साह बना रहेगा और पारस्परिक घनिष्ठता सुदृढ़ सुनिश्चित होती जायेगी।
जो भी सज्जन शान्ति कुंज से एक माह का सत्र पूरा करके गए हैं, उन्हें अपना स्थान समर्थ शाखा के रूप में विकसित करना चाहिए। अच्छा हो, वे अपने यहां एक प्रज्ञा पाठशाला चलाएं और जितने अधिक कार्यकर्त्ता प्रशिक्षित कर सकें, उन्हें करें; पर यदि पाठशाला का प्रबन्ध न हो सकता हो तो तीन साथी सहयोगी गणों की एक टोली मण्डली बना लें। एक स्वयं दो अन्य। इस प्रकार तीन सक्रिय कार्यकर्त्ताओं का एक मण्डल ही दस गांवों को न सही-अपने एक गांव को तो सजीव सक्रिय रख ही सकता है। यह मण्डली अपने गांवों में दीवारों पार आदर्श वाक्य लेखन, झोला पुस्तकालय एवं जन्मदिनों का प्रचलन तो करा ही सकती है। एक दो साथी अपने गांव या क्षेत्र से शान्ति कुंज के शिविरों में भेजे जा सकें तो उसके लौटने पर सहयोगी मण्डली और भी जोरदार हो सकती है। जिनके पीछे परिवार की बहुत बड़ी जिम्मेदारी नहीं है, जो परिवार का निर्वाह ब्राह्मणोचित अपरिग्रह के साथ कर सकते हैं, वे शान्ति कुंज रह कर अपना भावी समय नव-निर्माण के पुण्य प्रयोजन के लिए खपा देने का प्रयत्न करें। ऐसे कार्यकर्त्ताओं के लिए निवास निर्वाह की सुविधाएं शान्ति कुंज में मौजूद हैं।
सौंपे हुए कार्यक्रमों में झोला पुस्तकालय और जन्मदिवसोत्सव प्रक्रिया पर पूरा जोर देना चाहिए। प्रयत्न यह करना चाहिए कि अपने नगर या मुहल्ले में एक भी शिक्षित व्यक्ति ऐसा न मिले जिसे युग साहित्य नियमित रूप से पढ़ने को न मिलता हो। एक भी अशिक्षित ऐसा न रहे जिसे युग चेतना की विचारधारा नियमित रूप से सुनने को न मिल जाती हो, जन्मदिवसोत्सव न मनाया जाता हो। इससे घर-घर पहुंचने और हर परिवार से घनिष्ठता साधने का अवसर मिलता है। इस आधार पर भावी समाज की संरचना और प्रतिभा निखारने का अवसर मिलता है। इसलिए तीन व्यक्तियों की टोली ही यदि बन सकी है तो उसका काम यह होना चाहिए कि स्थानीय प्रतिभाशाली विचारशील जनों में से एक का भी जन्मदिवसोत्सव मनाये बिना छूटने न पाए। इसके लिए उन्हें पहले ही रुचे तब उत्साहित करने की आवश्यकता पड़ेगी।
यह कार्य कुछ कठिन नहीं है। मात्र जागरूकता और तत्परता बरतने की आवश्यकता है। एक कुण्डी यज्ञ घर आंगन में, मित्र-पड़ोसी-संबंधियों की उपस्थिति में बिना कठिनाई के मनाया जा सकता है। अन्य वस्तुएं न मिलने पर गुड़ व घर के निकाले घी को उसमें मिला कर हवन किया जा सकता है। सूखा करना हो तो आम के पत्तों को, बौरों को मिला कर चूर्ण सा बना कर गुड में मिला कर अच्छी खासी हवन सामग्री बनाई जा सकती है। उस अवसर पर मानव जीवन की गरिमा से लेकर व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण संबंधी जो बातें जिन परिस्थितियों में कहे जाने योग्य हैं, उन्हें कहा जा सकता है या उन्हें कर गुजरने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।
ज्ञान घट रखने की परम्परा अब शिथिल हो गई है उसे तीव्र करना चाहिए। कोई भी प्रज्ञा परिजन ऐसा न बचे जो न्यूनतम दस-बीस पैसे ज्ञान घट में जमा न करता हो। यह नियमित आजीविका का स्रोत खुला रहे तो स्थानीय शाखा को अनेकों उपयोगी उपकरण मंगाने और समय-समय पर आयोजन सम्मेलन करते रहने का प्रयोजन पूरा हो सकता है। प्रयत्न किया जाना चाहिए कि प्रज्ञा परिजनों में से एक भी ऐसा न बचे किसके यहां ज्ञान घट में अनुदान डालने का धर्म कृत्य नियमित रूप से न चलता हो। तुलसी या आंवला भी हर आंगन में आरोपित स्थापित होना चाहिए।
शान्ति कुंज से आने वाली प्रचार गाड़ी द्वारा आयोजन हर दस गांव पीछे न्यूनतम एक में तो करना आवश्यक ही समझा जाय। सभी गांवों के दो-दो चार प्रतिनिधि उसमें दोनों दिन सम्मिलित रहें। दस गांव पीछे अदल-बदल कर इसी प्रकार के सम्मेलन चाहते रहें तो मंडल के पूरी तरह मिशन की विचार धारा से ओतप्रोत हो जाना स्वाभाविक है। दसों गांव पारी-पारी अपने यहां सम्मेलन बुलाते रहने की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा चला सकते हैं। जहां कहीं भी संगठन नहीं खड़ा हो सकता वहां कम से कम एक छोटी तीन व्यक्तियों की मंडली तो आसानी से बन ही सकती है। तीन उत्साही कार्यकर्ताओं की यह टोली यदि जीवन्त हो तो उसका दबदबा सारे क्षेत्र में अनेक रचनात्मक प्रवृत्तियों को जन्म दे सकता है। प्रौढ़ शिक्षा व बाल संस्कारशाला का प्रबन्ध भी वे तीनों मिल-जुलकर कर सकते हैं। इन तीनों का मिलन ऐसा होना चाहिए जिससे न तो मनोमालिन्य पनपने पाए, न ही शिथिलता की बहानेबाजी ही चलने पाए।
व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण के क्षेत्र अछूते हैं। राजनीति में धकापेल चल रही है पर राष्ट्र की जड़ें मजबूत करने वाले इन महत्वपूर्ण विषयों की ओर किसी का ध्यान नहीं है। अभी राजनैतिक क्रान्ति हो चुकी है सरकार आर्थिक एवं सुरक्षा मोर्चे को प्रधानता दे रही है। किन्तु नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक क्षेत्र में परिवर्तन किए जाने हैं उनकी ओर उपेक्षा ही बरती जा रही है। पत्ते सींचे जा रहे हैं पर जड़ सींचने की ओर किसी का ध्यान नहीं है। हमें अपनी गतिविधियों को इन्हीं क्षेत्रों में नियोजित करना चाहिए। लोकमानस को जागृत बनाया जा सका तो शासनसूत्र संभालने वाले सुयोग विवेकवान एवं चरित्रवान प्रतिनिधियों का चयन भी कठिन न रहेगा। तब वह आवश्यकता भी पूरी हो सकेगी जिसे लोग राजनीति में प्रवेश के लिए आतुरता बरतकर हथेली पर सरसों जमाना चाहते हैं। जादुई मिठाई से पेट भरना चाहते हैं।
आरंभिक और आधारभूत कार्यक्रम की चर्चा ऊपर हुई। यह उत्साह उभारने और सेवा भावना की प्रवृत्ति जगाने के लिए है। जन जागरण और लोकमानस का परिष्कार भी उन माध्यमों से हो सकता है पर उनमें स्थायित्व लाने के लिए हर परिपक्व संगठन को प्रौढ़ शिक्षा का बाल संस्कार शाला का काम हाथ में लेना चाहिए। यह दोनों ही कार्य ऐसे हैं जिनसे राष्ट्र की प्राथमिक आवश्यकता पूरी होती है। साक्षरता के बिना विचारोत्तेजक साहित्य नहीं पढ़ा जा सकता और उनके बिना चिन्तन चरित्र और व्यवहार में सुधार लाने वाली समयानुकूल जानकारियों से अवगत नहीं हुआ जा सकता। इसलिए हमें वयस्क और व्यस्त नर-नारियों को साक्षर बनाने एवं समस्याओं का समाधान बताने वाला साहित्य उपलब्ध कराना चाहिए। पुस्तकालय एक स्थान पर बना देने से अरुचि को सुरुचि में नहीं बदला जा सकता। इसके लिए घर-घर जाना और झोला पुस्तकालय से पुस्तकें लेने वापिस करने का चस्का लगाना पड़ेगा। प्रौढ़ शिक्षा के उपरान्त यही दूसरा कदम है।
ईसाई चर्चों में से प्रत्येक में डिस्पेंसरी रहती है ताकि स्वास्थ्य सेवा का पुण्य अर्जित करने के अतिरिक्त जन साधारण की सहानुभूति आकर्षित कर सकें। यह कार्य प्रत्येक प्रज्ञा मंडल कर सकता है। रसोई में काम आने वाले मसाले तथा आस-पास उगने वाली जड़ी बूटियों के सहारे बिना किसी खर्च के घरेलू चिकित्सा की जा सकती है। एक दो क्यारी जमीन में उन्हें बोया उगाया जा सकता है। तुलसी अकेली ही ऐसी है जिसकी स्थापना देवी स्थापना के समान श्रद्धास्पद होती है और अनुमान भेद से अनेकों रोगों में काम आती है। प्रज्ञामण्डल यह स्थापना भी कराये और स्वास्थ्य संवर्धन के लिए व्यायामशालाओं की स्थापना का भी प्रबन्ध करें। बाल-वृद्ध, नर-नारी सभी को उनकी शारीरिक स्थिति के अनुरूप व्यायाम सिखाये जा सकते हैं। स्वच्छता, आहार संयम आदि के बारे में भी आवश्यक जानकारियां देकर स्वास्थ्य संवर्धन तथा स्वच्छता सुरुचि को विकसित किया जा सकता है।
बाल संस्कारशाला को भी प्रज्ञा प्रशिक्षण के अन्तर्गत ही सम्मिलित करना चाहिए। उसके दो विभाग रहें एक कार्यकर्ता प्रशिक्षण एवं जन जागरण, दूसरा स्कूली बालकों को उनके बचे हुए समय में पाठ्यक्रम परिपक्व करना एवं शिष्टाचार को स्वभाव में सम्मिलित करना। इससे उस अभाव की पूर्ति होगी जो अभिभावकों और अध्यापकों से प्रायः छूट ही जाता है। घर पर पढ़े बिना मात्र स्कूली पढ़ाई के आधार पर अब कोई बालक अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण नहीं हो सकता और अपना भविष्य नहीं बना सकता। शिष्टाचार, सुसंस्कारिता, नागरिकता, सामाजिकता, के अंग हैं। यह धर्मतत्व का सार है। इसे भी स्कूलों में इतनी गंभीरता से नहीं पढ़ाया जाता कि छात्रों के गले उतर सके और जीवनचर्या में सम्मिलित हो सके। यह कार्य बाल संस्कार शालाएं कर सकती हैं। जिनके पास भावनायें हैं, जो थोड़ा समय सेवा कार्य के लिए लगा सकते हैं ऐसे लोगों से विद्याऋण चुकाने के लिए पाठशाला में पढ़ाने हेतु समय मांगना चाहिए। फीस देकर बच्चों को पढ़ाने का प्रचलन तो सम्पन्न वर्ग में है। गरीबों के बच्चे तो परिवार में संस्कार के अभाव में पढ़ने से जी चुराते हैं। उन्हें किसी प्रकार घेर-बटोर कर एक जगह इकट्ठा कर लिया जाय और पढ़ने में रुचि लेने लगने की सफलता प्राप्त कर ली जाय तो समझना चाहिए कि बहुत बड़ा काम हो गया। इतना ही बड़ा जितना कि खाली समय वाले शिक्षितों को बिना पैसा लिये पढ़ाने के लिए सेवा भावना के आधार पर तैयार करना।
स्कूली पढ़ाई घर पर चलाने के लिए अभिभावकों और बालकों को यह समझाया जा सकता है कि अभ्यास के आधार पर वे अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण होंगे। पर वास्तविक रहस्य यह है कि उन्हें इसके साथ ही सुसंस्कारिता के सांचे में ढाला जाय। उनके गुण, कर्म स्वभाव में शालीनता और सज्जनता की गहरी छाप डाली जाय, क्योंकि व्यक्तित्व का उभार और प्रगति का आधार वस्तुतः यही है। दुर्गुणी व्यक्ति सम्पन्न और शिक्षित होते हुए भी पतन के गर्त में गिरते हैं। स्वयं दुख पाता और साथियों का जी जलाता है। इसके विपरीत जिसमें सद्गुणों का भण्डार है जो चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में यथार्थवादी है वह न तो पिछड़ी स्थिति में रहेगा और न गरीबी में दिन काटेगा। जिस भी परिस्थिति में उसे रहना पड़े उसी में हंसते हंसाते समय बितायेगा और स्वयं प्रसन्न रहते हुए साथियों पर उल्लास बिखेरेगा।
समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी, बहादुरी यह चार गुण मनुष्यता के चार अलंकार आभूषण हैं जो इनसे सुसज्जित हैं समझना चाहिए कि वह हर दृष्टि से भाग्यशाली है, उसका भविष्य उज्ज्वल है।
इसी प्रकार श्रमशीलता, सुव्यवस्था, मितव्ययिता, शिष्टता, सज्जनता, सहकारिता, उदारता, स्वच्छता, सुव्यवस्था जिसके स्वभाव में सम्मिलित हो गई वह स्वयं बढ़ेगा और अपने साथियों को बढ़ावा देगा। इसी प्रकार समय संयम, विचार संयम भी उच्च कोटि का सद्गुण है। जो अनुशासन का महत्व समझता है, नियमितता अपनाता है, हाथ के काम को प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर तत्परता एवं तन्मयता के साथ करता है, आलस्य प्रमाद से बचता है, स्वच्छ रहता और अपने वस्त्र उपकरणों को साफ सुथरा सुसज्जित रखता है, समझना चाहिए कि उसने शालीनता का पाठ पढ़ लिया। मानवी गरिमा का रहस्य समझ लिया।
इन सद्गुणों को गले कैसे उतारा जाय? इसके लिए मोटा स्वरूप तो यही है कि सद्गुणों को अपनाने के लाभ और उनसे रहित होने के नुकसान तर्क, तथ्य, प्रमाण, उदाहरणों समेत बताते रहा जाय। इस कार्य में युग साहित्य की कई पुस्तकें सहायता कर सकती हैं। ट्रैक्ट भी इस संदर्भ में छपे हैं। उन्हें पढ़ते पढ़ाते रहना प्रश्नोत्तर करते रहना साधारण तरीका है। पर विशेष बात यह है कि पाठशाला में सम्मिलित होने वाले छात्रों में कौन गुण विकसित हैं कौन अविकसित। जो विकसित हों उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए और सुधार की दिशा में आगे बढ़ चलने का सैद्धान्तिक ही नहीं व्यवहारिक मार्ग दर्शन भी करना चाहिए। जिनमें श्रेष्ठता के गुण अविकसित हैं उन्हें भी डांटना फटकारना तो नहीं चाहिए पर प्यार के साथ मीठे शब्दों में यह समझाना चाहिए कि अपने स्वभाव में इतना अन्तर और ला सकें तो तुम सभी की आंखों के तारे बन सकते हो।इस संदर्भ में व्यक्तिगत निरीक्षण और व्यक्तिगत परामर्श ही वास्तविक काम करता है। पुस्तक का कोई पन्ना सबको बिठाकर सुना देना तो एक लाठी से सब भेड़ों को हांकने के समान है उतने भर से तो चिह्न पूजा ही होती है और लकीर ही पिटती है जैसा लाभ मिलना चाहिए वैसा नहीं मिलता। यह शिक्षण अध्यापक की अपनी सूझबूझ, परख और शालीनता पर निर्भर है। ऐसे अध्यापक समयदानियों में से न मिलें तो उतना दायित्व संस्था संचालकों को स्वयं वहन करना चाहिए। जिस उत्साह से प्रज्ञा प्रशिक्षण चलाया था उसी उत्साह से उसी का अविच्छिन्न अंग मानकर इसके सुसंचालन का भी प्रबंध करना चाहिए।
लोक नेतृत्व में आत्म गौरव की झलक झांकी प्रत्यक्ष होती हैं। जो कार्य दूसरे नहीं कर सकते उसे कर दिखाना जन साधारण पर गहरी छाप छोड़ता और अपनी अन्तरात्मा उस गरिमा को उपलब्ध करके प्रमुदित उल्लासित होती है। लोक श्रद्धा और जन सहयोग की कमी नहीं रहती। इस आधार पर सेवाभावी का ऊंचा उठना आगे बढ़ना स्वाभाविक है। दूसरे दुर्बल मानस वालों को भी ऐसी आदर्शवादिता का अनुसरण करने की हिम्मत पड़ती है। इससे वातावरण बनता है। आत्मकल्याण, जन कल्याण और विश्वकल्याण के तीनों ही प्रयोजन जिस सेवा, साधना से सधते हैं वह प्रज्ञा अभियान की निर्धारित कार्य परिस्थितियों की जन्मदात्री मनःस्थिति है। लोगों की मनःस्थिति बदली जा सके तो उनकी परिस्थितियां भी बदलेंगी और कठिनाइयां भी सरल होंगी। उस सर्वतोमुखी उत्सर्ग का श्रेय प्रायः उसी को मिलता है जिसने लोकहित के मार्ग पर साहसिक कदम बढ़ाते हुए अग्रगामियों में अपना नाम लिखाया। इसका आरंभिक अभ्यास प्रज्ञा आयोजनों में सम्मिलित होकर किया जा सकता है और उसका सत्परिणाम हाथों हाथ उपलब्ध होते देखा जा सकता है।
अपने देश में पिछले दिनों राजनैतिक क्षेत्र में एक से एक बढ़कर उज्ज्वल नक्षत्र चमके हैं और लम्बी गुलामी की कलंक कालिमा से मुक्ति दिलाने में समर्थ हुए हैं। उनकी यशो गाथा सदा अमर रहेगी। समझा जाता है कि लोग अधिकतर पशु प्रवृत्ति के होते हैं तात्कालिक लाभ देखते और उसके लिए अनर्थ अपनाने में लगे रहते हैं; पर यह आंशिक सत्य है। जब कोई प्रतिभावान आदर्शवादी सामने आता है तो उसका अनुकरण करने में भी विलम्ब नहीं करते। कितने ही व्यक्ति ऐसे हैं जिन्होंने संकल्प किये, योजनाबद्ध अभियान चलाये। उस साहस से प्रभावित होकर लोगों की श्रद्धा-सद्भावना उभरी और वे उस कार्य की पूर्ति में प्राणप्रण से जुट गए। पर ऐसी गरिमा उन्हीं को प्राप्त होती है जो अपने चिन्तन, चरित्र और व्यवहार को आदर्शों की कसौटी पर खरा सिद्ध करते हुए जनता के सामने आते हैं।
अमेरिका के राष्ट्रपतियों में अब्राहम लिंकन, जार्ज वाशिंगटन, गारफील्ड जैसे कई ऐसे हुए हैं जो जन्मजात रूप से निर्धन एवं संकट ग्रस्त थे। पर उनने अपने व्यक्तित्व को इस प्रकार निखारा कि हर किसी को उनका समर्थन करना पड़ा। आदर्शों में हजार हाथी का बल होता है। इस अवधारणा के पीछे ईश्वर की अदृश्य सहायता काम करती है। असुर दमन और राम राज्य-स्थापना का लक्ष्य लेकर कार्यरत राम के पीछे रीछ वानरों की सेना चल पड़ी थी और अंगद हनुमान, जामवन्त जैसे सहायक अनायास ही उनसे आ जुड़े थे। छोटी गिलहरी तक ने अपने बालों में बालू भर कर समुद्र पाटने का सहयोग दिया था। राम के आदर्शवाद को भरत ने अपनाया और उस कारण वह समूचा परिवार ही कुछ से कुछ बन गया।
नेतृत्व का छोटा अभ्यास करने वाले समय आने पर महान कार्य कर गुजरने की भूमिका निभाते हैं। ऐसे ही लोगों ने श्रमिकों को साथ लेकर चीन में दस फुट चौड़ी और 500 मील लम्बी वृक्षों की एक सुहावनी कतार रेगिस्तान रोकने के लिए खड़ी की है। स्वेज और पनामा नहरें बन जाने से समय, श्रम और साधन की भारी बचत होने लगी। यह कार्य जन सहयोग से ही संभव हुए और वह सहयोग जुटाया उनने जिनकी वाणी ही नहीं क्रिया और भावना भी बोलती थी। संसार में अनेकों राज्यक्रांतियां हुई, अनेकों देश गुलामी के बन्धनों से छूटकर अपने भाग्य निर्माण का अधिकार प्राप्त कर चुके हैं। यह सब अनायास ही नहीं हो गया। इसके लिए जन सहयोग उन लोगों ने उभारा था जो नेतृत्व के लिए आवश्यक गुणों से अपने को सज्जित कर चुके थे। प्रभावशाली वाणी ऐसे ही लोगों की होती है। योजनाएं उन्हीं की मान्यताएं प्राप्त करती हैं। मात्र वाचालता से कोई नेता नहीं बन सकता। वह चीख चिल्ला कर मजमा इकट्ठा कर सकता है और लोगों के लिए एक दर्शनीय कौतूहल बन सकता है। ठोस काम कर सकना और करा सकना प्रतिभाशाली व्यक्तियों के लिए ही संभव होता है। प्रज्ञा प्रशिक्षण के माध्यम से उसी दिव्य क्षमता को असंख्यों में उभारा जा रहा है। नदी पार करने का कौशल अर्जित करने से पूर्व तालाब में तैरना सीखना पड़ता है प्रज्ञा अभियान की आरंभिक गतिविधियां ऐसी ही हैं जिन्हें भावना और सक्रियता का थोड़ा सा अंश उभार कर अपनाया जा सकता है। इसके बाद उस आधार को अपनाकर ऐसा आनन्द उठाया जा सकता है जो जीवन भर चलता रहे। आग को ईंधन मिलता रहे भावना को क्रिया मिलती रहे तो उसकी ज्योति बुझने नहीं पाती।
अपने देश में करने को बहुत कुछ पड़ा है। इसमें साक्षरता से लेकर समस्याओं के समाधान का मार्ग बताना प्रथम कार्य है। सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार दूसरा। कुरीतियों में खर्चीली शादियां, पर्दाप्रथा, जातिगत ऊंच-नीच, भिक्षा व्यवसाय, नशेबाजी जैसी कुरीतियां ऐसी हैं जिनके विरुद्ध समर्थ मोर्चा खोलकर उन्हें निरस्त किया जा सकता है; पर इनके विरुद्ध भी वैसे ही आन्दोलन की आवश्यकता पड़ेगी जैसी की पिछले दिनों दास प्रथा, जमींदारी आदि के विरुद्ध लड़नी पड़ी। व्यक्ति, परिवार और समाज को सुसंस्कारी बनाने के लिए मिशन की बहुमुखी योजनायें कार्यान्वित होने के लिए समर्थ कार्यकर्ताओं की प्रतीक्षा कर रही है। उसकी पूर्ति हमें ही करनी पड़ेगी और शुभारम्भ का मुहूर्त आज का दिन ही मानना होगा।
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*समाप्त*