Books - युग प्रवाह को मोड़ देने वाले निर्भीक विचारक
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Language: HINDI
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प्रो. एच. विल्सन : मैक्समूलर जिनके उत्तराधिकारी बने
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सन् 1908 में एक अंग्रेज युवक इंग्लैण्ड से भारतीय चिकित्सा सेवा विभाग का अधिकारी बन कर आया। इस अंग्रेज युवक का रसायन शास्त्र तथा रासायनिक परख विज्ञान पर भी अच्छा अधिकार और अनुभव था। इस कारण उसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कलकत्ता की टकसाल में एस्से अधिकारी बना दिया। इस पद पर काम कम था और जिम्मेदारियां अधिक। इसलिए अधिकांश समय फालतू ही रहता।
अपने विभाग में अन्य अधिकारियों ने युवक को खाली समय मौज मजे उड़ाने में लगाने की प्रेरणा दी। परन्तु युवक को यह अच्छा नहीं लगा। वह कोई ऐसा काम तलाशने लगा जिसमें खाली समय गुजारा नहीं उपयोग में लाया जा सके। समय ही जीवन है। यह बात अच्छी तरह समझकर उसके उपयोग के अवसर ढूंढ़े जाय तो व्यक्ति शीघ्र ही समय काटने वालों की अपेक्षा कई गुना अधिक प्रगति कर दिखा देता है।
परख—अधिकारी युवक जो बाद में प्रो. एच. एच. विल्सन के नाम से पाश्चात्य देशों तथा भारत में सांस्कृतिक जगत में विख्यात हुए—ने समय की कीमत को ठीक प्रकार से समझा तथा उसका उपयोग इतनी कुशलता के साथ किया कि भारत से विदा होते समय वे वेदों के आद्य आंग्ल अनुवाद के रूप में माने जाने लगे।
एच. विल्सन ने परख-अधिकारी के पद पर रहते हुए शेष समय भारतीय जन जीवन का अध्ययन करने में लगाया। इस देश की सामान्य जनता से लेकर विशिष्ट और विद्वान व्यक्तियों तक में उन्हें कई विशेषतायें दिखाई दी। किसी भी देश और समाज की सभ्यता संस्कृति की परख वहां के सामान्य वर्ग से ही की जा सकती है। विल्सन दे देखा कि यहां का साधारण आदमी अद्भुत परिश्रमी, सन्तोषी, अध्यवसायी, सहृदय तथा शिष्ट विनम्र है। ये जातीय विशेषतायें इस देश की संस्कृति और धर्म की ही देन हो सकती हैं, बाहर से आयातित नहीं। यद्यपि उस समय भी दम्भी, मिथ्याभिमानी और शान शौकत पसन्द करने वाले लोगों की कमी नहीं थी। परंतु विल्सन ने इसका कारण दूसरा ही माना है। अपनी एक पुस्तक में वे इस कारणों का उल्लेख करते हुए कहते हैं—‘जहां कहीं भी मुझे सादगी, सज्जनता और नम्रता का अभाव दीखा वहां के वातावरण का अध्ययन करने पर पता चला कि ये गुण यूरोपियनों के संसर्ग से ही पैदा हुए हैं। अन्यथा भारत की आत्मा तो महान् है।’
भारतीय समाज की इन विशेषताओं का परिचय उन्हें अपनी टकसाल में ही देखने को मिला। वहां के कर्मचारियों को वे भारतीय संस्कृति का प्रेरणा स्रोत मानते हुए लिखते हैं—मैंने जब भी टकसाल के कर्मचारियों मिस्त्रियों तथा श्रमिकों को देखा तो वह प्रायः हंसमुख और कार्यरत ही दीखे। उनके अथक परिश्रम, अनवरत अध्यवसाय और प्रसन्न चेहरों को मैं कभी नहीं भुला सकूंगा। अनुशासित और व्यवस्था प्रेमी हैं। ईमानदार हैं। दूसरे देशों की टकसाल में जिस प्रकार का सुरक्षा, प्रबंध और अपराध निरोधक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है, वह यहां अनावश्यक समझी गयी है।
यह चित्रण उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों वाले जन समाज का है। जो लोग भारत की चरित्र हीनता, आलस्य और अय्याशी को यहां की संस्कृति की देन मानते हैं, वे भूल करते हैं। वस्तुतः इन दुर्गुणों का आविर्भाव तो शारीरिक, मानसिक और राजनीतिक सर्वांगीण दासता के युग में ही हुआ। उस समय जब का यह चित्र है, ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन अपने प्रारम्भिक दौर में था।
भारतीय जनता के प्रति इतना प्रशंसा भाव तथा परिष्कृत दृष्टिकोण रखने वाले प्रो. एच. एच. विल्सन का जन्म 26 सितम्बर 1786 ई. को लंदन के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। सोहो स्कावायर तथा सेंट टामस अस्पताल में उन्होंने शिक्षा तथा चिकित्सा शास्त्र की डिग्री प्राप्त की। विद्यार्थी जीवन में भी वे साथियों की दृष्टि में एक रूखे स्वभाव के किताबी कीड़े माने जाते थे। परंतु विल्सन मनोरंजन के लिए जीवन शक्ति का अपव्यय करने वाली पार्टियों और मौज-मजों से अपना समय बचाकर प्रकृति की गोद में जाते। समय सम्पदा का नाश करने वाला मनोरंजन जहां व्यक्ति की मानसिक शक्तियों को क्षीण और पंगु बनाता है, वहीं स्वस्थ मनोविनोद और प्रकृति प्रेम मस्तिष्क को नयी ताजगी और बुद्धि को शक्ति प्रदान करता है।
भारत आने तक उन्हें यह पता नहीं था कि संस्कृत नाम की कोई भाषा है भी। यहां के जन जीवन को इतना निकट से देखने के बाद उन्हें भारतीय संस्कृति के प्रति जिज्ञासा हुई और वे यहां की संस्कृति के प्रति आकृष्ट हुए। कई भारतीय विद्वानों से उन्होंने सम्पर्क साधा।
आरम्भ में उन्हें बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। कई वैदिक विद्वान अपने धर्म ग्रन्थों को विदेशी तथा विधर्मियों के हाथ से स्पर्श भी होने देना नहीं चाहते थे। इस सम्बंध में उन लोगों की धारणा थी कि ऐसा होने से धर्मग्रन्थ अपवित्र हो जाते हैं। इस परम्परा का निर्माण धर्मान्ध मुगल बादशाहों से धर्मग्रन्थों की रक्षा के लिए किया गया है। हम तो इस ज्ञान को संसार के कोने-कोने में पहुंचाना चाहते हैं ताकि दुनिया के लोग भारतीय संस्कृति और धर्म की महानता को भली भांति समझ लें। प्रो. विल्सन ने समझाया। विचार और विवेक का वरण करने के लिए सतत् तैयार रहने वाले पण्डितों ने अब विल्सन को सभी प्रकार की सहायता देने का निश्चय किया।
समाज का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो किसी समय में बनायी गयी उपयोगी परम्पराओं को, जो अब व्यर्थ सिद्ध हो चुकी हैं, भी पालन करता चलता है। इनमें से कई तो समझदार और विचारशील भी होते हैं परन्तु प्रायः उनका ध्यान परम्परा की उपयोगिता के विषय पर नहीं जाता। कारण वे विचारशील होने से पहले कहीं परम्परावादी होते हैं। उन व्यक्तियों को समझाने का प्रयास किया जाय तो वे आसानी से व्यर्थ परिपाटियों और हानिकारक प्रथाओं का त्याग कर सकते हैं। समाज के बहुत बड़े वर्ग को इस प्रकार रूढिमुक्ति किया जा सकता है।
विद्वानों की सहायता से संस्कृत साहित्य का अध्ययन कर विल्सन भारतीय तत्वज्ञान की दिशा में क्रमशः प्रगति करते गये। हिन्दू धर्म और संस्कृति के अध्ययन हेतु बनायी गयी एशियाटिक सोसायटी के वे सदस्य भी बने। कई वर्षों तक वे इस संस्था के सेक्रेटरी पद पर रहे।
सर्वप्रथम उन्होंने मेघदूत और विष्णुपुराण का अंग्रेजी में अनुवाद किया। संसार संस्कृत साहित्य के रत्नकोषों को देखकर आश्चर्य चकित रह गया। संस्कृत भाषा के अध्ययन को सुलभ बनाने के लिए उन्होंने एक शब्दकोष तैयार किया और संसार की सभी भाषाओं से अधिक इस भाषा को समृद्ध साबित किया।
सन् 1833 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफेसर बन कर यहां से वापस चले गये। जाते समय वे अपने साथ वेदों की संहितायें आर्य साहित्य भी लेते गये। उन्होंने सर्व प्रथम ऋग्वेद का अंग्रेजी अनुवाद किया। जो आज भी यूरोप के वेद विद्यार्थियों को पाठ्य ग्रन्थ के रूप में पढ़ाया जाता है। सायण भाष्य पर आधारित उनका अनुदित ऋग्वेद प्रकाशित होने ही यूरोपीय देशों में तहलका मच गया। संसार के लोग आश्चर्य चकित रह गये कि इतना सम्पन्न और समर्थ संस्कृति वाला देश एक व्यापारी कम्पनी का गुलाम कैसे बना हुआ है। प्रो. विल्सन ने भारत का ऐतिहासिक अध्ययन कर उन कारणों को भी उद्घाटित किया।
1860 में जब विल्सन की मृत्यु के कारण ऑक्सफोर्ड के संस्कृत प्रोफेसर का पद रिक्त हुआ तो उनका प्रधान शिष्य और मेधावी अनुयायी होने के कारण ही मैक्समूलर को इस पद पर नियुक्त किया। आंग्ल भाषा में वैदिक साहित्य के अनुवाद का श्रेय भी मैक्समूलर के प्रो. विल्सन के कारण ही प्राप्त है। अवकाश के समय का उपयोग कर संसार को एक महान् संस्कृति के तत्वज्ञान से अवगत करा देने वाले प्रो. विल्सन का भारतीय समाज बारम्बार आभारी है।
अपने विभाग में अन्य अधिकारियों ने युवक को खाली समय मौज मजे उड़ाने में लगाने की प्रेरणा दी। परन्तु युवक को यह अच्छा नहीं लगा। वह कोई ऐसा काम तलाशने लगा जिसमें खाली समय गुजारा नहीं उपयोग में लाया जा सके। समय ही जीवन है। यह बात अच्छी तरह समझकर उसके उपयोग के अवसर ढूंढ़े जाय तो व्यक्ति शीघ्र ही समय काटने वालों की अपेक्षा कई गुना अधिक प्रगति कर दिखा देता है।
परख—अधिकारी युवक जो बाद में प्रो. एच. एच. विल्सन के नाम से पाश्चात्य देशों तथा भारत में सांस्कृतिक जगत में विख्यात हुए—ने समय की कीमत को ठीक प्रकार से समझा तथा उसका उपयोग इतनी कुशलता के साथ किया कि भारत से विदा होते समय वे वेदों के आद्य आंग्ल अनुवाद के रूप में माने जाने लगे।
एच. विल्सन ने परख-अधिकारी के पद पर रहते हुए शेष समय भारतीय जन जीवन का अध्ययन करने में लगाया। इस देश की सामान्य जनता से लेकर विशिष्ट और विद्वान व्यक्तियों तक में उन्हें कई विशेषतायें दिखाई दी। किसी भी देश और समाज की सभ्यता संस्कृति की परख वहां के सामान्य वर्ग से ही की जा सकती है। विल्सन दे देखा कि यहां का साधारण आदमी अद्भुत परिश्रमी, सन्तोषी, अध्यवसायी, सहृदय तथा शिष्ट विनम्र है। ये जातीय विशेषतायें इस देश की संस्कृति और धर्म की ही देन हो सकती हैं, बाहर से आयातित नहीं। यद्यपि उस समय भी दम्भी, मिथ्याभिमानी और शान शौकत पसन्द करने वाले लोगों की कमी नहीं थी। परंतु विल्सन ने इसका कारण दूसरा ही माना है। अपनी एक पुस्तक में वे इस कारणों का उल्लेख करते हुए कहते हैं—‘जहां कहीं भी मुझे सादगी, सज्जनता और नम्रता का अभाव दीखा वहां के वातावरण का अध्ययन करने पर पता चला कि ये गुण यूरोपियनों के संसर्ग से ही पैदा हुए हैं। अन्यथा भारत की आत्मा तो महान् है।’
भारतीय समाज की इन विशेषताओं का परिचय उन्हें अपनी टकसाल में ही देखने को मिला। वहां के कर्मचारियों को वे भारतीय संस्कृति का प्रेरणा स्रोत मानते हुए लिखते हैं—मैंने जब भी टकसाल के कर्मचारियों मिस्त्रियों तथा श्रमिकों को देखा तो वह प्रायः हंसमुख और कार्यरत ही दीखे। उनके अथक परिश्रम, अनवरत अध्यवसाय और प्रसन्न चेहरों को मैं कभी नहीं भुला सकूंगा। अनुशासित और व्यवस्था प्रेमी हैं। ईमानदार हैं। दूसरे देशों की टकसाल में जिस प्रकार का सुरक्षा, प्रबंध और अपराध निरोधक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है, वह यहां अनावश्यक समझी गयी है।
यह चित्रण उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों वाले जन समाज का है। जो लोग भारत की चरित्र हीनता, आलस्य और अय्याशी को यहां की संस्कृति की देन मानते हैं, वे भूल करते हैं। वस्तुतः इन दुर्गुणों का आविर्भाव तो शारीरिक, मानसिक और राजनीतिक सर्वांगीण दासता के युग में ही हुआ। उस समय जब का यह चित्र है, ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन अपने प्रारम्भिक दौर में था।
भारतीय जनता के प्रति इतना प्रशंसा भाव तथा परिष्कृत दृष्टिकोण रखने वाले प्रो. एच. एच. विल्सन का जन्म 26 सितम्बर 1786 ई. को लंदन के एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। सोहो स्कावायर तथा सेंट टामस अस्पताल में उन्होंने शिक्षा तथा चिकित्सा शास्त्र की डिग्री प्राप्त की। विद्यार्थी जीवन में भी वे साथियों की दृष्टि में एक रूखे स्वभाव के किताबी कीड़े माने जाते थे। परंतु विल्सन मनोरंजन के लिए जीवन शक्ति का अपव्यय करने वाली पार्टियों और मौज-मजों से अपना समय बचाकर प्रकृति की गोद में जाते। समय सम्पदा का नाश करने वाला मनोरंजन जहां व्यक्ति की मानसिक शक्तियों को क्षीण और पंगु बनाता है, वहीं स्वस्थ मनोविनोद और प्रकृति प्रेम मस्तिष्क को नयी ताजगी और बुद्धि को शक्ति प्रदान करता है।
भारत आने तक उन्हें यह पता नहीं था कि संस्कृत नाम की कोई भाषा है भी। यहां के जन जीवन को इतना निकट से देखने के बाद उन्हें भारतीय संस्कृति के प्रति जिज्ञासा हुई और वे यहां की संस्कृति के प्रति आकृष्ट हुए। कई भारतीय विद्वानों से उन्होंने सम्पर्क साधा।
आरम्भ में उन्हें बड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। कई वैदिक विद्वान अपने धर्म ग्रन्थों को विदेशी तथा विधर्मियों के हाथ से स्पर्श भी होने देना नहीं चाहते थे। इस सम्बंध में उन लोगों की धारणा थी कि ऐसा होने से धर्मग्रन्थ अपवित्र हो जाते हैं। इस परम्परा का निर्माण धर्मान्ध मुगल बादशाहों से धर्मग्रन्थों की रक्षा के लिए किया गया है। हम तो इस ज्ञान को संसार के कोने-कोने में पहुंचाना चाहते हैं ताकि दुनिया के लोग भारतीय संस्कृति और धर्म की महानता को भली भांति समझ लें। प्रो. विल्सन ने समझाया। विचार और विवेक का वरण करने के लिए सतत् तैयार रहने वाले पण्डितों ने अब विल्सन को सभी प्रकार की सहायता देने का निश्चय किया।
समाज का बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जो किसी समय में बनायी गयी उपयोगी परम्पराओं को, जो अब व्यर्थ सिद्ध हो चुकी हैं, भी पालन करता चलता है। इनमें से कई तो समझदार और विचारशील भी होते हैं परन्तु प्रायः उनका ध्यान परम्परा की उपयोगिता के विषय पर नहीं जाता। कारण वे विचारशील होने से पहले कहीं परम्परावादी होते हैं। उन व्यक्तियों को समझाने का प्रयास किया जाय तो वे आसानी से व्यर्थ परिपाटियों और हानिकारक प्रथाओं का त्याग कर सकते हैं। समाज के बहुत बड़े वर्ग को इस प्रकार रूढिमुक्ति किया जा सकता है।
विद्वानों की सहायता से संस्कृत साहित्य का अध्ययन कर विल्सन भारतीय तत्वज्ञान की दिशा में क्रमशः प्रगति करते गये। हिन्दू धर्म और संस्कृति के अध्ययन हेतु बनायी गयी एशियाटिक सोसायटी के वे सदस्य भी बने। कई वर्षों तक वे इस संस्था के सेक्रेटरी पद पर रहे।
सर्वप्रथम उन्होंने मेघदूत और विष्णुपुराण का अंग्रेजी में अनुवाद किया। संसार संस्कृत साहित्य के रत्नकोषों को देखकर आश्चर्य चकित रह गया। संस्कृत भाषा के अध्ययन को सुलभ बनाने के लिए उन्होंने एक शब्दकोष तैयार किया और संसार की सभी भाषाओं से अधिक इस भाषा को समृद्ध साबित किया।
सन् 1833 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में संस्कृत के प्रोफेसर बन कर यहां से वापस चले गये। जाते समय वे अपने साथ वेदों की संहितायें आर्य साहित्य भी लेते गये। उन्होंने सर्व प्रथम ऋग्वेद का अंग्रेजी अनुवाद किया। जो आज भी यूरोप के वेद विद्यार्थियों को पाठ्य ग्रन्थ के रूप में पढ़ाया जाता है। सायण भाष्य पर आधारित उनका अनुदित ऋग्वेद प्रकाशित होने ही यूरोपीय देशों में तहलका मच गया। संसार के लोग आश्चर्य चकित रह गये कि इतना सम्पन्न और समर्थ संस्कृति वाला देश एक व्यापारी कम्पनी का गुलाम कैसे बना हुआ है। प्रो. विल्सन ने भारत का ऐतिहासिक अध्ययन कर उन कारणों को भी उद्घाटित किया।
1860 में जब विल्सन की मृत्यु के कारण ऑक्सफोर्ड के संस्कृत प्रोफेसर का पद रिक्त हुआ तो उनका प्रधान शिष्य और मेधावी अनुयायी होने के कारण ही मैक्समूलर को इस पद पर नियुक्त किया। आंग्ल भाषा में वैदिक साहित्य के अनुवाद का श्रेय भी मैक्समूलर के प्रो. विल्सन के कारण ही प्राप्त है। अवकाश के समय का उपयोग कर संसार को एक महान् संस्कृति के तत्वज्ञान से अवगत करा देने वाले प्रो. विल्सन का भारतीय समाज बारम्बार आभारी है।