Books - युग प्रवाह को मोड़ देने वाले निर्भीक विचारक
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Language: HINDI
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समाजवादी समाज के प्रथम संस्थापक-लेनिन
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काफी समय हो गया था मां से मिले लेनिन को और मां भी अपने बेटे को देखने के लिए रूस छोड़ कर स्टाक होम आ गयी थी। पचहत्तर वर्ष की आयु थी उस समय निर्वासित लेनिन की। मां ने पुत्र की ओर स्नेह दृष्टि से देखा और पुत्र ने मां की ओर श्रद्धा तथा प्रेम से। उस समय लेनिन क्रान्तिकारी नेता के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। देश-विदेश के साम्यवादी संगठनों में उनका नाम बड़े आदर से लिया जाता था। स्टाक होम में मां ने जब अपने बेटे को पार्टी की एक बैठक में बोलते देखा तो कह उठी—‘तू तो बड़ा अच्छा बोलने वाला हो गया है रे।’
लेनिन इसके उत्तर में क्या कहें। मां को न तो अपने लाड़ले से कोई शिकवा था और न शिकायत कभी उन्होंने जबान पर ये शब्द नहीं लाये कि वकालत का अच्छा खासा पेशा छोड़ तक तूने यह कैसा रास्ता अपनाया कि खानाबदोशों की तरह यहां से वहां भागना पड़ता है।
कुछ दिनों वृद्ध माता लेनिन के साथ रही और फिर जहाज से वापस लौट गयी लेकिन लेनिन को पहुंचाने के लिए जहाज तक जाना भी मुश्किल हो गया क्योंकि गिरफ्तारी का डर था अतः घाट तक ही पहुंचाकर वे आ गये। मां ने भी परिस्थितियों को देखा और अपने लाड़ले को चलते समय आखिरी बार चूमा। लेकिन जब अपनी मां को विदाकर रहे थे तो उनकी आंखों से आंसू लुढ़क पड़े थे। इसलिए कि उन्हें लगा शायद फिर दुबारा मां के दर्शन हो पायें या न हो पायें। क्योंकि एक तो पचहत्तर वर्ष की अवस्था में चल रही थी और दूसरे पता नहीं था कि कब वे स्वदेश लौट सकेंगे।
सचमुच ही यह आखिरी मुलाकात सिद्ध हुई। 1910 की इस भेंट के छह वर्ष बाद लेनिन की वृद्धा मां चल बसी और जब लेनिन रूस लौटे तो उनकी मां को मरे एक वर्ष से भी अधिक समय हो चुका था। रूस की पहली क्रान्ति असफल हो जाने के बाद दूसरी क्रान्ति का सरंजाम जुटाने के लिए इस प्रकार की न जाने कितनी मानसिक पीड़ाएं झेलनी पड़ी थी और उन्होंने सभी कष्टों को अपनी क्रुप्सकाया के साथ प्रसन्नता पूर्वक सहा था। वे जानते थे इस मार्ग का वरण करते समय कि यह मार्ग कांटों और बाधाओं से भरा पड़ा है फिर भी उन्होंने इस मार्ग को प्रसन्नता पूर्वक चुना अपने लिए नहीं समाज के लिए, कोटि-कोटि उस जन समुदाय के लिए जो शोषण और उत्पीड़न की आग में जल रहा था। अपने हेतु इसलिए नहीं कि उनका अपना जीवन तो आदि से अन्त तक एक दम साधारण स्तर का था। सफल क्रान्ति के बाद जब सोवियत सरकार बनी तो उसका प्रधान चुने जाने के बावजूद भी उन्होंने अपनी आवश्यकतायें एक दम अनिवार्य तरह की ही रखी। न उन्हें भोजन पर अधिक खर्च करना आता था और न वस्त्रों पर। वे भोजन पर जरूरत भर ही खर्च करते और कपड़े भी सीधे सादे ही पहनते। राष्ट्राध्यक्ष होने से पहले इधर उधर भागते रह कर भी और राष्ट्राध्यक्ष होने के बाद भी। सोवियत रूस जिसकी गणना आज विश्व की दो महाशक्ति सम्पन्न राष्ट्रों में की जाती है उसकी आधारशिला लेनिन ने ही रख थी और व्यवस्था का श्री गणेश भी जिसके परिणाम स्वरूप वह आज इस शिखर पर पहुंच सका है।
लेनिन का असली नाम ब्लादीमार इल्यीच उल्पानोव था परन्तु आगे चलकर उन्हें अपना नाम कई बार बदलना पड़ा पर लेनिन का नाम ही उनके व्यक्तित्व से इस प्रकार जुड़ा कि फिर अलग न हुआ। उनका जन्म वोल्गानदी के किनारे सिम्बोर्स्क नगर में 10 अप्रैल 1870 ई. को हुआ था। परिवार अच्छा सम्पन्न और उससे भी ज्यादा प्रतिष्ठित वर्ग का था। उनके पिता शिक्षा विभाग के डायरेक्टर थे और माता एक डॉक्टर की पुत्री। मां की साहित्य और संगीत में विशेष रुचि थी। मां से साहित्य प्रेम तथा पिता से पुरुषार्थी और लगनशील व्यक्तित्व लेनिन को विरासत में मिले थे। उनके पिता इल्या निकोलाये विच उल्यानोंव यद्यपि स्कूलों के डायरेक्टर थे परन्तु उनका बचपन बड़ी दैन्य और अभाव ग्रस्त परिस्थितियों में गुजरा था मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और अध्यापक बने। अध्यापक के पद से भी इन्हीं गुणों के आधार पर वे क्रमशः प्रधान अध्यापक इंस्पेक्टर आदि होते हुए डायरेक्टर के पद पर पहुंचे थे।
लेनिन को क्रांतिकारी बनाने में उनके अंग्रेज अलेक्सन्द्र का बड़ा हाथ रहा। लेनिन के ऊपर रूप की तत्कालीन विषम परिस्थितियों तथा प्रगतिशील साहित्य का प्रभाव तो पड़ा ही पर उसे दिशा दी थी अलेक्सन्द्र ने। अनेकसान्द्र पीटर्स वर्ग विश्वविद्यालय का विचारशील छात्र था। जिस विषय का वे अध्ययन कर रहे थे उसमें उज्ज्वल भविष्य की पूरी सम्भावना थी परन्तु देश और देश की बहु संख्यक जनता के हितों को साधने में स्वयं को प्रवृक्त करना भी उन्होंने अपना लक्ष्य माना और जारशाही को उखाड़ फेंकने के लिए क्रांतिकारी बनना ही अधिक श्रेयस्कर समझा। लेनिन को भी उन्होंने इसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी और क्रान्तिकारी साहित्य पढ़ाया।
सन् 1886-87 में लेनिन के परिवार पर दो भयानक विपत्तियां आयीं। पहले वर्ष तो उनके पिता का अचानक देहान्त हो गया—ऐसी परिस्थितियों में बड़े भाई का सहारा था लेकिन अलेक्सान्द्र को भी उनकी क्रान्तिकारी प्रवृत्तियों के कारण सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। अलेक्सान्द्र पर जार की हत्या के षड्यन्त्र में सम्मिलित होने का अभियोग लगा और इसके दण्ड स्वरूप मिली उन्हें बिना सफाई का मौका दिये फांसी की सजा। लेनिन तथा उनकी मां अपने पिता की मृत्यु का गम भुला भी ना पाये थे कि भाई को पुत्र को शहीद हो जाना पड़ा। लेनिन पर पिता की मृत्यु से अधिक भाई के मृत्यु दण्ड का अधिक प्रभाव हुआ। अब तक जार शाही की अव्यवस्था और उत्पीड़न का उन्हें दूर से ही जायजा मिला था—पहली बार उन्हें अनम्र व्यक्तिगत और पारिवारिक क्षति उठानी पड़ी उस समय लेनिन की आयु 17-18 वर्ष की रही होगी। यौवन में प्रवेश कर रहे इस नव युवक ने तभी अपने भाई की कब्र के पास खड़े हो कर कसम खायी कि मैं इस अन्धी शासन व्यवस्था की जड़ों पर चोट कर इसे ही उलटने-उखाड़ देने के लिए आजीवन संघर्ष का मार्ग अपनाऊंगा।
उस समय वे हाईस्कूल पास कर कजान विश्व विद्यालय में कानून की शिक्षा प्राप्त करने चले गये थे। उनके मन मस्तिष्क में इस शासन व्यवस्था के प्रति तीव्र आक्रोश और रोष तो था ही उसे और भड़काया कजान विश्वविद्यालय के क्रान्तिकारी युवक छात्रों ने। उस समय जारशाही के खिलाफ विद्रोह की आग जनता में भीतर-भीतर सुलग रही थी विशेषकर नव युवकों तथा विद्यार्थियों में। विद्यार्थियों के कई ऐसे संगठन थे जो क्रान्ति का संगठन कर रहे थे जिन में लेनिन भी थे। लेनिन की अद्वितीय बुद्धिमत्ता, अध्ययन शीलता और विद्वत्ता के साथ-साथ उनकी निष्ठा ने शीघ्र ही विद्यार्थियों में अच्छा स्थान बना लिया। वे क्रान्तिकारी छात्र संगठनों में जमकर बोलने भी लगे।
सरकार की निगाह शीघ्र ही इस क्रांतिकारी युवक पर पड़ी और केन्द्रित हो गयी और एक सभा में भाषण देकर जनता को जारशाही के विरुद्ध बहकाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया। जारशाही के जमाने में न्याय भी एक नाटक बना हुआ था। उन्हें तुरन्त नजर बन्द कर दिया गया। लेनिन गुर्वेनियां के कोकू शफिजो गांव में पुलिस की कड़ी निगरानी में रहने लगे। यह समय लेनिन ने अध्ययन करने में लगाया। सुबह उठकर ही वे किताब लेकर बैठ जाते और देर रात तक पढ़ते रहते। अध्ययन की दृष्टि से लेनिन ने इसी स्थान पर रह कर सर्वाधिक अध्ययन किया। स्वयं उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि पीटर्स वर्ग की जेल और साइबेरिया की नजर बन्दी के लम्बे समय में भी मैंने उतना अध्ययन नहीं किया जितना कि कोकूशकिनों में किया।
सालभर पुलिस की कड़ी निगरानी में रह कर लेनिन को एक खतरनाक राजनैतिक व्यक्ति घोषित कर वापस आने दिया गया। इसी कारण पुनः विश्वविद्यालय में वे भर्ती भी नहीं किये गये। यूनिवर्सिटी में प्रवेश न मिलने के कारण वे 1889 में परिवार सहित कजान से गुर्वेनिया आ गये और वह प्राइवेट रूप से कानून की पढ़ाई करने लगे। कानून का जो कोर्स चार वर्षों में पूरा होता था लेनिन ने डेढ़ वर्ष में पूरा कर लिया तथा प्राइवेट छात्र के रूप में परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी में पास होकर डिप्लोमा भी ले लिया। विश्वविद्यालय में छात्र नहीं बन सके तो भी उन्हें लाभ ही हुआ। ढाई वर्ष लेनिन ने बचा लिए। डिप्लोमा प्राप्त कर लेने के बाद समारा की जिला कचहरी में उन्होंने वकालत की प्रैक्टिस आरम्भ कर दी दो साल बाद वे समारा छोड़ कर पीटर्स वर्ग चले गये इसलिए नहीं कि वकालत का पेशा अच्छा चले वरन् इसलिए कि समारा की अपेक्षा पीटर्स में रहकर अपना मूलध्येय प्राप्त करना अधिक सुविधा जनक था। पीटर्स वर्ग उस समय रूस की राजधानी थी और एक औद्योगिक केन्द्र भी। स्वाभाविक ही मजदूर आन्दोलनों का केंद्र भी वही रहता।
लेनिन ने वहां रह कर मजदूर आन्दोलन को गति देने के लिए एक श्रमिक संस्था संघर्ष लींग की स्थापना की और लींग की ओर से एकमुख-पत्र भी प्रकाशित किया जिसका उद्देश्य था मजदूर आन्दोलन को सक्रिय बनाना। यहीं उनका परिचय एक मजदूर स्कूल की अध्यापिका क्रुप्सकाया से हुआ जो आगे चल कर उनकी सहधर्मिणी बनी। क्रुप्सकाया भी समाज वादी विचारधारा से प्रभावित थी और यही नहीं इस समाज दर्शन के विचारों का भी वह खूब प्रचार करती थी। लेनिन और क्रुप्सकाया ने एक दूसरे को जीवन साथी के रूप में वरण ही इसलिए किया कि उनके विचार समान थे, लक्ष्य एक समान थे और दोनों उस दिशा में समाज को बढ़ाना चाहते थे।
संघर्ष लींग का मुख पत्र अपनी क्रान्तिकारी विचार धारा के कारण शीघ्र ही सरकार का कोपभाजन बना। उसके प्रकाशन को बन्द कर दिया और लेनिन को गिरफ्तार कर पीटर्स वर्ग की जेल में डाल दिया गया। उनकी अनुपस्थिति में संघर्ष लींग नेतृत्व विहीन हो गयी थी परन्तु लेनिन ने जेल की कोठरी में रहते हुए भी लींग का काम न रुकने देने के लिए अपने निर्देश भेजने का ढंग निकाल लिया। जेल में जो समाचार पत्र और पुस्तकें उन्हें पढ़ने के लिए उपलब्ध करायी जाती उन पुस्तकों और समाचार पत्रों के खाली स्थानों पर वे दूध से लिख देते। दूध से लिखे निर्देश यों तो किसी की निगाह में नहीं आते परन्तु उनके दल के लोग आंच पर तपा कर पढ़ लेते। इस प्रकार अक्षरों की बनावट पढ़ने योग्य दिखाई देने लगती। दूध और डबल रोटी तो उन्हें जेल से मिलते ही थे।
साल भर से भी अधिक समय तक यहां रहने के बाद लेनिन को पूर्वी साइबेरिया भेज दिया। वहां उन्हें एक ऐसे गांव में जो अन्य स्थानों से एक दम कटा हुआ था रखा गया। यह उनका निर्वासन था। सालभर बाद ही क्रुप्सकाया भी निर्वासित होकर वहां आ गयी तब लेनिन और वह दोनों साथ साथ रहे। यह निर्वासन सन् 1900 में समाप्त हुआ। अब वे रूप के नगरों में तो जा सकते थे परन्तु किसी औद्योगिक नगर में जाने पर पाबन्दी लगा दी गयी थी। लेनिन पस्कोव नामक नगर में रहने लगे फिर भी कुछ महीनों बाद वे चोरी छिपे पीटर्स वर्ग पहुंचे परन्तु पुलिस तो जैसे उनकी ताक में बैठी थी। पीटर्स वर्ग पहुंचते ही पकड़ लिये गये और कुछ समय बाद चेतावनी देकर छोड़ दिये गये।
सरकार की काक दृष्टि और तत्कालीन परिस्थितियों में कुछ भी कर पाना सम्भव न देख कर लेनिन ने रूस छोड़ दिया और जर्मनी चले गये। वहीं से उन्होंने एक पत्रिका भी शुरू की जिसकी कई प्रतियां रूस भी भेजी जाती। यहां आकर उन्होंने अपना नाम भी बदल लिया और पत्रिका का मूल पता भी गुप्त रखा। जर्मनी की पुलिस को कुछ समय में लेनिन के छुपे तथा सक्रिय होने का पता चला तो उन्होंने जर्मनी छोड़ दिया और 1902 में लन्दन आये। लन्दन से ही उन्होंने अपनी पत्रिका का प्रकाशन जारी रखा लन्दन में चल रहे मजदूर आन्दोलनों का समीप से अध्ययन करते हुए लेनिन अपना अधिकांश समय पुस्तकालय में ही बिताते। उन्होंने ब्रिटिश संग्रहालय की उस लाइब्रेरी को भी छान मारा जिसमें तेरह साल तक अध्ययन कर मार्क्स ने ‘कैपिटल’ लिख डाला था। अगले वर्ष लेनिन लन्दन से पेरिस आ गये और फिर जिनैवा इस्क्रा-लेनिन की पत्रिका भी वहीं से प्रकाशित होने लगी।
विदेशों से रहते हुए भी लेनिन मजदूर आन्दोलनों पर अपना पूरा ध्यान रखते थे। उनकी दी गयी हवा से रूस में जारशाही के विरुद्ध जल रही विद्रोह की आग ज्वाला मुखी बनती जा रही थी और 1905 में तो एक गोली काण्ड को लेकर उसका विस्फोट भी हो गया। लेनिन ने कहा क्रान्ति का श्रीगणेश हो गया है। अक्टूबर महीने में रूस में एक आम हड़ताल हुई और सारे देश के कारखाने तथा संचार व्यवस्था ठप्प हो गयी। इससे जार घबड़ा उठा। जार हड़ताल को तुड़वाने के लिए अपने दांव पेंच चलाने लगा। कहीं उसके दांव सफल न हो जायें इस सम्बन्ध में सतर्कता बरतने तथा क्रान्ति का निर्देशन करने के लिए लेनिन भी वहीं आ गये दिसम्बर में सहस्र विद्रोह हुआ। इसे दबाने के लिए जार ने पुलिस और सेना का सहारा लेकर यह विद्रोह कुचल दिया।
लेनिन क्रान्ति का पुनर्गठन करने के लिए फिर फिनलैण्ड पहुंचे वहां से पेरिस, पेरिस से ‘प्रालेतारी नामक पत्र भी प्रकाशित करना आरम्भ किया। यहां भी उनकी पत्नी साथ थी। लेनिन तका क्रुप्स्काया का जीवन यहां बड़ी कठिनाईयों में बीता। कभी-कभी तो उन्हें भूखे भी रह जाना पड़ता परन्तु अध्ययन लेनिन ने नहीं छोड़ा। यही रहते हुए वे गोर्की से मिलने के लिए इटली भी गये। चाहे जैसी परिस्थितियां रही हों पर पुस्तकें पढ़ना उनका व्यसन बन चुका था। अपनी खुराक में भी कटौती कर वे पुस्तकें पढ़ते और जो पुस्तकें वे खरीद न पाते उन्हें लाइब्रेरी में तलाशते और पढ़ते। कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी न तो लेनिन के चेहरे पर शिकन आयी और न क्रूप्स्काया के। दोनों ही प्रसन्न चित्त रहते हुए ध्येय समर्पित जीवन बिताते।
जब पहला विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ और बड़े पैमाने पर लोग तबाह होने लगे तो अनेक देशों में क्रान्ति के अनुकूल स्थितियां आयीं। रूस में भी आयीं और ऐसे समय में जारशाही का प्रभाव मिटता जा रहा था वहीं लेनिन और समाज वाद का प्रभाव बड़ता जा रहा था। ऐसे समय में लेनिन ने आवाज लगायी कि अब वह क्रान्ति हो सकती है जिसमें हम सफल हो सकते हैं। लोगों ने उनकी आवाज सुनी और सबसे पहले पेत्रोग्राद के मजदूर 9 जनवरी 1917 को उठ खड़े हुए। क्रांति का दमन करने के लिए जार के सैनिक दौड़े परन्तु एक जगह दबायी जनता की आवाज कई स्थानों से सिंहनाद बन कर उठ खड़ी हुई।
अतएव शीघ्र ही जारशाही को घुटने टेक देने पड़े। और एक अस्थायी सरकार का गठन हुआ। लेनिन ने तार से संदेश भेजा वह था ‘यह तो क्रान्ति की शुरुआत हैं और पहली सफलता। जार ने घुटने टेक दिये हैं हय तो ठीक है परन्तु जो अस्थायी सरकार बनी है वह भी विश्वसनीय नहीं है। लेनिन उस समय स्विट्जरलैण्ड में थे और अस्थायी सरकार सचमुच उनके आने में रोड़े अटका रही थी। सरकार ने उन्हें रूस आने की अनुमति नहीं दी यहां तक कि उनकी हत्या तक का प्रयास किया गया। लेनिन छुपे वेश में रूस लौटे। अक्टूबर 1917 में निर्णायक क्रान्ति का आह्वान हुआ। और 26 अक्टूबर को सफलता प्राप्त हुई। उस दिन अस्थायी सरकार का पतन हुआ।
नयी सोवियत सरकार का गठन हुआ जिसके अध्यक्ष चुने गये लेनिन। लेकिन अभी बहुत सी बाधायें पार करनी थीं। साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा प्रेरित कुछ प्रतिक्रिया वादियों ने सोवियत सरकार के विरुद्ध भी षड्यन्त्र रचे और इसी षड्यन्त्र के अन्तर्गत 30 अगस्त 1918 को लेनिन पर गोलियां चलायी गयीं। लेनिन बुरी तरह घायल हुए और चौबीस घण्टे तक मौत से भी संघर्ष करने के बाद उसके मुंह में से बच निकले।
21 जनवरी 1924 की शाम को लेनिन का देहान्त हुआ। उस अवसर पर रूस की तमाम जनता रो उठी। विश्व में समाजवादी समाज के पहले सर्जक अपने पीछे स्मृतियां छोड़ गये।
लेनिन इसके उत्तर में क्या कहें। मां को न तो अपने लाड़ले से कोई शिकवा था और न शिकायत कभी उन्होंने जबान पर ये शब्द नहीं लाये कि वकालत का अच्छा खासा पेशा छोड़ तक तूने यह कैसा रास्ता अपनाया कि खानाबदोशों की तरह यहां से वहां भागना पड़ता है।
कुछ दिनों वृद्ध माता लेनिन के साथ रही और फिर जहाज से वापस लौट गयी लेकिन लेनिन को पहुंचाने के लिए जहाज तक जाना भी मुश्किल हो गया क्योंकि गिरफ्तारी का डर था अतः घाट तक ही पहुंचाकर वे आ गये। मां ने भी परिस्थितियों को देखा और अपने लाड़ले को चलते समय आखिरी बार चूमा। लेकिन जब अपनी मां को विदाकर रहे थे तो उनकी आंखों से आंसू लुढ़क पड़े थे। इसलिए कि उन्हें लगा शायद फिर दुबारा मां के दर्शन हो पायें या न हो पायें। क्योंकि एक तो पचहत्तर वर्ष की अवस्था में चल रही थी और दूसरे पता नहीं था कि कब वे स्वदेश लौट सकेंगे।
सचमुच ही यह आखिरी मुलाकात सिद्ध हुई। 1910 की इस भेंट के छह वर्ष बाद लेनिन की वृद्धा मां चल बसी और जब लेनिन रूस लौटे तो उनकी मां को मरे एक वर्ष से भी अधिक समय हो चुका था। रूस की पहली क्रान्ति असफल हो जाने के बाद दूसरी क्रान्ति का सरंजाम जुटाने के लिए इस प्रकार की न जाने कितनी मानसिक पीड़ाएं झेलनी पड़ी थी और उन्होंने सभी कष्टों को अपनी क्रुप्सकाया के साथ प्रसन्नता पूर्वक सहा था। वे जानते थे इस मार्ग का वरण करते समय कि यह मार्ग कांटों और बाधाओं से भरा पड़ा है फिर भी उन्होंने इस मार्ग को प्रसन्नता पूर्वक चुना अपने लिए नहीं समाज के लिए, कोटि-कोटि उस जन समुदाय के लिए जो शोषण और उत्पीड़न की आग में जल रहा था। अपने हेतु इसलिए नहीं कि उनका अपना जीवन तो आदि से अन्त तक एक दम साधारण स्तर का था। सफल क्रान्ति के बाद जब सोवियत सरकार बनी तो उसका प्रधान चुने जाने के बावजूद भी उन्होंने अपनी आवश्यकतायें एक दम अनिवार्य तरह की ही रखी। न उन्हें भोजन पर अधिक खर्च करना आता था और न वस्त्रों पर। वे भोजन पर जरूरत भर ही खर्च करते और कपड़े भी सीधे सादे ही पहनते। राष्ट्राध्यक्ष होने से पहले इधर उधर भागते रह कर भी और राष्ट्राध्यक्ष होने के बाद भी। सोवियत रूस जिसकी गणना आज विश्व की दो महाशक्ति सम्पन्न राष्ट्रों में की जाती है उसकी आधारशिला लेनिन ने ही रख थी और व्यवस्था का श्री गणेश भी जिसके परिणाम स्वरूप वह आज इस शिखर पर पहुंच सका है।
लेनिन का असली नाम ब्लादीमार इल्यीच उल्पानोव था परन्तु आगे चलकर उन्हें अपना नाम कई बार बदलना पड़ा पर लेनिन का नाम ही उनके व्यक्तित्व से इस प्रकार जुड़ा कि फिर अलग न हुआ। उनका जन्म वोल्गानदी के किनारे सिम्बोर्स्क नगर में 10 अप्रैल 1870 ई. को हुआ था। परिवार अच्छा सम्पन्न और उससे भी ज्यादा प्रतिष्ठित वर्ग का था। उनके पिता शिक्षा विभाग के डायरेक्टर थे और माता एक डॉक्टर की पुत्री। मां की साहित्य और संगीत में विशेष रुचि थी। मां से साहित्य प्रेम तथा पिता से पुरुषार्थी और लगनशील व्यक्तित्व लेनिन को विरासत में मिले थे। उनके पिता इल्या निकोलाये विच उल्यानोंव यद्यपि स्कूलों के डायरेक्टर थे परन्तु उनका बचपन बड़ी दैन्य और अभाव ग्रस्त परिस्थितियों में गुजरा था मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और अध्यापक बने। अध्यापक के पद से भी इन्हीं गुणों के आधार पर वे क्रमशः प्रधान अध्यापक इंस्पेक्टर आदि होते हुए डायरेक्टर के पद पर पहुंचे थे।
लेनिन को क्रांतिकारी बनाने में उनके अंग्रेज अलेक्सन्द्र का बड़ा हाथ रहा। लेनिन के ऊपर रूप की तत्कालीन विषम परिस्थितियों तथा प्रगतिशील साहित्य का प्रभाव तो पड़ा ही पर उसे दिशा दी थी अलेक्सन्द्र ने। अनेकसान्द्र पीटर्स वर्ग विश्वविद्यालय का विचारशील छात्र था। जिस विषय का वे अध्ययन कर रहे थे उसमें उज्ज्वल भविष्य की पूरी सम्भावना थी परन्तु देश और देश की बहु संख्यक जनता के हितों को साधने में स्वयं को प्रवृक्त करना भी उन्होंने अपना लक्ष्य माना और जारशाही को उखाड़ फेंकने के लिए क्रांतिकारी बनना ही अधिक श्रेयस्कर समझा। लेनिन को भी उन्होंने इसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी और क्रान्तिकारी साहित्य पढ़ाया।
सन् 1886-87 में लेनिन के परिवार पर दो भयानक विपत्तियां आयीं। पहले वर्ष तो उनके पिता का अचानक देहान्त हो गया—ऐसी परिस्थितियों में बड़े भाई का सहारा था लेकिन अलेक्सान्द्र को भी उनकी क्रान्तिकारी प्रवृत्तियों के कारण सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। अलेक्सान्द्र पर जार की हत्या के षड्यन्त्र में सम्मिलित होने का अभियोग लगा और इसके दण्ड स्वरूप मिली उन्हें बिना सफाई का मौका दिये फांसी की सजा। लेनिन तथा उनकी मां अपने पिता की मृत्यु का गम भुला भी ना पाये थे कि भाई को पुत्र को शहीद हो जाना पड़ा। लेनिन पर पिता की मृत्यु से अधिक भाई के मृत्यु दण्ड का अधिक प्रभाव हुआ। अब तक जार शाही की अव्यवस्था और उत्पीड़न का उन्हें दूर से ही जायजा मिला था—पहली बार उन्हें अनम्र व्यक्तिगत और पारिवारिक क्षति उठानी पड़ी उस समय लेनिन की आयु 17-18 वर्ष की रही होगी। यौवन में प्रवेश कर रहे इस नव युवक ने तभी अपने भाई की कब्र के पास खड़े हो कर कसम खायी कि मैं इस अन्धी शासन व्यवस्था की जड़ों पर चोट कर इसे ही उलटने-उखाड़ देने के लिए आजीवन संघर्ष का मार्ग अपनाऊंगा।
उस समय वे हाईस्कूल पास कर कजान विश्व विद्यालय में कानून की शिक्षा प्राप्त करने चले गये थे। उनके मन मस्तिष्क में इस शासन व्यवस्था के प्रति तीव्र आक्रोश और रोष तो था ही उसे और भड़काया कजान विश्वविद्यालय के क्रान्तिकारी युवक छात्रों ने। उस समय जारशाही के खिलाफ विद्रोह की आग जनता में भीतर-भीतर सुलग रही थी विशेषकर नव युवकों तथा विद्यार्थियों में। विद्यार्थियों के कई ऐसे संगठन थे जो क्रान्ति का संगठन कर रहे थे जिन में लेनिन भी थे। लेनिन की अद्वितीय बुद्धिमत्ता, अध्ययन शीलता और विद्वत्ता के साथ-साथ उनकी निष्ठा ने शीघ्र ही विद्यार्थियों में अच्छा स्थान बना लिया। वे क्रान्तिकारी छात्र संगठनों में जमकर बोलने भी लगे।
सरकार की निगाह शीघ्र ही इस क्रांतिकारी युवक पर पड़ी और केन्द्रित हो गयी और एक सभा में भाषण देकर जनता को जारशाही के विरुद्ध बहकाने के आरोप में उन्हें गिरफ्तार कर लिया। जारशाही के जमाने में न्याय भी एक नाटक बना हुआ था। उन्हें तुरन्त नजर बन्द कर दिया गया। लेनिन गुर्वेनियां के कोकू शफिजो गांव में पुलिस की कड़ी निगरानी में रहने लगे। यह समय लेनिन ने अध्ययन करने में लगाया। सुबह उठकर ही वे किताब लेकर बैठ जाते और देर रात तक पढ़ते रहते। अध्ययन की दृष्टि से लेनिन ने इसी स्थान पर रह कर सर्वाधिक अध्ययन किया। स्वयं उन्होंने अपने संस्मरणों में लिखा है कि पीटर्स वर्ग की जेल और साइबेरिया की नजर बन्दी के लम्बे समय में भी मैंने उतना अध्ययन नहीं किया जितना कि कोकूशकिनों में किया।
सालभर पुलिस की कड़ी निगरानी में रह कर लेनिन को एक खतरनाक राजनैतिक व्यक्ति घोषित कर वापस आने दिया गया। इसी कारण पुनः विश्वविद्यालय में वे भर्ती भी नहीं किये गये। यूनिवर्सिटी में प्रवेश न मिलने के कारण वे 1889 में परिवार सहित कजान से गुर्वेनिया आ गये और वह प्राइवेट रूप से कानून की पढ़ाई करने लगे। कानून का जो कोर्स चार वर्षों में पूरा होता था लेनिन ने डेढ़ वर्ष में पूरा कर लिया तथा प्राइवेट छात्र के रूप में परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी में पास होकर डिप्लोमा भी ले लिया। विश्वविद्यालय में छात्र नहीं बन सके तो भी उन्हें लाभ ही हुआ। ढाई वर्ष लेनिन ने बचा लिए। डिप्लोमा प्राप्त कर लेने के बाद समारा की जिला कचहरी में उन्होंने वकालत की प्रैक्टिस आरम्भ कर दी दो साल बाद वे समारा छोड़ कर पीटर्स वर्ग चले गये इसलिए नहीं कि वकालत का पेशा अच्छा चले वरन् इसलिए कि समारा की अपेक्षा पीटर्स में रहकर अपना मूलध्येय प्राप्त करना अधिक सुविधा जनक था। पीटर्स वर्ग उस समय रूस की राजधानी थी और एक औद्योगिक केन्द्र भी। स्वाभाविक ही मजदूर आन्दोलनों का केंद्र भी वही रहता।
लेनिन ने वहां रह कर मजदूर आन्दोलन को गति देने के लिए एक श्रमिक संस्था संघर्ष लींग की स्थापना की और लींग की ओर से एकमुख-पत्र भी प्रकाशित किया जिसका उद्देश्य था मजदूर आन्दोलन को सक्रिय बनाना। यहीं उनका परिचय एक मजदूर स्कूल की अध्यापिका क्रुप्सकाया से हुआ जो आगे चल कर उनकी सहधर्मिणी बनी। क्रुप्सकाया भी समाज वादी विचारधारा से प्रभावित थी और यही नहीं इस समाज दर्शन के विचारों का भी वह खूब प्रचार करती थी। लेनिन और क्रुप्सकाया ने एक दूसरे को जीवन साथी के रूप में वरण ही इसलिए किया कि उनके विचार समान थे, लक्ष्य एक समान थे और दोनों उस दिशा में समाज को बढ़ाना चाहते थे।
संघर्ष लींग का मुख पत्र अपनी क्रान्तिकारी विचार धारा के कारण शीघ्र ही सरकार का कोपभाजन बना। उसके प्रकाशन को बन्द कर दिया और लेनिन को गिरफ्तार कर पीटर्स वर्ग की जेल में डाल दिया गया। उनकी अनुपस्थिति में संघर्ष लींग नेतृत्व विहीन हो गयी थी परन्तु लेनिन ने जेल की कोठरी में रहते हुए भी लींग का काम न रुकने देने के लिए अपने निर्देश भेजने का ढंग निकाल लिया। जेल में जो समाचार पत्र और पुस्तकें उन्हें पढ़ने के लिए उपलब्ध करायी जाती उन पुस्तकों और समाचार पत्रों के खाली स्थानों पर वे दूध से लिख देते। दूध से लिखे निर्देश यों तो किसी की निगाह में नहीं आते परन्तु उनके दल के लोग आंच पर तपा कर पढ़ लेते। इस प्रकार अक्षरों की बनावट पढ़ने योग्य दिखाई देने लगती। दूध और डबल रोटी तो उन्हें जेल से मिलते ही थे।
साल भर से भी अधिक समय तक यहां रहने के बाद लेनिन को पूर्वी साइबेरिया भेज दिया। वहां उन्हें एक ऐसे गांव में जो अन्य स्थानों से एक दम कटा हुआ था रखा गया। यह उनका निर्वासन था। सालभर बाद ही क्रुप्सकाया भी निर्वासित होकर वहां आ गयी तब लेनिन और वह दोनों साथ साथ रहे। यह निर्वासन सन् 1900 में समाप्त हुआ। अब वे रूप के नगरों में तो जा सकते थे परन्तु किसी औद्योगिक नगर में जाने पर पाबन्दी लगा दी गयी थी। लेनिन पस्कोव नामक नगर में रहने लगे फिर भी कुछ महीनों बाद वे चोरी छिपे पीटर्स वर्ग पहुंचे परन्तु पुलिस तो जैसे उनकी ताक में बैठी थी। पीटर्स वर्ग पहुंचते ही पकड़ लिये गये और कुछ समय बाद चेतावनी देकर छोड़ दिये गये।
सरकार की काक दृष्टि और तत्कालीन परिस्थितियों में कुछ भी कर पाना सम्भव न देख कर लेनिन ने रूस छोड़ दिया और जर्मनी चले गये। वहीं से उन्होंने एक पत्रिका भी शुरू की जिसकी कई प्रतियां रूस भी भेजी जाती। यहां आकर उन्होंने अपना नाम भी बदल लिया और पत्रिका का मूल पता भी गुप्त रखा। जर्मनी की पुलिस को कुछ समय में लेनिन के छुपे तथा सक्रिय होने का पता चला तो उन्होंने जर्मनी छोड़ दिया और 1902 में लन्दन आये। लन्दन से ही उन्होंने अपनी पत्रिका का प्रकाशन जारी रखा लन्दन में चल रहे मजदूर आन्दोलनों का समीप से अध्ययन करते हुए लेनिन अपना अधिकांश समय पुस्तकालय में ही बिताते। उन्होंने ब्रिटिश संग्रहालय की उस लाइब्रेरी को भी छान मारा जिसमें तेरह साल तक अध्ययन कर मार्क्स ने ‘कैपिटल’ लिख डाला था। अगले वर्ष लेनिन लन्दन से पेरिस आ गये और फिर जिनैवा इस्क्रा-लेनिन की पत्रिका भी वहीं से प्रकाशित होने लगी।
विदेशों से रहते हुए भी लेनिन मजदूर आन्दोलनों पर अपना पूरा ध्यान रखते थे। उनकी दी गयी हवा से रूस में जारशाही के विरुद्ध जल रही विद्रोह की आग ज्वाला मुखी बनती जा रही थी और 1905 में तो एक गोली काण्ड को लेकर उसका विस्फोट भी हो गया। लेनिन ने कहा क्रान्ति का श्रीगणेश हो गया है। अक्टूबर महीने में रूस में एक आम हड़ताल हुई और सारे देश के कारखाने तथा संचार व्यवस्था ठप्प हो गयी। इससे जार घबड़ा उठा। जार हड़ताल को तुड़वाने के लिए अपने दांव पेंच चलाने लगा। कहीं उसके दांव सफल न हो जायें इस सम्बन्ध में सतर्कता बरतने तथा क्रान्ति का निर्देशन करने के लिए लेनिन भी वहीं आ गये दिसम्बर में सहस्र विद्रोह हुआ। इसे दबाने के लिए जार ने पुलिस और सेना का सहारा लेकर यह विद्रोह कुचल दिया।
लेनिन क्रान्ति का पुनर्गठन करने के लिए फिर फिनलैण्ड पहुंचे वहां से पेरिस, पेरिस से ‘प्रालेतारी नामक पत्र भी प्रकाशित करना आरम्भ किया। यहां भी उनकी पत्नी साथ थी। लेनिन तका क्रुप्स्काया का जीवन यहां बड़ी कठिनाईयों में बीता। कभी-कभी तो उन्हें भूखे भी रह जाना पड़ता परन्तु अध्ययन लेनिन ने नहीं छोड़ा। यही रहते हुए वे गोर्की से मिलने के लिए इटली भी गये। चाहे जैसी परिस्थितियां रही हों पर पुस्तकें पढ़ना उनका व्यसन बन चुका था। अपनी खुराक में भी कटौती कर वे पुस्तकें पढ़ते और जो पुस्तकें वे खरीद न पाते उन्हें लाइब्रेरी में तलाशते और पढ़ते। कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों में भी न तो लेनिन के चेहरे पर शिकन आयी और न क्रूप्स्काया के। दोनों ही प्रसन्न चित्त रहते हुए ध्येय समर्पित जीवन बिताते।
जब पहला विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ और बड़े पैमाने पर लोग तबाह होने लगे तो अनेक देशों में क्रान्ति के अनुकूल स्थितियां आयीं। रूस में भी आयीं और ऐसे समय में जारशाही का प्रभाव मिटता जा रहा था वहीं लेनिन और समाज वाद का प्रभाव बड़ता जा रहा था। ऐसे समय में लेनिन ने आवाज लगायी कि अब वह क्रान्ति हो सकती है जिसमें हम सफल हो सकते हैं। लोगों ने उनकी आवाज सुनी और सबसे पहले पेत्रोग्राद के मजदूर 9 जनवरी 1917 को उठ खड़े हुए। क्रांति का दमन करने के लिए जार के सैनिक दौड़े परन्तु एक जगह दबायी जनता की आवाज कई स्थानों से सिंहनाद बन कर उठ खड़ी हुई।
अतएव शीघ्र ही जारशाही को घुटने टेक देने पड़े। और एक अस्थायी सरकार का गठन हुआ। लेनिन ने तार से संदेश भेजा वह था ‘यह तो क्रान्ति की शुरुआत हैं और पहली सफलता। जार ने घुटने टेक दिये हैं हय तो ठीक है परन्तु जो अस्थायी सरकार बनी है वह भी विश्वसनीय नहीं है। लेनिन उस समय स्विट्जरलैण्ड में थे और अस्थायी सरकार सचमुच उनके आने में रोड़े अटका रही थी। सरकार ने उन्हें रूस आने की अनुमति नहीं दी यहां तक कि उनकी हत्या तक का प्रयास किया गया। लेनिन छुपे वेश में रूस लौटे। अक्टूबर 1917 में निर्णायक क्रान्ति का आह्वान हुआ। और 26 अक्टूबर को सफलता प्राप्त हुई। उस दिन अस्थायी सरकार का पतन हुआ।
नयी सोवियत सरकार का गठन हुआ जिसके अध्यक्ष चुने गये लेनिन। लेकिन अभी बहुत सी बाधायें पार करनी थीं। साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा प्रेरित कुछ प्रतिक्रिया वादियों ने सोवियत सरकार के विरुद्ध भी षड्यन्त्र रचे और इसी षड्यन्त्र के अन्तर्गत 30 अगस्त 1918 को लेनिन पर गोलियां चलायी गयीं। लेनिन बुरी तरह घायल हुए और चौबीस घण्टे तक मौत से भी संघर्ष करने के बाद उसके मुंह में से बच निकले।
21 जनवरी 1924 की शाम को लेनिन का देहान्त हुआ। उस अवसर पर रूस की तमाम जनता रो उठी। विश्व में समाजवादी समाज के पहले सर्जक अपने पीछे स्मृतियां छोड़ गये।