Books - युग संधि महा पुरश्चरण की विस्तार प्रक्रिया
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युग संधि महा पुरश्चरण की विस्तार प्रक्रिया
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संधि वेला को असामान्य महत्व दिया जाता है एवं पुण्यफलदायक माना जाता है। यह मिलने और बिछुड़ने की वेला है। इन दिनों अदृश्य जगत में व्यापक उथल-पुथल होती है। प्रकृति में और चेतना क्षेत्र में कई विशिष्ट परिवर्तन इन दिनों होते हैं। ऋतुओं के मिलने व बिछुड़ने की अवधि नौ नौ दिन की होती हैं। गर्मी से शीत ऋतु में बदलते समय आश्विन की तथा शीत से ग्रीष्म में बदलते समय चैत्र की नवरात्रियां ऋतु संधियां कहलाती हैं। इन दिनों की गयी उपासना- जप-तप का विशेष महत्व होता है।
एक ऐसी ही परिवर्तन की वेला अगले दिनों आ रही है, जब एक सहस्राब्दी का समापन होकर अगली का शुभारम्भ होगा। बीसवीं सदी का समापन होकर अगली का शुभारम्भ होने जा रहा है। यह परिवर्तन वेला कुछ क्षणों की नहीं, बारह वर्ष की है। यह सन् 1986 से चल कर सन् 2000 में समाप्त होगी। इस अवधि में, प्रचलन में घुसी अवांछनीयतायें निरस्त होंगी एवं नव सृजन की सम्भावनायें साकार होंगी। पिछली भूलों का प्रायश्चित्य किया जायेगा एवं नवयुग की आधारशिला रखी जायेगी। इस नव सृजन के आधार पर ही चिरस्थायी सुख शान्ति संभव हो सकेगी। सभी इस उज्ज्वल भविष्य के लिए आशान्वित हैं। सर्वत्र नवयुग के अरुणोदय की प्रतीक्षा उत्सुकता पूर्वक की जा रही है।
शान्तिकुंज के प्रज्ञा परिजनों ने, इस युग संधि के बारह वर्षों में अपने ढंग से, सत्प्रवृत्ति संवर्धन दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन का काम परिपूर्ण उत्साह के साथ आरम्भ कर दिया है और युग सृजन के लिए व्यापक योजना बनाई है। उसमें जन मानस का परिष्कार और प्रतिभा संवर्धन के कार्य को प्रमुखता दी गई है; ताकि नव सृजन के लिये उपयुक्त वातावरण बन सके और उन अति महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करने के लिए, सृजन शिल्पियों का एक समर्थ और विस्तृत समुदाय अग्रिम पंक्ति में खड़ा हो सके। शान्तिकुंज में एक-एक माह और नौ-नौ दिनों के शिक्षण सत्र इसी उद्देश्य से चल रहे हैं।
इस अश्विन नवरात्रि से शान्तिकुंज में युग संधि पुरश्चरण का व्रतशील साधना क्रम चल पड़ा है। यह संकल्प बारह वर्ष का है। इस अवधि में प्रचारात्मक, रचनात्मक, सुधारात्मक कार्यक्रमों के अतिरिक्त युग साधना महापुरश्चरण की साधनात्मक प्रक्रिया को भी सम्मिलित रखा गया है। यह हर दिन, निर्धारित रूप में, बाहर वर्ष तक अखण्ड रूप से चलती रहेगी। सन् 2000 में इसकी पूर्णाहुति होगी। उसका कार्यक्रम तो अभी से घोषित नहीं किया गया है, पर एक शब्द में इतना समझा जा सकता है, कि वह अपने ढंग की अनोखी और महत्वपूर्ण विधा होगी। सर्व विदित है कि मथुरा के सहस्र कुण्डीय गायत्री महायज्ञ के उपरान्त गायत्री परिवार बने थे, गायत्री यज्ञों के आयोजन चले थे, प्रज्ञा पीठों का निर्माण हुआ था। आशा की जानी चाहिए कि बीसवीं सदी के अन्त और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में उनमें वह उत्साह उमड़ेगा, जो नव युग की सृजन प्रक्रिया में अपनी असाधारण भूमिका सम्पन्न करेगा। उस उपलब्धि को सतयुग की वापसी भी कहा जा सकेगा। इसके लिए अभी नई पौध आरोपित की जा रही है, उसे छायादार बनने और फूल फलों से लदने में बारह वर्ष भी लग सकते हैं। इस बीच भी लहलहाता उद्यान मन में उल्लास तो भरेगा ही, आशा की अभिनव जीवन ज्योति जगायेगा ही।
शान्तिकुंज से आरम्भ युग संधि पुरश्चरण, मात्र इसी एक स्थान पर सीमित नहीं रहेगा, वरन् उसकी व्यापकता अत्यन्त विस्तृत होगी। परिजनों में हर प्रतिभावान से कहा गया है, कि वह इस महा अभियान का भागीदार बने। अपने यहां इस अभियान का एक छोटा संस्करण अपने तत्वाधान में स्थापित करें। प्रज्ञा मण्डल स्थापित करें—युग पुरश्चरण की एक छोटी इकाई अपनी देख रेख में स्वयं आरम्भ करें और उसमें खाद पानी पूरी अवधि तक निष्ठा पूर्वक लगाते रहें।
सामूहिक होली जब जलती है तो उसमें से थोड़ी अग्नि सभी घर वाले ले जाकर ‘‘घर होली’’ आंगन में जलाते हैं। इसे विशाल की अपने अंक में स्थापना कहा जा सकता है। बुद्ध को जहां ज्ञान प्राप्त हुआ था उस ‘‘बोधिवृक्ष’’ की टहनियां काट कर लोग ले गए। उन्हें अपने-अपने यहां स्थापित किया था। लंका, वर्मा आदि अनेकों देशों में इनकी स्थापना हुई थी। ठीक इसी प्रकार यह महा पुरश्चरण सभी परिजनों को अपने यहां स्थापित, प्रज्ञापीठों में आरोपित करना चाहिए।
शान्तिकुंज का साधना क्रम तो नियमित निरन्तर जारी रहेगा। अन्यत्र वैसा बन पड़ना कठिन है। लोगों को धार्मिक उत्साह क्षणिक होता है। कुछ ही दिन में मन ऊबने लगता है और लम्बी अवधि के उपक्रम चल नहीं पाते। इसलिए उचित समझा गया है कि इसके सहगामी घटक अपने कार्यक्रम साप्ताहिक रूप से चलाएं। इसके लिए रविवार अधिक उपयुक्त समझा गया है। वह दिन अधिकांश लोगों की छुट्टी का रहता है। फिर प्रस्तुत साधना के विशेष उपास्य अधिष्ठाता के रूप में, सविता देव का- सूर्य भगवान का निर्धारण हुआ है। गायत्री महामंत्र का अधिष्ठाता भी सूर्य ही है। अस्तु सार्वभौम आस्था को ध्यान में रखते हुए, अभीष्ट ऊर्जा अवतरित करने के लिए सूर्य का ही वरण किया गया है। जप के साथ उसी का ध्यान प्रमुख रूप से जुड़ा रखा गया है। इसलिए भी रविवार का दिन साप्ताहिक आयोजनों के लिए उपयुक्त माना गया है। जहां नित्य व्यवस्था नहीं बन सकती, वहां भी नैमित्तिक-साप्ताहिक व्यवस्था तो सरलता पूर्वक चलती ही रह सकती है। जहां अधिक बन पड़े वहां अधिक प्रयास होने पर भी रोक नहीं है। यह भी हो सकता है कि सात दिनों में सात अलग-अलग जगह पर यह साधना उपक्रम चलता रहे और एक दूसरे के यहां सम्मिलित होते रहकर, इस ऊर्जा उत्पादन-प्रयोजन में सहगामी बनते रहें। पर यह तो किन्हीं विशेष स्थानों की ही बात हुई। आमतौर से रविवासयीय कार्यक्रम ही रखा गया है।
आगन्तुकों को पैर धोकर पुरश्चरण में बैठने के लिए पानी का प्रबन्ध रखा जाय। आरम्भ में सभी का जल से अभिसिंचन कर दिया जाय, वही पवित्रीकरण आदि प्राथमिक कृत्य माना जाय। सबको तिलक लगाया जाय। जिन्हें तिलक या कलावा रुचता न हो वे कार्यक्रम समाप्त होने के उपरान्त उसे हटा भी सकते हैं।
पूजा की चौकी सुसज्जित होनी चाहिए, जिस पर गायत्री माता की चित्र, छोटा जल कलश रहे। थाली में दीपक एवं अगर बत्ती रहें जिन्हें, सामूहिक मंत्रोच्चार के समय जलाया जाय। पहले जला देने पर उनके बुझ जाने का डर बना रहेगा।
आयोजनों की समाप्ति पर शान्ति पाठ किया जाय और मात्र जल तुलसी दल का प्रसाद दिया जाय। महंगे प्रसाद बांटने का नियम इन आयोजनों में नहीं रखा गया है। यह भी सर्वजनीन एवं सर्वदेशीय है। इसलिए इनमें इस बात का ध्यान रखा गया है कि व्यय भार बढ़ने पर कहीं लोगों की कठिनाई, उपेक्षा एवं अश्रद्धा न बढ़ने लगे?
इन आयोजनों में पांच उपक्रम सम्मिलित रखे गये हैं।
(1) मौन मानसिक गायत्री जप और नेत्र बन्द करके सूर्य का ध्यान। ध्यान में सूर्य शक्ति का अपने काया के तीनों कलेवरों में प्रवेश। उससे उनमें शक्ति, प्रतिभा और भाव संवेदना का अनुग्रह अवतरण। उदीयमान सविता देव को अपना समर्पण। आग और ईंधन की तरह एकात्मता का अनुभव, अपने अन्दर दिव्य ऊर्जा की स्फुरणा का अनुभव।
(2) दीप यज्ञ। पांच दीपकों का, पांच अगरबत्तियों का प्रज्ज्वलन। साथ ही चौबीस बार गायत्री मंत्र का सामूहिक सस्वर पाठ। अब समय की मांग और व्यापक विस्तार की आवश्यकता को देखते हुए दीप यज्ञ ही पर्याप्त समझे जायेंगे।
(3) सहगान संकीर्तन। सद्भावनायें, सत्प्रेरणाएं जगाने वाले गीतों का सामूहिक गान। एक बोले, दूसरी बार उसी का उपस्थित लोग दोहरायें। यदि साथ में बाध्य यंत्रों की व्यवस्था भी हो तो यह उपक्रम और भी सरस हो जायेगा। इस प्रयोजन के लिए प्रज्ञा गीतों का संकलन अनेक पुस्तकों के रूप में पहले से ही उपलब्ध है। इनसे सत्संग की महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी होती है।
(4) उद्बोधन। सत्संग का दूसरा पक्ष है श्रेष्ठ विचारों को चुनना, उन पर मनन करना—युग साहित्य में से कोई समय से संगीत खाता हुआ लेख पढ़कर भी सुनाया जा सकता है। अखण्ड ज्योति के लेख उच्चस्तरीय प्रवचनों की आवश्यकता पूरी करते हैं।
(5) स्वाध्याय संदोह। झोला पुस्तकालय पद्धति के पुराने प्रचलन का नए रूप में अभिवर्धन। प्रज्ञा मण्डल का पुस्तकालय भी साप्ताहिक रूप से खुले। उपस्थित जन अपने लिए, अपने साथियों के लिए पढ़ने की पुस्तकें इस शर्त पर ले जांय कि वे स्वयं पढ़ेंगे, साथियों को पढ़ाएंगे और अगले सप्ताह उपस्थित होकर पुस्तकालय में सुरक्षित रूप से वापस कर देंगे। इस प्रकार झोला पुस्तकालयों के लिए अनेकों द्वारा किए जाने वाले प्रयत्नों का एक ही स्थान से सूत्र संचालन होता रहेगा।
इन पांचों उपक्रमों के साथ प्रायः दो ढाई घन्टे में समूचा कार्यक्रम पूरा हो सकता है। इसके लिए प्रातःकाल का समय तो निश्चित है ही। यदि संभव हो व परिस्थितियां अनुमति दें तो रात्रि को उसी दिन दूसरी जगह भी यही कार्य क्रम सम्पन्न किया जा सकता है। इस प्रकार युग पुरश्चरण का कार्यक्रम और प्रज्ञा मण्डलों का गठन एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े रहेंगे। एक से पांच, पांच से पच्चीस की प्रगति प्रक्रिया अपनाई जायेगी। एक प्रतिभावान व्यक्ति अग्रगामी बने। अपने ही जैसे चार अन्य साथी और ढूंढ़ निकाले। पांच की मंडली पांच पाण्डवों की, पांच रत्नों की, पांच देवों की भूमिका निभाती रह सकती है।
अगले चरण में यह पांचों भी चार-चार और साथी ढूंढ़ेंगे। एक से पांच बनेंगे और पांचों के प्रयत्न से बना हुआ मंडल पच्चीस सदस्यों वाला बन जायेगा। सही, घनिष्ठ और सहयोगी मंडल इतने ही लोगों के चल सकते हैं। संख्या बढ़े, तो उनके इसी प्रकार दूसरे मंडल गठित कर लिये जाने चाहिए। देखा गया है कि अधिक संख्या में असंबद्ध लोग इकट्ठे हो जाने पर अहंवाद पनपता है। टांग खिंचाई होती है। झगड़ालू लोग न स्वयं करते हैं और न दूसरों को करने देते हैं। उनका प्रवेश होने से कलह की मचता है और बने प्रयास बिगड़ जाते हैं। इसलिए अनुभव के आधार पर यही उपयुक्त पाया गया है कि पांच व्यक्ति अपने-अपने परखे लोगों में से पच्चीस ढूंढ़ निकालें, और इतने ही बड़े संगठन पर सन्तोष करें। संख्या नहीं, स्तर को महत्व दिया जाना चाहिए।
परिजनों को एक बार गायत्री माता की उपासना करने के लिए गायत्री परिवार के नाम से, एक बार विचार क्रान्ति अभियान को व्यापक बनाने के लिए स्वाध्याय मंडल नाम से संगठित किया गया था। वे दोनों ही प्रयोजन अब युग पुरश्चरण में मिल जाते हैं। उपासना अभियान के लिए गायत्री जप, सविता का ध्यान और दीप यज्ञ से अग्निहोत्र के तीनों प्रयोजन पूरे हो जाते हैं और त्रिविधि संगम की त्रिवेणी बन जाती है।
विचार क्रान्ति का आयोजन भी इस अभिनव योजना में समाहित हैं। युग संकीर्तन से संगीत सहगान की क्रिया पद्धति भाव संवेदनाओं के उभारने का उद्देश्य पूरा करती हैं। एक लेख सुना देने से भी संगीत के बाद प्रवचन की आवश्यकता पूरी होती है और सत्संग की प्रक्रिया गद्य और पद्य दोनों रूपों में पूरी हो जाती है। स्वाध्याय का दूसरा प्रयोजन झोला पुस्तकालयों के माध्यम से चलता है। वह अब इसी पुरश्चरण प्रक्रिया के पांचवें निर्धारण के अन्तर्गत पुरा होता रहेगा। आयोजन में सम्मिलित होने वालों को अगले सप्ताह तक अपने सम्पर्क में अधिकाधिक लोगों को युग सृजन की विचार धारा से भरा पूरा साहित्य पढ़ाना और वापिस लेना होगा। इसके लिए वे साप्ताहिक सत्संग के समय खुलने वाले पुस्तकालय से अपने नाम लिखाकर पुस्तकें ले जाया करेंगे और अगली बार वापिस कर दिया करेंगे। इस प्रकार औसतन हर व्यक्ति न्यूनतम सात पुस्तकें ले जाया करेगा और सात दिन में एक-एक पुस्तक एक-एक को पढ़ाते रहने के लिए सात व्यक्तियों तक मिशन की विचारधारा पहुंचा दिया करेगा। पच्चीस सदस्यों का मंडल 25×7=175 व्यक्तियों तक युग चेतना का आलोक पहुंचाने का प्रयोजन पूरा कर लिया करेंगे। इस प्रकार प्रस्तुत साप्ताहिक सत्संगों में युग उपासना और विचार क्रान्ति के दोनों की उद्देश्य साथ-साथ जुड़े रहेंगे और सधते रहेंगे।
साप्ताहिक सत्संग सम्मिलित होते रहने वालों के लिए यह उचित होगा कि वे अपनी सुविधानुसार एक महीने का या नौ दिन का सत्र शान्तिकुंज में आकर पूरा कर लें। एक अनुष्ठान यहां के वातावरण में सम्पन्न कर लेने वाले से यह आशा की जा सकती है, कि वह देव साक्षी में लिया हुआ अपना संकल्प पूरी अवधि तक निबाहता रहेगा और बिना डगमगाए निष्ठावान बना रहेगा। इसके बिना, किसी प्रकार उभरा कौतूहल कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाता है और व्रत उस तत्परता से नहीं निभ पाता, जितना की निभाना चाहिए था। इसलिए नव गठित मंडल के सदस्यों को यह परामर्श दिया जाना चाहिए कि यदि उनने गम्भीरता से इस महापुरश्चरण की भागीदारी का महत्व समझा हो तो, केन्द्र में एक अनुष्ठान सम्पन्न करें और वहां से सुनिश्चित भागीदारी का संकल्प लेकर आवे; ताकि व्रत ठीक प्रकार निभ सके।
यह पुरश्चरण प्रक्रिया का शुभारम्भ और सत्प्रवृत्तियों के समर्थकों का एकीकरण संगठन है। इस प्रकार प्रतिभा शक्ति उभरती है और वह इस स्थिति में होती है कि अगले दिनों युग सृजन के सन्दर्भ में कितने ही महत्वपूर्ण कार्य कर सकें। इन अगले कार्यों में प्रमुख कार्य यह है कि अपने सम्पर्क क्षेत्र में घर-घर युग चेतना का संदेश सुनाने और आलोक वितरण के पुण्य प्रयास में लग जाया जाय। इस आधार पर सम्पर्क क्षेत्र बढ़ेगा और जन सहयोग से अनेक महत्वपूर्ण कदम उठ सकेंगे।
बढ़ते चरणों में, अपने प्रभाव क्षेत्र में हर घर में, आदर्श वाक्यों के स्टीकर चिपकाने का काम प्रमुखता से हाथ में लेना चाहिए। इस प्रयोजन के लिए हरिद्वार तथा गायत्री तपोभूमि मथुरा में कई भाषाओं में स्टीकर मिलते हैं। जो लागत मूल्य पर बिना किसी लाभांश के दिए जाते हैं। मण्डल के सदस्य इन्हें अपने घरों में तो लगाएं ही, इसके अतिरिक्त जिनका जहां जितना प्रभाव है, वहां जाकर इन स्टीकर को लगाने का आग्रह करें। उन्हें मूल्य लेकर दें, जिससे लोग उनका महत्व समझने समझाने में समय लगाएं और उनकी उपयोगिता के सम्बन्ध में दिमाग खुले। स्टीकर्स छोटे साइज के मात्र तीस पैसे के और बड़े साइज के 60 पैसे के हैं। एक घर में प्रमुख स्थानों पर दस पांच स्टीकर लगाये जाएं तो मात्र तीन रुपये में होते हैं। जो देने योग्य हैं, उनसे पैसे लेकर देना ही ठीक है। जो असमर्थ हैं या जहां सार्वजनिक स्थान हैं वहां अपनी ओर से भी लगाए जा सकते हैं। बसों, रिक्शों, स्कूटरों आदि पर इनका चिपकाना भी उपयोगी रहता है।
नव युग के आगमन की पूर्व सूचना देने के लिए यह स्टीकर प्रयास, एक बहुत ही सस्ता और सफल तरीका है। प्रभात होने से पूर्व मुर्गे वंग देते हैं। नव युग के आगमन की मुनादी घर-घर में आदर्श वाक्यों के स्टीकर लगाकर दी जानी चाहिए। लंका में विभीषण के द्वार पर राम नाम लिखा था, इसी आधार पर हनुमान जी ने उनसे सम्पर्क साधा और घनिष्ठता बना ली। युग परिवर्तन का प्रकाश कहां-कहां तक जा पहुंचा, इसका अनुमान स्टीकर चिपके देख कर लगाया जाना है। इससे वातावरण बनता है। घर में रहने वालों तथा बाहर से आने वालों की उन पर नजर पड़ती हैं, तो उनके विचारों पर प्रभाव पड़ता है, जो आगे चलकर कार्य रूप में परिणत होते भी देखा जा सकता है। जहां दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखना संभव हो वहां वैसा किया जाय। अन्यथा स्टीकर आन्दोलन तो सर्व सुलभ है ही। अटैची आदि पर छोटे स्टीकरों से ही काम चल जाता है। वे साथ चलते हैं, तो जिसके हाथ में है, उसकी विचार धारा का परिचय प्रदान करते हैं और सद्भावना पैदा करते—वातावरण बनाते हैं।
युग संधि महापुरश्चरण के साथ साथ प्रज्ञा मण्डल का गठन अनायास ही हो जाता है। इस आधार पर नव सृजन के लिए उमंग उठें उसमें इस प्रयास को प्रमुखता दी जाय कि अधिक से अधिक लोग मिशन की विचारधारा से परिचित हों और उसे समर्थन सहयोग देने लगें। सृजन शिल्पियों के अधिक संख्या में उभरने और संयुक्त शक्ति के आधार पर अधिक बड़े काम करने की संभावना का सूत्रपात इसी धीमी, सरल किन्तु चिरस्थायी रीति से संभव होना है।
आलोक वितरण अभियान में घरों घरों जाकर कार्य करने में ‘‘टैप रिकॉर्डर-लाउडस्पीकर, स्लाइड प्रोजेक्टर’’ यह तीन उपकरणों से आवश्यक सहायता मिलेगी। यह तीनों मिलकर एक पूर्ण प्रचारक की आवश्यकता पूरी कर लिया करेंगे। पच्चीसों सदस्यों के यहां बारी-बारी यह उपकरण पहुंचा करेंगे तो एक महीने में एक बार उनके यहां विचार गोष्ठी सम्पन्न हो जाया करेगी। मुहल्ले पड़ोस के परिवार, सम्बन्धी एवम् परिचय के लोग एकत्रित होकर उस सत्संग का लाभ उठा लिया करें, जो किसी विद्वान वक्ता या कुशल गायक को घर पर आमंत्रित करके उठाया जा सकता है। उन्हें बुलाने पर तो खर्च भी पड़ेगा, दक्षिणा मार्ग व्यय भोजन आदि का खर्च वहन करना पड़ेगा, पर यह तीनों उपकरण मिलकर बिना किसी खर्च के किसी भी परिवार को ज्ञान चेतना से जगमगा दिया करेंगे। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत योजना में एक ओर विशेष आकर्षण जुड़ा रहता है। वह है स्लाइड प्रोजेक्टर रंगीन सिनेमा दिखाने का। इसे दिखाने वाला कुछ ही दिन के अभ्यास से भाषण कला में प्रवीण बन सकता है। मुफ्त में विचारोत्तेजक सिनेमा देखने में वह वर्ग तो असाधारण रुचि लेता है, जिन्हें नित्य ही नवीन सिनेमा दिखाने का अवसर नहीं मिलता। अपने देश में ऐसे ही लोग अधिक हैं। उन तक प्रस्तुत स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। ज्ञान वर्धन का लाभ उन घरों तक भी पहुंचाया जा सकता है जिन्हें ऐसा अवसर इससे पूर्व कभी नहीं मिला। विचार क्रान्ति नव युग की प्रधान आवश्यकता है, जिसे उपरोक्त तीनों उपकरणों के माध्यम से, सहगान कीर्तन तथा युग साहित्य के अतिरिक्त सहयोग से भली भांति सम्पन्न किया जा सकता है।
मण्डल के पच्चीसों सदस्य यदि इस प्रयोजन को लेकर निकल पड़ें और एक महीने में पच्चीस घरों तक युग संदेश पहुंचा दिया करें तो 25×25=625 घरों तक जन जागरण की प्रक्रिया पूर्ण की जा सकती है। इस एक छोटे आयोजन में यदि 20 व्यक्ति भी उपस्थित हों तो 12500 व्यक्ति इसी पांच में पच्चीस के रूप में विकसित होने वाले मण्डल द्वारा लाभान्वित हो सकते हैं। न किया जाय तब तो यह सब दिवा स्वप्न ही है, पर यदि करने पर उतर पड़ा जाय, समयदान का संकल्प व्रत पूर्वक निवाहा जाय, तो उसका चमत्कारी सत्परिणाम युग चेतना उभारने के रूप में सम्पन्न हो सकता है। नवयुग की आधार शिला बिना किसी धूम धाम के, किन्तु ठोस आधार पर रखी जा सकती है।
अदृश्य अन्तरिक्ष के परिशोधन के लिए, व्यक्तित्व विकास प्रतिभा परिष्कार जैसे अनेक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, सामूहिक उपासना का समुचित प्रभाव उत्पन्न हो सकता है। विशेषतया तब, जबकि वह संकल्प लाखों करोड़ों व्यक्तियों द्वारा एक ही दिन एक ही प्रकार से, एक ही भावना के साथ सम्पन्न किया जा रहा है। युग संधि पुरश्चरण के पीछे ऐसे ही अनेकों देव प्रयोजनों का समावेश है। जहां लोक मंगल के लिए अनेक प्रत्यक्ष सृजनात्मक, बीस सूत्रीय स्तर के काम करने हैं, वहां आत्मशक्ति के अभिवर्धन हेतु सामूहिक उपासना का भी आश्रय लेना है। युग संधि पुरश्चरण की भागीदारी से यह आवश्यकता भी पूरी होती है।
जहां कहीं भी जीवन्त संगठन अभी भी काम कर रहे हों, जहां धार्मिक प्रवृत्तियां चल रही हों, वहां इस प्रयोजन को भी अन्य उपक्रमों के साथ-साथ जोड़कर रखा जाना चाहिए।
प्रज्ञा पीठें कुछ वर्ष पूर्व बड़ी संख्या में बनी थी। उन निर्माणों के पीछे भी ऐसे ही उच्चस्तरीय उद्देश्य जुड़े हुए थे। मात्र प्रतिमा पूजन के लिए मन्दिर बनाना ही उनका अभिप्राय नहीं था। जहां सब कुछ ठीक चल रहा है वहां इस बारह वर्षीय साधना को इन्हीं दिनों चालू कर देना चाहिए। जहां अभी कोई नियमित प्रवृत्ति चल नहीं पाई है वहां इतना तो करना ही चाहिए कि युग पुरश्चरण की अभिनव प्रवृत्तियां तुरन्त चालू कर दी जायें। हर दिन युग धर्म प्रयोजन पूरा न हो तो सप्ताह में एक दिन प्रातःकाल दो ढाई घन्टे का यह साप्ताहिक आयोजन सम्पन्न कर ही लिया जाया करें। यदि प्रचार उपकरणों की व्यवस्था बन गई है, तो कम से कम साप्ताहिक सत्संगों के दिन रात्रि को भी कहीं न कहीं ज्ञान गोष्ठी का ऐसा आकर्षक कार्य क्रम सम्पन्न कर लिया जाता रहे जिसमें लोक रंजन और लोक मंगल दोनों ही उद्देश्य जुड़े हुए हों।
उपरोक्त क्रिया कलापों में कुछ न कुछ खर्च की आवश्यकता पड़ती रहेगी। इसकी पूर्ति के लिए रसीद बही छपाकर बाजार में चन्दा मांगने निकल पड़ने का तरीका ठीक नहीं। चन्दा मांगने का कार्य भले ही ऊंचे और अच्छे उद्देश्य के लिए किया गया हो, लोगों की दृष्टि में अवांछनीयता से भरा मालूम पड़ता है। फिर अपने छोटे कार्यक्रम ऐसे हैं भी तो नहीं जिन्हें मिल जुल कर गरीब और मध्यम श्रेणी के लोग निष्ठा के जीवित रहते पूरा न कर सकें। परिजनों का थोड़ा सा नियमित अंशदान ही इन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। बीस पैसा नित्य का अंशदान सदस्यों के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक माना गया है। यह इतना बड़ा भार नहीं है जिसे वहन न किया जा सके। यह चौथाई रोटी के टुकड़े जितना अनुदान हैं, जिसे किसी जरूरी खर्च में कटौती करके भी पूरा किया जा सकता है। इसे भोजन-शयन की तरह ही यदि दैनिक आवश्यकता में सम्मिलित रखा जाय, तो आपसी सहयोग संगठन अनुदान से ही उपरोक्त सभी क्रिया कृत्यों की पूर्ति भली प्रकार होती रह सकती है। संग्रह साप्ताहिक या मासिक रूप से किया जाय और जो जमा खर्च हुआ, उसका विवरण सभी को समय समय पर दिखा सुना दिया जाय, तो आशंका, आरोप, आक्षेप आदि की कभी कोई गुंजाइश न रहेगी। प्राथमिकता और उपयोगिता पर विश्वास रहने पर बीस पैसा ही क्यों, कई समर्थ लोग ऐसे पुण्य प्रयोजन के लिए और भी उदारता पूर्वक कुछ देते रह सकते हैं। झोला पुस्तकालय, दीपयज्ञ आदि की आवश्यकताएं तो इसी राशि से पूरी होती रह सकती है।
पुरश्चरण की, शाखाएं यदि ठीक प्रकार अपना काम करने लगें तो उपकरणों के लिए जो दो हजार की आवश्यकता पड़ेगी उन्हें भी अपने ही परिकर के लोग मिल जुल कर पूरी कर सकते हैं। स्टीकरों के स्टॉक भर में ही पैसा लगता है। पीछे तो बिकने लगते हैं तो किसी अतिरिक्त लागत की आवश्यकता नहीं पड़ती।
वर्ष में एक बार इन मण्डलों का छोटा वार्षिकोत्सव मनाया जाय। एक कस्बे या शहर में सहज ही हर मुहल्ले के अलग अलग प्रज्ञा मण्डल होंगे। वे वर्ष में एक बार मिल जुलकर सामूहिक आयोजन कर ही सकते हैं—वर्ष में अधिक बार भी। इसके लिए खर्चीली योजनाएं बनाने की आवश्यकता नहीं। अपने लोगों में से ही मिशन की विचार धारा व्यक्त कर सकने वाले गायक या वक्ता मिल सकते हैं। न मिलें तो कुछ प्रतिभाओं को एक महीने के लिए शान्तिकुंज भेजकर गायन और भाषण की योग्यता अर्जित कराई जा सकती है। वे सत्र वर्ष भर नियमित रूप से 1 से 29 तारीख में चलते रहते हैं। स्वावलम्बन एवं स्वास्थ्य संवर्धन के लिए नये विषयों का शिक्षण भी अब इसमें सम्मिलित हैं। अब मिशन के इतने अधिक कार्यकर्ता वक्तृत्व एवं युग गायन में प्रवीण हो गए हैं, कि उन्हें आस पास से ही बुलाया आमंत्रित किया जा सकता है। फिर बड़े दीप यज्ञों के आयोजन सफल बनाने के लिए शान्तिकुंज की जीप गाड़ियां भी तो काम करती हैं। उनके लिए मार्ग व्यय, तेल पेट्रोल आदि जैसे ही खर्च अब देने पड़ते हैं। सुविधा होने और बड़े आयोजनों पर शान्ति कुंज से भी प्रचार मण्डलियां भेजी जा सकती हैं।
जहां अधिक उदार और अधिक सक्रिय लोगों की टीम बन जाती हैं वहां कभी भी आर्थिक कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। मिल जुलकर ही बड़े काम संपन्न हो जाते हैं। कार्य की उपयोगिता देख कर सम्पर्क में आने वाले लोग ही स्वेच्छापूर्वक अपने योगदान प्रस्तुत करते रहते हैं। कठिनाई तो तब पड़ती है, अश्रद्धा तो तब फैलती है, जब सेवा कार्य कुछ होता नहीं और जिस तिस बहाने लोग रसीद छपाकर चन्दा उगाहने के लिए फिरते और दुत्कारे जाते हैं। हम थोड़े पैसे में बड़े काम करने की नीति अपनाएं और मिलजुलकर आवश्यकता पूरी करने की आदत डालें, तो कभी भी, कहीं भी, सत्प्रयोजनों को पूरा करने में धन की कमी नहीं पड़ेगी।
महापुरश्चरण को अधिक व्यापक क्षेत्र में, अनेक स्थानों पर स्थापित, संगठित करने के लिए कर्मठ कार्यकर्ताओं की आवश्यकता अगले बारह वर्षों में बड़ी संख्या में पड़ेगी। जिन लोगों ने समय-दान, वानप्रस्थ, परिव्राजक, आदि के संकल्प लिए हैं, उन सभी से इस बार एक ही बात कही जा रही है, एक ही दायित्व सौंपा जा रहा है, कि वे अपने परिचय प्रभाव क्षेत्र में परिभ्रमण करें, जीवन्त परिजनों से सम्पर्क साधें और उन्हें इसके लिए तैयार करें कि युग संधि पुरश्चरण में उनकी भूमिका कुछ न कुछ होनी ही चाहिए। इस महान साधना में जिसकी किसी न किसी प्रकार भागीदारी न हो, ऐसा कोई भी नहीं रहना चाहिए।
साप्ताहिक साधनाओं के बड़े-बड़े संगठन खड़े करने की जरूरत नहीं हैं। वे एक से पांच और पांच से पच्चीस की योजना के अन्तर्गत की सही रूप में चल पाएंगे। आदर्श वाक्यों के स्टीकर, युग संधि के प्रथम वर्ष की प्रथम योजना है। अपनों का, अपनों के प्रभाव क्षेत्र का कोई घर ऐसा न रहे जहां आदर्श वाक्यों को, अनुरूप वातावरण बनाते और भूमिका निभाते न देखा जाय। जिन्हें संकल्प निबाहने के लिए आवश्यक प्रेरणा लेनी है, उन्हें शान्तिकुंज के लिए साधना सत्र में सम्मिलित होकर ऐसी शक्ति अर्जित करनी चाहिए, जिससे उनका संकल्प पूरी अवधि तक सही रूप से निभ सके।
विश्वास किया जाता है, कि जिन वरिष्ठ परिजनों की युग संधि की विशिष्टता तथा उस सन्दर्भ में उत्पन्न हुई समस्याओं के सम्बन्ध में अभिरुचि होगी, वे इन दिनों निश्चेष्ट निष्क्रिय न रहेंगे। कुछ न कुछ अपनी परिस्थिति के अनुरूप अवश्य करेंगे। जो किया जा रहा हो, जो सोचा जा रहा हो, जो योजना स्वयं ने या साथियों ने मिल कर बनाई हो, उसकी जानकारी शान्तिकुंज हरिद्वार अवश्य भिजवाते रहा जाय; ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कितने साधन जुट गये और अभी कितने जुटाने शेष हैं।
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एक ऐसी ही परिवर्तन की वेला अगले दिनों आ रही है, जब एक सहस्राब्दी का समापन होकर अगली का शुभारम्भ होगा। बीसवीं सदी का समापन होकर अगली का शुभारम्भ होने जा रहा है। यह परिवर्तन वेला कुछ क्षणों की नहीं, बारह वर्ष की है। यह सन् 1986 से चल कर सन् 2000 में समाप्त होगी। इस अवधि में, प्रचलन में घुसी अवांछनीयतायें निरस्त होंगी एवं नव सृजन की सम्भावनायें साकार होंगी। पिछली भूलों का प्रायश्चित्य किया जायेगा एवं नवयुग की आधारशिला रखी जायेगी। इस नव सृजन के आधार पर ही चिरस्थायी सुख शान्ति संभव हो सकेगी। सभी इस उज्ज्वल भविष्य के लिए आशान्वित हैं। सर्वत्र नवयुग के अरुणोदय की प्रतीक्षा उत्सुकता पूर्वक की जा रही है।
शान्तिकुंज के प्रज्ञा परिजनों ने, इस युग संधि के बारह वर्षों में अपने ढंग से, सत्प्रवृत्ति संवर्धन दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन का काम परिपूर्ण उत्साह के साथ आरम्भ कर दिया है और युग सृजन के लिए व्यापक योजना बनाई है। उसमें जन मानस का परिष्कार और प्रतिभा संवर्धन के कार्य को प्रमुखता दी गई है; ताकि नव सृजन के लिये उपयुक्त वातावरण बन सके और उन अति महत्वपूर्ण कार्यों को पूरा करने के लिए, सृजन शिल्पियों का एक समर्थ और विस्तृत समुदाय अग्रिम पंक्ति में खड़ा हो सके। शान्तिकुंज में एक-एक माह और नौ-नौ दिनों के शिक्षण सत्र इसी उद्देश्य से चल रहे हैं।
इस अश्विन नवरात्रि से शान्तिकुंज में युग संधि पुरश्चरण का व्रतशील साधना क्रम चल पड़ा है। यह संकल्प बारह वर्ष का है। इस अवधि में प्रचारात्मक, रचनात्मक, सुधारात्मक कार्यक्रमों के अतिरिक्त युग साधना महापुरश्चरण की साधनात्मक प्रक्रिया को भी सम्मिलित रखा गया है। यह हर दिन, निर्धारित रूप में, बाहर वर्ष तक अखण्ड रूप से चलती रहेगी। सन् 2000 में इसकी पूर्णाहुति होगी। उसका कार्यक्रम तो अभी से घोषित नहीं किया गया है, पर एक शब्द में इतना समझा जा सकता है, कि वह अपने ढंग की अनोखी और महत्वपूर्ण विधा होगी। सर्व विदित है कि मथुरा के सहस्र कुण्डीय गायत्री महायज्ञ के उपरान्त गायत्री परिवार बने थे, गायत्री यज्ञों के आयोजन चले थे, प्रज्ञा पीठों का निर्माण हुआ था। आशा की जानी चाहिए कि बीसवीं सदी के अन्त और इक्कीसवीं सदी के आरम्भ में उनमें वह उत्साह उमड़ेगा, जो नव युग की सृजन प्रक्रिया में अपनी असाधारण भूमिका सम्पन्न करेगा। उस उपलब्धि को सतयुग की वापसी भी कहा जा सकेगा। इसके लिए अभी नई पौध आरोपित की जा रही है, उसे छायादार बनने और फूल फलों से लदने में बारह वर्ष भी लग सकते हैं। इस बीच भी लहलहाता उद्यान मन में उल्लास तो भरेगा ही, आशा की अभिनव जीवन ज्योति जगायेगा ही।
शान्तिकुंज से आरम्भ युग संधि पुरश्चरण, मात्र इसी एक स्थान पर सीमित नहीं रहेगा, वरन् उसकी व्यापकता अत्यन्त विस्तृत होगी। परिजनों में हर प्रतिभावान से कहा गया है, कि वह इस महा अभियान का भागीदार बने। अपने यहां इस अभियान का एक छोटा संस्करण अपने तत्वाधान में स्थापित करें। प्रज्ञा मण्डल स्थापित करें—युग पुरश्चरण की एक छोटी इकाई अपनी देख रेख में स्वयं आरम्भ करें और उसमें खाद पानी पूरी अवधि तक निष्ठा पूर्वक लगाते रहें।
सामूहिक होली जब जलती है तो उसमें से थोड़ी अग्नि सभी घर वाले ले जाकर ‘‘घर होली’’ आंगन में जलाते हैं। इसे विशाल की अपने अंक में स्थापना कहा जा सकता है। बुद्ध को जहां ज्ञान प्राप्त हुआ था उस ‘‘बोधिवृक्ष’’ की टहनियां काट कर लोग ले गए। उन्हें अपने-अपने यहां स्थापित किया था। लंका, वर्मा आदि अनेकों देशों में इनकी स्थापना हुई थी। ठीक इसी प्रकार यह महा पुरश्चरण सभी परिजनों को अपने यहां स्थापित, प्रज्ञापीठों में आरोपित करना चाहिए।
शान्तिकुंज का साधना क्रम तो नियमित निरन्तर जारी रहेगा। अन्यत्र वैसा बन पड़ना कठिन है। लोगों को धार्मिक उत्साह क्षणिक होता है। कुछ ही दिन में मन ऊबने लगता है और लम्बी अवधि के उपक्रम चल नहीं पाते। इसलिए उचित समझा गया है कि इसके सहगामी घटक अपने कार्यक्रम साप्ताहिक रूप से चलाएं। इसके लिए रविवार अधिक उपयुक्त समझा गया है। वह दिन अधिकांश लोगों की छुट्टी का रहता है। फिर प्रस्तुत साधना के विशेष उपास्य अधिष्ठाता के रूप में, सविता देव का- सूर्य भगवान का निर्धारण हुआ है। गायत्री महामंत्र का अधिष्ठाता भी सूर्य ही है। अस्तु सार्वभौम आस्था को ध्यान में रखते हुए, अभीष्ट ऊर्जा अवतरित करने के लिए सूर्य का ही वरण किया गया है। जप के साथ उसी का ध्यान प्रमुख रूप से जुड़ा रखा गया है। इसलिए भी रविवार का दिन साप्ताहिक आयोजनों के लिए उपयुक्त माना गया है। जहां नित्य व्यवस्था नहीं बन सकती, वहां भी नैमित्तिक-साप्ताहिक व्यवस्था तो सरलता पूर्वक चलती ही रह सकती है। जहां अधिक बन पड़े वहां अधिक प्रयास होने पर भी रोक नहीं है। यह भी हो सकता है कि सात दिनों में सात अलग-अलग जगह पर यह साधना उपक्रम चलता रहे और एक दूसरे के यहां सम्मिलित होते रहकर, इस ऊर्जा उत्पादन-प्रयोजन में सहगामी बनते रहें। पर यह तो किन्हीं विशेष स्थानों की ही बात हुई। आमतौर से रविवासयीय कार्यक्रम ही रखा गया है।
आगन्तुकों को पैर धोकर पुरश्चरण में बैठने के लिए पानी का प्रबन्ध रखा जाय। आरम्भ में सभी का जल से अभिसिंचन कर दिया जाय, वही पवित्रीकरण आदि प्राथमिक कृत्य माना जाय। सबको तिलक लगाया जाय। जिन्हें तिलक या कलावा रुचता न हो वे कार्यक्रम समाप्त होने के उपरान्त उसे हटा भी सकते हैं।
पूजा की चौकी सुसज्जित होनी चाहिए, जिस पर गायत्री माता की चित्र, छोटा जल कलश रहे। थाली में दीपक एवं अगर बत्ती रहें जिन्हें, सामूहिक मंत्रोच्चार के समय जलाया जाय। पहले जला देने पर उनके बुझ जाने का डर बना रहेगा।
आयोजनों की समाप्ति पर शान्ति पाठ किया जाय और मात्र जल तुलसी दल का प्रसाद दिया जाय। महंगे प्रसाद बांटने का नियम इन आयोजनों में नहीं रखा गया है। यह भी सर्वजनीन एवं सर्वदेशीय है। इसलिए इनमें इस बात का ध्यान रखा गया है कि व्यय भार बढ़ने पर कहीं लोगों की कठिनाई, उपेक्षा एवं अश्रद्धा न बढ़ने लगे?
इन आयोजनों में पांच उपक्रम सम्मिलित रखे गये हैं।
(1) मौन मानसिक गायत्री जप और नेत्र बन्द करके सूर्य का ध्यान। ध्यान में सूर्य शक्ति का अपने काया के तीनों कलेवरों में प्रवेश। उससे उनमें शक्ति, प्रतिभा और भाव संवेदना का अनुग्रह अवतरण। उदीयमान सविता देव को अपना समर्पण। आग और ईंधन की तरह एकात्मता का अनुभव, अपने अन्दर दिव्य ऊर्जा की स्फुरणा का अनुभव।
(2) दीप यज्ञ। पांच दीपकों का, पांच अगरबत्तियों का प्रज्ज्वलन। साथ ही चौबीस बार गायत्री मंत्र का सामूहिक सस्वर पाठ। अब समय की मांग और व्यापक विस्तार की आवश्यकता को देखते हुए दीप यज्ञ ही पर्याप्त समझे जायेंगे।
(3) सहगान संकीर्तन। सद्भावनायें, सत्प्रेरणाएं जगाने वाले गीतों का सामूहिक गान। एक बोले, दूसरी बार उसी का उपस्थित लोग दोहरायें। यदि साथ में बाध्य यंत्रों की व्यवस्था भी हो तो यह उपक्रम और भी सरस हो जायेगा। इस प्रयोजन के लिए प्रज्ञा गीतों का संकलन अनेक पुस्तकों के रूप में पहले से ही उपलब्ध है। इनसे सत्संग की महत्वपूर्ण आवश्यकता पूरी होती है।
(4) उद्बोधन। सत्संग का दूसरा पक्ष है श्रेष्ठ विचारों को चुनना, उन पर मनन करना—युग साहित्य में से कोई समय से संगीत खाता हुआ लेख पढ़कर भी सुनाया जा सकता है। अखण्ड ज्योति के लेख उच्चस्तरीय प्रवचनों की आवश्यकता पूरी करते हैं।
(5) स्वाध्याय संदोह। झोला पुस्तकालय पद्धति के पुराने प्रचलन का नए रूप में अभिवर्धन। प्रज्ञा मण्डल का पुस्तकालय भी साप्ताहिक रूप से खुले। उपस्थित जन अपने लिए, अपने साथियों के लिए पढ़ने की पुस्तकें इस शर्त पर ले जांय कि वे स्वयं पढ़ेंगे, साथियों को पढ़ाएंगे और अगले सप्ताह उपस्थित होकर पुस्तकालय में सुरक्षित रूप से वापस कर देंगे। इस प्रकार झोला पुस्तकालयों के लिए अनेकों द्वारा किए जाने वाले प्रयत्नों का एक ही स्थान से सूत्र संचालन होता रहेगा।
इन पांचों उपक्रमों के साथ प्रायः दो ढाई घन्टे में समूचा कार्यक्रम पूरा हो सकता है। इसके लिए प्रातःकाल का समय तो निश्चित है ही। यदि संभव हो व परिस्थितियां अनुमति दें तो रात्रि को उसी दिन दूसरी जगह भी यही कार्य क्रम सम्पन्न किया जा सकता है। इस प्रकार युग पुरश्चरण का कार्यक्रम और प्रज्ञा मण्डलों का गठन एक दूसरे के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े रहेंगे। एक से पांच, पांच से पच्चीस की प्रगति प्रक्रिया अपनाई जायेगी। एक प्रतिभावान व्यक्ति अग्रगामी बने। अपने ही जैसे चार अन्य साथी और ढूंढ़ निकाले। पांच की मंडली पांच पाण्डवों की, पांच रत्नों की, पांच देवों की भूमिका निभाती रह सकती है।
अगले चरण में यह पांचों भी चार-चार और साथी ढूंढ़ेंगे। एक से पांच बनेंगे और पांचों के प्रयत्न से बना हुआ मंडल पच्चीस सदस्यों वाला बन जायेगा। सही, घनिष्ठ और सहयोगी मंडल इतने ही लोगों के चल सकते हैं। संख्या बढ़े, तो उनके इसी प्रकार दूसरे मंडल गठित कर लिये जाने चाहिए। देखा गया है कि अधिक संख्या में असंबद्ध लोग इकट्ठे हो जाने पर अहंवाद पनपता है। टांग खिंचाई होती है। झगड़ालू लोग न स्वयं करते हैं और न दूसरों को करने देते हैं। उनका प्रवेश होने से कलह की मचता है और बने प्रयास बिगड़ जाते हैं। इसलिए अनुभव के आधार पर यही उपयुक्त पाया गया है कि पांच व्यक्ति अपने-अपने परखे लोगों में से पच्चीस ढूंढ़ निकालें, और इतने ही बड़े संगठन पर सन्तोष करें। संख्या नहीं, स्तर को महत्व दिया जाना चाहिए।
परिजनों को एक बार गायत्री माता की उपासना करने के लिए गायत्री परिवार के नाम से, एक बार विचार क्रान्ति अभियान को व्यापक बनाने के लिए स्वाध्याय मंडल नाम से संगठित किया गया था। वे दोनों ही प्रयोजन अब युग पुरश्चरण में मिल जाते हैं। उपासना अभियान के लिए गायत्री जप, सविता का ध्यान और दीप यज्ञ से अग्निहोत्र के तीनों प्रयोजन पूरे हो जाते हैं और त्रिविधि संगम की त्रिवेणी बन जाती है।
विचार क्रान्ति का आयोजन भी इस अभिनव योजना में समाहित हैं। युग संकीर्तन से संगीत सहगान की क्रिया पद्धति भाव संवेदनाओं के उभारने का उद्देश्य पूरा करती हैं। एक लेख सुना देने से भी संगीत के बाद प्रवचन की आवश्यकता पूरी होती है और सत्संग की प्रक्रिया गद्य और पद्य दोनों रूपों में पूरी हो जाती है। स्वाध्याय का दूसरा प्रयोजन झोला पुस्तकालयों के माध्यम से चलता है। वह अब इसी पुरश्चरण प्रक्रिया के पांचवें निर्धारण के अन्तर्गत पुरा होता रहेगा। आयोजन में सम्मिलित होने वालों को अगले सप्ताह तक अपने सम्पर्क में अधिकाधिक लोगों को युग सृजन की विचार धारा से भरा पूरा साहित्य पढ़ाना और वापिस लेना होगा। इसके लिए वे साप्ताहिक सत्संग के समय खुलने वाले पुस्तकालय से अपने नाम लिखाकर पुस्तकें ले जाया करेंगे और अगली बार वापिस कर दिया करेंगे। इस प्रकार औसतन हर व्यक्ति न्यूनतम सात पुस्तकें ले जाया करेगा और सात दिन में एक-एक पुस्तक एक-एक को पढ़ाते रहने के लिए सात व्यक्तियों तक मिशन की विचारधारा पहुंचा दिया करेगा। पच्चीस सदस्यों का मंडल 25×7=175 व्यक्तियों तक युग चेतना का आलोक पहुंचाने का प्रयोजन पूरा कर लिया करेंगे। इस प्रकार प्रस्तुत साप्ताहिक सत्संगों में युग उपासना और विचार क्रान्ति के दोनों की उद्देश्य साथ-साथ जुड़े रहेंगे और सधते रहेंगे।
साप्ताहिक सत्संग सम्मिलित होते रहने वालों के लिए यह उचित होगा कि वे अपनी सुविधानुसार एक महीने का या नौ दिन का सत्र शान्तिकुंज में आकर पूरा कर लें। एक अनुष्ठान यहां के वातावरण में सम्पन्न कर लेने वाले से यह आशा की जा सकती है, कि वह देव साक्षी में लिया हुआ अपना संकल्प पूरी अवधि तक निबाहता रहेगा और बिना डगमगाए निष्ठावान बना रहेगा। इसके बिना, किसी प्रकार उभरा कौतूहल कुछ ही दिनों में समाप्त हो जाता है और व्रत उस तत्परता से नहीं निभ पाता, जितना की निभाना चाहिए था। इसलिए नव गठित मंडल के सदस्यों को यह परामर्श दिया जाना चाहिए कि यदि उनने गम्भीरता से इस महापुरश्चरण की भागीदारी का महत्व समझा हो तो, केन्द्र में एक अनुष्ठान सम्पन्न करें और वहां से सुनिश्चित भागीदारी का संकल्प लेकर आवे; ताकि व्रत ठीक प्रकार निभ सके।
यह पुरश्चरण प्रक्रिया का शुभारम्भ और सत्प्रवृत्तियों के समर्थकों का एकीकरण संगठन है। इस प्रकार प्रतिभा शक्ति उभरती है और वह इस स्थिति में होती है कि अगले दिनों युग सृजन के सन्दर्भ में कितने ही महत्वपूर्ण कार्य कर सकें। इन अगले कार्यों में प्रमुख कार्य यह है कि अपने सम्पर्क क्षेत्र में घर-घर युग चेतना का संदेश सुनाने और आलोक वितरण के पुण्य प्रयास में लग जाया जाय। इस आधार पर सम्पर्क क्षेत्र बढ़ेगा और जन सहयोग से अनेक महत्वपूर्ण कदम उठ सकेंगे।
बढ़ते चरणों में, अपने प्रभाव क्षेत्र में हर घर में, आदर्श वाक्यों के स्टीकर चिपकाने का काम प्रमुखता से हाथ में लेना चाहिए। इस प्रयोजन के लिए हरिद्वार तथा गायत्री तपोभूमि मथुरा में कई भाषाओं में स्टीकर मिलते हैं। जो लागत मूल्य पर बिना किसी लाभांश के दिए जाते हैं। मण्डल के सदस्य इन्हें अपने घरों में तो लगाएं ही, इसके अतिरिक्त जिनका जहां जितना प्रभाव है, वहां जाकर इन स्टीकर को लगाने का आग्रह करें। उन्हें मूल्य लेकर दें, जिससे लोग उनका महत्व समझने समझाने में समय लगाएं और उनकी उपयोगिता के सम्बन्ध में दिमाग खुले। स्टीकर्स छोटे साइज के मात्र तीस पैसे के और बड़े साइज के 60 पैसे के हैं। एक घर में प्रमुख स्थानों पर दस पांच स्टीकर लगाये जाएं तो मात्र तीन रुपये में होते हैं। जो देने योग्य हैं, उनसे पैसे लेकर देना ही ठीक है। जो असमर्थ हैं या जहां सार्वजनिक स्थान हैं वहां अपनी ओर से भी लगाए जा सकते हैं। बसों, रिक्शों, स्कूटरों आदि पर इनका चिपकाना भी उपयोगी रहता है।
नव युग के आगमन की पूर्व सूचना देने के लिए यह स्टीकर प्रयास, एक बहुत ही सस्ता और सफल तरीका है। प्रभात होने से पूर्व मुर्गे वंग देते हैं। नव युग के आगमन की मुनादी घर-घर में आदर्श वाक्यों के स्टीकर लगाकर दी जानी चाहिए। लंका में विभीषण के द्वार पर राम नाम लिखा था, इसी आधार पर हनुमान जी ने उनसे सम्पर्क साधा और घनिष्ठता बना ली। युग परिवर्तन का प्रकाश कहां-कहां तक जा पहुंचा, इसका अनुमान स्टीकर चिपके देख कर लगाया जाना है। इससे वातावरण बनता है। घर में रहने वालों तथा बाहर से आने वालों की उन पर नजर पड़ती हैं, तो उनके विचारों पर प्रभाव पड़ता है, जो आगे चलकर कार्य रूप में परिणत होते भी देखा जा सकता है। जहां दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखना संभव हो वहां वैसा किया जाय। अन्यथा स्टीकर आन्दोलन तो सर्व सुलभ है ही। अटैची आदि पर छोटे स्टीकरों से ही काम चल जाता है। वे साथ चलते हैं, तो जिसके हाथ में है, उसकी विचार धारा का परिचय प्रदान करते हैं और सद्भावना पैदा करते—वातावरण बनाते हैं।
युग संधि महापुरश्चरण के साथ साथ प्रज्ञा मण्डल का गठन अनायास ही हो जाता है। इस आधार पर नव सृजन के लिए उमंग उठें उसमें इस प्रयास को प्रमुखता दी जाय कि अधिक से अधिक लोग मिशन की विचारधारा से परिचित हों और उसे समर्थन सहयोग देने लगें। सृजन शिल्पियों के अधिक संख्या में उभरने और संयुक्त शक्ति के आधार पर अधिक बड़े काम करने की संभावना का सूत्रपात इसी धीमी, सरल किन्तु चिरस्थायी रीति से संभव होना है।
आलोक वितरण अभियान में घरों घरों जाकर कार्य करने में ‘‘टैप रिकॉर्डर-लाउडस्पीकर, स्लाइड प्रोजेक्टर’’ यह तीन उपकरणों से आवश्यक सहायता मिलेगी। यह तीनों मिलकर एक पूर्ण प्रचारक की आवश्यकता पूरी कर लिया करेंगे। पच्चीसों सदस्यों के यहां बारी-बारी यह उपकरण पहुंचा करेंगे तो एक महीने में एक बार उनके यहां विचार गोष्ठी सम्पन्न हो जाया करेगी। मुहल्ले पड़ोस के परिवार, सम्बन्धी एवम् परिचय के लोग एकत्रित होकर उस सत्संग का लाभ उठा लिया करें, जो किसी विद्वान वक्ता या कुशल गायक को घर पर आमंत्रित करके उठाया जा सकता है। उन्हें बुलाने पर तो खर्च भी पड़ेगा, दक्षिणा मार्ग व्यय भोजन आदि का खर्च वहन करना पड़ेगा, पर यह तीनों उपकरण मिलकर बिना किसी खर्च के किसी भी परिवार को ज्ञान चेतना से जगमगा दिया करेंगे। इसके अतिरिक्त प्रस्तुत योजना में एक ओर विशेष आकर्षण जुड़ा रहता है। वह है स्लाइड प्रोजेक्टर रंगीन सिनेमा दिखाने का। इसे दिखाने वाला कुछ ही दिन के अभ्यास से भाषण कला में प्रवीण बन सकता है। मुफ्त में विचारोत्तेजक सिनेमा देखने में वह वर्ग तो असाधारण रुचि लेता है, जिन्हें नित्य ही नवीन सिनेमा दिखाने का अवसर नहीं मिलता। अपने देश में ऐसे ही लोग अधिक हैं। उन तक प्रस्तुत स्लाइड प्रोजेक्टर के माध्यम से पहुंचा जा सकता है। ज्ञान वर्धन का लाभ उन घरों तक भी पहुंचाया जा सकता है जिन्हें ऐसा अवसर इससे पूर्व कभी नहीं मिला। विचार क्रान्ति नव युग की प्रधान आवश्यकता है, जिसे उपरोक्त तीनों उपकरणों के माध्यम से, सहगान कीर्तन तथा युग साहित्य के अतिरिक्त सहयोग से भली भांति सम्पन्न किया जा सकता है।
मण्डल के पच्चीसों सदस्य यदि इस प्रयोजन को लेकर निकल पड़ें और एक महीने में पच्चीस घरों तक युग संदेश पहुंचा दिया करें तो 25×25=625 घरों तक जन जागरण की प्रक्रिया पूर्ण की जा सकती है। इस एक छोटे आयोजन में यदि 20 व्यक्ति भी उपस्थित हों तो 12500 व्यक्ति इसी पांच में पच्चीस के रूप में विकसित होने वाले मण्डल द्वारा लाभान्वित हो सकते हैं। न किया जाय तब तो यह सब दिवा स्वप्न ही है, पर यदि करने पर उतर पड़ा जाय, समयदान का संकल्प व्रत पूर्वक निवाहा जाय, तो उसका चमत्कारी सत्परिणाम युग चेतना उभारने के रूप में सम्पन्न हो सकता है। नवयुग की आधार शिला बिना किसी धूम धाम के, किन्तु ठोस आधार पर रखी जा सकती है।
अदृश्य अन्तरिक्ष के परिशोधन के लिए, व्यक्तित्व विकास प्रतिभा परिष्कार जैसे अनेक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, सामूहिक उपासना का समुचित प्रभाव उत्पन्न हो सकता है। विशेषतया तब, जबकि वह संकल्प लाखों करोड़ों व्यक्तियों द्वारा एक ही दिन एक ही प्रकार से, एक ही भावना के साथ सम्पन्न किया जा रहा है। युग संधि पुरश्चरण के पीछे ऐसे ही अनेकों देव प्रयोजनों का समावेश है। जहां लोक मंगल के लिए अनेक प्रत्यक्ष सृजनात्मक, बीस सूत्रीय स्तर के काम करने हैं, वहां आत्मशक्ति के अभिवर्धन हेतु सामूहिक उपासना का भी आश्रय लेना है। युग संधि पुरश्चरण की भागीदारी से यह आवश्यकता भी पूरी होती है।
जहां कहीं भी जीवन्त संगठन अभी भी काम कर रहे हों, जहां धार्मिक प्रवृत्तियां चल रही हों, वहां इस प्रयोजन को भी अन्य उपक्रमों के साथ-साथ जोड़कर रखा जाना चाहिए।
प्रज्ञा पीठें कुछ वर्ष पूर्व बड़ी संख्या में बनी थी। उन निर्माणों के पीछे भी ऐसे ही उच्चस्तरीय उद्देश्य जुड़े हुए थे। मात्र प्रतिमा पूजन के लिए मन्दिर बनाना ही उनका अभिप्राय नहीं था। जहां सब कुछ ठीक चल रहा है वहां इस बारह वर्षीय साधना को इन्हीं दिनों चालू कर देना चाहिए। जहां अभी कोई नियमित प्रवृत्ति चल नहीं पाई है वहां इतना तो करना ही चाहिए कि युग पुरश्चरण की अभिनव प्रवृत्तियां तुरन्त चालू कर दी जायें। हर दिन युग धर्म प्रयोजन पूरा न हो तो सप्ताह में एक दिन प्रातःकाल दो ढाई घन्टे का यह साप्ताहिक आयोजन सम्पन्न कर ही लिया जाया करें। यदि प्रचार उपकरणों की व्यवस्था बन गई है, तो कम से कम साप्ताहिक सत्संगों के दिन रात्रि को भी कहीं न कहीं ज्ञान गोष्ठी का ऐसा आकर्षक कार्य क्रम सम्पन्न कर लिया जाता रहे जिसमें लोक रंजन और लोक मंगल दोनों ही उद्देश्य जुड़े हुए हों।
उपरोक्त क्रिया कलापों में कुछ न कुछ खर्च की आवश्यकता पड़ती रहेगी। इसकी पूर्ति के लिए रसीद बही छपाकर बाजार में चन्दा मांगने निकल पड़ने का तरीका ठीक नहीं। चन्दा मांगने का कार्य भले ही ऊंचे और अच्छे उद्देश्य के लिए किया गया हो, लोगों की दृष्टि में अवांछनीयता से भरा मालूम पड़ता है। फिर अपने छोटे कार्यक्रम ऐसे हैं भी तो नहीं जिन्हें मिल जुल कर गरीब और मध्यम श्रेणी के लोग निष्ठा के जीवित रहते पूरा न कर सकें। परिजनों का थोड़ा सा नियमित अंशदान ही इन आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। बीस पैसा नित्य का अंशदान सदस्यों के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक माना गया है। यह इतना बड़ा भार नहीं है जिसे वहन न किया जा सके। यह चौथाई रोटी के टुकड़े जितना अनुदान हैं, जिसे किसी जरूरी खर्च में कटौती करके भी पूरा किया जा सकता है। इसे भोजन-शयन की तरह ही यदि दैनिक आवश्यकता में सम्मिलित रखा जाय, तो आपसी सहयोग संगठन अनुदान से ही उपरोक्त सभी क्रिया कृत्यों की पूर्ति भली प्रकार होती रह सकती है। संग्रह साप्ताहिक या मासिक रूप से किया जाय और जो जमा खर्च हुआ, उसका विवरण सभी को समय समय पर दिखा सुना दिया जाय, तो आशंका, आरोप, आक्षेप आदि की कभी कोई गुंजाइश न रहेगी। प्राथमिकता और उपयोगिता पर विश्वास रहने पर बीस पैसा ही क्यों, कई समर्थ लोग ऐसे पुण्य प्रयोजन के लिए और भी उदारता पूर्वक कुछ देते रह सकते हैं। झोला पुस्तकालय, दीपयज्ञ आदि की आवश्यकताएं तो इसी राशि से पूरी होती रह सकती है।
पुरश्चरण की, शाखाएं यदि ठीक प्रकार अपना काम करने लगें तो उपकरणों के लिए जो दो हजार की आवश्यकता पड़ेगी उन्हें भी अपने ही परिकर के लोग मिल जुल कर पूरी कर सकते हैं। स्टीकरों के स्टॉक भर में ही पैसा लगता है। पीछे तो बिकने लगते हैं तो किसी अतिरिक्त लागत की आवश्यकता नहीं पड़ती।
वर्ष में एक बार इन मण्डलों का छोटा वार्षिकोत्सव मनाया जाय। एक कस्बे या शहर में सहज ही हर मुहल्ले के अलग अलग प्रज्ञा मण्डल होंगे। वे वर्ष में एक बार मिल जुलकर सामूहिक आयोजन कर ही सकते हैं—वर्ष में अधिक बार भी। इसके लिए खर्चीली योजनाएं बनाने की आवश्यकता नहीं। अपने लोगों में से ही मिशन की विचार धारा व्यक्त कर सकने वाले गायक या वक्ता मिल सकते हैं। न मिलें तो कुछ प्रतिभाओं को एक महीने के लिए शान्तिकुंज भेजकर गायन और भाषण की योग्यता अर्जित कराई जा सकती है। वे सत्र वर्ष भर नियमित रूप से 1 से 29 तारीख में चलते रहते हैं। स्वावलम्बन एवं स्वास्थ्य संवर्धन के लिए नये विषयों का शिक्षण भी अब इसमें सम्मिलित हैं। अब मिशन के इतने अधिक कार्यकर्ता वक्तृत्व एवं युग गायन में प्रवीण हो गए हैं, कि उन्हें आस पास से ही बुलाया आमंत्रित किया जा सकता है। फिर बड़े दीप यज्ञों के आयोजन सफल बनाने के लिए शान्तिकुंज की जीप गाड़ियां भी तो काम करती हैं। उनके लिए मार्ग व्यय, तेल पेट्रोल आदि जैसे ही खर्च अब देने पड़ते हैं। सुविधा होने और बड़े आयोजनों पर शान्ति कुंज से भी प्रचार मण्डलियां भेजी जा सकती हैं।
जहां अधिक उदार और अधिक सक्रिय लोगों की टीम बन जाती हैं वहां कभी भी आर्थिक कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। मिल जुलकर ही बड़े काम संपन्न हो जाते हैं। कार्य की उपयोगिता देख कर सम्पर्क में आने वाले लोग ही स्वेच्छापूर्वक अपने योगदान प्रस्तुत करते रहते हैं। कठिनाई तो तब पड़ती है, अश्रद्धा तो तब फैलती है, जब सेवा कार्य कुछ होता नहीं और जिस तिस बहाने लोग रसीद छपाकर चन्दा उगाहने के लिए फिरते और दुत्कारे जाते हैं। हम थोड़े पैसे में बड़े काम करने की नीति अपनाएं और मिलजुलकर आवश्यकता पूरी करने की आदत डालें, तो कभी भी, कहीं भी, सत्प्रयोजनों को पूरा करने में धन की कमी नहीं पड़ेगी।
महापुरश्चरण को अधिक व्यापक क्षेत्र में, अनेक स्थानों पर स्थापित, संगठित करने के लिए कर्मठ कार्यकर्ताओं की आवश्यकता अगले बारह वर्षों में बड़ी संख्या में पड़ेगी। जिन लोगों ने समय-दान, वानप्रस्थ, परिव्राजक, आदि के संकल्प लिए हैं, उन सभी से इस बार एक ही बात कही जा रही है, एक ही दायित्व सौंपा जा रहा है, कि वे अपने परिचय प्रभाव क्षेत्र में परिभ्रमण करें, जीवन्त परिजनों से सम्पर्क साधें और उन्हें इसके लिए तैयार करें कि युग संधि पुरश्चरण में उनकी भूमिका कुछ न कुछ होनी ही चाहिए। इस महान साधना में जिसकी किसी न किसी प्रकार भागीदारी न हो, ऐसा कोई भी नहीं रहना चाहिए।
साप्ताहिक साधनाओं के बड़े-बड़े संगठन खड़े करने की जरूरत नहीं हैं। वे एक से पांच और पांच से पच्चीस की योजना के अन्तर्गत की सही रूप में चल पाएंगे। आदर्श वाक्यों के स्टीकर, युग संधि के प्रथम वर्ष की प्रथम योजना है। अपनों का, अपनों के प्रभाव क्षेत्र का कोई घर ऐसा न रहे जहां आदर्श वाक्यों को, अनुरूप वातावरण बनाते और भूमिका निभाते न देखा जाय। जिन्हें संकल्प निबाहने के लिए आवश्यक प्रेरणा लेनी है, उन्हें शान्तिकुंज के लिए साधना सत्र में सम्मिलित होकर ऐसी शक्ति अर्जित करनी चाहिए, जिससे उनका संकल्प पूरी अवधि तक सही रूप से निभ सके।
विश्वास किया जाता है, कि जिन वरिष्ठ परिजनों की युग संधि की विशिष्टता तथा उस सन्दर्भ में उत्पन्न हुई समस्याओं के सम्बन्ध में अभिरुचि होगी, वे इन दिनों निश्चेष्ट निष्क्रिय न रहेंगे। कुछ न कुछ अपनी परिस्थिति के अनुरूप अवश्य करेंगे। जो किया जा रहा हो, जो सोचा जा रहा हो, जो योजना स्वयं ने या साथियों ने मिल कर बनाई हो, उसकी जानकारी शान्तिकुंज हरिद्वार अवश्य भिजवाते रहा जाय; ताकि यह अनुमान लगाया जा सके कि लक्ष्य की प्राप्ति हेतु कितने साधन जुट गये और अभी कितने जुटाने शेष हैं।
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