Books - युग सृजन का आरम्भ परिवार निर्माण से
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Language: HINDI
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परिवार निर्माण के लिए यह करें
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प्रायः प्रत्येक व्यक्ति परिवार में रहता है। परिवार में रहने के लिए कोई आवश्यक नहीं कि विवाह कर पत्नी और बच्चों को साथ लेकर ही रहा जाय। जिनका विवाह नहीं होता वे भी तो मां-बाप, भाई-बहन आदि के साथ रहते हैं। वे भी परिवार के साथ ही रहते हैं। स्त्री, बच्चों तक ही परिवार की सीमा निश्चित नहीं रखी जा सकती, उसकी परिधि और परिभाषा बहुत व्यापक है। यहां तक कि साधु-सन्त, त्यागी-वैरागी, संन्यासी, महात्मा तक जमात-संगत बनाकर रहते हैं। आश्रम बनते हैं, मण्डली तैयार होती हैं सम्प्रदाय बनते हैं और इस प्रकार गुरु-शिष्यों की परम्परा चल पड़ती है तथा परिवार बन जाता है। कोई उद्योग व्यवसाय यदि आत्मीयता के साथ उच्च आदर्शों को सामने रखकर चलाये जाएं तो साथ काम करने वाले भी परिवार बन जाते हैं। छात्र और अध्यापकों का सम्बन्ध वस्तुतः एक परिवार का सम्बन्ध ही होता है। प्राचीन काल में गुरुकुल इसी आदर्श पर चलते थे। उनमें उत्कृष्टता का वातावरण बना रहता था, घर-परिवार में जो कमी रहती थी उसकी पूर्ति वहां हो जाती थी। महर्षि-तपस्वी अपने ज्ञान, कर्म और पांडित्य से विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण की आवश्यकता पूरी किया करते थे।
वस्तुतः परिवार, समाज संगठन की एक महत्वपूर्ण इकाई है। यों व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है। व्यक्ति समाज का एक सदस्य अवश्य है किंतु समाज एक विशाल संगठन है जिसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती परंतु इतना तय है कि समाज का कलेवर व्यक्तियों से नहीं परिवारों के समूह से ही बनकर सामने आता है। व्यक्ति और समाज के बीच परिवार एक अनिवार्य कड़ी बनकर रहते हैं। यदि परिवार न रहे होते तो समाज का ढांचा शायद नहीं ही उभर कर आता न ही मनुष्य सभ्यता इतनी उन्नति तक विकसित हुई होती। कहना नहीं होगा कि मानवीय सभ्यता का विकास, सहयोग, सद्भाव के आधार पर ही हुआ है और इनके संस्कार, शिक्षा एवं प्रेरणाएं व्यक्ति को परिवार से ही मिलती हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि व्यक्ति के निर्माण में और समाज के विकास में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
लेकिन इसके साथ यह शर्त भी जुड़ी हुई है कि परिवारों में परिवारी जन केवल किन्हीं स्वार्थों से ही बंधकर न रहें वरन् वे परिवार की महत्ता समझें, इस संस्था का गौरव को अनुभव करें और एक दूसरे के विकास में गहन रुचि लें, शरीर के विभिन्न अंग अवयव केवल स्वार्थवश ही एक साथ जुड़े नहीं रहते वरन् वे एक प्राण, एक शक्ति के अंगवत रहकर पूरे शरीर का हित साधते हैं। शरीर का कोई भी अंग अवयव रोगी हो जाय, बीमार पड़ जाय, कट-पिट जाय तो पूरे शरीर का ही सौन्दर्य मारा जाता है। शरीर का प्रत्येक अंग अवयव; स्वस्थ निरोग और सक्षम रहे तभी मनुष्य काया पूरी तरह स्वस्थ रह सकती है। उसी प्रकार प्रत्येक सदस्य सुसंस्कृत सद्भाव सम्पन्न हो तभी वह स्वस्थ परिवार कहा जा सकता है। इस प्रकार सुसंगठित और सुव्यवस्थित परिवार ही व्यक्तिगत जीवन में सुव्यवस्था, समुन्नति के ठोस आधार बनते हैं। अन्य सारे सुख-साधन एक ओर तथा परिवार का सन्तुलन यदि एक ओर रखा जाय तो पारिवारिक जीवन का महत्व अधिक मानना पड़ेगा। जिन लोगों के साथ मिल-जुलकर जीवन क्रम चलाना पड़ता है, उनकी व्यवस्था अव्यवस्था का अपने ऊपर भारी प्रभाव पड़ता है। अशांत और विक्षुब्ध पारिवारिक जीवन लेकर कोई व्यक्ति न तो सन्तुष्ट रह सकता है और न प्रसन्न, भले ही बाहरी सुविधायें कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हों?
परिवार के लोगों को सुखी और सन्तुष्ट रखने के लिए प्रायः लोग अधिक से अधिक धन जुटाने की व्यवस्था करते हैं। अच्छा भोजन, अच्छे कपड़े और अनेक तरह के मनोरंजन के साधन जुटाते हैं, तो भी आये दिन गृह-कलह हुआ करता है। पुत्रों की स्वेच्छाचारिता, भाइयों की बेईमानदारी, पत्नी से विचार न मिलने की शिकायत, माता-पिता का असन्तोष अधिकांश लोगों को बना रहता है। इस प्रकार के प्रसंग सामने आते हैं और उनके कारणों पर गम्भीरता से विचार करते हैं तो यह मानना पड़ता है कि साधन जुटाने में तो लोगों का ध्यान गया, पर परिवार-निर्माण के लिए उन्होंने कुछ भी प्रयत्न नहीं किया। गृहस्थ का पालन बड़ी बात नहीं है, उतना तो सामान्य पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। धन, मकान जायदाद आदि का उत्तराधिकार परिजनों को दे जाना उतना महत्व नहीं रखता, जितना उनको सद्गुणी सुशील बनाना। परिवार को सुसंस्कृत और सुविकसित बनाना नितान्त आवश्यक है। चरित्र के सांचे में ढाले गये परिवार कम साधनों में भी पूर्ण प्रसन्नता का जीवन व्यतीत कर लेते हैं। दुर्गुणी व्यक्तियों के लिए तो सम्पन्नता भी अभिशाप सिद्ध होती है। और यह अभिशाप स्वार्थ, संकीर्णता तथा सहिष्णुता जैसे दुर्गुणों के साथ मिलकर पारिवारिक जीवन में नारकीय स्थिति उत्पन्न कर देता है। अतएव आवश्यक है कि परिवार के लिए सुख-सुविधाएं जुटाने के साथ-साथ परिजनों को सुसंस्कृत और उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न भी बनाया जाए। उसके लिए आवश्यक प्रयत्न न करने की स्थिति में धन, शिक्षा, पद, प्रतिष्ठा आदि सब कुछ होते हुए भी क्षुद्रता और संकीर्णता के कारण घटित होने वाली छोटी-मोटी घटनाओं को लेकर भी परिवार अपनी प्रतिष्ठा एवं सुदृढ़ता खोते चले जाते हैं और कुछ ही दिनों में बुरी तरह बिखर जाते हैं।
अस्तु परिवार निर्माण की आवश्यकता प्रत्येक सद्गृहस्थ को, परिवार के प्रत्येक विचारशील सदस्य को समझनी और स्वयं पूरी करनी चाहिए। इसे यदि पूरा न किया गया, घर में सुसंस्कृत वातावरण न बनाया जा सका, परिष्कृत परम्पराओं का प्रचलन न किया जा सका तो उस घर में रहने, पलने वाले लोग भूत-बेताल बनकर ही रहेंगे। स्वास्थ्य, शिक्षा, चतुरता की दृष्टि से वे कितने ही अच्छे क्यों न हों, मानवीय सद्गुणों से वंचित ही रहेंगे। कोई कितना कमाता है—कितना बड़ा कहलाता है यह बात अलग है और किसका व्यक्तित्व कितना समुन्नत है, यह प्रश्न बिल्कुल अलग है। बड़ा आदमी बनना सरल है—श्रेष्ठ सज्जन बनना कठिन है। सुख-शान्ति पूर्वक रहने और अपने साथियों को प्रसन्न सन्तुष्ट रखने के लिए बड़प्पन की नहीं महानता की आवश्यकता पड़ती है। उसी का उपार्जन मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। कोई परिवार इस दिशा में कितना सफल होता है उसकी उतनी ही सार्थकता मानी जा सकती है।
अवांछनीय वातावरण में पलने वाले प्राणी हेय और गई गुजरी स्थिति में ही जिन्दगी गुजारते हैं। अधिक पैसा और अधिक ठाट-बाट और अधिक वैभव पाकर आदमी दूसरों को आकर्षित आतंकित कर सकता है पर उसकी सुख-शान्ति में तनिक भी वृद्धि नहीं होती। आनन्द और उल्लास तो केवल सुसंस्कारी व्यक्तियों के हिस्से में ही आता है। वे ही स्वयं सन्तुष्ट रहते हैं और साथियों को आनन्द देते हैं। प्रसन्न रहने और प्रसन्न रखने की विशेषता ही देव-प्रकृति कहलाती है वस्तुतः यही सबसे बड़ी दौलत है। अभागे लोग पैसे को ही सब कुछ मानते और उसी के लिए मरते खपते हैं। विवेकवान् जानते हैं कि परिष्कृत दृष्टिकोण व सद्भावनाओं से बढ़कर और कोई आनन्ददायक वस्तु इस संसार में नहीं है इसलिए वे इसके उपार्जन अभिवर्धन पर ध्यान देते हैं? भले ही पैसे की दृष्टि से उन्हें गरीबों की श्रेणी में ही क्यों न रहना पड़े।
परिवार निर्माण का प्रयोजन इतना भर ही नहीं है जितना कि सृजन-विज्ञान की प्रचलित पुस्तकों में बताया, पढ़ाया जाता है। उसे गृह सज्जा भर कहा जा सकता है। परिवार निर्माण की दृष्टि से भी यह आरम्भिक और उचित कदम है। आवश्यकता उसकी भी है पर उतना कर लेने पर भी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता वस्तुतः कूड़ा करकट तो दिमागी गन्दगी का नाम है, फूहड़ प्रकृति ही घर में सर्वत्र अव्यवस्था फैलाये रहती है। कामों को आधा अधूरा छोड़ने की आदत का नाम ही गन्दगी है। जिसकी प्रकृति में पूरा काम निपटाकर ही आगे बढ़ने की आदत जुड़ गई है उसे कुछ सिखाना नहीं पड़ता। ऐसी प्रकृति घर की हर वस्तु को सुन्दर-सुव्यवस्थित बनाये रहती है। घर का सामान, बर्तन, फर्नीचर, दीवारें, छतें, कमरे, कोठरी, नाली, पखाने, कपड़े, पुस्तकें खाद्य पदार्थ आदि किस तरह संभाले-सजाये जांय इसकी शिक्षा का नाम ही इन दिनों स्कूलों में गृह विज्ञान के नाम से पढ़ाया जाता है। वह व्यावहारिक ज्ञान है। इतना सब कुछ जान लेने पर भी यदि आलसी और फूहड़ प्रकृति स्वभाव का अंग बनी रही तो फिर सारा पढ़ा-पढ़ाया बेकार है। गृह सज्जा जैसा छोटा विषय भी मूलतः घर के सदस्यों की प्रकृति से जुड़ा है। उनका स्तर यदि सुधरा हुआ हो तो कोई बिना पढ़ी महिला लैक्चर देना भले ही न जानती हो, व्यवहार रूप से इतना कुछ करके दिखा सकती है कि गृह विज्ञान पढ़ाने वाली प्रोफेसर भी सिर झुकाके रह जाये। हमें इसी सुरुचि के विकास को घर की सुव्यवस्था का मूल-भूत कारण मानकर चलना चाहिए और उसी के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करना चाहिए।
परिवार निर्माण वस्तुतः एक दर्शन है—क्रियाकलाप तक उसे सीमित नहीं रखा जा सकता जिस प्रकार की व्यवस्था अभीष्ट हो उसके लिए परिवार के लोगों की मनःस्थिति का निर्माण किया जाना चाहिए। यह प्रयोजन तभी सफल हो सकता है जब अपना मनोयोग, समय और श्रम उसके लिए नियमित रूप से लगाया जाय। यह अभिरुचि, तत्परता एवं संलग्नता तब उत्पन्न हो सकती हैं, जब परिवार निर्माण की आवश्यकता को गम्भीरतापूर्वक समझा जाय और यह सोचा जाय कि इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करना कितना अधिक महत्वपूर्ण है यह काम नौकरों से, बाहर के आदमियों से कराने का नहीं है। अन्याय लोग बता-सिखा सकते हैं परिवार के लोगों में घुल-मिल नहीं सकते, घनिष्ठ आत्मीयता का अपनापन ही आन्तरिक आदान-प्रदान का माध्यम होता है। मनःस्थिति पर प्रभाव डालने की क्षमता केवल उन्हीं में होती है, जो अन्तःक्षेत्र को स्पर्श करें। विशेषतया स्वभाव एवं दृष्टिकोण में परिष्कृत परिवर्तन करने के लिए तो ऐसे ही शिक्षक की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा शिक्षक बाहर से ढूंढ़ना बेकार है, यह कार्य हमें स्वयं ही करना पड़ेगा। भोजन, स्नान, निद्रा, विनोद आदि की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए श्रम हमें स्वयं ही करना होता है, यह प्रयोजन दूसरों के द्वारा पूरे नहीं कराये जा सकते।
प्रश्न इतना भर नहीं है कि परिवार का वातावरण अच्छा बनाया जाय, और परिजनों को सुसंस्कृत स्तर तक पहुंचाया जाय। यह केवल एक पक्ष है। परिवार निर्माण का दूसरा पक्ष और भी अधिक महत्वपूर्ण है। वह है—अपनी निज की आदतों आस्थाओं और गतिविधियों का निर्माण नियन्त्रण करना। यह कार्य परिवार की प्रयोगशाला में ही सम्भव हो सकता है। जलाशय में घुसे बिना तैरना कहां आता है। व्यायामशाला में प्रवेश किये बिना पहलवान कौन बनता है? पाठशाला में भर्ती हुए बिना सुशिक्षित कौन बनता है? व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर ही अपने गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता का अभ्यास किया जाता है। एकाकी चिन्तन, मनन, अध्ययन, प्रवचन करते रहने से केवल बौद्धिक समाधान मिलता है। सत्प्रवृत्तियां परिपक्व तो अभ्यास से ही होती हैं। अभ्यास के लिए उपकरण चाहिए। इस प्रयोजन के लिए परिवार से बढ़कर और कोई उपयुक्त माध्यम हो ही नहीं सकता। परिवार निर्माण के लिए प्रयास करना वस्तुतः अपनी श्रेष्ठ मान्यताओं को मूर्तरूप देने के लिए प्रयोगशाला में प्रवेश करना है। परिजनों के माध्यम से अपनी शालीनता एवं क्रिया-कुशलता को विकासोन्मुख बनाना है। इस प्रकार परिवार निर्माण की दिशा में किये गये प्रयास—केवल कुटुम्बियों की सार्थक सेवा ही सम्पन्न नहीं करते, वरन् अपने व्यक्तित्व को भी निखारते हैं अपनी आदतों में भी उत्कृष्टता का समुचित समावेश करते हैं यह दुहरे लाभ की प्रक्रिया सर्वथा अपनाये जाने ही योग्य है।
आजीविका उपार्जन के अतिरिक्त कुछ समय हमें परिवार-निर्माण के लिए भी नियमित रूप से देना चाहिए। यह एक उच्चकोटि का मनोरंजन है। ताश, शतरंज, गपशप, सिनेमा, मटरगश्ती, यारबाजी, आलस्य, अनुत्साहपूर्वक जंग बनकर सामने प्रस्तुत कार्यों को सही ढंग में करने पर मिलने वाली महत्वपूर्ण सफलता का अंग बनते हैं। टूटी चीजों की मरम्मत करना यों एक गृहशिल्प भी है, उससे आर्थिक बचत भी है, पर आदत के रूप में बढ़ा लाभ यह है कि बर्बादी तनिक भी न होने दी जाय। वस्तुओं से अधिकाधिक काम लिया जाय। कहावत है ‘‘जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वह बुद्धिमान् है।’’ निर्माण, सृजन और सुधार की मनोवृत्ति टूटी वस्तुओं की मरम्मत करने और भदरंग चीजों को चमकाने के प्रयास के साथ-साथ विकसित होती है। घर-आंगन में, गमलों में टोकरी और पेटियों में फल-फूल एवं शाक भाजी लगाये जा सकते हैं। इसमें शोभा भी है और आर्थिक लाभ भी। इससे भी बड़ा लाभ उत्पादन, पोषण और संरक्षण की मनोवृत्ति विकसित होने का है, सद्गुणों को ऐसे छुट-पुट प्रयास के सहारे ही विकसित किया जा सकता है।
परिवार में सद्ज्ञान की अभिवृद्धि की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए। परिजनों को कूप-मण्डूक नहीं रहने देना चाहिए। जीवन की—समाज की समस्याओं से अपरिचित रहना ऐसी भूल है, जिसके कारण कभी-कभी ऐसी ठोकरें खानी पड़ती हैं, जो आदमी को चित्तपट्ट करके रखदें। अवकाश के समय में समाचारों एवं कथा, संस्मरणों के माध्यम से उपयोगी जानकारी बढ़ाने का कार्य हर सद्गृहस्थ को हाथ में लेना चाहिए। रूखे नीरस और निर्देशात्मक उपदेशों को प्रायः व्यंग, उपहास एवं अवज्ञा में धकेल दिया जाता है। कथा कहानी के माध्यम से घुमा-फिराकर शिक्षा दी जाय तो उसमें मनोरंजन आकर्षण भी रहता है। और परोक्ष रूप से दी गई शिक्षा का चित्त पर प्रभाव भी पड़ता है अखबारों में ऐसे समाचार चुने जा सकते हैं, जिसमें कुछ शिक्षा सामग्री हो। उनकी समीक्षा, विवेचना करते रहें तो ऐसे ज्ञान की वृद्धि हो सकती है, जो जीवन विकास में—लोक-व्यवहार में उचित मार्गदर्शन कर सके। धर्मतन्त्र और हितोपदेश नामक संस्कृत के कथा-ग्रन्थों ने उद्दंड राजकुमारों को सुयोग्य बना दिया था। हम भी उसी रीति-नीति को अपना कर परिवार के लोगों के लिए उपयोगी दिशा-निर्देश करते रह सकते हैं। जो पढ़े-लिखे हैं, उन्हें प्रेरक पुस्तकें पढ़ते रहने के लिए भी कहा, समझाया और प्रोत्साहित किया जा सकता है। स्वास्थ्य के लिए सामग्री और समय की व्यवस्था बनाकर हम घर के पढ़े-लिखे सदस्यों के लिए बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष का द्वार खोल सकते हैं; पढ़े सदस्य प्रतिदिन अवकाश वाले निर्धारित समय में निर्दिष्ट पुस्तक प्रसंग पढ़कर सुनाया करें तो आगे चलकर वही आदत परिवार प्रशिक्षण में अभिरुचि बनकर विकसित हो सकती है। सुनाते रहने वालों को सुयोग्य वक्ता बनने का—झेंप-झिझक से पिण्ड छुड़ाने का- सुअवसर प्रदान कर सकती है।
घर में आस्तिकता का वातावरण रहना चाहिए। हर सदस्य को भगवान का स्मरण और नमन करने की आदत होनी चाहिए। चाहे उसके लिए दो मिनट का ही समय लगे पर लगन अवश्य चाहिए। आस्तिकता के साथ अनेक श्रेष्ठ मान्यताएं जुड़ी रहती हैं, सुसंस्कृत व्यक्तित्व विकसित करने की दृष्टि से दैनिक जीवन में आस्तिकता को परिपुष्ट बनाने वाली उपासना के लिए कुछ न कुछ स्थान होना ही चाहिए। किसी उपयुक्त स्थान पर गायत्री माता का चित्र टांगा जाय और यह नियम बनाया जाय कि दैनिक कार्य आरम्भ करने से पूर्व उस प्रतिमा का अभिनन्दन करके—कम से कम पांच मन्त्र मन ही मन जप करके तब आगे बढ़ा जाय। इसमें स्नान आदि का बन्धन नहीं है। बच्चे स्कूल जाते समय, यह नमन अभिनन्दन चित्र के सामने खड़े होकर कर सकते हैं। इसमें दो मिनट का समय लगता है। नियमित परम्परा को अनिवार्य बनाये रखने की दृष्टि से इतना थोड़ा समय भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उससे आस्तिकता के संस्कार जमते और बढ़ते हैं। इसका परिणाम दृष्टिकोण में उच्चस्तरीय आदर्शों को समाविष्ट रहने का लाभ मिलता है। सायंकाल सामूहिक रूप से आरती करने की—संगीत सहगान की परम्परा डाली जाय तो एक उत्साह एवं सद्भाव सम्वर्धक वातावरण बनता है।
घर के सदस्य अपने-अपने कामों में ही व्यस्त न रहें, वरन् एक दूसरे को सुनने समझने तथा सहयोग लेने-देने की स्थिति में भी रहें, ऐसी परम्पराएं काम करने की मन्दगति आदि व्यसनों और प्रमादों में हमारा बहुत-सा समय नष्ट होता है। हिसाब लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि समय की यह बर्बादी बहुत बड़ी है। इतनी अधिक है कि उसे बचाकर ही परिवार निर्माण के अनेक महत्वपूर्ण कार्य करने का अवसर प्राप्त किया जा सकता है और फुरसत न मिलने का बहाना सर्वथा निरर्थक सिद्ध हो सकता है। मनोरंजन में सबसे बढ़िया, सबसे सार्थक, सबसे हल्का और सबसे सरल परिवार निर्माण ही है।
परिवार निर्माण के दो पक्ष हैं—एक व्यवहारिक क्रिया परक और दूसरा दार्शनिक दृष्टिकोण परक। इन दोनों ही तथ्यों का अपनी क्रिया प्रक्रिया में समुचित समावेश करके चलना होगा। व्यवहारिक कार्यक्रम में घर की सुव्यवस्था, सुन्दरता एवं सुसज्जा पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उनके लिए अकेले ही नहीं लगना चाहिए, वरन् क्रमशः सभी लोगों को साथ लगाना चाहिए। स्वयं साथ लगने से दूसरों में उत्साह पैदा होता है, अन्यथा सृजनात्मक कार्यों में रूखापन समझा जाता है और उसे भार—बेकार समझकर कन्नी काटने की मनोवृत्ति रहती है। आदेश-निर्देश देते रहने से बात बनती नहीं। प्रयोजन तब पूरा होता है, जब स्वयं आगे चला जाय और कन्धे से कन्धा लगाकर काम करने के लिए दूसरों को आमन्त्रण दिया जाय। अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं दीखता, वाली कहावत ऐसे हर काम पर लागू होती है। जितने कितने ही का सहयोग अभीष्ट होता है, इंजन आगे चलता है तो डिब्बे पीछे लुढ़कने लगते हैं। परिवार-निर्माण के लिए बनाये गये व्यवस्था-क्रम में हमें स्वयं ही इंजन की भूमिका सम्पादित करनी चाहिए। आजीविका उपार्जन और सार्वजनिक सेवा के अतिरिक्त शेष समय घर पर रहते हुए व्यतीत करना चाहिए और उसे परिवार निर्माण में लगाना चाहिए। इस समय का क्रियात्मक उपयोग यह है कि सफाई सुव्यवस्था एवं सुसज्जा के कार्यों में हर दिन कुछ न कुछ कार्य निर्धारित रखा जाय। काम को आधा-अधूरा छोड़ने और चीजों को अस्त-व्यस्त पड़ी रहने देने की बुरी आदत घर में प्रायः सभी को किसी न किसी मात्रा में होती है। बच्चों में तो यह दोष आमतौर से पाया जाता है। टूट-फूट भी होती ही रहती है। टूटे बर्तन, फटे कपड़े, फैली-छितरी पुस्तकों की जिल्दें यह मांग करती हैं कि उन्हें सुधारा-संभाला जाय। मरम्मत में कुशल होना सद्गृहस्थ का आवश्यक क्रिया-कौशल है। जब जो वस्तु टूटती-फूटती दिखाई पड़े, उसे अविलम्ब सुधार-संभाल देना चाहिए। कपड़ा जहां से फटा है, वहां तुरन्त सीं दिया जाय तो वह हानि न होगी, जो कई दिन उपेक्षा करते रहने से उसकी जिन्दगी ही समाप्त हो जाने के रूप में सामने आती है।
स्वच्छता से प्रेम करना उसी का सार्थक है, जो गन्दगी हटाने को उत्साह का परिचय दे सके। घर के सभी लोगों में यह प्रवृत्ति पैदा करनी चाहिए। गन्दगी एवं कुरूपता विरोधी मोर्चे पर लड़ने के लिए घर के हर सदस्य में शौर्य, साहस उत्पन्न करना चाहिए। क्या शरीर, क्या वस्त्र, क्या सामान, क्या घर सब कुछ ऐसा सुन्दर सुव्यवस्थित रखा जाय, मानो कोई बड़ा अफसर आज इन सब चीजों का मुआयना करने के लिए आ रहा हो। सफाई और सुरुचि सम्वर्धन इसी अभियान का दूसरा पक्ष है। ‘मकान की दीवारें अपने हाथों आसानी से पोती जा सकती हैं। मेजपोश, पर्दे आदि रंगने में कहां अधिक देर लगती हैं’ घर के लोगों को साथ में लगाकर स्वच्छता और सुसज्जा में हर दिन एक घण्टा भी लगाया जाय तो उसकी हर वस्तु सुरुचिपूर्ण रह सकती है और वहां सुसंस्कृत वातावरण का आभास मिलता रह सकता है।
बात सफाई और शोभा सुन्दरता भर की नहीं हो रही है, वरन् यह कहा जा रहा है कि परिवार के हर सदस्य में सुव्यवस्था के लिए तत्परता बरतने की आदत होनी चाहिए। यह आदत वस्तुओं को सुन्दर ढंग से रखने तक सीमित नहीं रह सकती, वरन् चिन्तन एवं कर्तृत्व के अन्यान्य क्षेत्रों तक विकसित होकर मनुष्य को जागरूक और तत्पर बनाये रखने में असाधारण रूप से सहायता करती है। छोटे कामों से घृणा न करना सुव्यवस्था को उत्पादक मनोरंजन मानना, खाली समय का उपयोग करना, आलस्य-प्रमाद को हावी न होने देना, काम को अधूरा न छोड़ना, सुसज्जा की अभिरुचि बढ़ाना जैसे अनेक ऐसे गुण परिवार में बढ़ते हैं, जो देखने में छोटे लगते हैं, पर प्रकृति को पुनः प्रचलित करना चाहिए। अधिक पढ़े—कम पढ़ों को पढ़ायें। साथ खेलें साथ टहलें, जिसको जो आता हो—वह दूसरों को सिखायें। तेल मालिश आदि में एक दूसरे की सहायता करें। भोजन साथ-साथ बैठकर करें। कभी-कभी रसोई बनाने में भी सब लोग साथ-साथ जुट जायें। कपड़े धोने में एक साबुन लगाये तो दूसरा धोये। इस प्रकार छोटे बड़े कामों में सर्वथा एकाकीपन रखने की अपेक्षा मिल-जुलकर करने की सहयोगी सहकारी प्रवृत्ति पनपेगी और उसका अच्छा परिणाम सामने आयेगा। बच्चों को ऐसी आदत डालनी चाहिए कि कोई मिठाई आदि आवे तो मिल-बांटकर खायें, एकाकी अथवा अधिक खाने का आग्रह न करें। ऐसी आदत डालने के लिए उन्हीं के हाथ से बांटने का कार्य कराना चाहिए। भोजन परोसने में रुचि लेने से भी उदारता के बीज जमते हैं। खिलौनों से दूसरों को भी खिलाने की आदत डाली जाय। अपने हथियाये रहना और दूसरे का छिनने का प्रयत्न करना—जैसी संकीर्णता पनपने नहीं देना चाहिए। जेवर भी एक से दूसरी स्त्रियों में उलटते-पलटते रहें तो इससे विषाक्त आपाधापी की जड़ कटती है। हारी-बीमारी में—हर दुःख-सुख में एक दूसरे का पूरा ध्यान रखें। किसी के खिन्न, उदास रुष्ट होने पर उपेक्षा न बरती जाय, वरन् कारण जानने और समाधान ढूंढ़ने का प्रयत्न किया जाय। हर सदस्य एक दूसरे का शिष्ट सम्बोधन के साथ पुकारें ‘तू’ को असभ्य बोली माना जाय। बड़े भी छोटों को ‘तू’ न कहें। ‘तुम’ एवं ‘आप’ का सम्बोधन और नाम के आगे ‘जी’ लगाने का प्रचलन किसी परिवार का सभ्यतानुयायी सिद्ध करता है। गाली-गलौज, कटु वचन, व्यंग, उपहास; सीखना-चिल्लाना, रूठना; क्रोधावेश में भरना, मार-पीट करना, अपना सिर धुनना—असभ्य और अवांछनीय व्यवहार घोषित किया जाय और वैसा आचरण करने वाले की भर्त्सना की जाय। वैसा बार-बार न होने पाये; इस पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाया जाय और ऐसी उद्दण्डता की पूरे परिवार द्वारा चेष्टा न की जाय। मतभेद और विरोध संघर्ष के अवसर आने पर भी शिष्टाचार का उल्लंघन न होने दिया जाय। बुराई रोकने के लिए अशिष्टता बरती जाय तो फिर सुधार कम और बिगाड़ ही अधिक होगा।
अपव्यय किसी को न करने दिया जाय। उचित समस्याओं की पूर्ति की जानी चाहिए, पर पैसे को उलीचने और फूंकने की आदत नहीं पड़ने देनी चाहिए। लाड़-चाव में बच्चों को अपव्ययी बना देना—उन्हें भावी जीवन में दुःख-दारिद्रय भुगतने का शाप देना है।
परिवार को एक सहयोगी-समिति के रूप में विकसित करना चाहिए। जिसका हर सदस्य अपने कर्तव्य और अधिकार की मर्यादा को समझे। न तो कोई पिसता रहे और न किसी को मटरगस्ती करने दी जाय। बड़े-बूढ़े भी खाली बैठना अपना अधिकार एवं सम्मान न समझें, वरन् सामर्थ्य भर श्रम करते हुए परिवार के विकास में समुचित योगदान करें। विचार स्वतन्त्रता का सम्मान किया जाय। न किसी पर अवांछनीय प्रतिबन्ध लगे और न कोई उद्धत उच्छृंखलता बरते, तभी परिवार में सुसन्तुलन बना रह सकता है। हराम की कमाई खाने का लालच किसी में पैदा न होने दिया जाय। परिवार के हर सदस्य को स्वावलंबी बनाया जाय। पूर्वजों की संचित सम्पत्ति पर गुजारा करना अशक्तता एवं लोलुपता को लज्जास्पद कृत्य माना जाय। हर व्यक्ति स्वावलंबन पूर्वक कमाये पूर्वजों की संचित पूंजी सामाजिक सत्कार्यों के लिए दान कर दें। यही श्राद्ध की परम्परा है। उत्तराधिकार में प्रचुर सम्पदा छोड़ मरना—अपने बच्चों का पतन हनन करना है। उन्हें सुयोग्य स्वावलंबी बनाया जाय और अपने परिश्रम की कमाई पर गुजारा करने में स्वाभिमान अनुभव करने दिया जाय। औलाद सात पीढ़ी तक बैठकर खाती रहे, ऐसा संचय करना—वस्तुतः समाज का हक मारना है। अतिरिक्त सम्पदा पर वस्तुतः समाज का ही अधिकार होना चाहिए; उसे लोक मंगल में ही खर्च होना चाहिए। समर्थ बालकों को हराम की कमाई न तो खानी चाहिए और न उन्हें दी जानी चाहिए। इस तथ्य को जिस परिवार में समझ लिया जायेगा, वह सम्पन्न भले ही न हो सुसंस्कृत अवश्य माना जायगा।
हमें समझना चाहिए कि परिवार एक पूरा समाज, एक पूरा राष्ट्र है भले ही उसका आकार छोटा हो, पर समस्याएं वे सभी मौजूद हैं—जो किसी राष्ट्र या समाज के सामने प्रस्तुत करती हैं। प्रधानमन्त्री अथवा राष्ट्रपति को जो बात अपने देश को समुन्नत बनाने के लिए सोचनी करनी चाहिए, वही सब कुछ किसी सद्गृहस्थ को परिवार निर्माण के लिए करना चाहिए। एक कुशल माली जिस तरह अपने उद्यान को सुरम्य, सुविकसित बनाने के लिए अथक परिश्रम करता है—हर पौधे पर पूरा ध्यान रखता है, उसे सींचता छांटता है, उसी प्रकार परिवार के हर सदस्य को सुसंस्कृत बनाने के लिए उसके साथ नरम कठोर व्यवहार करने चाहिये। उपार्जन और यारबाजी में ही आमतौर से लोग अपना अधिकांश समय गुजारते हैं। फलतः परिवार की उपेक्षा होती रहती है और उसमें ऐसे बीज पनपते रहते हैं, जिनके कारण चलकर कुटुम्ब दुष्वृत्तियों का भूत-पिशाच का शिकार होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाय।
परिवार निर्माण सम्बन्धी, परिवारी जनों को सुसंस्कारी बनाने के लिए ये कुछ मोटी-मोटी बातें हैं। इस दिशा में जब प्रयास आरम्भ कर दिये जाते हैं तो कई बारीकियां सामने आती हैं और उन्हें प्रस्तुत परिस्थितियों के अनुसार देखा समझा या हल किया जा सकता है। इन प्रयासों को परिवार निर्माण के कार्यक्रमों, अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास करने के लिए, गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए उपयोगी प्रयोग प्रकरण अपनाना चाहिए। इन प्रयासों को सम्पन्न करते हुए आत्म विकास और समाज सेवा के क्षेत्र में बहुत कुछ किया जा सकता है।
वस्तुतः परिवार, समाज संगठन की एक महत्वपूर्ण इकाई है। यों व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है। व्यक्ति समाज का एक सदस्य अवश्य है किंतु समाज एक विशाल संगठन है जिसकी कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती परंतु इतना तय है कि समाज का कलेवर व्यक्तियों से नहीं परिवारों के समूह से ही बनकर सामने आता है। व्यक्ति और समाज के बीच परिवार एक अनिवार्य कड़ी बनकर रहते हैं। यदि परिवार न रहे होते तो समाज का ढांचा शायद नहीं ही उभर कर आता न ही मनुष्य सभ्यता इतनी उन्नति तक विकसित हुई होती। कहना नहीं होगा कि मानवीय सभ्यता का विकास, सहयोग, सद्भाव के आधार पर ही हुआ है और इनके संस्कार, शिक्षा एवं प्रेरणाएं व्यक्ति को परिवार से ही मिलती हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि व्यक्ति के निर्माण में और समाज के विकास में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
लेकिन इसके साथ यह शर्त भी जुड़ी हुई है कि परिवारों में परिवारी जन केवल किन्हीं स्वार्थों से ही बंधकर न रहें वरन् वे परिवार की महत्ता समझें, इस संस्था का गौरव को अनुभव करें और एक दूसरे के विकास में गहन रुचि लें, शरीर के विभिन्न अंग अवयव केवल स्वार्थवश ही एक साथ जुड़े नहीं रहते वरन् वे एक प्राण, एक शक्ति के अंगवत रहकर पूरे शरीर का हित साधते हैं। शरीर का कोई भी अंग अवयव रोगी हो जाय, बीमार पड़ जाय, कट-पिट जाय तो पूरे शरीर का ही सौन्दर्य मारा जाता है। शरीर का प्रत्येक अंग अवयव; स्वस्थ निरोग और सक्षम रहे तभी मनुष्य काया पूरी तरह स्वस्थ रह सकती है। उसी प्रकार प्रत्येक सदस्य सुसंस्कृत सद्भाव सम्पन्न हो तभी वह स्वस्थ परिवार कहा जा सकता है। इस प्रकार सुसंगठित और सुव्यवस्थित परिवार ही व्यक्तिगत जीवन में सुव्यवस्था, समुन्नति के ठोस आधार बनते हैं। अन्य सारे सुख-साधन एक ओर तथा परिवार का सन्तुलन यदि एक ओर रखा जाय तो पारिवारिक जीवन का महत्व अधिक मानना पड़ेगा। जिन लोगों के साथ मिल-जुलकर जीवन क्रम चलाना पड़ता है, उनकी व्यवस्था अव्यवस्था का अपने ऊपर भारी प्रभाव पड़ता है। अशांत और विक्षुब्ध पारिवारिक जीवन लेकर कोई व्यक्ति न तो सन्तुष्ट रह सकता है और न प्रसन्न, भले ही बाहरी सुविधायें कितनी ही बढ़ी-चढ़ी क्यों न हों?
परिवार के लोगों को सुखी और सन्तुष्ट रखने के लिए प्रायः लोग अधिक से अधिक धन जुटाने की व्यवस्था करते हैं। अच्छा भोजन, अच्छे कपड़े और अनेक तरह के मनोरंजन के साधन जुटाते हैं, तो भी आये दिन गृह-कलह हुआ करता है। पुत्रों की स्वेच्छाचारिता, भाइयों की बेईमानदारी, पत्नी से विचार न मिलने की शिकायत, माता-पिता का असन्तोष अधिकांश लोगों को बना रहता है। इस प्रकार के प्रसंग सामने आते हैं और उनके कारणों पर गम्भीरता से विचार करते हैं तो यह मानना पड़ता है कि साधन जुटाने में तो लोगों का ध्यान गया, पर परिवार-निर्माण के लिए उन्होंने कुछ भी प्रयत्न नहीं किया। गृहस्थ का पालन बड़ी बात नहीं है, उतना तो सामान्य पशु-पक्षी भी कर लेते हैं। धन, मकान जायदाद आदि का उत्तराधिकार परिजनों को दे जाना उतना महत्व नहीं रखता, जितना उनको सद्गुणी सुशील बनाना। परिवार को सुसंस्कृत और सुविकसित बनाना नितान्त आवश्यक है। चरित्र के सांचे में ढाले गये परिवार कम साधनों में भी पूर्ण प्रसन्नता का जीवन व्यतीत कर लेते हैं। दुर्गुणी व्यक्तियों के लिए तो सम्पन्नता भी अभिशाप सिद्ध होती है। और यह अभिशाप स्वार्थ, संकीर्णता तथा सहिष्णुता जैसे दुर्गुणों के साथ मिलकर पारिवारिक जीवन में नारकीय स्थिति उत्पन्न कर देता है। अतएव आवश्यक है कि परिवार के लिए सुख-सुविधाएं जुटाने के साथ-साथ परिजनों को सुसंस्कृत और उत्कृष्ट व्यक्तित्व सम्पन्न भी बनाया जाए। उसके लिए आवश्यक प्रयत्न न करने की स्थिति में धन, शिक्षा, पद, प्रतिष्ठा आदि सब कुछ होते हुए भी क्षुद्रता और संकीर्णता के कारण घटित होने वाली छोटी-मोटी घटनाओं को लेकर भी परिवार अपनी प्रतिष्ठा एवं सुदृढ़ता खोते चले जाते हैं और कुछ ही दिनों में बुरी तरह बिखर जाते हैं।
अस्तु परिवार निर्माण की आवश्यकता प्रत्येक सद्गृहस्थ को, परिवार के प्रत्येक विचारशील सदस्य को समझनी और स्वयं पूरी करनी चाहिए। इसे यदि पूरा न किया गया, घर में सुसंस्कृत वातावरण न बनाया जा सका, परिष्कृत परम्पराओं का प्रचलन न किया जा सका तो उस घर में रहने, पलने वाले लोग भूत-बेताल बनकर ही रहेंगे। स्वास्थ्य, शिक्षा, चतुरता की दृष्टि से वे कितने ही अच्छे क्यों न हों, मानवीय सद्गुणों से वंचित ही रहेंगे। कोई कितना कमाता है—कितना बड़ा कहलाता है यह बात अलग है और किसका व्यक्तित्व कितना समुन्नत है, यह प्रश्न बिल्कुल अलग है। बड़ा आदमी बनना सरल है—श्रेष्ठ सज्जन बनना कठिन है। सुख-शान्ति पूर्वक रहने और अपने साथियों को प्रसन्न सन्तुष्ट रखने के लिए बड़प्पन की नहीं महानता की आवश्यकता पड़ती है। उसी का उपार्जन मानव जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। कोई परिवार इस दिशा में कितना सफल होता है उसकी उतनी ही सार्थकता मानी जा सकती है।
अवांछनीय वातावरण में पलने वाले प्राणी हेय और गई गुजरी स्थिति में ही जिन्दगी गुजारते हैं। अधिक पैसा और अधिक ठाट-बाट और अधिक वैभव पाकर आदमी दूसरों को आकर्षित आतंकित कर सकता है पर उसकी सुख-शान्ति में तनिक भी वृद्धि नहीं होती। आनन्द और उल्लास तो केवल सुसंस्कारी व्यक्तियों के हिस्से में ही आता है। वे ही स्वयं सन्तुष्ट रहते हैं और साथियों को आनन्द देते हैं। प्रसन्न रहने और प्रसन्न रखने की विशेषता ही देव-प्रकृति कहलाती है वस्तुतः यही सबसे बड़ी दौलत है। अभागे लोग पैसे को ही सब कुछ मानते और उसी के लिए मरते खपते हैं। विवेकवान् जानते हैं कि परिष्कृत दृष्टिकोण व सद्भावनाओं से बढ़कर और कोई आनन्ददायक वस्तु इस संसार में नहीं है इसलिए वे इसके उपार्जन अभिवर्धन पर ध्यान देते हैं? भले ही पैसे की दृष्टि से उन्हें गरीबों की श्रेणी में ही क्यों न रहना पड़े।
परिवार निर्माण का प्रयोजन इतना भर ही नहीं है जितना कि सृजन-विज्ञान की प्रचलित पुस्तकों में बताया, पढ़ाया जाता है। उसे गृह सज्जा भर कहा जा सकता है। परिवार निर्माण की दृष्टि से भी यह आरम्भिक और उचित कदम है। आवश्यकता उसकी भी है पर उतना कर लेने पर भी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता वस्तुतः कूड़ा करकट तो दिमागी गन्दगी का नाम है, फूहड़ प्रकृति ही घर में सर्वत्र अव्यवस्था फैलाये रहती है। कामों को आधा अधूरा छोड़ने की आदत का नाम ही गन्दगी है। जिसकी प्रकृति में पूरा काम निपटाकर ही आगे बढ़ने की आदत जुड़ गई है उसे कुछ सिखाना नहीं पड़ता। ऐसी प्रकृति घर की हर वस्तु को सुन्दर-सुव्यवस्थित बनाये रहती है। घर का सामान, बर्तन, फर्नीचर, दीवारें, छतें, कमरे, कोठरी, नाली, पखाने, कपड़े, पुस्तकें खाद्य पदार्थ आदि किस तरह संभाले-सजाये जांय इसकी शिक्षा का नाम ही इन दिनों स्कूलों में गृह विज्ञान के नाम से पढ़ाया जाता है। वह व्यावहारिक ज्ञान है। इतना सब कुछ जान लेने पर भी यदि आलसी और फूहड़ प्रकृति स्वभाव का अंग बनी रही तो फिर सारा पढ़ा-पढ़ाया बेकार है। गृह सज्जा जैसा छोटा विषय भी मूलतः घर के सदस्यों की प्रकृति से जुड़ा है। उनका स्तर यदि सुधरा हुआ हो तो कोई बिना पढ़ी महिला लैक्चर देना भले ही न जानती हो, व्यवहार रूप से इतना कुछ करके दिखा सकती है कि गृह विज्ञान पढ़ाने वाली प्रोफेसर भी सिर झुकाके रह जाये। हमें इसी सुरुचि के विकास को घर की सुव्यवस्था का मूल-भूत कारण मानकर चलना चाहिए और उसी के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करना चाहिए।
परिवार निर्माण वस्तुतः एक दर्शन है—क्रियाकलाप तक उसे सीमित नहीं रखा जा सकता जिस प्रकार की व्यवस्था अभीष्ट हो उसके लिए परिवार के लोगों की मनःस्थिति का निर्माण किया जाना चाहिए। यह प्रयोजन तभी सफल हो सकता है जब अपना मनोयोग, समय और श्रम उसके लिए नियमित रूप से लगाया जाय। यह अभिरुचि, तत्परता एवं संलग्नता तब उत्पन्न हो सकती हैं, जब परिवार निर्माण की आवश्यकता को गम्भीरतापूर्वक समझा जाय और यह सोचा जाय कि इस उत्तरदायित्व का निर्वाह करना कितना अधिक महत्वपूर्ण है यह काम नौकरों से, बाहर के आदमियों से कराने का नहीं है। अन्याय लोग बता-सिखा सकते हैं परिवार के लोगों में घुल-मिल नहीं सकते, घनिष्ठ आत्मीयता का अपनापन ही आन्तरिक आदान-प्रदान का माध्यम होता है। मनःस्थिति पर प्रभाव डालने की क्षमता केवल उन्हीं में होती है, जो अन्तःक्षेत्र को स्पर्श करें। विशेषतया स्वभाव एवं दृष्टिकोण में परिष्कृत परिवर्तन करने के लिए तो ऐसे ही शिक्षक की आवश्यकता पड़ती है। ऐसा शिक्षक बाहर से ढूंढ़ना बेकार है, यह कार्य हमें स्वयं ही करना पड़ेगा। भोजन, स्नान, निद्रा, विनोद आदि की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए श्रम हमें स्वयं ही करना होता है, यह प्रयोजन दूसरों के द्वारा पूरे नहीं कराये जा सकते।
प्रश्न इतना भर नहीं है कि परिवार का वातावरण अच्छा बनाया जाय, और परिजनों को सुसंस्कृत स्तर तक पहुंचाया जाय। यह केवल एक पक्ष है। परिवार निर्माण का दूसरा पक्ष और भी अधिक महत्वपूर्ण है। वह है—अपनी निज की आदतों आस्थाओं और गतिविधियों का निर्माण नियन्त्रण करना। यह कार्य परिवार की प्रयोगशाला में ही सम्भव हो सकता है। जलाशय में घुसे बिना तैरना कहां आता है। व्यायामशाला में प्रवेश किये बिना पहलवान कौन बनता है? पाठशाला में भर्ती हुए बिना सुशिक्षित कौन बनता है? व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर ही अपने गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता का अभ्यास किया जाता है। एकाकी चिन्तन, मनन, अध्ययन, प्रवचन करते रहने से केवल बौद्धिक समाधान मिलता है। सत्प्रवृत्तियां परिपक्व तो अभ्यास से ही होती हैं। अभ्यास के लिए उपकरण चाहिए। इस प्रयोजन के लिए परिवार से बढ़कर और कोई उपयुक्त माध्यम हो ही नहीं सकता। परिवार निर्माण के लिए प्रयास करना वस्तुतः अपनी श्रेष्ठ मान्यताओं को मूर्तरूप देने के लिए प्रयोगशाला में प्रवेश करना है। परिजनों के माध्यम से अपनी शालीनता एवं क्रिया-कुशलता को विकासोन्मुख बनाना है। इस प्रकार परिवार निर्माण की दिशा में किये गये प्रयास—केवल कुटुम्बियों की सार्थक सेवा ही सम्पन्न नहीं करते, वरन् अपने व्यक्तित्व को भी निखारते हैं अपनी आदतों में भी उत्कृष्टता का समुचित समावेश करते हैं यह दुहरे लाभ की प्रक्रिया सर्वथा अपनाये जाने ही योग्य है।
आजीविका उपार्जन के अतिरिक्त कुछ समय हमें परिवार-निर्माण के लिए भी नियमित रूप से देना चाहिए। यह एक उच्चकोटि का मनोरंजन है। ताश, शतरंज, गपशप, सिनेमा, मटरगश्ती, यारबाजी, आलस्य, अनुत्साहपूर्वक जंग बनकर सामने प्रस्तुत कार्यों को सही ढंग में करने पर मिलने वाली महत्वपूर्ण सफलता का अंग बनते हैं। टूटी चीजों की मरम्मत करना यों एक गृहशिल्प भी है, उससे आर्थिक बचत भी है, पर आदत के रूप में बढ़ा लाभ यह है कि बर्बादी तनिक भी न होने दी जाय। वस्तुओं से अधिकाधिक काम लिया जाय। कहावत है ‘‘जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वह बुद्धिमान् है।’’ निर्माण, सृजन और सुधार की मनोवृत्ति टूटी वस्तुओं की मरम्मत करने और भदरंग चीजों को चमकाने के प्रयास के साथ-साथ विकसित होती है। घर-आंगन में, गमलों में टोकरी और पेटियों में फल-फूल एवं शाक भाजी लगाये जा सकते हैं। इसमें शोभा भी है और आर्थिक लाभ भी। इससे भी बड़ा लाभ उत्पादन, पोषण और संरक्षण की मनोवृत्ति विकसित होने का है, सद्गुणों को ऐसे छुट-पुट प्रयास के सहारे ही विकसित किया जा सकता है।
परिवार में सद्ज्ञान की अभिवृद्धि की आवश्यकता पूरी की जानी चाहिए। परिजनों को कूप-मण्डूक नहीं रहने देना चाहिए। जीवन की—समाज की समस्याओं से अपरिचित रहना ऐसी भूल है, जिसके कारण कभी-कभी ऐसी ठोकरें खानी पड़ती हैं, जो आदमी को चित्तपट्ट करके रखदें। अवकाश के समय में समाचारों एवं कथा, संस्मरणों के माध्यम से उपयोगी जानकारी बढ़ाने का कार्य हर सद्गृहस्थ को हाथ में लेना चाहिए। रूखे नीरस और निर्देशात्मक उपदेशों को प्रायः व्यंग, उपहास एवं अवज्ञा में धकेल दिया जाता है। कथा कहानी के माध्यम से घुमा-फिराकर शिक्षा दी जाय तो उसमें मनोरंजन आकर्षण भी रहता है। और परोक्ष रूप से दी गई शिक्षा का चित्त पर प्रभाव भी पड़ता है अखबारों में ऐसे समाचार चुने जा सकते हैं, जिसमें कुछ शिक्षा सामग्री हो। उनकी समीक्षा, विवेचना करते रहें तो ऐसे ज्ञान की वृद्धि हो सकती है, जो जीवन विकास में—लोक-व्यवहार में उचित मार्गदर्शन कर सके। धर्मतन्त्र और हितोपदेश नामक संस्कृत के कथा-ग्रन्थों ने उद्दंड राजकुमारों को सुयोग्य बना दिया था। हम भी उसी रीति-नीति को अपना कर परिवार के लोगों के लिए उपयोगी दिशा-निर्देश करते रह सकते हैं। जो पढ़े-लिखे हैं, उन्हें प्रेरक पुस्तकें पढ़ते रहने के लिए भी कहा, समझाया और प्रोत्साहित किया जा सकता है। स्वास्थ्य के लिए सामग्री और समय की व्यवस्था बनाकर हम घर के पढ़े-लिखे सदस्यों के लिए बौद्धिक एवं भावनात्मक उत्कर्ष का द्वार खोल सकते हैं; पढ़े सदस्य प्रतिदिन अवकाश वाले निर्धारित समय में निर्दिष्ट पुस्तक प्रसंग पढ़कर सुनाया करें तो आगे चलकर वही आदत परिवार प्रशिक्षण में अभिरुचि बनकर विकसित हो सकती है। सुनाते रहने वालों को सुयोग्य वक्ता बनने का—झेंप-झिझक से पिण्ड छुड़ाने का- सुअवसर प्रदान कर सकती है।
घर में आस्तिकता का वातावरण रहना चाहिए। हर सदस्य को भगवान का स्मरण और नमन करने की आदत होनी चाहिए। चाहे उसके लिए दो मिनट का ही समय लगे पर लगन अवश्य चाहिए। आस्तिकता के साथ अनेक श्रेष्ठ मान्यताएं जुड़ी रहती हैं, सुसंस्कृत व्यक्तित्व विकसित करने की दृष्टि से दैनिक जीवन में आस्तिकता को परिपुष्ट बनाने वाली उपासना के लिए कुछ न कुछ स्थान होना ही चाहिए। किसी उपयुक्त स्थान पर गायत्री माता का चित्र टांगा जाय और यह नियम बनाया जाय कि दैनिक कार्य आरम्भ करने से पूर्व उस प्रतिमा का अभिनन्दन करके—कम से कम पांच मन्त्र मन ही मन जप करके तब आगे बढ़ा जाय। इसमें स्नान आदि का बन्धन नहीं है। बच्चे स्कूल जाते समय, यह नमन अभिनन्दन चित्र के सामने खड़े होकर कर सकते हैं। इसमें दो मिनट का समय लगता है। नियमित परम्परा को अनिवार्य बनाये रखने की दृष्टि से इतना थोड़ा समय भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उससे आस्तिकता के संस्कार जमते और बढ़ते हैं। इसका परिणाम दृष्टिकोण में उच्चस्तरीय आदर्शों को समाविष्ट रहने का लाभ मिलता है। सायंकाल सामूहिक रूप से आरती करने की—संगीत सहगान की परम्परा डाली जाय तो एक उत्साह एवं सद्भाव सम्वर्धक वातावरण बनता है।
घर के सदस्य अपने-अपने कामों में ही व्यस्त न रहें, वरन् एक दूसरे को सुनने समझने तथा सहयोग लेने-देने की स्थिति में भी रहें, ऐसी परम्पराएं काम करने की मन्दगति आदि व्यसनों और प्रमादों में हमारा बहुत-सा समय नष्ट होता है। हिसाब लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि समय की यह बर्बादी बहुत बड़ी है। इतनी अधिक है कि उसे बचाकर ही परिवार निर्माण के अनेक महत्वपूर्ण कार्य करने का अवसर प्राप्त किया जा सकता है और फुरसत न मिलने का बहाना सर्वथा निरर्थक सिद्ध हो सकता है। मनोरंजन में सबसे बढ़िया, सबसे सार्थक, सबसे हल्का और सबसे सरल परिवार निर्माण ही है।
परिवार निर्माण के दो पक्ष हैं—एक व्यवहारिक क्रिया परक और दूसरा दार्शनिक दृष्टिकोण परक। इन दोनों ही तथ्यों का अपनी क्रिया प्रक्रिया में समुचित समावेश करके चलना होगा। व्यवहारिक कार्यक्रम में घर की सुव्यवस्था, सुन्दरता एवं सुसज्जा पर ध्यान दिया जाना चाहिए। उनके लिए अकेले ही नहीं लगना चाहिए, वरन् क्रमशः सभी लोगों को साथ लगाना चाहिए। स्वयं साथ लगने से दूसरों में उत्साह पैदा होता है, अन्यथा सृजनात्मक कार्यों में रूखापन समझा जाता है और उसे भार—बेकार समझकर कन्नी काटने की मनोवृत्ति रहती है। आदेश-निर्देश देते रहने से बात बनती नहीं। प्रयोजन तब पूरा होता है, जब स्वयं आगे चला जाय और कन्धे से कन्धा लगाकर काम करने के लिए दूसरों को आमन्त्रण दिया जाय। अपने मरे बिना स्वर्ग नहीं दीखता, वाली कहावत ऐसे हर काम पर लागू होती है। जितने कितने ही का सहयोग अभीष्ट होता है, इंजन आगे चलता है तो डिब्बे पीछे लुढ़कने लगते हैं। परिवार-निर्माण के लिए बनाये गये व्यवस्था-क्रम में हमें स्वयं ही इंजन की भूमिका सम्पादित करनी चाहिए। आजीविका उपार्जन और सार्वजनिक सेवा के अतिरिक्त शेष समय घर पर रहते हुए व्यतीत करना चाहिए और उसे परिवार निर्माण में लगाना चाहिए। इस समय का क्रियात्मक उपयोग यह है कि सफाई सुव्यवस्था एवं सुसज्जा के कार्यों में हर दिन कुछ न कुछ कार्य निर्धारित रखा जाय। काम को आधा-अधूरा छोड़ने और चीजों को अस्त-व्यस्त पड़ी रहने देने की बुरी आदत घर में प्रायः सभी को किसी न किसी मात्रा में होती है। बच्चों में तो यह दोष आमतौर से पाया जाता है। टूट-फूट भी होती ही रहती है। टूटे बर्तन, फटे कपड़े, फैली-छितरी पुस्तकों की जिल्दें यह मांग करती हैं कि उन्हें सुधारा-संभाला जाय। मरम्मत में कुशल होना सद्गृहस्थ का आवश्यक क्रिया-कौशल है। जब जो वस्तु टूटती-फूटती दिखाई पड़े, उसे अविलम्ब सुधार-संभाल देना चाहिए। कपड़ा जहां से फटा है, वहां तुरन्त सीं दिया जाय तो वह हानि न होगी, जो कई दिन उपेक्षा करते रहने से उसकी जिन्दगी ही समाप्त हो जाने के रूप में सामने आती है।
स्वच्छता से प्रेम करना उसी का सार्थक है, जो गन्दगी हटाने को उत्साह का परिचय दे सके। घर के सभी लोगों में यह प्रवृत्ति पैदा करनी चाहिए। गन्दगी एवं कुरूपता विरोधी मोर्चे पर लड़ने के लिए घर के हर सदस्य में शौर्य, साहस उत्पन्न करना चाहिए। क्या शरीर, क्या वस्त्र, क्या सामान, क्या घर सब कुछ ऐसा सुन्दर सुव्यवस्थित रखा जाय, मानो कोई बड़ा अफसर आज इन सब चीजों का मुआयना करने के लिए आ रहा हो। सफाई और सुरुचि सम्वर्धन इसी अभियान का दूसरा पक्ष है। ‘मकान की दीवारें अपने हाथों आसानी से पोती जा सकती हैं। मेजपोश, पर्दे आदि रंगने में कहां अधिक देर लगती हैं’ घर के लोगों को साथ में लगाकर स्वच्छता और सुसज्जा में हर दिन एक घण्टा भी लगाया जाय तो उसकी हर वस्तु सुरुचिपूर्ण रह सकती है और वहां सुसंस्कृत वातावरण का आभास मिलता रह सकता है।
बात सफाई और शोभा सुन्दरता भर की नहीं हो रही है, वरन् यह कहा जा रहा है कि परिवार के हर सदस्य में सुव्यवस्था के लिए तत्परता बरतने की आदत होनी चाहिए। यह आदत वस्तुओं को सुन्दर ढंग से रखने तक सीमित नहीं रह सकती, वरन् चिन्तन एवं कर्तृत्व के अन्यान्य क्षेत्रों तक विकसित होकर मनुष्य को जागरूक और तत्पर बनाये रखने में असाधारण रूप से सहायता करती है। छोटे कामों से घृणा न करना सुव्यवस्था को उत्पादक मनोरंजन मानना, खाली समय का उपयोग करना, आलस्य-प्रमाद को हावी न होने देना, काम को अधूरा न छोड़ना, सुसज्जा की अभिरुचि बढ़ाना जैसे अनेक ऐसे गुण परिवार में बढ़ते हैं, जो देखने में छोटे लगते हैं, पर प्रकृति को पुनः प्रचलित करना चाहिए। अधिक पढ़े—कम पढ़ों को पढ़ायें। साथ खेलें साथ टहलें, जिसको जो आता हो—वह दूसरों को सिखायें। तेल मालिश आदि में एक दूसरे की सहायता करें। भोजन साथ-साथ बैठकर करें। कभी-कभी रसोई बनाने में भी सब लोग साथ-साथ जुट जायें। कपड़े धोने में एक साबुन लगाये तो दूसरा धोये। इस प्रकार छोटे बड़े कामों में सर्वथा एकाकीपन रखने की अपेक्षा मिल-जुलकर करने की सहयोगी सहकारी प्रवृत्ति पनपेगी और उसका अच्छा परिणाम सामने आयेगा। बच्चों को ऐसी आदत डालनी चाहिए कि कोई मिठाई आदि आवे तो मिल-बांटकर खायें, एकाकी अथवा अधिक खाने का आग्रह न करें। ऐसी आदत डालने के लिए उन्हीं के हाथ से बांटने का कार्य कराना चाहिए। भोजन परोसने में रुचि लेने से भी उदारता के बीज जमते हैं। खिलौनों से दूसरों को भी खिलाने की आदत डाली जाय। अपने हथियाये रहना और दूसरे का छिनने का प्रयत्न करना—जैसी संकीर्णता पनपने नहीं देना चाहिए। जेवर भी एक से दूसरी स्त्रियों में उलटते-पलटते रहें तो इससे विषाक्त आपाधापी की जड़ कटती है। हारी-बीमारी में—हर दुःख-सुख में एक दूसरे का पूरा ध्यान रखें। किसी के खिन्न, उदास रुष्ट होने पर उपेक्षा न बरती जाय, वरन् कारण जानने और समाधान ढूंढ़ने का प्रयत्न किया जाय। हर सदस्य एक दूसरे का शिष्ट सम्बोधन के साथ पुकारें ‘तू’ को असभ्य बोली माना जाय। बड़े भी छोटों को ‘तू’ न कहें। ‘तुम’ एवं ‘आप’ का सम्बोधन और नाम के आगे ‘जी’ लगाने का प्रचलन किसी परिवार का सभ्यतानुयायी सिद्ध करता है। गाली-गलौज, कटु वचन, व्यंग, उपहास; सीखना-चिल्लाना, रूठना; क्रोधावेश में भरना, मार-पीट करना, अपना सिर धुनना—असभ्य और अवांछनीय व्यवहार घोषित किया जाय और वैसा आचरण करने वाले की भर्त्सना की जाय। वैसा बार-बार न होने पाये; इस पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाया जाय और ऐसी उद्दण्डता की पूरे परिवार द्वारा चेष्टा न की जाय। मतभेद और विरोध संघर्ष के अवसर आने पर भी शिष्टाचार का उल्लंघन न होने दिया जाय। बुराई रोकने के लिए अशिष्टता बरती जाय तो फिर सुधार कम और बिगाड़ ही अधिक होगा।
अपव्यय किसी को न करने दिया जाय। उचित समस्याओं की पूर्ति की जानी चाहिए, पर पैसे को उलीचने और फूंकने की आदत नहीं पड़ने देनी चाहिए। लाड़-चाव में बच्चों को अपव्ययी बना देना—उन्हें भावी जीवन में दुःख-दारिद्रय भुगतने का शाप देना है।
परिवार को एक सहयोगी-समिति के रूप में विकसित करना चाहिए। जिसका हर सदस्य अपने कर्तव्य और अधिकार की मर्यादा को समझे। न तो कोई पिसता रहे और न किसी को मटरगस्ती करने दी जाय। बड़े-बूढ़े भी खाली बैठना अपना अधिकार एवं सम्मान न समझें, वरन् सामर्थ्य भर श्रम करते हुए परिवार के विकास में समुचित योगदान करें। विचार स्वतन्त्रता का सम्मान किया जाय। न किसी पर अवांछनीय प्रतिबन्ध लगे और न कोई उद्धत उच्छृंखलता बरते, तभी परिवार में सुसन्तुलन बना रह सकता है। हराम की कमाई खाने का लालच किसी में पैदा न होने दिया जाय। परिवार के हर सदस्य को स्वावलंबी बनाया जाय। पूर्वजों की संचित सम्पत्ति पर गुजारा करना अशक्तता एवं लोलुपता को लज्जास्पद कृत्य माना जाय। हर व्यक्ति स्वावलंबन पूर्वक कमाये पूर्वजों की संचित पूंजी सामाजिक सत्कार्यों के लिए दान कर दें। यही श्राद्ध की परम्परा है। उत्तराधिकार में प्रचुर सम्पदा छोड़ मरना—अपने बच्चों का पतन हनन करना है। उन्हें सुयोग्य स्वावलंबी बनाया जाय और अपने परिश्रम की कमाई पर गुजारा करने में स्वाभिमान अनुभव करने दिया जाय। औलाद सात पीढ़ी तक बैठकर खाती रहे, ऐसा संचय करना—वस्तुतः समाज का हक मारना है। अतिरिक्त सम्पदा पर वस्तुतः समाज का ही अधिकार होना चाहिए; उसे लोक मंगल में ही खर्च होना चाहिए। समर्थ बालकों को हराम की कमाई न तो खानी चाहिए और न उन्हें दी जानी चाहिए। इस तथ्य को जिस परिवार में समझ लिया जायेगा, वह सम्पन्न भले ही न हो सुसंस्कृत अवश्य माना जायगा।
हमें समझना चाहिए कि परिवार एक पूरा समाज, एक पूरा राष्ट्र है भले ही उसका आकार छोटा हो, पर समस्याएं वे सभी मौजूद हैं—जो किसी राष्ट्र या समाज के सामने प्रस्तुत करती हैं। प्रधानमन्त्री अथवा राष्ट्रपति को जो बात अपने देश को समुन्नत बनाने के लिए सोचनी करनी चाहिए, वही सब कुछ किसी सद्गृहस्थ को परिवार निर्माण के लिए करना चाहिए। एक कुशल माली जिस तरह अपने उद्यान को सुरम्य, सुविकसित बनाने के लिए अथक परिश्रम करता है—हर पौधे पर पूरा ध्यान रखता है, उसे सींचता छांटता है, उसी प्रकार परिवार के हर सदस्य को सुसंस्कृत बनाने के लिए उसके साथ नरम कठोर व्यवहार करने चाहिये। उपार्जन और यारबाजी में ही आमतौर से लोग अपना अधिकांश समय गुजारते हैं। फलतः परिवार की उपेक्षा होती रहती है और उसमें ऐसे बीज पनपते रहते हैं, जिनके कारण चलकर कुटुम्ब दुष्वृत्तियों का भूत-पिशाच का शिकार होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाय।
परिवार निर्माण सम्बन्धी, परिवारी जनों को सुसंस्कारी बनाने के लिए ये कुछ मोटी-मोटी बातें हैं। इस दिशा में जब प्रयास आरम्भ कर दिये जाते हैं तो कई बारीकियां सामने आती हैं और उन्हें प्रस्तुत परिस्थितियों के अनुसार देखा समझा या हल किया जा सकता है। इन प्रयासों को परिवार निर्माण के कार्यक्रमों, अपने समग्र व्यक्तित्व का विकास करने के लिए, गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने के लिए उपयोगी प्रयोग प्रकरण अपनाना चाहिए। इन प्रयासों को सम्पन्न करते हुए आत्म विकास और समाज सेवा के क्षेत्र में बहुत कुछ किया जा सकता है।