Books - युग सृजन का आरम्भ परिवार निर्माण से
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Language: HINDI
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साप्ताहिक सत्संगों का नियमित आयोजन
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संगठन खड़ा करने, उसकी सदस्य संख्या बढ़ाने, सदस्यों के यहां संस्कार आयोजन करने और पर्व त्यौहारों को प्रेरणाप्रद ढंग से मनाने के बाद महिला जागरण शाखाओं को साप्ताहिक सत्संग नियमित रूप से चलाना चाहिए। सामूहिक कृत्यों से प्रोत्साहन मिलता और साहस बढ़ता है। इस तथ्य से सभी परिचित हैं। जुलूस निकालने सभा एकत्रित करने जैसे खर्चीले और श्रम साध्य क्रिया-कलाप इसलिए होते हैं कि सामूहिक जन शक्ति के द्वारा उत्पन्न होने वाली गतिविधियां न केवल सम्मिलित होने वालों को प्रोत्साहित करती हैं वरन् दर्शकों तक पर उस दिशा में अधिक सोचने, आकर्षित करने का दबाव पड़ता है जिन प्रवृत्तियों को बढ़ाया जाना आवश्यक है वे सामूहिक प्रयत्नों के आधार पर व्यापक बनती देखी गयी हैं।
जो संगठन की उपयोगिता समझते हैं वे अभीष्ट उद्देश्यों के लिए आयोजन करने का महत्व भी स्वीकार करते हैं। युग निर्माण परिवार को इसी कारण इतना विस्तृत होने का अवसर मिला है कि उसके द्वारा घरों में जानकारों के माध्यम से परिवार गोष्ठियों, मुहल्ले गांवों में पर्व आयोजनों के लिए जन सभाएं तथा यज्ञ आयोजनों के साथ जुड़ते हुए युग निर्माण सम्मेलनों द्वारा लोक चेतना उत्पन्न हो जाती है। महिला जागरण के लिए भी ऐसे ही आयोजनों की सुनियोजित श्रृंखला चलती चाहिए। इस दिशा में प्रथम प्रयास साप्ताहिक सत्संगों के रूप में ही हो सकता है।
सामूहिक चेतना उत्पन्न करना ही नहीं, परिवार निर्माण के लिए आवश्यक वातावरण बनना एवं प्रभावी प्रशिक्षण देना भी इन साप्ताहिक सत्संगों का उद्देश्य है हर महिला से अलग सम्पर्क साधना और उसे अलग-अलग पूरी योजना समझाना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। तरीका एक ही है कि अधिकाधिक संख्या में महिलाएं एकत्रित हों और वे अभिष्ट उद्देश्य को समझने तथा प्रक्रिया को कार्यान्वित करने का और उपाय जानने का उपयुक्त प्रशिक्षण प्राप्त करें। यह कार्य सामूहिक आयोजनों के बिना हो ही नहीं सकता। इस प्रकार की आयोजन श्रृंखला में साप्ताहिक सत्संग ही सरल, नियमित और सुनियोजित रीति से चल सकते हैं। अस्तु उन्हें महत्व एवं प्रोत्साहन ही नहीं मिलना चाहिए, सफल बनाने के लिए प्रबल प्रयत्न भी चलना चाहिए।
महिला जागरण शाखाओं की सदस्यता फीस एक ही है साप्ताहिक सत्संगों में सम्मिलित होना। इसके लिए आरम्भिक संगठन कर्ताओं को पूरा-पूरा प्रयास यह करना चाहिए कि अपने मित्र, पड़ौसियों को परिवार निर्माण की आवश्यकता तथा प्रक्रिया समझने के साथ-साथ जो सहमत प्रभावित दीखें उन्हें इसके लिए भी तैयार करें कि अपने घरों की महिलाएं सत्संग में भेजा करें जिन महिलाओं से स्वाभाविक रूप से मिलना-जुलना होता रहता है जो अपने पड़ौस परिचय की हैं, जिनसे बात अपने में कोई अतिरिक्त प्रयत्न नहीं करना पड़ता उन्हें इसके लिए कहा जाय कि सत्संगों में स्वयं आया करें घरों की महिलाएं तो अनिवार्य रूप से भेजनी चाहिए। स्वयं आना-कानी करेंगे तो दूसरों से अनुरोध करते कैसे बनेगा? अनुकरण के लिए लोग तभी तैयार होते हैं जब अग्रगामी लोग स्वयं उस प्रतिपादन को क्रियान्वित करते हुए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। युग निर्माण परिवार की महिलाएं तो केवल उपस्थित होती ही रहें वरन् अन्य अनेकों को घसीट कर लाने की जिम्मेदारी भी अनुभव करती रहें। साधारण सदस्यों में से कर्मठ कार्यकर्त्री कौन है। उसका एक परिचय यह हो सकता है किसने कितना सम्पर्क साधा और कौन कितना उपस्थित बढ़ाने में सफल हुई। इस कार्य में नव प्रवृत्तियां या लड़कियां भी आगे आयें ऐसी महिलाएं अधिक सफल हो सकती हैं जो पास-पड़ौस में अक्सर आती-जाती रहती हैं। मन्दिरों, घाटों, कथाओं में अक्सर प्रौढ़ाएं एवं वृद्धाएं घूमने-फिरने का आनन्द लेने और धैर्य भावना का पोषण करने नित्य या कभी-कभी आती जाती रहती हैं। वहां अन्य महिलाएं भी पहुंचती हैं। ऐसे स्थानों पर सत्संग का महत्व बताने और उपस्थित होकर आनन्द लेने की बात कही जा सकती है। ऐसे अन्याय उपाय भी हो सकते हैं जिनके आधार पर उपस्थिति बढ़ती रहे। घटने न पाये।
स्पष्ट है कि सत्संगों का उद्देश्य महिलाओं का मानसिक विकास करने की दृष्टि से है। सामूहिक वातावरण में उनकी मनःस्थिति अभिष्ट प्रयोजन की दिशा में निश्चित रूप से मुड़ेगी। अस्तु उन्हें आकर्षण बनाया जाना भी आवश्यक है। रूखा, नीरस, थकाने वाला उपदेश क्रम प्रायः अरुचि कर हो जाता है। इसलिए आयोजनों का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जिसमें आकर्षण भी बना रहे और प्रशिक्षण का अभिष्ट उद्देश्य भी पूरा होता रहे। इस सन्दर्भ में गीत-वाद्य का प्रबन्ध करने का प्रयास करना चाहिए। महिला सदस्याओं में से यदि किन्हीं का स्वर मीठा हो और बजाने का थोड़ा अभ्यास हो तो उन्हें आगे करके भजन, कीर्तन का क्रम चलाया जा सकता है। एक दो प्रथम बार बोले अन्य जो ठीक तरह बोल सकें। दूसरी बार दुहरायें। जिनके कंठ साथ मिलकर नहीं चलते वे चुप रहें और यह मन ही मन गीत दुहरायें इस प्रकार सहगान कीर्तन चल सकता है। भजन सभी ऐसे प्रेरणाप्रद होने चाहिए जो इस प्रयोजन को बदल देते हों, जिनके लिए ये आयोजन बुलाये जा रहे हैं। निरर्थक, अप्रासंगिक गाने-बजाने में समय नहीं गंवाया जाना चाहिए। प्रेरणाप्रद भजनों के संग्रह इन्हीं दिनों शान्ति कुंज से प्रकाशित भी किये जा रहे हैं। उनसे तथा युग साहित्य से, अपनी पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं में से जो उपयुक्त लगें उन्हें चुना जा सकता है।
साप्ताहिक सत्संगों के पांच क्रम हैं (1) चौबीस बार गायत्री मंत्र का सामुहिक स्वर पाठ (2) कन्याओं द्वारा संक्षिप्त गायत्री यज्ञ (3) सहगान, कीर्तन, भजन, संगीत (4) प्रवचन प्रशिक्षण (5) पुस्तकालय क्रम। परिवार साहित्य का देना वापस लेना। यह पांचों ही उपक्रम एक से एक महत्वपूर्ण है। इसलिये इन सभी पर समुचित ध्यान देना चाहिए और उनको आकर्षक एवं प्रेरणाप्रद बनाना चाहिए। उपेक्षापूर्वक चिन्ह पूजा करते रहने से तो अच्छे कार्यक्रम भी नीरस हो जाते हैं और सम्मिलित होने वाले उनमें पहुंचने की उपेक्षा करने लगते हैं। ऐसी स्थिति न आने पावे इसके लिए पहले से ही आवश्यक तैयारी हो।
इन सत्संगों का स्वरूप धार्मिक रखा जाना चाहिए। इसी से उसमें श्रद्धा रहेगी। महिलाओं का मर्मस्थल श्रद्धासिक्त हैं, उसे विकसित करने के लिए धार्मिक वातावरण रहना जरूरी है। कोरी लेक्चर बाजी आरम्भ कर दी जायगी तो कुछ वक्ताओं के गले की खुजली भले ही मिटती रहे, श्रद्धासिक्त वातावरण न बन सकेगा। उसके बिना ऐसा आधार खड़ा न हो सकेगा जो प्रवाह में परिवर्तन करने जैसे कठिन कार्य को सम्पन्न कर सके। गायत्री और यज्ञ भारतीय संस्कृति के माता पिता हैं। उनमें भौतिक और आत्मिक प्रगति के समस्त तत्व बीज रूप से विद्यमान है। गायत्री सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री और यज्ञ सत्प्रवृत्तियों का उद्गम है। इन दोनों को प्रतीक ध्वज के रूप साथ लेकर चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता भरने के लक्ष्य तक पहुंचना है। इस युग का प्रज्ञावतार गायत्री मन्त्र है। उसकी प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने के लिए जो पुण्य पुरुषार्थ करना पड़ेगा वही युग यज्ञ है। अभियान में इन दोनों को अविच्छिन्न रूप से जोड़कर रखा गया है, जिससे धर्मधारणा का परिपोषण भी होता है और दिशा निर्धारण भी। गायत्री और यज्ञ की व्याख्या करते हुए भारतीय तत्वज्ञान और धर्म के हर पक्ष को सही रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। निकट भविष्य में मानवी दृष्टिकोण का परिष्कार जिस आधार पर होना है उसमें गायत्री मन्त्र में सन्निहित बीज सूत्रों का ही आश्रय लेना पड़ेगा। इसी प्रकार व्यक्ति को यज्ञीय जीवन जीने के लिए और समाज की यज्ञीय परम्परा अपनाने के लिए सहमत किया जायगा। अस्तु उन मूलभूत आधारों को साथ लेकर चलना होगा। साप्ताहिक आयोजनों का स्वरूप धार्मिक बनाये रहना अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण है। महिला कल्याण के नाम पर चल रही खर्चीली व्यवस्था के परिणामों का पर्यवेक्षण करके देखा जा सकता है कि उन प्रयासों को कितनी सफलता मिली। उच्च स्तरीय प्रशिक्षण को गले उतारने में धार्मिकता का समावेश होना कितना आवश्यक है, इसे तर्क से ही समझाया जा सके। अनुभव से जाना जा सकता है कि यही तरीका मिशन के उच्चस्तरीय प्रयोजन की पूर्ति में सफल सिद्ध हो सकता है। श्रद्धा के साथ प्रेरणा, प्रेरणा के साथ क्रिया को मिला देने यह प्रक्रिया बन जाती है जिसे किसी भी प्रयोजन में सफलता प्रस्तुत करते देखा जा सके। अस्तु परिवार निर्माण को सामाजिक हलचल न बनाया जाय। उसके मूल में धर्म श्रद्धा का समावेश रखा जाय तो ही काम चलेगा। परिवार में आदर्शों के प्रति कर्तव्यों के प्रति, उत्तरदायित्वों के प्रति सघन श्रद्धा बनी और बढ़ी-चढ़ी रहेगी तो ही उच्च स्तरीय रीति-नीति अपनाने और सुसंस्कृत बनाने में सफल हो सकेंगे। अन्यथा ऐसे ही शिक्षा व्यवस्था का प्रहसन चलता रहेगा। अन्तःकरण में जमी हुई कुसंस्कारिता इतने भर से दूर न हो सकेगी। उसे हटा सकना तो जिस सघन श्रद्धा का काम है उसी परिपक्व और परिष्कृत बनाने के लिए साप्ताहिक सत्संगों में प्रयत्न चलने चाहिये। सामूहिक गायत्री पाठ और अग्निहोत्र की प्रक्रिया में प्रायः एक डेढ़ घण्टा लग सकता है। तो भी उसे आधारशिला जमाने की दृष्टि से आवश्यक माना जाना चाहिए। नव निर्माण में गायत्री जन-जन की उपास्य होगी और यज्ञ को गतिविधियों का उद्गम माना जायेगा अस्तु उनका परिचय, स्वरूप, कृत्य एवं विधान हर किसी को विदित होना चाहिए, प्रत्येक शुभ कार्य के आरम्भ में इन दोनों को सर्वभौम मंगलाचरण के रूप में प्रयुक्त किया जाना है। संक्षेप करना हो तो इन दोनों कृत्यों को सवा डेढ़ घण्टे की अपेक्षा थोड़ी काट छांट और गति तीव्र करके एक घण्टे में भी पूरा किया जा सकता है। अनुभव अभ्यास की दृष्टि से भी मंगलाचरणों की प्रक्रिया सम्मिलित महिलाओं के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी, समय-समय पर इसी आधार पर वे घर में किसी भी अवसर पर यह छोटा, सस्ता एवं भावनाओं प्रेरणाओं से भरा-पूरा धर्मानुष्ठान स्वयं ही कर सकती हैं।
मिल-जुलकर चौबीस बार गायत्री मन्त्र सस्वर गाने में ध्यान यही रखा जाना चाहिए कि जो बोलें शुद्ध साथ बोलें, स्वर ऊंचा-नीचा न करें, आगे-पीछे न रहें। स्वर साथ-साथ चले इसके लिए बाजों का प्रयोग किया जा सके तो समस्वरता रहेगी। जो शुद्ध न बोल सकें वे मौन वाणी में मन ही मन साथ मंत्रोच्चार कर सकती हैं। गायत्री यज्ञ एक घण्टा में पूरा हो इसके लिए विधि-विधान में थोड़ी कमी करके ऐसे सत्संग प्रयोजनों के लिए छोटी पद्धति ‘‘संक्षिप्त गायत्री हवन विधि’’ पहले से ही छपी हुई है। यह मथुरा में मिलती है। मूल्य अस्सी पैसा है। उसकी अधिक प्रतियां मंगाली जांय तथा सत्संग की सभी शिक्षित महिलाएं उसे सामने रखकर सभी मन्त्र बोल सकें और यज्ञ कराने की विधि व्यवस्था में अभ्यस्त हो सकें। शुद्ध उच्चारण की कक्षाएं लगाई जा सकती हैं। अभियान की पारिवारिक गोष्ठियों में अग्निहोत्र का कार्यक्रम निश्चित रूप से रहता है इसलिए सदस्यों को उसका अभ्यास रहना चाहिए।
हवन में कितनी ही वस्तुएं काम में आती हैं। इनकी व्यवस्था शाखा की ओर से जुटा लेनी चाहिए समिधा सामग्री, घी पूजा सामग्री का खर्च भी शाखा ही करें। आहुतियों पर कन्याएं ही बिठाई जांय और एक ही पारी की जाय। कन्याएं पीली धोती पहनें अन्य महिलाएं आहुतियों पर न बैठें। अन्यथा सारा समय उसी काम में लग जाएगा। साप्ताहिक यज्ञ कम समय में और कम खर्च में पूरे होते रहें इसलिए उपरोक्त व्यवस्था ही ठीक पड़ती है। कुण्ड सीमेन्ट का ढला हो तो लाने ले जाने में सुविधाजनक रहेगा ऐसे तो मिट्टी या बालू की वेदी पानी के सहारे बनाई जा सकती है और उसे चौक पूरने जैसी कलाकारिता से सुन्दर आकर्षण बनाया जा सकता है।
संगीत सहगान के सम्बन्ध में पहले ही कहा जा चुका है। अब प्रवचन का प्रसंग आता है। आरम्भिक दिनों से परिवार निर्माण की आवश्यकता, महत्ता एवं प्रक्रिया बताने के सम्बन्ध में ही प्रवचनों की श्रृंखला चलेगी। साथ-साथ संगठन, सत्संग का स्वरूप समझाया जायेगा। यह अध्याय जब पूरा होने लगे तो परिवारों में पंचशीलों की प्रतिष्ठापना, घरों में धार्मिक वातावरण एवं प्रेरक आयोजनों के सम्बन्ध में समय-समय पर संक्षेप में अथवा विस्तारपूर्वक जानकारियां इन प्रवचनों के माध्यम से जाती रहती हैं। इन कार्यक्रमों के फलस्वरूप क्या प्रगति हो सकी, क्या सुधार परिवर्तन सम्भव हुए इन चर्चाओं को भी प्रवचनों का एक विषय बनाया जा सकता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक अनेकों प्रसंग ऐसे हो सकते हैं, जिनका उल्लेख करते हुए महिला जागरण एवं परिवार निर्माण की विचारधारा को फलदायी सिद्ध किया जा सकता है। ढूंढ़ते रहने पर कुशल वक्ताओं को महिला जागृति पत्रिका के पिछले अंकों से भी इतनी सामग्री उपलब्ध हो सकती है जिसके चुने हुए स्थल यदि पढ़कर सुना दिये जांय तो भी प्रवचन का उद्देश्य भली प्रकार पूरा हो सकता है। निजी विचार व्यक्त करके जितना प्रभाव उपस्थित लोगों पर डाला जा सकता है, उससे कहीं अधिक पत्रिका में छपे लाखों सन्निहित तथ्यों का उसके लेखन सूत्र की उत्कृष्टताओं का हवाला देते हुए सुना देने भर से हो सकता है।
प्रवचन के लिए ऐसी महिलाएं तैयार की जांय जो सुशिक्षित होने के साथ-साथ व्यक्तित्व स्तर, एवं चरित्र की दृष्टि से भी भारी भरकम हों। क्या कहा गया यह महत्वपूर्ण है किन्तु किसने कहा, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्रवचन एक ही उद्देश्य को लेकर होने चाहिए जागरण एवं परिवार निर्माण। इस मर्यादा के अन्तर्गत रहकर ही जो कहना हो सो ही साप्ताहिक सत्संगों में विचारपूर्वक कहा जाना चाहिए। ऐसे ही कोई कुछ भी बोलने लगे इसकी छूट नहीं होनी चाहिए।
प्रवचन के लिए ऐसी महिलाएं ढूंढ़ी जाएं जिनकी झिझक बोलने के सम्बन्ध में खुली हुई हो। कुछ दिनों प्रवचनों का सिलसिला अभियान का उद्देश्य; स्वरूप एवं कार्यक्रम समझाने तथा उसमें सम्मिलित होने के अनुरोध को लिए हुए होना चाहिए। इसके लिए प्रस्तुत पुस्तक में पर्याप्त सामग्री है, इसी की व्याख्या की जा सकती है। ऐसा न बन पड़े तो महिला जागृति अभियान पत्रिका के लेखों को सुनाकर भी काम चलाया जा सकता है। प्रवचनों का उद्देश्य अभियान के प्रति आस्थाएं जगाना होना चाहिए। साप्ताहिक सत्संगों का दिन गुरुवार उपयुक्त है। रविवार का दिन छुट्टी रहने से घर का काम-काज स्त्रियों के लिए बढ़ जाता है। उस दिन अवसर कम मिलता है। इसलिए गुरुवार उत्तम है। समय तीसरे पहर दो से पांच बजे तक—तीन घन्टे। असुविधा हो तो दो घन्टे भी इस बीच रखा जा सकता है। इससे कम नहीं।
इन पांचों कार्यक्रमों का ढर्रा ठीक तरह चलने लगे इसी के अनुरूप रेखा पहले से ही बना लेनी चाहिए। पुस्तकालय आवश्यक है। इसके लिए महिला जागृति पत्रिकाएं जिनके पास आती हैं उनसे संग्रह करके इन्हें महिला पुस्तकालय में प्रयुक्त किया जाय। अंग फटने न पाएं इसलिए उन पर मोटे बांसी कागज चिपका कर मजबूत आवरण बना लिया जाय। इन्हीं का रजिस्टर बना लिया जाय। सत्संग के अवसर पर इन्हें पढ़ने देने का, वापिस लेने का क्रम चलाया जाय। आरम्भ में इतना ही करना पड़ेगा। पीछे तो परिवार निर्माण सम्बन्धी पुस्तकें भी छपने लगेंगी। अभी कहीं से इस प्रकार की उत्तम पुस्तकें उपलब्ध हो सकें तो उनका उपयोग भी किया जा सकता है। पुस्तकालय का उत्तरदायित्व किसी उपयुक्त महिला को सौंपा जाय। वह हर सत्संग में पुस्तकें साथ लेकर आया करें और जाते समय ले जाया करें। स्टॉक घर रखें। देने और वापिस लेने का हिसाब रखें। यह प्रचार शाखा संगठन के स्तर पर भी चलाए जा सकते हैं और सदस्यों की संख्या अधिक हो तो टोली के स्तर पर भी चलाए जा सकते हैं। अच्छा यही है कि शाखा सदस्य टोलियों के रूप में ही मिल-जुलकर काम करें। एकत्रित समुदाय को मिल-जुलकर महिलाओं के नेतृत्व में ऐसी टोलियां गठित कर देनी चाहिए, जो अपने सम्पर्क क्षेत्र में अभियान को अग्रगामी बनाने का उत्तरदायित्व संभालें। मूल इकाई यह टोलियां ही होंगी क्योंकि महिलाओं के नेतृत्व में चलने वाले आन्दोलनों को मुहल्लों की इकाइयों में ही संगठित करना व्यवहारिक है। वे बहुत बड़े क्षेत्र में भाग-दौड़ नहीं कर सकतीं। बड़े नगरों में ये गली-मुहल्लों को ही संभाल सकती हैं। छोटे गांवों में पूरे गांव का भी एक संगठन हो सकता है। जिनकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति इस दिशा में कुछ करने की हो उन्हीं को आगे रखा जाय। किसी की सम्पन्नता, शिक्षा या प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए संचालक का भार लाद देना और न स्वयं करना न दूसरों को करने देना जैसी स्थिति उत्पन्न करना व्यर्थ है। जन सम्पर्क साधना ही इन टोलियों का मुख्य काम है। जो वैसा कर सकें उन्हीं महिलाओं को नेतृत्व सौंपा जाय। इन महिला शाखाओं की ‘सदस्या’ महिलाएं रहेंगीं और पुरुषों को सभ्य कहा जायगा। समय-समय पर उनको संयुक्त मीटिंग भी होती रहेंगी। पर आमतौर से महिलाएं ही अपने साप्ताहिक सत्संग चलायेंगी। पुरुष परोक्ष रूप से अपने-अपने घरों की महिलाओं को उसमें सम्मिलित होने एवं समय देने की प्रेरणा दिया करेंगे। व्यवस्था बनाने में, साधन जुटाने में भी उनका विशिष्ट योगदान रहेगा। नाम महिलाओं का हो और काम भी उन्हीं को सौंपा जाय। पुरुष पर्दे के पीछे रहकर अभियान को प्राणवान और व्यापक बनाने के लिए इतना भावभरा प्रयास करें कि महिलाओं को किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव न हो। खाद्य-पदार्थ जुटाना पुरुषों का काम होता है, भोजन पकाना और खिलाना महिलाओं का। परिवार निर्माण अभियान में भी ठीक प्रकार का संयुक्त सहयोग चलना चाहिए।
टोली की एक संचालिका हो—चार अन्य सहयोगिनियों को मिलाकर एक मन्त्रिमण्डल बना दिया जाय। पांच की समिति पर्याप्त है सदस्याओं की संख्या कितनी ही हो सकती है। सभ्य सहयोगियों का नाम भी नोट रहे। समयदान ही सदस्यों की फीस है। साप्ताहिक सत्संग का आयोजन हर टोली अपने-अपने कार्यक्षेत्र में किया करेगी। एक ही स्थान पर होते रहें या अदल-बदलकर यह स्थानीय सुविधा पर निर्भर है। टोली का प्रथम कार्य साप्ताहिक सत्संगों की व्यवस्था बनाना है। जो महिलाएं उनमें नियमित रूप से सम्मिलित होंगी वे पक्की सदस्याएं मानी जायेंगी। आरम्भ में संकोचवश सभी न आ पायें, उनके घर वाले अड़चन उत्पन्न करें, तो भी निराश नहीं होना चाहिए। प्रयत्न निरन्तर जारी रखा जाय कि साप्ताहिक सत्संगों में विचारशील महिलाओं की उपस्थिति अधिकाधिक होने लगे। इस कार्य में शाखा के पुरुष सदस्यों का सहयोग अधिक प्रभावी हो सकती हैं, वे अपने पड़ौसी परिचितों को अपनी महिलाओं को साप्ताहिक सत्संगों में भेजने के लिए प्रेरणा देकर इस कार्य को अधिक सरल बना सकते हैं। महिलाओं की टोलियां आरम्भ में सत्संग का निमन्त्रण देने और बुलाने का प्रबन्ध करने का प्रयास करें। जिस प्रकार विवाह शादियों में बुलावा देने और फिर समय पर स्मरण दिलाने, साथ लाने का प्रबन्ध किया जाता है। सत्संगों में अधिक उपस्थिति होने लगे इसके लिए प्रायः इसी स्तर के प्रयत्न करने होंगे।
इस प्रकार टोलियां गठित कर व्यक्तिगत रूप से, जोड़ियां बनाकर परिवार निर्माण के निर्धारित कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना चाहिए। प्रचार उपकरण, टेपरिकार्डर, लाउडस्पीकर और स्लाइड प्रोजेक्टर सर्वसाधारण तक मिशन का सन्देश पहुंचाने में पर्याप्त सहायक सिद्ध हो सकते हैं। इस अभियान को आगे बढ़ाने में प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को भाग लेना चाहिए। जिन देवियों में उत्साह है, जिन्हें थोड़ा भी अवसर रहता है और घरवालों का समर्थन प्राप्त है उसके लिए इस युग प्रवर्तक प्रक्रिया में सम्मिलित होने और अपने समीपवर्ती क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकने का श्रेय मिल सकता है। ऐसी उत्साही महिलाओं को प्रशिक्षण देने के लिए शान्तिकुंज में एक-एक महीने के सत्र आरम्भ हो गये हैं। इनमें यह कार्यपद्धति विशेष रूप से सिखाई जायगी, जिसके आधार पर परिवार निर्माण प्रयास में पग-पग पर आने वाली अनेकानेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना सम्भव हो सके। नेतृत्व के सभी गुण विकसित करने और शिक्षार्थी की प्रतिभा में प्रखरता उत्पन्न करने के लिए इस एक महीने के प्रशिक्षण हर सम्भव प्रयत्न किया जायगा।
महिला जागृति अभियान की सफलता इस कसौटी पर आंकी जाएगी कि वह जागृत महिलाएं कितनी तैयार कर सका अथवा उसने महिला वर्ग में कितनी जागृति उत्पन्न की? हमें यह देखना होगा कि अब तक के प्रयासों में कितनी सफलता मिली? इसकी एक ही कसौटी है कि परिजनों में वह उमंग उत्पन्न हो जिसके आधार पर प्रकृति प्रदान उत्तरदायित्व और समय की पुकार को पूरा करने के लिए तत्परतापूर्वक प्रयास करने का निश्चय किया। जहां यह उमंग उत्पन्न हो जाए वहां महिला जागृति के लिए, परिवार निर्माण के लिए आवश्यक क्रियाकलाप आरम्भ होना सुनिश्चित है।
जो संगठन की उपयोगिता समझते हैं वे अभीष्ट उद्देश्यों के लिए आयोजन करने का महत्व भी स्वीकार करते हैं। युग निर्माण परिवार को इसी कारण इतना विस्तृत होने का अवसर मिला है कि उसके द्वारा घरों में जानकारों के माध्यम से परिवार गोष्ठियों, मुहल्ले गांवों में पर्व आयोजनों के लिए जन सभाएं तथा यज्ञ आयोजनों के साथ जुड़ते हुए युग निर्माण सम्मेलनों द्वारा लोक चेतना उत्पन्न हो जाती है। महिला जागरण के लिए भी ऐसे ही आयोजनों की सुनियोजित श्रृंखला चलती चाहिए। इस दिशा में प्रथम प्रयास साप्ताहिक सत्संगों के रूप में ही हो सकता है।
सामूहिक चेतना उत्पन्न करना ही नहीं, परिवार निर्माण के लिए आवश्यक वातावरण बनना एवं प्रभावी प्रशिक्षण देना भी इन साप्ताहिक सत्संगों का उद्देश्य है हर महिला से अलग सम्पर्क साधना और उसे अलग-अलग पूरी योजना समझाना कठिन ही नहीं असम्भव भी है। तरीका एक ही है कि अधिकाधिक संख्या में महिलाएं एकत्रित हों और वे अभिष्ट उद्देश्य को समझने तथा प्रक्रिया को कार्यान्वित करने का और उपाय जानने का उपयुक्त प्रशिक्षण प्राप्त करें। यह कार्य सामूहिक आयोजनों के बिना हो ही नहीं सकता। इस प्रकार की आयोजन श्रृंखला में साप्ताहिक सत्संग ही सरल, नियमित और सुनियोजित रीति से चल सकते हैं। अस्तु उन्हें महत्व एवं प्रोत्साहन ही नहीं मिलना चाहिए, सफल बनाने के लिए प्रबल प्रयत्न भी चलना चाहिए।
महिला जागरण शाखाओं की सदस्यता फीस एक ही है साप्ताहिक सत्संगों में सम्मिलित होना। इसके लिए आरम्भिक संगठन कर्ताओं को पूरा-पूरा प्रयास यह करना चाहिए कि अपने मित्र, पड़ौसियों को परिवार निर्माण की आवश्यकता तथा प्रक्रिया समझने के साथ-साथ जो सहमत प्रभावित दीखें उन्हें इसके लिए भी तैयार करें कि अपने घरों की महिलाएं सत्संग में भेजा करें जिन महिलाओं से स्वाभाविक रूप से मिलना-जुलना होता रहता है जो अपने पड़ौस परिचय की हैं, जिनसे बात अपने में कोई अतिरिक्त प्रयत्न नहीं करना पड़ता उन्हें इसके लिए कहा जाय कि सत्संगों में स्वयं आया करें घरों की महिलाएं तो अनिवार्य रूप से भेजनी चाहिए। स्वयं आना-कानी करेंगे तो दूसरों से अनुरोध करते कैसे बनेगा? अनुकरण के लिए लोग तभी तैयार होते हैं जब अग्रगामी लोग स्वयं उस प्रतिपादन को क्रियान्वित करते हुए उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। युग निर्माण परिवार की महिलाएं तो केवल उपस्थित होती ही रहें वरन् अन्य अनेकों को घसीट कर लाने की जिम्मेदारी भी अनुभव करती रहें। साधारण सदस्यों में से कर्मठ कार्यकर्त्री कौन है। उसका एक परिचय यह हो सकता है किसने कितना सम्पर्क साधा और कौन कितना उपस्थित बढ़ाने में सफल हुई। इस कार्य में नव प्रवृत्तियां या लड़कियां भी आगे आयें ऐसी महिलाएं अधिक सफल हो सकती हैं जो पास-पड़ौस में अक्सर आती-जाती रहती हैं। मन्दिरों, घाटों, कथाओं में अक्सर प्रौढ़ाएं एवं वृद्धाएं घूमने-फिरने का आनन्द लेने और धैर्य भावना का पोषण करने नित्य या कभी-कभी आती जाती रहती हैं। वहां अन्य महिलाएं भी पहुंचती हैं। ऐसे स्थानों पर सत्संग का महत्व बताने और उपस्थित होकर आनन्द लेने की बात कही जा सकती है। ऐसे अन्याय उपाय भी हो सकते हैं जिनके आधार पर उपस्थिति बढ़ती रहे। घटने न पाये।
स्पष्ट है कि सत्संगों का उद्देश्य महिलाओं का मानसिक विकास करने की दृष्टि से है। सामूहिक वातावरण में उनकी मनःस्थिति अभिष्ट प्रयोजन की दिशा में निश्चित रूप से मुड़ेगी। अस्तु उन्हें आकर्षण बनाया जाना भी आवश्यक है। रूखा, नीरस, थकाने वाला उपदेश क्रम प्रायः अरुचि कर हो जाता है। इसलिए आयोजनों का स्वरूप ऐसा होना चाहिए, जिसमें आकर्षण भी बना रहे और प्रशिक्षण का अभिष्ट उद्देश्य भी पूरा होता रहे। इस सन्दर्भ में गीत-वाद्य का प्रबन्ध करने का प्रयास करना चाहिए। महिला सदस्याओं में से यदि किन्हीं का स्वर मीठा हो और बजाने का थोड़ा अभ्यास हो तो उन्हें आगे करके भजन, कीर्तन का क्रम चलाया जा सकता है। एक दो प्रथम बार बोले अन्य जो ठीक तरह बोल सकें। दूसरी बार दुहरायें। जिनके कंठ साथ मिलकर नहीं चलते वे चुप रहें और यह मन ही मन गीत दुहरायें इस प्रकार सहगान कीर्तन चल सकता है। भजन सभी ऐसे प्रेरणाप्रद होने चाहिए जो इस प्रयोजन को बदल देते हों, जिनके लिए ये आयोजन बुलाये जा रहे हैं। निरर्थक, अप्रासंगिक गाने-बजाने में समय नहीं गंवाया जाना चाहिए। प्रेरणाप्रद भजनों के संग्रह इन्हीं दिनों शान्ति कुंज से प्रकाशित भी किये जा रहे हैं। उनसे तथा युग साहित्य से, अपनी पत्रिकाओं में प्रकाशित कविताओं में से जो उपयुक्त लगें उन्हें चुना जा सकता है।
साप्ताहिक सत्संगों के पांच क्रम हैं (1) चौबीस बार गायत्री मंत्र का सामुहिक स्वर पाठ (2) कन्याओं द्वारा संक्षिप्त गायत्री यज्ञ (3) सहगान, कीर्तन, भजन, संगीत (4) प्रवचन प्रशिक्षण (5) पुस्तकालय क्रम। परिवार साहित्य का देना वापस लेना। यह पांचों ही उपक्रम एक से एक महत्वपूर्ण है। इसलिये इन सभी पर समुचित ध्यान देना चाहिए और उनको आकर्षक एवं प्रेरणाप्रद बनाना चाहिए। उपेक्षापूर्वक चिन्ह पूजा करते रहने से तो अच्छे कार्यक्रम भी नीरस हो जाते हैं और सम्मिलित होने वाले उनमें पहुंचने की उपेक्षा करने लगते हैं। ऐसी स्थिति न आने पावे इसके लिए पहले से ही आवश्यक तैयारी हो।
इन सत्संगों का स्वरूप धार्मिक रखा जाना चाहिए। इसी से उसमें श्रद्धा रहेगी। महिलाओं का मर्मस्थल श्रद्धासिक्त हैं, उसे विकसित करने के लिए धार्मिक वातावरण रहना जरूरी है। कोरी लेक्चर बाजी आरम्भ कर दी जायगी तो कुछ वक्ताओं के गले की खुजली भले ही मिटती रहे, श्रद्धासिक्त वातावरण न बन सकेगा। उसके बिना ऐसा आधार खड़ा न हो सकेगा जो प्रवाह में परिवर्तन करने जैसे कठिन कार्य को सम्पन्न कर सके। गायत्री और यज्ञ भारतीय संस्कृति के माता पिता हैं। उनमें भौतिक और आत्मिक प्रगति के समस्त तत्व बीज रूप से विद्यमान है। गायत्री सद्ज्ञान की अधिष्ठात्री और यज्ञ सत्प्रवृत्तियों का उद्गम है। इन दोनों को प्रतीक ध्वज के रूप साथ लेकर चिन्तन और चरित्र में उत्कृष्टता भरने के लक्ष्य तक पहुंचना है। इस युग का प्रज्ञावतार गायत्री मन्त्र है। उसकी प्रेरणाओं को क्रियान्वित करने के लिए जो पुण्य पुरुषार्थ करना पड़ेगा वही युग यज्ञ है। अभियान में इन दोनों को अविच्छिन्न रूप से जोड़कर रखा गया है, जिससे धर्मधारणा का परिपोषण भी होता है और दिशा निर्धारण भी। गायत्री और यज्ञ की व्याख्या करते हुए भारतीय तत्वज्ञान और धर्म के हर पक्ष को सही रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। निकट भविष्य में मानवी दृष्टिकोण का परिष्कार जिस आधार पर होना है उसमें गायत्री मन्त्र में सन्निहित बीज सूत्रों का ही आश्रय लेना पड़ेगा। इसी प्रकार व्यक्ति को यज्ञीय जीवन जीने के लिए और समाज की यज्ञीय परम्परा अपनाने के लिए सहमत किया जायगा। अस्तु उन मूलभूत आधारों को साथ लेकर चलना होगा। साप्ताहिक आयोजनों का स्वरूप धार्मिक बनाये रहना अत्यन्त दूरदर्शितापूर्ण है। महिला कल्याण के नाम पर चल रही खर्चीली व्यवस्था के परिणामों का पर्यवेक्षण करके देखा जा सकता है कि उन प्रयासों को कितनी सफलता मिली। उच्च स्तरीय प्रशिक्षण को गले उतारने में धार्मिकता का समावेश होना कितना आवश्यक है, इसे तर्क से ही समझाया जा सके। अनुभव से जाना जा सकता है कि यही तरीका मिशन के उच्चस्तरीय प्रयोजन की पूर्ति में सफल सिद्ध हो सकता है। श्रद्धा के साथ प्रेरणा, प्रेरणा के साथ क्रिया को मिला देने यह प्रक्रिया बन जाती है जिसे किसी भी प्रयोजन में सफलता प्रस्तुत करते देखा जा सके। अस्तु परिवार निर्माण को सामाजिक हलचल न बनाया जाय। उसके मूल में धर्म श्रद्धा का समावेश रखा जाय तो ही काम चलेगा। परिवार में आदर्शों के प्रति कर्तव्यों के प्रति, उत्तरदायित्वों के प्रति सघन श्रद्धा बनी और बढ़ी-चढ़ी रहेगी तो ही उच्च स्तरीय रीति-नीति अपनाने और सुसंस्कृत बनाने में सफल हो सकेंगे। अन्यथा ऐसे ही शिक्षा व्यवस्था का प्रहसन चलता रहेगा। अन्तःकरण में जमी हुई कुसंस्कारिता इतने भर से दूर न हो सकेगी। उसे हटा सकना तो जिस सघन श्रद्धा का काम है उसी परिपक्व और परिष्कृत बनाने के लिए साप्ताहिक सत्संगों में प्रयत्न चलने चाहिये। सामूहिक गायत्री पाठ और अग्निहोत्र की प्रक्रिया में प्रायः एक डेढ़ घण्टा लग सकता है। तो भी उसे आधारशिला जमाने की दृष्टि से आवश्यक माना जाना चाहिए। नव निर्माण में गायत्री जन-जन की उपास्य होगी और यज्ञ को गतिविधियों का उद्गम माना जायेगा अस्तु उनका परिचय, स्वरूप, कृत्य एवं विधान हर किसी को विदित होना चाहिए, प्रत्येक शुभ कार्य के आरम्भ में इन दोनों को सर्वभौम मंगलाचरण के रूप में प्रयुक्त किया जाना है। संक्षेप करना हो तो इन दोनों कृत्यों को सवा डेढ़ घण्टे की अपेक्षा थोड़ी काट छांट और गति तीव्र करके एक घण्टे में भी पूरा किया जा सकता है। अनुभव अभ्यास की दृष्टि से भी मंगलाचरणों की प्रक्रिया सम्मिलित महिलाओं के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी, समय-समय पर इसी आधार पर वे घर में किसी भी अवसर पर यह छोटा, सस्ता एवं भावनाओं प्रेरणाओं से भरा-पूरा धर्मानुष्ठान स्वयं ही कर सकती हैं।
मिल-जुलकर चौबीस बार गायत्री मन्त्र सस्वर गाने में ध्यान यही रखा जाना चाहिए कि जो बोलें शुद्ध साथ बोलें, स्वर ऊंचा-नीचा न करें, आगे-पीछे न रहें। स्वर साथ-साथ चले इसके लिए बाजों का प्रयोग किया जा सके तो समस्वरता रहेगी। जो शुद्ध न बोल सकें वे मौन वाणी में मन ही मन साथ मंत्रोच्चार कर सकती हैं। गायत्री यज्ञ एक घण्टा में पूरा हो इसके लिए विधि-विधान में थोड़ी कमी करके ऐसे सत्संग प्रयोजनों के लिए छोटी पद्धति ‘‘संक्षिप्त गायत्री हवन विधि’’ पहले से ही छपी हुई है। यह मथुरा में मिलती है। मूल्य अस्सी पैसा है। उसकी अधिक प्रतियां मंगाली जांय तथा सत्संग की सभी शिक्षित महिलाएं उसे सामने रखकर सभी मन्त्र बोल सकें और यज्ञ कराने की विधि व्यवस्था में अभ्यस्त हो सकें। शुद्ध उच्चारण की कक्षाएं लगाई जा सकती हैं। अभियान की पारिवारिक गोष्ठियों में अग्निहोत्र का कार्यक्रम निश्चित रूप से रहता है इसलिए सदस्यों को उसका अभ्यास रहना चाहिए।
हवन में कितनी ही वस्तुएं काम में आती हैं। इनकी व्यवस्था शाखा की ओर से जुटा लेनी चाहिए समिधा सामग्री, घी पूजा सामग्री का खर्च भी शाखा ही करें। आहुतियों पर कन्याएं ही बिठाई जांय और एक ही पारी की जाय। कन्याएं पीली धोती पहनें अन्य महिलाएं आहुतियों पर न बैठें। अन्यथा सारा समय उसी काम में लग जाएगा। साप्ताहिक यज्ञ कम समय में और कम खर्च में पूरे होते रहें इसलिए उपरोक्त व्यवस्था ही ठीक पड़ती है। कुण्ड सीमेन्ट का ढला हो तो लाने ले जाने में सुविधाजनक रहेगा ऐसे तो मिट्टी या बालू की वेदी पानी के सहारे बनाई जा सकती है और उसे चौक पूरने जैसी कलाकारिता से सुन्दर आकर्षण बनाया जा सकता है।
संगीत सहगान के सम्बन्ध में पहले ही कहा जा चुका है। अब प्रवचन का प्रसंग आता है। आरम्भिक दिनों से परिवार निर्माण की आवश्यकता, महत्ता एवं प्रक्रिया बताने के सम्बन्ध में ही प्रवचनों की श्रृंखला चलेगी। साथ-साथ संगठन, सत्संग का स्वरूप समझाया जायेगा। यह अध्याय जब पूरा होने लगे तो परिवारों में पंचशीलों की प्रतिष्ठापना, घरों में धार्मिक वातावरण एवं प्रेरक आयोजनों के सम्बन्ध में समय-समय पर संक्षेप में अथवा विस्तारपूर्वक जानकारियां इन प्रवचनों के माध्यम से जाती रहती हैं। इन कार्यक्रमों के फलस्वरूप क्या प्रगति हो सकी, क्या सुधार परिवर्तन सम्भव हुए इन चर्चाओं को भी प्रवचनों का एक विषय बनाया जा सकता है। पौराणिक एवं ऐतिहासिक अनेकों प्रसंग ऐसे हो सकते हैं, जिनका उल्लेख करते हुए महिला जागरण एवं परिवार निर्माण की विचारधारा को फलदायी सिद्ध किया जा सकता है। ढूंढ़ते रहने पर कुशल वक्ताओं को महिला जागृति पत्रिका के पिछले अंकों से भी इतनी सामग्री उपलब्ध हो सकती है जिसके चुने हुए स्थल यदि पढ़कर सुना दिये जांय तो भी प्रवचन का उद्देश्य भली प्रकार पूरा हो सकता है। निजी विचार व्यक्त करके जितना प्रभाव उपस्थित लोगों पर डाला जा सकता है, उससे कहीं अधिक पत्रिका में छपे लाखों सन्निहित तथ्यों का उसके लेखन सूत्र की उत्कृष्टताओं का हवाला देते हुए सुना देने भर से हो सकता है।
प्रवचन के लिए ऐसी महिलाएं तैयार की जांय जो सुशिक्षित होने के साथ-साथ व्यक्तित्व स्तर, एवं चरित्र की दृष्टि से भी भारी भरकम हों। क्या कहा गया यह महत्वपूर्ण है किन्तु किसने कहा, यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। प्रवचन एक ही उद्देश्य को लेकर होने चाहिए जागरण एवं परिवार निर्माण। इस मर्यादा के अन्तर्गत रहकर ही जो कहना हो सो ही साप्ताहिक सत्संगों में विचारपूर्वक कहा जाना चाहिए। ऐसे ही कोई कुछ भी बोलने लगे इसकी छूट नहीं होनी चाहिए।
प्रवचन के लिए ऐसी महिलाएं ढूंढ़ी जाएं जिनकी झिझक बोलने के सम्बन्ध में खुली हुई हो। कुछ दिनों प्रवचनों का सिलसिला अभियान का उद्देश्य; स्वरूप एवं कार्यक्रम समझाने तथा उसमें सम्मिलित होने के अनुरोध को लिए हुए होना चाहिए। इसके लिए प्रस्तुत पुस्तक में पर्याप्त सामग्री है, इसी की व्याख्या की जा सकती है। ऐसा न बन पड़े तो महिला जागृति अभियान पत्रिका के लेखों को सुनाकर भी काम चलाया जा सकता है। प्रवचनों का उद्देश्य अभियान के प्रति आस्थाएं जगाना होना चाहिए। साप्ताहिक सत्संगों का दिन गुरुवार उपयुक्त है। रविवार का दिन छुट्टी रहने से घर का काम-काज स्त्रियों के लिए बढ़ जाता है। उस दिन अवसर कम मिलता है। इसलिए गुरुवार उत्तम है। समय तीसरे पहर दो से पांच बजे तक—तीन घन्टे। असुविधा हो तो दो घन्टे भी इस बीच रखा जा सकता है। इससे कम नहीं।
इन पांचों कार्यक्रमों का ढर्रा ठीक तरह चलने लगे इसी के अनुरूप रेखा पहले से ही बना लेनी चाहिए। पुस्तकालय आवश्यक है। इसके लिए महिला जागृति पत्रिकाएं जिनके पास आती हैं उनसे संग्रह करके इन्हें महिला पुस्तकालय में प्रयुक्त किया जाय। अंग फटने न पाएं इसलिए उन पर मोटे बांसी कागज चिपका कर मजबूत आवरण बना लिया जाय। इन्हीं का रजिस्टर बना लिया जाय। सत्संग के अवसर पर इन्हें पढ़ने देने का, वापिस लेने का क्रम चलाया जाय। आरम्भ में इतना ही करना पड़ेगा। पीछे तो परिवार निर्माण सम्बन्धी पुस्तकें भी छपने लगेंगी। अभी कहीं से इस प्रकार की उत्तम पुस्तकें उपलब्ध हो सकें तो उनका उपयोग भी किया जा सकता है। पुस्तकालय का उत्तरदायित्व किसी उपयुक्त महिला को सौंपा जाय। वह हर सत्संग में पुस्तकें साथ लेकर आया करें और जाते समय ले जाया करें। स्टॉक घर रखें। देने और वापिस लेने का हिसाब रखें। यह प्रचार शाखा संगठन के स्तर पर भी चलाए जा सकते हैं और सदस्यों की संख्या अधिक हो तो टोली के स्तर पर भी चलाए जा सकते हैं। अच्छा यही है कि शाखा सदस्य टोलियों के रूप में ही मिल-जुलकर काम करें। एकत्रित समुदाय को मिल-जुलकर महिलाओं के नेतृत्व में ऐसी टोलियां गठित कर देनी चाहिए, जो अपने सम्पर्क क्षेत्र में अभियान को अग्रगामी बनाने का उत्तरदायित्व संभालें। मूल इकाई यह टोलियां ही होंगी क्योंकि महिलाओं के नेतृत्व में चलने वाले आन्दोलनों को मुहल्लों की इकाइयों में ही संगठित करना व्यवहारिक है। वे बहुत बड़े क्षेत्र में भाग-दौड़ नहीं कर सकतीं। बड़े नगरों में ये गली-मुहल्लों को ही संभाल सकती हैं। छोटे गांवों में पूरे गांव का भी एक संगठन हो सकता है। जिनकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति इस दिशा में कुछ करने की हो उन्हीं को आगे रखा जाय। किसी की सम्पन्नता, शिक्षा या प्रतिष्ठा को ध्यान में रखते हुए संचालक का भार लाद देना और न स्वयं करना न दूसरों को करने देना जैसी स्थिति उत्पन्न करना व्यर्थ है। जन सम्पर्क साधना ही इन टोलियों का मुख्य काम है। जो वैसा कर सकें उन्हीं महिलाओं को नेतृत्व सौंपा जाय। इन महिला शाखाओं की ‘सदस्या’ महिलाएं रहेंगीं और पुरुषों को सभ्य कहा जायगा। समय-समय पर उनको संयुक्त मीटिंग भी होती रहेंगी। पर आमतौर से महिलाएं ही अपने साप्ताहिक सत्संग चलायेंगी। पुरुष परोक्ष रूप से अपने-अपने घरों की महिलाओं को उसमें सम्मिलित होने एवं समय देने की प्रेरणा दिया करेंगे। व्यवस्था बनाने में, साधन जुटाने में भी उनका विशिष्ट योगदान रहेगा। नाम महिलाओं का हो और काम भी उन्हीं को सौंपा जाय। पुरुष पर्दे के पीछे रहकर अभियान को प्राणवान और व्यापक बनाने के लिए इतना भावभरा प्रयास करें कि महिलाओं को किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव न हो। खाद्य-पदार्थ जुटाना पुरुषों का काम होता है, भोजन पकाना और खिलाना महिलाओं का। परिवार निर्माण अभियान में भी ठीक प्रकार का संयुक्त सहयोग चलना चाहिए।
टोली की एक संचालिका हो—चार अन्य सहयोगिनियों को मिलाकर एक मन्त्रिमण्डल बना दिया जाय। पांच की समिति पर्याप्त है सदस्याओं की संख्या कितनी ही हो सकती है। सभ्य सहयोगियों का नाम भी नोट रहे। समयदान ही सदस्यों की फीस है। साप्ताहिक सत्संग का आयोजन हर टोली अपने-अपने कार्यक्षेत्र में किया करेगी। एक ही स्थान पर होते रहें या अदल-बदलकर यह स्थानीय सुविधा पर निर्भर है। टोली का प्रथम कार्य साप्ताहिक सत्संगों की व्यवस्था बनाना है। जो महिलाएं उनमें नियमित रूप से सम्मिलित होंगी वे पक्की सदस्याएं मानी जायेंगी। आरम्भ में संकोचवश सभी न आ पायें, उनके घर वाले अड़चन उत्पन्न करें, तो भी निराश नहीं होना चाहिए। प्रयत्न निरन्तर जारी रखा जाय कि साप्ताहिक सत्संगों में विचारशील महिलाओं की उपस्थिति अधिकाधिक होने लगे। इस कार्य में शाखा के पुरुष सदस्यों का सहयोग अधिक प्रभावी हो सकती हैं, वे अपने पड़ौसी परिचितों को अपनी महिलाओं को साप्ताहिक सत्संगों में भेजने के लिए प्रेरणा देकर इस कार्य को अधिक सरल बना सकते हैं। महिलाओं की टोलियां आरम्भ में सत्संग का निमन्त्रण देने और बुलाने का प्रबन्ध करने का प्रयास करें। जिस प्रकार विवाह शादियों में बुलावा देने और फिर समय पर स्मरण दिलाने, साथ लाने का प्रबन्ध किया जाता है। सत्संगों में अधिक उपस्थिति होने लगे इसके लिए प्रायः इसी स्तर के प्रयत्न करने होंगे।
इस प्रकार टोलियां गठित कर व्यक्तिगत रूप से, जोड़ियां बनाकर परिवार निर्माण के निर्धारित कार्यक्रमों को आगे बढ़ाना चाहिए। प्रचार उपकरण, टेपरिकार्डर, लाउडस्पीकर और स्लाइड प्रोजेक्टर सर्वसाधारण तक मिशन का सन्देश पहुंचाने में पर्याप्त सहायक सिद्ध हो सकते हैं। इस अभियान को आगे बढ़ाने में प्रत्येक विचारशील व्यक्ति को भाग लेना चाहिए। जिन देवियों में उत्साह है, जिन्हें थोड़ा भी अवसर रहता है और घरवालों का समर्थन प्राप्त है उसके लिए इस युग प्रवर्तक प्रक्रिया में सम्मिलित होने और अपने समीपवर्ती क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकने का श्रेय मिल सकता है। ऐसी उत्साही महिलाओं को प्रशिक्षण देने के लिए शान्तिकुंज में एक-एक महीने के सत्र आरम्भ हो गये हैं। इनमें यह कार्यपद्धति विशेष रूप से सिखाई जायगी, जिसके आधार पर परिवार निर्माण प्रयास में पग-पग पर आने वाली अनेकानेक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करना सम्भव हो सके। नेतृत्व के सभी गुण विकसित करने और शिक्षार्थी की प्रतिभा में प्रखरता उत्पन्न करने के लिए इस एक महीने के प्रशिक्षण हर सम्भव प्रयत्न किया जायगा।
महिला जागृति अभियान की सफलता इस कसौटी पर आंकी जाएगी कि वह जागृत महिलाएं कितनी तैयार कर सका अथवा उसने महिला वर्ग में कितनी जागृति उत्पन्न की? हमें यह देखना होगा कि अब तक के प्रयासों में कितनी सफलता मिली? इसकी एक ही कसौटी है कि परिजनों में वह उमंग उत्पन्न हो जिसके आधार पर प्रकृति प्रदान उत्तरदायित्व और समय की पुकार को पूरा करने के लिए तत्परतापूर्वक प्रयास करने का निश्चय किया। जहां यह उमंग उत्पन्न हो जाए वहां महिला जागृति के लिए, परिवार निर्माण के लिए आवश्यक क्रियाकलाप आरम्भ होना सुनिश्चित है।