Wednesday 01, January 2025
शुक्ल पक्ष द्वितीया, पौष 2025
पंचांग 01/01/2025 • January 01, 2025
पौष शुक्ल पक्ष द्वितीया, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), पौष | द्वितीया तिथि 02:24 AM तक उपरांत तृतीया | नक्षत्र उत्तराषाढ़ा 11:46 PM तक उपरांत श्रवण | व्याघात योग 05:06 PM तक, उसके बाद हर्षण योग | करण बालव 02:56 PM तक, बाद कौलव 02:24 AM तक, बाद तैतिल |
जनवरी 01 बुधवार को राहु 12:20 PM से 01:36 PM तक है | चन्द्रमा मकर राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 7:17 AM सूर्यास्त 5:24 PM चन्द्रोदय 8:31 AM चन्द्रास्त 6:50 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु शिशिर
V. Ayana उत्तरायण
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - पौष
- अमांत - पौष
तिथि
- शुक्ल पक्ष द्वितीया - Jan 01 03:22 AM – Jan 02 02:24 AM
- शुक्ल पक्ष तृतीया - Jan 02 02:24 AM – Jan 03 01:08 AM
नक्षत्र
- उत्तराषाढ़ा - Jan 01 12:03 AM – Jan 01 11:46 PM
- श्रवण - Jan 01 11:46 PM – Jan 02 11:10 PM
प्रिय दर्शन मनुष्य का श्रेष्ठ सद्गुण है। औरों में अच्छाइयाँ देखने से अपने सद्गुणों का विकास होता है। वह कहना कि दूसरे ही निरे दोषी हैं, अनुचित बात है। संसार में हर किसी में कोई न कोई सद्गुण अवश्य होता है। किसी में सफाई अधिक है, कोई ईमानदार है, कोई नेक-चलन, कोई अच्छा वक्ता है, कोई संगीतज्ञ है। आत्मीयता, उदारता, साहस, नैतिकता, श्रमशीलता जैसे सदाचारों में से कोई न कोई संपत्ति हर किसी के पास मिलेगी।*
*इन्हें ढूँढ़ने का प्रयास करें, उनके सत्परिणामों पर ध्यान दें तो अपना भी जी करता है कि हम भी वैसा ही करें। आत्म विकास का क्रम यही है। दूसरों की अच्छाइयों का अनुकरण करना मनुष्य को आगे बढ़ाता और ऊँचा उठाता है। मानव से महामानव बनने की पद्धति यही है कि छिद्रान्वेषण के स्वभाव को त्याग कर प्रत्येक व्यक्ति में जो भी अच्छाइयाँ दिखाई दें उनकी प्रशंसा करें और स्वयं भी वैसा ही बनने का प्रयत्न
जिस प्रकार हम दूसरे व्यक्तियों के सत्कर्मों से प्रेरणा लेते हैं,
उसी प्रकार अपने दोष दुर्गुणों को ढूँढ़ने और निकाल कर बाहर कर देने से आत्म-शोषण की प्रक्रिया और भी तीव्र होती है। प्रत्येक व्यक्ति की अपनी भिन्न-भिन्न कठिनाइयाँ होती हैं। हो सकता है कोई अमीर हो, कोई चिड़चिड़ा हो, कोई ईर्ष्यालु अथवा अर्थलोलुप हो। जब इन कठिनाइयों, विकारों की खोजबीन कर लें तो उन पर शान्तिपूर्वक नियन्त्रण का प्रयास करना चाहिये।*
मान लीजिये किसी में चिड़चिड़ापन अधिक है, बात-बात में
उत्तेजित हो जाता है। अपनी भूल समझता भी है पर यह मान बैठता है, कि यह दोष उसके स्वभाव का अंग है। यह उससे छूटना सम्भव नहीं। ऐसी निराशा सर्वथा अनुपयुक्त है। मनुष्य चाहे तो अपने स्वभाव को थोड़ा प्रयत्न करके आसानी से सुधार सकता है। हमें अपना स्वभाव और दृष्टिकोण संघर्षमय न बनाकर रचनात्मक बनाना चाहिए। सड़क पर चलते हैं तो कंकड़ चुभेंगे ही किन्तु पैरों में जूते पहन लेते हैं तो चलते रहने की क्रिया में अन्तर भी नहीं पड़ता और आत्म-रक्षा भी हो जाती है।*
*.....क्रमशः जारी*
पं श्रीराम शर्मा आचार्य*
अखण्ड ज्योति जुलाई 1964 पृष्ठ 41*
डॉ. चिन्मय पंड्या जी का राजस्थान प्रवास (22-28 दिसंबर 2024): आध्यात्मिक प्रेरणा का संचार*
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कैलेंडर नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
युगतीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार की ओर से कैलेंडर नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं
Heartiest greetings of New Year from Gayatritirth Shantikunj Haridwar
आध्यात्मिक उपासना का लाभ | Adhyatmik Upasana Ke Labh |
समय की बर्बादी और उसके खतरनाक परिणाम | Samay Ki Barbadi Aur Uske Khtarknak Parinam
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 01 January 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
आज आदमी इतना दुखी है किसकी वजह से ज्ञान के अभाव की वजह से उस ज्ञान के अभाव की आवश्यकता को आपको पूरा करना है तो हम कैसे करेंगे विद्वान नहीं है आप विद्वान तो नहीं है पर हम तो विद्वान हैं हमारी आवाज नहीं है हम तो अंधे और पंगे की तरीके से हमारे साथ मिल मिल जाइए ना पंगे की टांगे नहीं थी और अंधे की आंखें नहीं थी दोनों ने एक दूसरे का सहयोग मिला लिया और सहयोग मिला करके नदी पार कर ली हमारा गुरु हमारा गुरु पंगा है चल नहीं सकता है हिमालय रहता है और उसके ऊपर बंधन लगे हुए हैं हिमालय की सीमा पर है बाहर नहीं जाने पावें सूक्ष्म शरीर क्तही धारण करके रहे धारण करने पावें उसके अंदर जो अभाव थे वह हमने पूरे किए अपना शरीर अपनी वाणी अपना मन हमने दिया है प्रत्यक्ष स्थूल हम हैं और सूक्ष्म हमारा गुरु है सूक्ष्मा हमको बनने दीजिए और स्थूल आप बन जाइए आप लाउडस्पीकर बन जाइए व्याख्यान हम देंगे
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
तादात्म्य अर्थात् भक्त और इष्ट की अंतःस्थिति का समन्वय एकीकरण। दूसरे शब्दों में ईश्वरीय अनुशासन के अनुरूप जीवनचर्या का निर्धारण। परब्रह्म तो अचिन्त्य है पर उपासना जिस परमात्मा की की जाती है वह आत्मा का ही परिष्कृत रूप है। वेदान्त दर्शन से सोऽहम्, शिवोऽहम्, तत्त्वमसि, अयमात्मा, ब्रह्म आदि शब्दों में अन्तःचेतना के उच्चस्तरीय विशिष्टताओं से भरे- पूरे उत्कृष्टताओं के समुच्चय को ही परमात्मा कहा गया है, उसके साथ ही मिलन का, तादात्म्य का स्वरूप तभी बनता है जब दोनों के मध्य एकता एकात्मता स्थापित हो।
इसके लिए साधक अपने आपको कठपुतली की स्थिति में रखता है और अपने अवयवों में बंधे धागों को बाजीगर के हाथों सौंप देता है। दर्शकों को मन्त्र मुग्ध कर देने वाला खेल इस स्थापना के बिना बनता ही नहीं। आत्मा को परमात्मा की उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ अपनाने और तदनुरूप जीवनचर्या बनाने पर ही उपासना का समग्र लाभ मिलता है।
लकड़ी और अग्नि की समीपता का प्रतिफल प्रत्यक्ष है। गीली लकड़ी आग के समीप पहुँचते- पहुँचते अपनी नमी गँवाती और उस ऊर्जा से अनुप्राणित होती चली जाती है। जब वह अति निकट पहुँचती है तो फिर आग और लकड़ी एक स्वरूप जैसे हो जाते हैं। साधक को भी ऐसा ही भाव समर्पण करके ईश्वरीय अनुशासन के साथ अपने आपको एक रूप बनाना पड़ता है। चन्दन के समीप वाली झाड़ियों का सुगन्धित हो जाना, स्वाति बूँद के संयोग से सीप में मोती पैदा होना, पारस छूकर लोहे का स्वर्ण बनना, नाले का गंगा में मिलकर गंगाजल बनना, पानी का दूध में मिलकर उसी भाव बिकना, बूँद का समुद्र में मिलकर सुविस्तृत हो जाना जैसे अगणित उदाहरण हैं, जिनके आधार पर यह जाना जा सकता है कि भक्त और भगवान की एकता उपासना का स्तर क्या होना चाहिए। सृष्टि के आदि से अद्यावधि सच्चे भक्तों में से प्रत्येक को ईश्वर के शरणागत होना पड़ा है। आत्म समर्पण का साहस जुटाना पड़ा है।
इसका व्यावहारिक स्वरूप है ईश्वरीय अनुशासन को, उत्कृष्ट चिन्तन एवं आदर्श कर्तृत्व को अपनी विचारणा एवं कार्यपद्धति से अनुप्राणित करना। जो इस तत्व दर्शन को जानते, मानते और व्यवहार में उतारते रहे हैं उन सच्चे ईश्वर भक्तों को सुनिश्चित रूप से वे लाभ मिले हैं, जिन्हें उपासना की फल श्रुतियों के रूप में कहा जाता रहा है। पत्नी- पति को आत्म समर्पण करती है। अर्थात उसकी मर्जी पर चलने के लिए अपनी मनोभूमि एवं क्रिया पद्धति को मोड़ती चली जाती है। इस आत्म समर्पण के बदले वह पति के वंश, गोत्र, यश, वैभव की उत्तराधिकारिणी ही नहीं अर्धांगिनी भी बन जाती है। समर्पण विहीन कर्मकाण्ड तो एक प्रकार का वेश्या व्यवसाय या चिन्ह पूजा जैसा निर्जीव ढकोसला ही माना जाएगा। भक्त भगवान के अनुरूप चलता चला जाता है और अन्ततः नर नारायण, पुरुष- पुरुषोत्तम, भक्त भगवान की एक रूपता का स्वयं प्रमाण बनता है। देवात्माओं में परमात्मा स्तर की क्षमतायें ही उत्पन्न हो जाती हैं। इन्हें ही ऋद्धि- सिद्धियाँ कहते हैं।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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