Tuesday 31, December 2024
शुक्ल पक्ष प्रथमा, पौष 2024
पंचांग 31/12/2024 • December 31, 2024
पौष शुक्ल पक्ष प्रतिपदा, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), पौष | प्रतिपदा तिथि 03:22 AM तक उपरांत द्वितीया | नक्षत्र पूर्वाषाढ़ा 12:03 AM तक उपरांत उत्तराषाढ़ा | ध्रुव योग 06:59 PM तक, उसके बाद व्याघात योग | करण किस्तुघन 03:42 PM तक, बाद बव 03:22 AM तक, बाद बालव |
दिसम्बर 31 मंगलवार को राहु 02:51 PM से 04:07 PM तक है | 06:01 AM तक चन्द्रमा धनु उपरांत मकर राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 7:17 AM सूर्यास्त 5:23 PM चन्द्रोदय 7:41 AM चन्द्रास्त 5:44 PM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु शिशिर
V. Ayana उत्तरायण
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - पौष
- अमांत - पौष
तिथि
- शुक्ल पक्ष प्रतिपदा - Dec 31 03:56 AM – Jan 01 03:22 AM
- शुक्ल पक्ष द्वितीया - Jan 01 03:22 AM – Jan 02 02:24 AM
नक्षत्र
- पूर्वाषाढ़ा - Dec 30 11:57 PM – Jan 01 12:03 AM
- उत्तराषाढ़ा - Jan 01 12:03 AM – Jan 01 11:46 PM
जल्दबाजी करने से भी गलती हो जाती है। इसलिये कोई समस्या आये उस पर पूर्णरूप से विचार कर लेने के बाद ही कोई कदम उठाना अच्छा होता है। आप ढूंढ़ें तो हर परेशानी का आधा कारण तो अपने में ही मिल सकता है। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा कि गलती हर बार आप ही करते हैं, अनुचित रूप से किसी को अकारण दण्ड न मिले, इसलिए प्रत्येक अव्यवस्था में अपनी भूल ढूंढ़नी चाहिए।
यह सम्भव है कि दूसरा व्यक्ति किसी भूल, भ्रम या परिस्थितिवश आपकी इच्छा पूरी न कर सका हो। ऐसी दशा में उस पर दुर्भाव का आरोपण कर बैठना अन्याय ही कहा जायगा। किसी के प्रति अन्यायपूर्ण धारण बना लेने से बुरी प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। इसलिए किसी पर दोषारोपण करने के पूर्व शान्त चित्त से यह देखना चाहिये कि आपकी भूल या दूसरे की विवशता के कारण ही तो ऐसा अप्रिय प्रसंग नहीं बन पड़ा जो आपको क्षुब्ध बनाये हुए है।
जो लोग प्रत्येक कार्य में अपने को ही सर्वथा सही मानकर दूसरों को भ्रान्त मानते हैं वे भूल करते हैं। इससे सचाई दब जाती है और मनोमालिन्य तथा झंझट बढ़ने लगते हैं। संसार के सभी व्यक्ति भिन्न-भिन्न स्वभाव, रुचि व प्रकृति के होते हैं। दो सगे भाइयों तक की आदतों में बड़ा अन्तर देखा जा सकता है, फिर सभी आपकी प्रकृति मान्यता का अभिरुचि का अनुकरण करें ऐसा सम्भव नहीं। किसी को चावल खाना पसन्द है, किसी को रोटी प्रिय है। इतना अन्तर तो प्रायः रहता ही है। इस तथ्य को समझते हुए, दूसरों को दोषी ठहराने, न ठहराने की समस्या का समाधान करने में अपने को ही पिछली पंक्ति में खड़ा करना पड़ेगा।
समन्वय से काम चल जाय तो अच्छी बात है किन्तु कदाचित ऐसा नहीं होता तो भी अपनी रुचि भिन्नता को ध्यान में रखते हुए दूसरों की इच्छा सहन करनी चाहिए। दूसरों की इच्छा के लिए यदि अपनी अभिरुचि का दमन कर देते हैं तो प्रत्याशी पर आपकी इस सद्भावना का असर जरूर पड़ेगा। दूसरे क्षण वह आपकी इच्छाओं को प्राथमिकता देगा। घरेलू वातावरण में सद्भावना का वातावरण बनाये रखने के लिये यह अत्यावश्यक है कि प्रत्येक वस्तु का चुनाव करते समय आप यह मान लीजिए कि इसके दोषी आप भी हो सकते हैं तो आये दिन होने वाले झगड़ों में से बहुत से तो स्वतः ही मिट जायेंगे।
.....क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जुलाई 1964 पृष्ठ 41
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!! आज के दिव्य दर्शन 31 December 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
आपसे हम आग्रह करते हैं अनुरोध करते हैं कि आप ज्ञान रथ चलाइए स्वयं चलाइए और आप झोला पुस्तकालय चलाइए स्वयं चलाइए कम खाइए एक एक मुट्ठी अनाज रोजाना बचाते जाईए एक रोटी कम खाइए आप बीमार पड़ जाएंगे नहीं एक रोटी कम खाने से अगर आप बीमार पड़ जाते हो तो हमारी जिम्मेदारी है तीन मुट्ठी चावल कि हम खिचड़ी खाते हैं तो क्या हम आप को कमजोर दिखाई पड़ रहे हैं आपको हमारी शक्ल दिखाई पड़ रही है कि नहीं आपको शक्ल में कुछ कमजोरी दिखाई पड़ रही है कोई बीमारी दिखाई पड़ रही है कोई आपको कम पड़ गया एक बार हम हिमालय गए थे अट्ठारह पोंड ज्यादा हो करके आए थे आप एक मुट्ठी अनाज निकालना शुरू कर दीजिए अपने ह्रदय को चैड़ा कीजिए दिल को को चैड़ा नहीं करेंगे दिल आपके पास नहीं है ह्रदय आपके पास नहीं है उदारता आपके पास नहीं है श्रम आपके पास नहीं है शरीर आपके पास नहीं है तो फिर क्या है आपके पास जो कुछ है उसको आप कीजिए यह बेहद जरूरी है समाज को बेहद जरूरत है दुनिया को बेहद जरूरत है इंसान को बहुत जरूरत है |
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
उपासना के दो पक्ष है एक कर्मकाण्ड दूसरा तादात्म्य। दोनों शरीर एवं प्राण की तरह अन्योन्याश्रित एवं परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे को चमत्कार प्रदर्शित करने का अवसर ही नहीं मिलता। बिजली के दोनों तार जब मिलते हैं तभी करेण्ट चलता है। अलग- अलग रहें तो कुछ बात बनेगी ही नहीं। दोनों पहिए धुरी से जुड़े हो और समान रूप से गतिशील हो तभी गाड़ी आगे लुढ़कती है। लम्बी यात्राएँ दोनों पैरों के सहारे ही संभव होती हैं, भले ही एक के कट जाने पर उसकी पूर्ति लकड़ी के पैर से ही क्यों न की जा रही हो। दोनों हाथ से ताली बजाने की उक्ति से सभी परिचित हैं। सन्तानोत्पादन में नर और नारी दोनों का संयोग चाहिए।
ठीक इसी प्रकार उपासना का शास्त्र प्रतिपादित और आप्तजनों द्वारा अनुमोदित माहात्म्य तभी चरितार्थ होता है, जब उसका कर्मकाण्ड वाला प्रत्यक्ष और तादात्म्य वाला परोक्ष पक्ष समान रूप से संयुक्त सक्रिय होते हैं। जप, ध्यान, प्राणायाम के उपासनात्मक कर्मकाण्डों का स्वरूप सभी को विदित है। जिन्हें उस जानकारी में कुछ कमी हो वे अपनी स्थिति के अनुरूप किसी अनुभवी मार्गदर्शक से परामर्श अथवा प्रामाणिक ग्रन्थ का अवलोकन करके उसका समाधान निर्धारण कर सकते हैं, बड़ी और महत्त्वपूर्ण बात तादात्म्य है। उसे जीवन सत्ता में प्राण का स्थान मिला है। कर्मकाण्ड तो काय- कलेवर की तरह उपकरण ही कहे जाते हैं, प्रहार तो तलवार ही करती है। वस्तुतः युद्ध मोर्चे को जिताने में वह लौहखण्ड उतना चमत्कार नहीं दिखाता, जितना कि प्रत्यक्ष न दीखने वाला पराक्रम और साहस। ठीक उसी प्रकार उपासना कर्मकाण्ड पक्ष का तलवार जैसा प्रतिफल देखना हो, तो उसके पीछे तादात्म्य का भाव समर्पण नियोजित किए बिना काम चलेगा ही नहीं।
उपासना कर्मकाण्डों में विधि- विधान का स्वरूप प्रज्ञा परिजनों में से सभी जानते हैं। स्थान, पूजा उपकरण, शरीर, वस्त्र आदि की शुद्धि के अतिरिक्त मन बुद्धि और अन्तःकरण की शुद्धि तथा इन्द्रियों, अवयवों को पवित्र रहने की प्रेरणा देने के लिए आचमन, न्यास आदि किए जाते हैं। पवित्रता के प्रतीक जल और प्रखरता के प्रतिनिधि दीपक या अन्य किसी विकल्प का अग्नि स्थापन किया जाता है। समझा जाना चाहिए कि आत्मिक प्रगति के लिए सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य आदि सज्जनता परक सद्गुणों की जितनी आवश्यकता है ठीक उतनी ही संयम, साहस, पराक्रम एवं संघर्ष के रूप में अपनाई जाने वाली तपश्चर्या का महत्त्व भी है। पवित्रता और प्रखरता का समन्वय ही पूर्णता के लक्ष्य तक पहुँचाता है। मात्र संत सज्जन बने रहने और पौरुष को त्यागकर बैठने पर तो कायरों और दीन दुर्बलों जैसी दयनीय स्थिति बन जाती है। मध्यकाल की भक्तचर्या ऐसे ही अधूरेपन से ग्रसित रहने के कारण उपहासास्पद बनती चली गई है। कर्मकाण्डों के विधि- विधान तादात्म्य की चेतना उत्पन्न करने एवं प्रेरणा देने के लिए विनिर्मित हुए हैं।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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