Tuesday 17, December 2024
कृष्ण पक्ष द्वितीया, पौष 2024
पंचांग 17/12/2024 • December 17, 2024
पौष कृष्ण पक्ष द्वितीया, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), मार्गशीर्ष | द्वितीया तिथि 10:56 AM तक उपरांत तृतीया | नक्षत्र पुनर्वसु 12:44 AM तक उपरांत पुष्य | ब्रह्म योग 09:10 PM तक, उसके बाद इन्द्र योग | करण गर 10:56 AM तक, बाद वणिज 10:26 PM तक, बाद विष्टि |
दिसम्बर 17 मंगलवार को राहु 02:44 PM से 04:00 PM तक है | 06:47 PM तक चन्द्रमा मिथुन उपरांत कर्क राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 7:11 AM सूर्यास्त 5:15 PM चन्द्रोदय 7:15 PM चन्द्रास्त 9:50 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - पौष
- अमांत - मार्गशीर्ष
तिथि
- कृष्ण पक्ष द्वितीया - Dec 16 12:27 PM – Dec 17 10:56 AM
- कृष्ण पक्ष तृतीया - Dec 17 10:56 AM – Dec 18 10:06 AM
नक्षत्र
- पुनर्वसु - Dec 17 01:13 AM – Dec 18 12:44 AM
- पुष्य - Dec 18 12:44 AM – Dec 19 12:58 AM
Sukh_Dukh_Ka_Aadhar_Gyan
Sajjanata Hamaare Pradhaan Neeti Hai
समयानुकूल बात करना और सम्भाषण चातुरी का होना भी परमावश्यक है। जो काम अधिक द्रव्य से या शक्ति प्रयोग से भी नहीं हो सकता, वह काम मौके की बात कहने से सहज ही में हो जाता है। पाठकों को मालूम होगा कि अकबर का मन्त्री बीरबल अपनी सभा चातुरी के कारण कैसे-कैसे अनहोने तथा कष्टसाध्य कामों को क्षणभर में कर सकता था।
(1) जिस तरह से तुम अच्छी किताबों को केवल अपने लाभ के लिए चुनते हो उसी तरह से साथी या समाज भी ऐसा चुनो जिससे कि तुम्हें कुछ लाभ हो। सबसे अच्छी किताब और अच्छा मित्र वही है कि जिससे अपना किसी तरह से सुधार हो अथवा आनन्द की वृद्धि हो। यदि उन साथियों से तुम्हें कुछ लाभ नहीं हो सकता तो तुम उनके आनन्द और सुधार की वृद्धि करने का प्रयत्न करो। और यदि उन साथियों से तुम कुछ लाभ नहीं उठा सकते या उनको तुम स्वयं कुछ लाभ नहीं पहुँचा सकते तो तुम तुरन्त उनका साथ छोड़ दो।
(2) अपने साथियों के स्वभाव का पूरा ज्ञान प्राप्त करो। यदि वे तुम से बड़े हैं तो तुम उनसे कुछ न कुछ पूछो और वे जो कुछ कहें उसे ध्यानपूर्वक सुनो। यदि छोटे हैं तो तुम उनको कुछ लाभ पहुँचाओ।
(3) जब परस्पर की बातचीत नीरस हो रही हो तो तुम कोई ऐसा विषय छेड़ दो जिस पर सभी कुछ न कुछ बोल सकें और जिससे सभी मनुष्यों की आनन्द वृद्धि हो। परन्तु तब तक ऐसा करने के अधिकारी नहीं हो जब तक तुमने नया विषय आरम्भ करने के पहले कुछ न कुछ नए विषय का ज्ञान न प्राप्त कर लिया हो।
(4) जब कुछ नयी महत्वपूर्ण अथवा शिक्षाप्रद बात कही जाय तब उसे अपनी नोटबुक में दर्ज कर लो उसका सार अंश रखो और कूड़ा कचरा फेंक दो।
(5) तुम किसी भी समाज में अथवा साथियों के संग आते-जाते समय पूरे मौनव्रती मत बनो। दूसरों को खुश करने का और उनको शिक्षा देने का प्रयत्न अवश्य करो। बहुत सम्भव है कि तुमको भी बदले में कुछ आनन्दवर्धक अथवा शिक्षाप्रद सामग्री अवश्य मिल जायगी। जब कोई कुछ बोलता हो तो तुम आवश्यकता पड़ने पर भले ही चुप रहा करो परन्तु जब सब लोग चुप हो जाते हैं तब तुम सबों की शून्यता को भंग करो। सब तुम्हारे कृतज्ञ होंगे।
(6) किसी बात का निर्णय जल्दी में मत करो, पहले उसके दोनों पक्षों का मनन कर लो। किसी भी बात को बार-बार मत कहो।
(7) इस बात को अच्छी तरह से याद रक्खो कि तुम दूसरों की त्रुटियों-दोषों को जिस दृष्टि से देखते हो वे भी उसको उसी दृष्टि से नहीं देखते। इसलिए समाज के सम्मुख किसी मनुष्य के दोषों पर स्वतन्त्रतापूर्ण आक्षेप, कटाक्ष अथवा टीका-टिप्पणी करने का तुमको सदैव अधिकार नहीं है।
(8) यदि अहंकारपूर्ण, आत्मप्रशंसक अथवा शेखचिल्ली मनुष्यों से काम पड़ जाय तो उनको तुम कुछ कड़े शब्दों में समझा सकते हो। इससे यदि वे न मानें तो चुप रहो। यदि इसका भी कुछ असर न हो तो उनसे दूर हट जाओ।
(9) बातचीत करते समय अपनी बुद्धिमत्ता दिखाने का व्यर्थ प्रयत्न मत करो। यदि तुम बुद्धिमान् हो तो तुम्हारी, बातों से मालूम हो सकता है। यदि तुम प्रयत्न करके हमेशा अपनी बुद्धिमानी प्रकट करना चाहोगे तो सम्भवतः तुम्हारी बुद्धिहीनता अधिकाधिक प्रकट होती जायगी।
(10) किसी की बात यदि तुम्हें अपमानजनक या किसी तरह से गुस्ताखी की मालूम हो तो भी कुछ देर तक चुप रहने का प्रयत्न करो। ऐसा भी हो सकता है कि वह बात तुम्हारे स्वभाव के कारण तुम्हें खराब मालूम हो, परन्तु सब लोगों को अच्छी मालूम हो। और यदि बात ऐसी ही हुई तो तुम्हें कुछ देर तक चुप रहने के लिए कभी भी पछताना नहीं पड़ेगा, बल्कि तुम धैर्य का एक नया पाठ सीखते जाओगे।
(11) तुम स्वयं स्वतन्त्रतापूर्वक तथा सरलतापूर्वक बातचीत करो और दूसरों को भी ऐसा ही करने दो। अमूल्य शिक्षा को अल्प समय में प्राप्त करने का इससे बढ़कर साधन संसार में नहीं है।
(12) बातचीत करने का सबसे अधिक महत्वपूर्ण नियम यह है कि सदैव बोलने का प्रयत्न करो और जो कुछ बोलो उसे शान्त और नम्रता के साथ। मृदु भाषण में जादू की शक्ति होती है।
अब हम अपने प्रिय पाठकों को उसी कही हुई बात को एक बार फिर भी बतला देना चाहते हैं, कि सम्भाषण-शक्ति ईश्वर की एक अमूल्य देन है, जिसका सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करने के अधिकारी और जिम्मेदार हमीं हैं। इसी शक्ति के सदुपयोग से हमारे जीवन की आँशिक सार्थकता है। अतएव हमें सदैव इस शक्ति को स्वस्थ तथा मार्जित अवस्था में रखने का प्रयत्न करना चाहिये।
अखण्ड ज्योति- सितम्बर 1952 पृष्ठ 14
EP: 12 Technique of Sublime Transformation | My Life its & Legacy Message
ब्रह्मवर्चस का मतलब: Science Of Soul |
मन को शांत कैसे करें | Man Ko Shant Kaise Karen
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गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
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!! आज के दिव्य दर्शन 17 December 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
आपने किसी को साहित्य हमारा दिखाया है नहीं आपने हमारे प्राण किसी को दिखाएं हैं नहीं हमारा दर्द किसी को दिखाया है।नहीं नहीं साहब आप की टांग टूट गई बड़ा दर्द होता था चिल्ला रहे थे तो आपने किसी को दिखाया फिर डाक्टर के पास ले गए आप हमारे मन में कितनी पीड़ा है कितनी लगन है कितनी जलन है आपने किसी को नहीं दिखाई हमारी जलन कैसे दिखाएं हमारी साहित्य से आप दिखाइए और आप स्वयं दिखाइए आप स्वयं दिखाइए आपके बच्चे की टांग टूट जाए भगवान ना करें तो आप किसी और से कराएंगे आपके घर में किसी की मृत्यु हो जाए तो नौकरों से कहेंगे कि मुर्दे को पकड़ ले जा और जला आओ नहीं कुछ काम दुनिया में ऐसे होते हैं जो स्वयं ही करनी चाहिए उसका प्रप्रभाव स्वयं ही पड़ता है जब आप स्वयं जाएंगे तो आप उन पुस्तकों का महत्व साहित्य का महत्व हमारा महत्व और ज्ञान की गरिमा का महत्व यह आप समझा सकेंगे |
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
आमतौर से उपासना करने वालों को यह शिकायत रहती है कि भजन करते समय उनका मन स्थिर नहीं रहता, अनेक जगह भागता रहता है। साधना में मन न लगे, चित्त कहीं का मारा कहीं भागा फिरे तो उसमें वह आनंद नहीं आता, जो आना चाहिए।
इस कठिनाई का उपाय सोचने से पूर्व यह विचार करना होगा कि मन क्यों भागता है? और भागकर कहाँ जाता है? हमें जानना चाहिए कि मन प्रेम का गुलाम है। जहाँ भी जिस वस्तु में भी प्रेम मिलेगा, वहीं मन उसी प्रकार दौड़ जाएगा, जैसे फूल पर भौंरा जा पहुँचता है। साधारणतया लोगों का प्रेम अपनी स्त्री-पुत्र, मित्र-धन-व्यवसाय, यश-मनोरंजन आदि में होता है। इन्हीं प्रिय वस्तुओं में मन दौड़-दौड़कर जाता है।
भजन को हम एक चिन्हपूजा की तरह पूरा तो करते हैं, पर उसमें सच्चा प्रेम नहीं होता। इष्टदेव को भी हम कोई बहुत दूर का अपने से सर्वथा भिन्न तत्व मानते हैं, उससे कुछ चाहते तो हैं, पर अपने तथा उसके बीच में कोई प्रेम और आत्मीयता का संबंध-सूत्र नहीं देखते। राजा और भिखारी के बीच जो अंतर होता है, वही हमें अपने और इष्टदेव के भीतर लगता है। ऐसी दशा में मन यदि भजन में न लगे और अपने प्रिय विषयों में भागे तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। यह स्वाभाविक ही है।
भजन में मन लगे इसके लिए बलपूर्वक मन को रोकने का प्रयत्न निष्फल ही रहता है। यह एक तथ्य है कि मन प्रेम का गुलाम है। वह वहीं टिकेगा, जहाँ प्रेम होगा। यदि भजन के साथ प्रेमभावना का समावेश कर लिया जाए तो निश्चित रूप से मन उसमें उसी प्रकार लगा रहेगा जैसा संसारी मनुष्यों का अपने स्त्री-पुत्र धन आदि में लगा रहता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति – मई 2005 पृष्ठ 19
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