Thursday 27, March 2025
कृष्ण पक्ष त्रयोदशी, चैत्र 2025
पंचांग 27/03/2025 • March 27, 2025
चैत्र कृष्ण पक्ष त्रयोदशी, कालयुक्त संवत्सर विक्रम संवत 2082, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), फाल्गुन | त्रयोदशी तिथि 11:03 PM तक उपरांत चतुर्दशी | नक्षत्र शतभिषा 12:33 AM तक उपरांत पूर्वभाद्रपदा | साध्य योग 09:24 AM तक, उसके बाद शुभ योग 05:56 AM तक, उसके बाद शुक्ल योग | करण गर 12:27 PM तक, बाद वणिज 11:03 PM तक, बाद विष्टि |
मार्च 27 गुरुवार को राहु 01:54 PM से 03:25 PM तक है | चन्द्रमा कुंभ राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:16 AM सूर्यास्त 6:28 PM चन्द्रोदय 4:49 AM चन्द्रास्त 4:19 PM अयन उत्तरायण द्रिक ऋतु वसंत
- विक्रम संवत - 2082, कालयुक्त
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - चैत्र
- अमांत - फाल्गुन
तिथि
- कृष्ण पक्ष त्रयोदशी
- Mar 27 01:43 AM – Mar 27 11:03 PM
- कृष्ण पक्ष चतुर्दशी
- Mar 27 11:03 PM – Mar 28 07:55 PM
नक्षत्र
- शतभिषा - Mar 27 02:29 AM – Mar 28 12:33 AM
- पूर्वभाद्रपदा - Mar 28 12:33 AM – Mar 28 10:09 PM

प्रभु कृपा के सच्चे अधिकारी 1.mp4

हमें मानसिक चिंताएँ क्यों घेरती हैं ?, Hame Manasik Chintayen Kyon Ghertin Hai
जीवन में दुःख, शोक संघर्षों का आना स्वाभाविक है। इससे कोई भी जीवधारी नहीं बच सकता। सुख, दुःख मानव-जीवन के दो समान पहलू हैं। सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आते ही रहते हैं। यदि कोई इतना साधन सम्पन्न भी हो कि उसके जीवन में किसी दुःख, किसी अभाव अथवा किसी संघर्ष की सम्भावना को अवसर ही न मिले और वह निरन्तर अनुकूल परिस्थितियों में मौज करता रहे, तब भी एक दिन उसका एकरस सुख ही दुःख का कारण बन जायेगा। वह अपनी एकरसता से ऊब उठेगा, थक जायेगा। उसे एक अप्रिय नीरसता घेर लेगी, जिससे उसका मन विषाद से भरकर कराह उठेगा, वह दुःखी रहने लगेगा। मानव-जीवन में दुःख सुख के आगमन के अपने नियम को प्रकृति किसी भी अवस्था में अपवाद नहीं बना सकती। जो सुखी है उसे दुःख की कटुता अनुभव करनी ही होगी और इस समय जो दुःखी है उसे किसी न किसी कारण से सुख की शीतलता का अनुभव करने का अवसर मिलेगा ही।
दुःख सुख है क्या? यह किसी भी मनुष्य के लिए परिस्थितियों का परिवर्तन मात्र ही है। और यदि ठीक दृष्टिकोण से देखा जाये तो परिस्थितियां भी दुःख सुख का वास्तविक हेतु नहीं है। वास्तविक हेतु तो मनुष्य की मनःस्थिति ही है, जो किसी परिस्थिति विशेष में सुख-दुःख का आरोपण कर लिया करती है। बहुत बार देखा जा सकता है कि किसी समय कोई एक परिस्थिति मनुष्य को पुलकित कर देती है, हर्ष विभोर बना देती है, तो किसी समय वही अथवा उसी प्रकार की परिस्थिति पीड़ादायक बन जाती है। यदि सुख-दुःख का निवास किसी परिस्थिति विशेष में रहा होता तो तदनुकूल मनुष्य को हर बार सुखी या दुःखी ही होना चाहिए। एक जैसी परिस्थिति में यह सुख-दुःख की अनुभूति का परिवर्तन क्यों? वह इसीलिए कि सुख दुःख वास्तव में परिस्थितिजन्य न होकर मनोजन्य ही होते हैं।
इस सत्य के अनुसार मनुष्य को सुखी अथवा दुःखी होने का कारण अपने अन्तःकरण में ही खोजना चाहिए, परिस्थितियों को श्रेय अथवा दोष नहीं देना चाहिए। जो मनुष्य अपने दुःख के लिए परिस्थितियों को कोसा अथवा सुख के लिए उन्हें धन्यवाद दिया करता है वह अपनी अल्पज्ञता का ही द्योतक करता है। वह सर्वदा सत्य है कि कोई भी मनुष्य दुःख की कामना तो करता ही नहीं, वह तो सदा सुख ही चाहा करता है। इसलिए उसे अपनी यह चाह पूरी करने के लिए परिस्थितियों से अधिक मन पर ध्यान देने का प्रयत्न करना चाहिए। उसे ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, क्षोभ अथवा असन्तोष से अभिभूत न होने देना चाहिए। इस प्रकार का निराभिभूत मानव गोमुखी गंगाजल की तरह निर्मल एवं प्रसन्न होता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति- दिसंबर 1966 पृष्ठ 21

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आज का सद्वाक्य




नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन

!! परम पूज्य गुरुदेव का कक्ष 27 March 2025 गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

!! आज के दिव्य दर्शन 27 March 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!

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!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!

!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
श्रेष्ठता, माने श्रद्धा, माने सबसे ज्यादा प्यार, सबसे ज्यादा प्यार अगर हमारे पास आए, तो मित्रों, फिर हमारे जीवन में चमत्कार आ जाए, फिर हमारे जीवन में भगवान आ जाए। भगवान हमसे दूरी बना लेगा और दूरी है, दूरी दूर हो सकती है नहीं, दूरी दूर नहीं हो सकती। तब तक दूरी दूर नहीं हो सकती, जब तक हमारे पास श्रद्धा, श्रद्धा का अवतरण हो जाएगा। श्रेष्ठता अगर हमारे जीवन में आए, भगवान के प्रति हमारे मन में विश्वास आए, भगवान के प्रति हमको हमारे मन में प्रेम करना आए, तब, तब फिर भगवान हमारे पास आए, तब हमारी उपासना सार्थक हो, तब हमारे भजन सार्थक हों, तब हमको उच्च स्तरीय लाभ मिलना शुरू हो, तब हमारा जीवन परिष्कृत होना शुरू हो, तब हमारे जीवन में से सुगंधी फैले, हमारा जीवन फूल की तरह खिले, जिसपे से कि भगवान आएं, भौंरे के तरीके से, सिद्धियां आएं, शहद की मक्खियों की तरह, तितलियों के तरीके से।
हमारे जीवन का सौंदर्य और हमारी शोभा बढ़ती हुई चली जाए। शर्त यह है कि अगर श्रद्धा हमारे जीवन में आ जाए। श्रद्धा से विहीन जीवन जी करके क्या करेंगे आप? भजन का क्या करेंगे? बिना भजन का क्या कर लेंगे? कर्मकांड, क्या कर लेंगे? बिना कर्मकांड, श्रेष्ठता से असीम प्यार अगर आपके जीवन में आए, तो मैं आपसे वायदा करता हूं कि जो चमत्कार प्राचीन काल के ऋषियों ने देखे, जो चमत्कार हमने देखे, आप भी उन सारे चमत्कारों को देख सकते हैं। शर्त यह है कि अगर आप अपने मन में से श्रद्धा पैदा कर सकें, तब।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
मनुष्य के अस्तित्व पर गंभीरता पूर्वक विचार किया जाय, तो उसकी एक मात्र विशेषता उसका मनोबल ही दृष्टिगोचर होता है। शरीर की दृष्टि से वह अन्य प्राणियों की तुलना बहुत गया-गुजरा है। मनोबल की विशेषता के कारण ही मनुष्य सृष्टि का मुकुटमणि है। मन वस्तुत: एक बड़ी शक्ति है। अनन्त चेतना के केन्द्र परमात्मा का प्रकाश इस जड़ प्रकृति में जो पड़ता, तो उसका प्रतिबिम्ब मन के रूप में ही सामने आता है। जड़ पदार्थ कितने ही उत्कृष्ट क्यों न हो, चेतना के बिना वे निरर्थक है।
इस पृथ्वी के गर्भ में रत्नों की खान, स्वर्ण-भण्डार और न जाने क्या-क्या बहुमूल्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं। पर वे तब तक प्रकाश में नहीं आतीं, जब तक कोई चेतना सम्पन्न मनुष्य उनसे सम्पर्क स्थापित नहीं करता है। स्वर्ण और रत्न का मूल्य चेतन प्राणी की चेतना के कारण ही है अन्यथा वे मिट्टी कंकड़ के समान ही पड़े रहते हैं। इस देह को ही लीजिए। कितनी बहुमूल्य, प्रिय एवं उपयोगी लगती है पर यदि चेतना नष्ट हो जाय-मूर्छा उन्माद या मृत्यु की स्थिति आ जाय, तो यह देह किसी काम का नहीं रह जाती। मानव-जीवन में जो कुछ श्रेष्ठता एवं महत्ता है, वह केवल उसकी मानसिक स्थिति-मनोभूमि के कारण ही है।
आलसी और उत्साही, कायर और वीर, दीन और समृद्ध, पापी और पुण्यात्मा, अशिक्षित और विद्वान्ï, तुच्छ और महान, तिरस्कृत और प्रतिष्ठित का जो आकाश पाताल जैसा अन्तर मनुष्यों के बीच में दीख पड़ता है, उसका प्रधान कारण उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति ही है। परिस्थितियाँ भी एक सीमा तक इन भिन्नताओं में सहायक होती है। पर उनका प्रभाव पाँच प्रतिशत ही होता है, पचानवे प्रतिशत कारण मानसिक। बुरी से बुरी परिस्थितियों पड़ा हुआ मनुष्य भी अपनी कुशलता और मानसिक विशेषताओं के द्वारा उन पर बाधाओं को पार करता हुआ, देर-सबेर में अच्छी स्थिति प्राप्त कर लेगा।
अपने सद्गुणों, सद्विचारों एवं सत्प्रयत्नों द्वारा कोई भी मनुष्य बुरी से बुरी परिस्थिति को पार करके ऊँचा उठ सकता है। पर जिसकी मनोभूमि निम्न श्रेणी की है, जो दुर्बुद्धि से, दुर्गुणों से, दुष्प्रवृत्तियों से ग्रसित है, उसके पास यदि कुबेर जैसी सम्पदा और इन्द्र जैसी सुविधा हो, तो भी वह अधिक दिन ठहर न सकेगी, कुछ ही दिन में नष्ट हो जायगी।
कर्म जो आँखों से दिखाई देता है, वह अदृश्य विचारों का ही दृश्य रूप है। मनुष्य जैसा सोचता है वैसा करता है। चोरी, बेईमानी, दगाबाजी, शैतानी, बदमाशी कोई आदमी यकायक कभी नहीं कर सकता। उसके मन में उस प्रकार के विचार बहुत दिनों से झूमते रहते हैं। अवसर न मिलने से वे दबे हुए थे, समय पाते ही वे कार्यरूप में परिणित हो जाते हैं। बाहर के लोगों को किसी दुष्कर्म होने की बात सुनकर इसलिए आश्चर्य होता है कि वे उसकी भीतरी स्थिति को नहीं जानते थे। इसी प्रकार कोई अधिक उच्चकोटि का सत्कर्म करने का भी आकस्मिक समाचार भले ही सुनने को मिले पर वस्तुुत: उसकी तैयारी वह मनुष्य भीतर ही भीतर बहुत दिनों से कर रहा होता है।
इसी तरह जो व्यक्ति आज उन्नतिशील एवं सफलता सम्पन्न दिखाई पड़ते हैं, वे अचानक ही वैसे नहीं बन गये, वरन् चिरकाल से उनका प्रयत्न उसके लिए चल रहा होता है। भीतरी पुरुषार्थ को उन्होंने बहुत पहले जगा लिया होता है। उन्होंने अपने मन:क्षेत्र में भीतर ही भीतर वह अच्छाइयाँ जमा कर ली होती हैं, जिनके द्वारा बाह्य जगत में दूसरों का सहयोग एवं उन्नति का आधार निर्भर रहता है। बाह्य जीवन हमारे भीतरी जीवन का प्रतिबिम्ब मात्र है। पर्दे के पीछे दीपक जल रहा है, तो कुछ प्रकाश बाहर भी परिलक्षित होता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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