Friday 15, November 2024
शुक्ल पक्ष पूर्णिमा, कार्तिक 2024
पंचांग 15/11/2024 • November 15, 2024
कार्तिक शुक्ल पक्ष पूर्णिमा, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), कार्तिक | पूर्णिमा तिथि 02:58 AM तक उपरांत प्रतिपदा | नक्षत्र भरणी 09:55 PM तक उपरांत कृत्तिका | व्यातीपात योग 07:30 AM तक, उसके बाद वरीयान योग 03:33 AM तक, उसके बाद परिघ योग | करण विष्टि 04:38 PM तक, बाद बव 02:58 AM तक, बाद बालव |
नवम्बर 15 शुक्रवार को राहु 10:43 AM से 12:01 PM तक है | 03:17 AM तक चन्द्रमा मेष उपरांत वृषभ राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 6:46 AM सूर्यास्त 5:17 PM चन्द्रोदय 4:45 PM चन्द्रास्त 7:04 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु हेमंत
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - कार्तिक
- अमांत - कार्तिक
तिथि
- शुक्ल पक्ष पूर्णिमा - Nov 15 06:19 AM – Nov 16 02:58 AM
- कृष्ण पक्ष प्रतिपदा - Nov 16 02:58 AM – Nov 16 11:50 PM
नक्षत्र
- भरणी - Nov 15 12:33 AM – Nov 15 09:55 PM
- कृत्तिका - Nov 15 09:55 PM – Nov 16 07:28 PM
अध्यात्म विज्ञान सम्मत बनें एवं विज्ञान अध्यात्म परक |
मनुष्य जीवन ऊँचे उद्ददेश्यों के लिए |
यज्ञ करने से शत्रु नष्ट हो जाते हैं।
निरर्थक नहीं सारगर्भित कल्पनाए करें |
सन्तुलित मन में एकाग्रता सबसे बड़ी शक्ति है। सन्तुलित व्यक्ति एक−विचार पर की सम्पूर्ण शक्ति केन्द्रित कर पाता है। उसकी विचार शक्ति विकेन्द्रित होकर व्यर्थ ही नष्ट नहीं होती। अकारण ही वह भय तथा काल्पनिक दुःखों से ग्रसित नहीं होता।
मानसिक सन्तुलन पर स्वास्थ्य का बड़ा प्रभाव पड़ता है। जब स्वास्थ्य अच्छा होता है और शरीर रोग मुक्त होता है, तो मानसिक सन्तुलन ठीक रहता है। रोगी शरीर होने पर प्रायः सन्तुलन बिगड़ जाता है। कभी कभी मानसिक सन्तुलन के भंग होने का कारण बुरा स्वास्थ्य होता है। स्वयं अपने मानसिक सन्तुलन का निरीक्षण कीजिए और उसके नष्ट होने के कारण मालूम कीजिए। यदि आपका मानसिक सन्तुलन भंग है, तो उसका दूषित प्रभाव उसके शरीर पर प्रकट हुए बिना नहीं रह सकता। पाचन विकार से शिथिलता, चिड़चिड़ापन, निराशा उत्पन्न होती है। यदि शरीर में कोई कष्ट हो, तो मनुष्य दुःखी, अतृप्त एवं अशान्त बना रहता है। प्रायः देखने में आता है कि जीर्ण रोगियों को क्रोध एवं आवेश अधिक आता है, उनका स्वभाव नैराश्य पूर्ण होता है दुःख पूर्ण मनःस्थिति अधिक रहती है।*
भोजन का मानसिक सन्तुलन पर बड़ा प्रभाव पड़ता है। आप जैसा भोजन लेते हैं, वैसा ही सन्तुलन स्थिर रहता है। खराब, दूषित, बासी, या अभक्ष्य पदार्थों के भोजन से मानसिक सन्तुलन भंग हो जाता है। मद्य, तमाकू , पान, सिगरेट से वासना उद्दीप्त होती है। इनका प्रयोग करने वालों में कामोत्तेजना बनी रहती है। माँस के साथ क्रूरता का अटूट सम्बन्ध है। मांस खाने वाले तुनकमिज़ाज, उत्तेजक स्वभाव, क्रुद्ध होने वाले, क्रूर हिंसामय प्रवृत्ति के होते हैं। मिर्च के साथ उत्तेजना का निकट साहचर्य है। राजसी भोजन, अधिक भोजन और अभक्ष पदार्थों के भोजन सन्तुलन को नष्ट करने वाले हैं। इनके विपरीत शाक भाजी दूध इत्यादि के साथ सात्विक भावनाएँ संयुक्त हैं। शाकाहार करने वाले ऋषि मुनि गण सरलता से मानसिक सन्तुलन स्थिर रख सके हैं। सात्विक भोजन सुख शान्ति की अभिवृद्धि करने वाला है।
.... क्रमशः जारी
अखण्ड ज्योति, फरवरी 1955 पृष्ठ 12
Gurunanak Jyanti 2024.mp4
हमारे साहित्य में हमारी जीवात्मा जुड़ी हुई है |
वास्तविक अध्यात्म क्या है?
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
आज का सद्चिंतन (बोर्ड)
आज का सद्वाक्य
नित्य शांतिकुंज वीडियो दर्शन
!! आज के दिव्य दर्शन 15 November 2024 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
गायत्री मंत्र का विज्ञान, ज्ञान वाला भाग। गायत्री मंत्र का विज्ञान वाला भाग। जिसमें हमारी शक्तियों का उदय, उभार संभव होता है शक्तियों का उभार और उदय, कहां से उदय होता है? भगवान के यहां से उदय होता है भीतर से उभार आता है। भीतर से जब उभार आता है ऊपर से उदय होता है वृक्ष के भीतर से मैग्नेट जब उदय होता है तो ऊपर से बादल बरसना शुरू करते हैं। वृक्षों का वृक्षों का मैग्नेट खत्म हो जाता है तो ऊपर से बादल बरसने से इंकार कर देते हैं भीतर का अंतरंग का उभार आए बिना किसी के ऊपर किसी की किसी भी देवता की अथवा भगवान के अनुग्रह की वर्षा आज तक नहीं हुई है और भविष्य में कभी नहीं हो सकती।अंतरंग का उभार न हो तब, अंतरंग के सोए हुए सोए हुए तत्व को जगाने के लिए क्या करना चाहिए यह हमारा विज्ञान है। यह साइंस है। आध्यात्मिकता की साइंस है और गायत्री मंत्र का विज्ञान वाला भाग साइंस वाला भाग जिसको हम अनुष्ठान कह सकते है, उपासना कह सकते हैं, जप कह सकते हैं, तपश्चर्या कह सकते हैं, पंचकोशी साधना कह सकते हैं, कुंडलिनी साधना कह सकते हैं |
अखण्ड-ज्योति से
तीर्थांकुर भगवान महावीर उन दिनों राजगीर में अपना अपरिग्रह प्रवचन माला चलाते हुए चातुर्मास सम्पन्न कर रहे थे। उनके प्रभावी प्रतिपादन श्रोताओं के गले उतरते चले जा रहे थे। परिणाम स्वरूप चारों ओर सत्प्रवृत्ति विस्तार हेतु परमार्थ परायणता की भावना ही संव्याप्त थी। धनिकों और मध्यम वर्ग के अनेकों लोगों ने सत्प्रयोजनों हेतु अपनी सम्पदा दान कर दी। संचय और स्व की ही- सुख उपभोग मात्र की ही- विचारणा करने वाले उस समाज के लिए लिये यह एक असाधारण घटना थी। भगवान् का कहा हुआ हर वाक्य व्यवहार में उतरता चला जा रहा था।
उन दिनों भी कुछ ऐसा ही हुआ। जिनके पास धन था, उन्होंने सामान्य नागरिकों जैसा जीवनयापन कर शेष सत्प्रवृत्ति संवर्धन हेतु दान कर दिया। लोभजन्य अपराधों का तो समापन ही हो गया। बारी अब उनकी थी जिनके पास धन तो नहीं था, पर जन्मजात श्रम सम्पदा की तनिक भी कमी नहीं थी। उन्होंने श्रमदान भगवान के चरणों में अर्पित किया। शरीर यात्रा भर के लिए निजी उपार्जन करने के उपरान्त अपनी शेष समय श्रम-सम्पदा उन्होंने धर्मधारणा के व्यापक विस्तार हेतु नियोजित कर दी। इस श्रम-सम्पदा से प्रगति की अनेकानेक गतिविधियाँ चल पड़ीं।
प्रवचन माला जारी थी। नहीं आए थे तो मात्र एक ही धनाधिपति- राजगृही के सबसे समृद्ध गाथापति महाशतक। जन-सामान्य इसी ऊहापोह में था कि इस प्रवाह का क्या किंचित मात्र भी प्रभाव इस महाधनिक पर नहीं पड़ा। मानों उनके समाधान हेतु ही उस दिन एक किशोरी के संकल्प के रूप में तीर्थांकुर की प्रेरणा प्रस्फुटित हुई।
किशोरी मधूलिका के संकल्प लिया- “भगवान्! जब आयुष्य भी परिग्रह है, तो फिर लम्बी आयु तक जीकर मैं ही क्यों परिग्रह का पाप ओढूँ? मेरे पास और तो कुछ नहीं, मेरा आयुष्य दान स्वीकार कर लें। जीवन भर धर्म चेतना के प्रसार-विस्तार हेतु लगी रहूं- यही अभिलाषा है।”
जीवन दान के इस आत्म निवेदन को अर्हन्त ने स्वीकार किया। उसे महिला जागरण के कार्य को अहिर्निशि सम्पन्न करते रहने की साधना में प्राण-पण से जुटने को जब प्रभू ने कहा तो सारा राष्ट्र उस किशोरी के त्याग से झकझोर उठा। सामान्य गृहणियों का स्तर भी देवियों जैसा बनने लगा। मधूलिका के समर्पण से परिवारों में स्वर्गीय सुसंस्कारिता की हरीतिमा उगने- लहलहाने लगी।
महाशतक के घर आज वही आयुष्य दानी कुमारिका आयी था। उसके तेजस् ने धनपति के मन में सत्संग समागम तक पहुँचने के लिए उत्कंठा उत्पन्न कर दी। परिग्रह त्याग से ग्रहीता की तुलना में दानी अधिक लाभ में रहता है, यह उसने उपस्थित लोगों के परिवर्तित जीवन को देखकर प्रथम बार अनुभव किया। उसने भी अपना वैभव-कुबेर समान धनराशि श्रमण संघ हेतु समर्पित कर दी। नये बिहार बनने लगे। नये धर्म प्रचारकों के प्रवेश का अवरुद्ध द्वार खुला। शालीनता की बासन्ती सुरभि से वह सारा प्रदेश सुगन्धित हो उठा।
महाशतक की पत्नी स्वयं में बड़ी कृपण व कर्कश थी। वस्तुतः अभी तक उसी का प्रभाव उनकी उदारता में बाधक बनता रहा था। उसके असहयोग ने महाशतक के अपरिग्रह व्रत में कई व्यवधान डाले। एक दिन सामा से बाहर होने पर वह क्रुद्ध हो उठा। कटु वचनों के उपरान्त प्रताड़ना तक की नौबत आ गयी। दैवी संयोगवश उसी समय भगवाग उधर भिक्षाटन हेतु आ निकले। कलह का दृश्य देख दुःखी हो वे बोले- “महाशतक। अपरिग्रह का व्रत मत तोड़ो। तुम्हारे पास स्नेह सौजन्य और मधुर वचनों का भण्डार भरा पड़ा है। उसे क्यों रोकते हो? बाँटते क्यों नहीं। सौजन्य के प्रसाद से पत्नी को क्यों वंचित करते हो?” भगवान के इन शब्दों ने महाशतक की पत्नी पर जादू-सा असर डाला। अपरिग्रह की और भी परिमार्जित विवेचना सुन दोनों तीर्थांकुर के चरणों में गिर पड़े। भगवान अन्य सोयों को जगाने आगे चल दिए।
इतना सब होते हुए भी स्वयं को तुच्छ मान बैठना एक विडम्बना ही है। यह दुर्भाग्य जिस कारण उस पर लदता है, वह है आत्म-विश्वास की कमी। अपने ऊपर भरोसा न कर पाने के कारण वह समस्याओं को सुलझाने, कठिनाइयों से उबरने और सुखद सम्भावनाओं को हस्तगत करने में दूसरों का सहारा तकता है। दूसरे कहाँ इतने फालतू होंगे कि हमारी सहायता के लिए दौड़ पड़ें। बात तभी बनती है, जब मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होता है, अपनी क्षमताओं पर भरोसा करके, अपने साधनों व सूझ-बूझ के सहारे आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है। यह भली-भाँति समझा जाना चाहिए कि आत्म-विश्वास संसार का सबसे बड़ा बल है, एक शक्तिशाली चुम्बक है जिसके आकर्षण से अनुकूलताएँ स्वयं खिंचती चली आती हैं।
अखण्ड ज्योति, जुलाई 1983
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