Monday 06, January 2025
शुक्ल पक्ष सप्तमी, पौष 2025
पंचांग 06/01/2025 • January 06, 2025
पौष शुक्ल पक्ष सप्तमी, पिंगल संवत्सर विक्रम संवत 2081, शक संवत 1946 (क्रोधी संवत्सर), पौष | सप्तमी तिथि 06:23 PM तक उपरांत अष्टमी | नक्षत्र उत्तरभाद्रपदा 07:06 PM तक उपरांत रेवती | परिघ योग 02:05 AM तक, उसके बाद शिव योग | करण गर 07:20 AM तक, बाद वणिज 06:24 PM तक, बाद विष्टि 05:26 AM तक, बाद बव |
जनवरी 06 सोमवार को राहु 08:34 AM से 09:50 AM तक है | चन्द्रमा मीन राशि पर संचार करेगा |
सूर्योदय 7:18 AM सूर्यास्त 5:27 PM चन्द्रोदय 11:29 AM चन्द्रास्त 12:14 AM अयन दक्षिणायन द्रिक ऋतु शिशिर
V. Ayana उत्तरायण
- विक्रम संवत - 2081, पिंगल
- शक सम्वत - 1946, क्रोधी
- पूर्णिमांत - पौष
- अमांत - पौष
तिथि
- शुक्ल पक्ष सप्तमी - Jan 05 08:15 PM – Jan 06 06:23 PM
- शुक्ल पक्ष अष्टमी - Jan 06 06:23 PM – Jan 07 04:27 PM
नक्षत्र
- उत्तरभाद्रपदा - Jan 05 08:18 PM – Jan 06 07:06 PM
- रेवती - Jan 06 07:06 PM – Jan 07 05:50 PM
स्वार्थ-भाव को मिटाने का व्यवहारिक उपाय, Swarth Bhaav Ko Mitane Ka Vyavharik Upay
51 कुंडीय गायत्री महायज्ञ की पूर्णाहुति समारोह में डॉ. पंड्या जी का प्रेरक उद्बोधन।
आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी का बिजेपुर में आगमन
गुरु गोबिंद सिंह नाम कहाया | Guru Govind Singh Naam Kahaun
अपना ही नहीं समाज का भी हित सोचें | Apna Hi Nahi Samaj Ka Bhi Hit Sochen
अहंकारी दुर्योधन की शर्मनाक हार |
आदरणीय डॉ. चिन्मय पंड्या जी का ग्राम-कठिया में आत्मीय स्वागत।
गुरुगोविन्द सिंह निविड़ वन में बैठे एकान्त चिंतन में लीन थे। उनके मन में देश, समाज, संस्कृति के उत्थान और कल्याण के लिए विचारो की लहरे उठ रही थी। उनका प्रवाह नीचे वेगवती यमुना के प्रवाह से तेज था। तभी गुरु ने देखा यमुना को पार कर उनका शिष्य उनकी ओर आ रहा है। निकट आने पर उसे पहचाना - उस शिष्य का नाम था रघुनाथ। काफी सम्पन्न और ऐश्वर्यशाली । उसे अपनी धन सम्पदा का भी अभिमान था। वह निकट आकर गुरु के पास बैठ गया। गुरु ने कहा - आओ रघु कैसे आये हो ?
रघुनाथ ने गुरु के चरणों में विनम्र प्रणाम किया और बोला - सुना था आप हम भक्तों को छोड़कर एकान्त वन में जा रहे है। सोचा आप का कुशल क्षेम पूछ आऊँ। मेरी कुशल क्या जानना है रे रघु - गुरु ने बड़ी आत्मीयता से संबोधित करते हुए कहा- ‘कुशल तो मेरे उन बन्दों को पूछ जाकर, जो अपना सारा समय और समर्थ ग्रंथ साहिब का संदेश सुनकर जन चेतना को जाग्रत करने लगे है। इस कार्य में उन्हें मेरे से अधिक कष्ट कठिनाइयाँ सहन करनी पड़ रही है।
रघु ने उन्हें देखा और तुरंत कहा- ओ गुरु जी आप इन सूखे टुकड़ों पर अपना जीवन निर्वाह कर रहे है। सूखे टुकड़े नहीं यह प्रेम का पकवान है। गुरु जी बोले इन्हें एक भाई दे दिया गया। तो मैं भी उनकी सेवा में एक तुच्छ भेट अर्पित करता हूँ- रघु ने कहा उनसे अपने दो हाथों के हीरे जड़े कड़े उतारे और गुरु के समस्त रख दिये। फिर इन्हें स्वीकार की जिए। रघु यह कहकर गर्व से देखने लगा। गुरु ने उसके चेहरे पर आते जाते भावों को देखा और कड़ों को एक ओर उपेक्षित झाड़ी में फेंक दिया।
गुरु पुनः चिंतन में लीन हो गये रघु ने सोचा गुरु कम मिलने के कारण उदास है।उसने कहा अभी मेरे पास बहुत संपत्ति है। इसे मैं आपको इच्छानुसार दे सकता हूँ। गुरु बोले मुझे संपत्ति की नहीं बन्दों की जरूरत है। जो पूर्णतया समर्पित होकर समाज के उत्थान में जुट सके।
लेकिन संपत्ति से अनेकों व्यक्ति प्राप्त किये जा सकते हैं रघु का स्वर उभरा । गुरु ने उसे असमंजस से उबारते हुए कहा, मुझे नौकर नहीं देश, समाज संस्कृति के प्रति पूर्णतया समर्पित व्यक्ति चाहिए जो समाज विपत्तियों, परेशानियों, कठिनाइयों के बीच से अविचलित रह कर अपने साथ हेतु जुट रह सके। संपत्ति तो चोर भी दे सकते हैं लेकिन मुझे भाव पूर्ण व्यक्ति चाहिए।
रघुनाथ को यथार्थता का बोध हुआ। वह गुरु के चरणों में गिर पड़ा और बोला मुझे भ्रम से उबार लिया- आज से अपनी समूची जिन्दगी आपके चरणों में निवाहित करता हूँ। अतः इसका निःसंकोच उसी प्रकार उपयोग कर सकता है जैसे अपने हाथ के हथियारों का करते हैं।
गुरु गोविन्द सिंह ने उसे हृदय से लगाते हुए कहा अब तुमने समय की आवश्यकता को समझा हैं, सेवा का आधार, धन का मद नहीं, अपितु हृदय की उदात्त भावनाओं का पूर्णतया समर्पण एवं तद्नुरूप किया।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति, फरवरी 1996 पृष्ठ 25
श्री गुरु गोविंद सिंह जी के प्रकाश पर्व पर कोटि कोटि नमन |
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ओजस्वी व्यक्ति की पहचान |
गायत्रीतीर्थ शांतिकुंज, नित्य दर्शन
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!! आज के दिव्य दर्शन 06 January 2025 !! !! गायत्री तीर्थ शांतिकुञ्ज हरिद्वार !!
!! परम पूज्य गुरुदेव पं श्रीराम शर्मा आचार्य जी का अमृत सन्देश !!
परम् पूज्य गुरुदेव का अमृत संदेश
व्यक्तित्व का विकास कैसे हो? इसके लिए कोई-न-कोई काम करने के लिए जगह होनी चाहिए न; प्रयोगशाला कहीं होनी चाहिए न? पढ़ने के लिए कोई विद्यालय होना चाहिए न? काम को सीखने के लिए या काम को करने के लिए कोई प्रयोगशाला की आवश्यकता पड़ती है। इसके बिना कोई बात सीखी नहीं जा सकती। कोई चीज अभ्यास में उतारी नहीं जा सकती, कार्यक्षेत्र के बिना। इसके लिए कार्यक्षेत्र कहाँ हो? व्यक्त्वि के विकास करने का ये स्वयं में चिंतन आवश्यक तो है; उपासना आवश्यक तो है; भावना आवश्यक तो है, पर एक क्रियापक्ष भी तो चाहिए; कर्म करने के लिए कोई जगह भी तो चाहिए; अभ्यास करने के लिए कोई स्थान भी तो चाहिए; दौड़ने के लिए कोई जंगल भी तो चाहिए। कुछ-न-कुछ काम करने को जगह चाहिए। जगह करने के लिए व्यक्त्वि का विकास करने के लिए जिस जगह की आवश्यकता है, उसका नाम है परिवार। परिवार वो स्थान है, जिसमें कि आदमी अपने सद्गुणों का सद्वृत्तियों का अभ्यास कर सकता है।
पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड-ज्योति से
वरदायी अथवा अलौकिक ऐश्वर्य का आधार अध्यात्म सामान्य उपासना मात्र नहीं है। उसका क्षेत्र आत्मा के सूक्ष्म संस्थानों की साधना है। उन शक्तियों के प्रबोधन की प्रक्रिया है, जो मनुष्य के अन्तःकरण में बीज रूप में सन्निहित रहती है। आत्मिक अध्यात्म के उस क्षेत्र में एक से एक बढ़कर सिद्धियाँ एवं समृद्धियाँ भरी पड़ी है।
किन्तु उनकी प्राप्ति तभी सम्भव है, जब मन, बुद्धि, चित, अहंकार से निर्मित अन्तःकरण पंचकोशों, छहों चक्रों, मस्तिष्कीय ब्रह्म-रन्ध्र में अवस्थित कमल, हृदय स्थित सूर्यचक्र, नाभि की ब्रह्म-ग्रन्थि और मूलाधार वासिनी कुण्डलिनी आदि के शक्ति संस्थानों और कोश-केन्द्रों को प्रबुद्ध, प्रयुक्त और अनुकूलता पूर्वक निर्धारित दिशा में सक्रिय बनाया जा सके। यह बड़ी गहन, सूक्ष्म और योग साध्य तपस्या है। जन्म-जन्म से तैयारी किए हुये कोई बिरले ही यह साधना कर पाते है और अलौकिक सिद्धियों को प्राप्त करते है। यह साधना न सामान्य है और न सर्वसाधारण के वश की।
तथापि असम्भव भी नहीं है। एक समय था, जब भारतवर्ष में अध्यात्म की इस साधना पद्धति का पर्याप्त प्रचलन रहा। देश का ऋषि वर्ग उसी समय की देन है। जो-जो पुरुषार्थी इस सूक्ष्म साधना को पूरा करते गये, वे ऋषियों की श्रेणी में आते गये। यद्यपि आज इस साधना के सर्वथा उपयुक्त न तो साधन है और न समय, तथापि वह परम्परा पूरी तरह से उठ नहीं गई है। अब भी यदाकदा, यत्र-तत्र इस साधना के सिद्ध पुरुष देखे सुने जाते है। किन्तु इनकी संख्या बहुत विरल है।
वैसे योग का स्वांग दिखा कर और सिद्धों का वेश बनाकर पैसा कमाने वाले रगें सियार तो बहुत देखे जाते है। किन्तु उच्च स्तरीय अध्यात्म विद्या की पूर्वोक्त वैज्ञानिक पद्धति से सिद्धि की दिशा में अग्रसर होने वाले सच्चे योगी नहीं के बराबर ही है। जिन्होंने साहसिक तपस्या के बल पर आत्मा की सूक्ष्म शक्तियों को जागृत कर प्रयोग योग्य बना लिया होता है, वे संसार के मोह जाल से दूर प्रायः अप्रत्यक्ष ही रहा करते है। शीघ्र किसी को प्राप्त नहीं होते और पुण्य अथवा सौभाग्य से जिसको मिल जाते है, उसका जीवन उनके दर्शनमात्र से ही धन्य हो जाता है।
इतनी बड़ी तपस्या को छोटी-मोटी साधना अथवा थोड़े से कर्मकाण्ड द्वारा पूरी कर लेने की आशा करने वाले बाल-बुद्धि के व्यक्ति ही माने जायेंगे। यह उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साधना शीघ्र पूरी नहीं की जा सकती। स्तर के अनुरूप ही पर्याप्त समय, धैर्य, पुरुषार्थ एवं शक्ति की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति धीरे धीरे अपने बाह्य जीवन के परिष्कार से प्रारम्भ होती है। बाह्य की उपेक्षा कर सहसा है, जिसमें सफलता की आशा नहीं की जा सकती।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1969 पृष्ठ 9
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