हिन्दू धर्म जीवित और पुरुषार्थी जाति का धर्म है ।। उसका हर एक त्यौहार जागरूकता ओर क्रियाशीलता का सन्देश देता रहता है ।। होली का सन्देश यह है कि भीतरी और बाहरी गन्दगी को ढूँढ़- ढूँढ़कर साफ कर डालें और चतुर्मुखी पवित्रता की स्थापना करें एवं मानसिक सामाजिक राजनैतिक विकृत विकारों के कंटक जो रास्ते में बिछे हुए हैं उन्हें सब मिल जुलकर ढूँढ़- ढूँढ़कर लावे और उनमें आग लगाकर उत्सव मनावें ।। होली मनाने का यही सच्चा तरीका है ।। अश्लील अपशब्द बकना, कीचड़, मिट्टी मनुष्यों पर फेंकना यह तो पशुता का चिन्ह एवं असभ्यता है इससे तो दूर ही रहना चाहिए ।।
होली के त्यौहार का छिपा हुआ संदेश यह है कि जमी हुई गन्दगी को दूर करो, रास्ते में बिछे हुए कष्टदायक तत्वों को हटाओ ।। बाहर की गली मुहल्लों की गन्दगी को साफ करके स्वच्छता और शुद्धता का वातावरण उत्पन्न करना आवश्यक है अन्यथा क्षेत्र में ऋतु परिवर्तन के साथ- साथ यह गंदगी विकृत रूप धारण करके चेचक आदि बीमारियों को और भी अधिक बढ़ावा दे सकती है ।। सफाई का यह बाहरी दृष्टिकोण हुआ भीतरी सफाई करना, मानसिक दोष दुर्गुणों को हटाना भी इस प्रकार आवश्यक है अन्यथा अनेक मार्गों के असंख्य प्रकार के अनिष्ट होने की सम्भावना है ।।
होली-उद्देश्य और शिक्षा
- होली समता का त्यौहार है । उस दिन निश्चय ही आपस की असमता रूपी असुरता का होली की तरह दाह करना चाहिए ।
- जन्म और लिंग के प्रभेद के कारण इस समान और एक प्रभु को सन्तति में किसी को भी ऊँचा और नीचा नहीं मानना चाहिये ।
- गुण, कर्म और स्वभाव की कृत्रिम भिन्नता से मनुष्य उच्च और नीच बनते हैं, लिंग और जाति से नहीं । वैसे वास्तव में कोई भी उच्च और नीच नहीं होता ।
- भेद-प्रभेदों की विषमता को दूर हटाते हुए एकता और आत्मीयता (अपनेपन) को अपनाना चाहिए ।
- संसार में आर्थिक विषमता, असंगत और निन्दित है । इस जगती-तल में सभी को (चाहे गरीब हो या अमीर) समान एवं उचित अवसर मिलने चाहिये ।
- दीन, दुर्बल और डरपोक होकर मनुष्य को नहीं रहना चाहिए । सर्वदा इस संसार में नृसिंह की तरह निर्भय और वीर का जीवन जिये ।
- जो मनुष्य मातृभूमि की धूलि को मस्तक पर धारण करते अर्थात् बढ़ाते हैं ओर सदा उस मातृभूमि का ध्यान रखते अर्थात् उसके लिये त्याग करते हैं, वे मनुष्य धन्य जीवन वाले अर्थात् सौभाग्यशाली हैं ।
- द्वेष और दुर्भाव को जड़ सहित जला देना चाहिए । संसार में समानता से और प्रेम से आनन्दपूर्वक रहना चाहिए ।
- संसार में सदा उचित कर्म ही निश्चय रूप से करना चाहिए । पिता की भी अनुचित आज्ञा अर्थात् बात को नहीं मानना चाहिये ।
- अपनी कमाई में समाज का पहला अधिकार है । शेष को यज्ञावशिष्ठ है, यह मानकर स्वयं उपभोग में लाना चाहिये ।