Magazine - Year 1941 - Version 2
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Language: HINDI
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भारतीय योगियों की कहानी
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एक योरोपियन की ज़बानी॥
(ले0 श्री0 जी0 के0 मर्फी)
जो योरोपियन पूर्व में नौकरी के संबन्ध में अथवा केवल पर्यटन की दृष्टि से जाते हैं, उनके लिये भारतीय फकीर, साधु, संन्यासी और योगी सदा ही दिलचस्पी के विषय रहते हैं। इनमें से कुछ तो धूर्त होते हैं, और साधारण मनुष्यों को ठग कर अपना पेट पालते हैं, लेकिन बहुत से साधुओं और फकीरों में कुछ अलौकिक शक्तियाँ भी होती हैं। ये फकीर अपने “जादू” के ऐसे करिश्मे दिखला सकते हैं और दिखलाते हैं, जो गोरों को प्रायः असम्भव और अद्भुत मालूम पड़ते हैं।
इसके पहिले कि भारतीय संन्यासियों के ‘करिश्मों’ का कुछ वर्णन करूं, मैं यह बताना चाहता हूँ कि मैं इसका अधिकारी कैसे हुआ। मैंने संसार भ्रमण करके केवल इधर-उधर काम चलाने का ही ज्ञान प्राप्त नहीं किया है, वरन् मैं पूर्व में लगभग चालीस वर्ष रहा हूँ और मैंने अपना समय उच्च पद पर रह कर सरकार की नौकरी करने में व्यतीत किया है। मैं अच्छी हिंदुस्तानी और बर्मी भाषा बोल सकता हूँ। मैंने उन पहाड़ियों और जंगलियों की स्थानीय बोली भी जानता हूँ जो आज की सभ्यता से दूर हैं, मेरा दावा है कि मैं हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों को अच्छी तरह से जानता हूँ। मैं उन लोगों के बीच में रह चुका हूँ। मैंने उनके साथ काम किया है। मैंने उनकी ‘मार्गदर्शक’ ‘दार्शनिक’ और साथी की तरह से सेवा की है। इस निकट सम्बन्ध के कारण ही मैं भारतीय फकीरों और महात्माओं द्वारा किये गये ‘जादू’ के विषय में ज्ञान प्राप्त कर सका हूँ। इसी वजह से मैं वहाँ की रीति, रिवाज और धारणाओं को ठीक तरह से समझ सका, जो कि आमतौर से अफसरों के लिये एक गूढ़ विषय रहते हैं। अब मैं अपनी कहानियाँ सुनाता हूँ।
मेरे भारत निवास के लम्बे अरसे में नीचे लिखे चमत्कार मुझे देखने को मिले, जो कि आध्यात्मवाद अथवा अलौकिकता के विद्यार्थियों के लिये दिलचस्पी का सामान होंगे।
एक अवसर पर एक योगी ने, जिसका यह दावा था कि उसने मृत्यु की समस्या को हल कर लिया है, घोषणा की, कि वह पाँच रोज़ तक लाश की तरह जीवित कब्र में गाड़ दिये जाने के लिए तैयार है। पाँच दिन के बाद वह फिर जीवित हो जाएगा। वहाँ के रहने वाले बहुत से यूरोपियन अफसरों ने यह स्वीकार कर लिया और योगी को अपना कमाल दिखाने के लिये तैयार कर दिया। एक काठ का ताबूत बनाया गया। वहाँ के मैजिस्ट्रेट के अहाते में एक छः फीट गहरी कब्र खोदी गई। यह स्थान जान-बूझकर इस लिये चुना गया था कि यहाँ पर उसकी पूरी तरह से रखवाली हो सकती थी।
निश्चित दिन पर थोड़ा प्राणायाम कर लेने के बाद वह साधु ताबूत में बन्द कर दिया गया। इस समय उसकी अवस्था कुछ बेहोश की तरह हो रही थी। इस ताबूत में बारह बड़े-बड़े छेद थे। ऊपर से बड़े ढक्कन रखकर इन छेदों में कीलें डाल दी गइ। मैजिस्ट्रेट, सुपरिन्टेन्डेंट पुलिस, दो युरोपियन डाक्टरों तथा दूसरे अफसरों के सामने उस पर मुहर लगा दी गई। ताबूत कब्र में डाल दिया गया और उस पर मिट्टी चढ़ा दी गई। ऊपर की सतह पर बड़े-बड़े गोल पत्थर रख दिये गये। सब के ऊपर एक तागा कब्र के इस पार से उस पार तक बाँध दिया गया। तागा इस तरह बाँधा गया कि बगैर उसके छुये कब्र में कोई हाथ नहीं लगा सकता था। मैजिस्ट्रेट ने इस तागे पर होशियारी के साथ मुहर लगा दी।
उस दिन से रोजाना अफसरों का एक छोटा सा दल उस कब्र की परीक्षा करता था। वह यही परीक्षा करते थे कि तागे की मुहर को किसी ने छुआ है या नहीं, मैजिस्ट्रेट साहब स्वयं इस बात की निगरानी रखते थे कि कोई चीज को छूने न पावें। पाँचवें दिन दो बजे पूर्व निश्चय के अनुसार हम लोग एकत्रित हुए। तागे पर की मुहर तोड़ी गई, पत्थर उठा दिया गया। ज़मीन खोदी गई और ताबूत को होशियारी से ऊपर उठाया गया। ढक्कन की कीलें निकाल ली गई। फकीर बाहर निकाला गया और ठीक उसी तरह जमीन पर लिटा दिया गया जैसा कि उसने गाड़े जाने के पहिले आदेश किया था।
उसका शरीर शिथिल और ठण्डा हो गया था। डॉक्टर लोग जीवन का कोई भी चिन्ह नहीं पा सके। नाड़ी बन्द हो गई थी। साँस का पता नहीं चलता था। प्रत्येक व्यक्ति ने, जिसमें डॉक्टर लोग भी शामिल थे, यह समझा कि वह फकीर बिल्कुल निर्जीव हो गया है। फकीर ने पहिले ही कहकर रक्खा था कि कोई उससे छेड़-छाड़ न करे। इस लिये हम लोग मुर्दे को गौर से देख रहे थे, कि क्या यह मुर्दा जिसने कि पूरे भरोसे के साथ कहा था, कि वह जी जायेगा, सचमुच ही जी जाएगा। अगर वह न जी सका तो?
आध घण्टे बाद डॉक्टर ने फिर नाड़ी देखी। हमको यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उसकी नाड़ी अब मन्दगति से चलने लगी है। एक घण्टे के बाद नाड़ी और भी तेज चलने लगी। दूसरा घण्टा होते-होते उसने अपनी आँखें खोल दीं। चारों तरफ घूर कर देखा और जमुहाई ली जैसे कि वह एक लम्बी नींद से अभी उठा हो।
थोड़ा सा प्राणायाम करने के बाद वह उठ खड़ा हुआ। प्रश्न करने के बाद हमें मालूम हुआ कि उस आश्चर्यजनक कार्य करने की क्षमता उसमें प्राणायाम ही से आई थी। उसने बताया कि वह इच्छा के अनुसार अपनी प्राणशक्ति को गुप्त कर सकता था। यह काम वह कैसे करता था, यह आज तक एक रहस्य ही है।
(2)
हिन्दुस्तानियों के रस्सियों के तमाशे के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। साथ ही साथ यह भी कहा गया है कि आज तक किसी ने उसे देखा नहीं है, इसके बारे में जो कुछ कहा जाता है सब दूसरों से सुनकर। लेकिन लेखक ने इसे अपनी आँखों से देखा है। भारत के मध्य प्रान्त में जबलपुर से 60 मील दूर मडिला स्थान में 1800 या 1801 में यह तमाशा हुआ था। इस तमाशे को एक बूढ़े योगी ने किया था। अपनी इन्हीं अलौकिक शक्तियों के कारण उसका वहाँ बहुत सम्मान था।
“हम इसके लिये उत्सुक थे कि इस अवसर पर जिम्मेदार गवाह भी उपस्थित रहें, इसलिये हमने इस तमाशे को वहाँ के डिप्टी कमिश्नर मि0 मा0 के बंगले पर कराया। मि0 मा0 के मेहमानों में ये लोग भी थे-मि0 भेरिक, सुपरिन्टेन्डेण्ट पुलिस मि0 थामसन, फारेस्ट ऑफिसर और मैं।”
‘अप्रैल का चमकीला दिन था, हम लोगों के अलावा करीब आधे दर्जन हिंदुस्तानी नौकर भी वहाँ उपस्थित थे। वहाँ के कुछ स्थानीय लोग भी इस आश्चर्यजनक घटना को देखने के लिये एकत्र हो गये थे।”
‘बूढ़े योगी ने यह कह कर खेल शुरू किया कि वह बहुत आश्चर्यजनक खेल दिखाने जा रहा है। इस खेल में एक लड़का उस रस्सी पर चढ़ेगा जो सीधी स्वर्ग की तरफ जा रही होगी। लड़का टुकड़े-टुकड़े कर दिया जाएगा। उसका कटा हुआ शरीर दिखलाई भी पड़ेगा। बाद में वह उस लड़के को जीवित भी कर देगा, उस पर कुछ भी असर नहीं होगा।”
इस भूमिका के बाद उसने उस लड़के को आगे खड़ा किया। उसका नाम मंगरु था। वह नौ वर्ष का था। योगी ने हमें रस्सी भी दिखलाई जो पृथ्वी पर लिपटी हुई पड़ी थी। योगी ने, जो कम से कम साठ वर्ष का अवश्य हो चुका होगा, अपने सब कपड़े उतार दिये। वह केवल अपनी गंदी धोती पहने रह गया। पाँच मिनट तक वह
अपने ढोल को लगातार पीटता रहा। बीच-बीच में वह हम लोगों को जोश दिलाता था कि हम लोग उसकी ओर लगातार देखते रहें।
“बहुत गौर से देखिये” उसने कहा, ‘हम जो कुछ भी कर रहे हैं, उसमें से कुछ भी देखना मत छोड़िये।’
“मैं घूर कर देख रहा था क्योंकि मैं किसी भी चीज को बिना देखे छोड़ना नहीं चाहता था। थोड़ी देर बाद मेरा मन न जाने कैसा होने लगा। मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मैं कोई स्वतन्त्र दर्शक नहीं हूँ, बल्कि योगी के असर में आ गया हूँ। इसके बाद नीचे लिखी बातचीत हुई जिसका प्रति शब्द मुझे अभी तक याद है।
‘मंगरु, तुम कहाँ जा रहे हो?’ योगी ने पूछा।
‘तुम जहाँ कहीं भी मुझे भेजो, गुरुजी!’ लड़के ने कहा।
‘क्या तुम डर रहे हो, मेरे बच्चे।’
‘नहीं, मैं क्यों डरूं?’
‘मान लो कि कोई शत्रु तुम्हें मार डाले।’
‘मुझे परवाह नहीं, क्योंकि मैं तुम पर विश्वास करता हूँ।’
‘क्या तुम सचमुच मुझ पर विश्वास करते हो, मंगरु ?’
‘बेशक तुम्हीं तो मेरे माँ-बाप हो।’
‘बहुत अच्छा, चढ़ने के लिये तैयार हो जाओ।’
तब योगी ने रस्सी के एक किनारे को पकड़ कर आकाश की ओर फेंक दिया। रस्सी एक बाँस की तरह सीधी खड़ी हो गई।
हम लोगों में से हर एक ने देखा कि रस्सी हमारी दृष्टि के पार नीले आकाश में ऊपर की तरफ फैल गई। फिर मंगरु को बुलाकर उसने कहा, ‘आओ मेरे बेटे, रस्सी पर चढ़ जाओ, हिम्मत करो।’
इन शब्दों के निकलते ही लड़के ने रस्सी को पकड़ा और उस पर बन्दर की तरह चढ़ता गया। यहाँ तक कि वह आँखों से ओझल हो गया। हमारी तरफ ताक कर, शान्त होकर योगी ने कहा, ‘वह मेरे शत्रुओं में से एक को मारने ऊपर गया है।’ उसी समय हम लोगों ने एक विचित्र आवाज सुनी। मालूम पड़ता था कि कोई झगड़ा हो रहा है। उसी क्षण हम लोगों को विस्मित करता हुआ एक कटा हुआ पैर लुढ़कता-पुढ़कता नीचे आ गया। थोड़ी देर बाद दूसरा पैर भी नीचे आ गया। उसके बाद दोनों कटे हुए हाथ नीचे आये और अन्त में धड़ भी आ गिरा। जिस समय हम लोग यह तमाशा ‘सुन्न’ होकर देख रहे थे, योगी ने चिल्लाकर कहा, “देखिये सरकार, उसका शरीर टुकड़े-टुकड़े हो गया। अब मैं न टुकड़ों को जोड़ दूँगा।’ उन टुकड़ों को ठीक तरह से रखकर उसने उन पर हाथ फेरा। ‘गौर से देखिये, उसने कहा-वह अभी जीवित हो जाएगा। मंगरु मेरे बेटे, मेरे बेटे वापस आओ!’ मंगरु वापस आ गया। वह हम लोगों के चकित होने पर मुस्करा रहा था।
हमने उससे पूछा कि क्या वह अपना करिश्मा फिर दिखा देगा। ‘उसको देखने के लिये एक साहब बहुत उत्सुक हैं,’ मैंने कहा। पहिले तो उसने आनाकानी की। अन्त में वह मान गया और हमने दस दिन के पश्चात एक दिन निश्चित किया।
दूसरे अवसर पर जो तमाशा हुआ था उसको मि0 मा0 के बंगले पर किया गया था। दफ्तर के सामने वाले मैदान में, जो उनकी खिड़की से बीस-पच्चीस फीट दूर था, वहीं पर तमाशा होना निश्चित हुआ।
जब वह अपनी करामात ठीक पहले की तरह दिखाने लगा, मैं बंगले में खिसक गया। वहाँ पर हमारा कैमरा तैयार रक्खा था। मैंने योगी के बहुत से फोटो लिए। निगेटिव होशियारी से तैयार किये थे, लेकिन फोटो में सिर्फ थोड़े से दर्शक दिखाई पड़े जो कि मन्त्र-मुग्ध होकर एक टक ताक रहे थे। वह योगी गंभीर मुद्रा धारण करके तरह-तरह के इशारे कर रहा था और ऊपर की ओर दिखला रहा था।
हालाँकि मैंने काफी मेहनत और होशियारी में उस योगी की खास करामातों की तसवीरें ली थीं, फिर भी उसमें सीढ़ी पर चढ़ने वाले बच्चे की अथवा उसके शरीर के टुकड़ों की तसवीर नहीं आई, उसमें उनका पता भी नहीं था। तसवीर के एक प्रिंट में मंगरु बंगल में आता हुआ दिखाई पड़ता था।
मेरा विचार है कि इस घटना से भारत में होने वाले रस्से के करिश्मे का रहस्योद्घाटन हो जाता है। इससे साबित हो जाता है, अगर सबूत की जरूरत हो, तो कि यह करामातें ‘नजर बन्दी की हैं।
वैज्ञानिक लोग इस पर विश्वास नहीं करेंगे, वे यह बात सुनकर कि कमरे के बाहर बैठे हुए इतने आदमियों पर नजर बन्दी हो सकती हैं हँस देंगे। जो भी हो, मैं इतनी हिम्मत के साथ कह सकता हूँ कि असम्भव प्रतीत होते हुए भी भारतवर्ष के योगी के करिश्मे दिखला सकते हैं और दिखलाते हैं। ये योगी अपने रहस्यों को कभी नहीं बतलाते। केवल जब वे किसी योरोपियन को कई साल के बाद खूब जान लेते हैं, तब सचमुच उनके मित्र हो जाते हैं, और अपनी जादूगरी के बारे में उनसे बहुत थोड़ी बात- चीत भी करते हैं, अन्यथा उनके जादू के भेद जान लेना विशेष कर योरोपियनों के लिये असम्भव है।