Magazine - Year 1942 - Version 2
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Language: HINDI
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दो सत्यानाशी कार्य
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(श्रीमंगलचंद भंडारी, हि. सा. विशारद, अजमेर)
दिसम्बर मास में कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी। सन्ध्या हो चुकी थी। बाहर दरवाजे पर एक भिखारी रोटी माँग रहा था। यों तो बहुत से भिखारी नित्य आते हैं, पर आज के याचक की वाणी में कुछ विशेष आकर्षण था। उसे देखने के लिये मुझे घर से बाहर आने को विवश होना पड़ा। दरवाजा खोल कर देखता हूँ कि एक अस्थि पंजर नवयुवक भिक्षुक सामने खड़ा है और रोटी की याचना कर रहा है। एक-एक हड्डी दिखाई पड़ रही थी, तो भी उसके चेहरे से ऐसा प्रतीत होता था कि यह पेशेवर भिखारी नहीं है, वरन् कोई विपत्ति का मारा है।
मैंने उस भिखारी को प्रेम से पास बिठा लिया और उसकी इस दशा का कारण पूछा। पर मेरे बहुत कहने पर तैयार हो गया। उसने कहना आरम्भ किया -
“मेरा जन्म एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था। इकलौता होने के कारण लाड़-प्यार वश मैं बालकपन में कुछ पढ़-लिख न सका। किशोर अवस्था आते ही माता-पिता का परलोक वास हो गया। मैं अकेला रह गया। बिना पढ़ा होने के कारण व्यापार की कुछ देख−रेख न कर सका। मुनीमों की बन आई। वे लूट करने लगे। इधर मेरे कई नये मित्र उत्पन्न हुए, उन्होंने ऐश-आराम की कीचड़ में घसीट लिया। दुकान की ओर से मेरा मन बिल्कुल फिर गया। जवानी के मजे लेता हुआ मित्रों के साथ इधर उधर फिरने लगा। तिजोरियाँ खाली हो गई, जायदाद से ज्यादा कर्ज चढ़ गया, मुनीम लोग दुकान को खोखली करके चले गये। कर्जदारों ने जायदाद को नीलाम करा लिया। ऐसी दशा में मित्र लोग भी किनारा कर गये। उनने अच्छी तरह बोलना भी छोड़ दिया। मैं लाचार था, दो-तीन वर्ष में ही अपनी सारी सम्पदा गँवा कर दर-दर का भिखारी हो गया। बिना पढ़ा होने से कोई अच्छी नौकरी मिली नहीं। अभ्यास न होने और लज्जा के कारण छोटी मंजूरी कर न सका। कोई मार्ग न था, घर छोड़ कर निकल पड़ा और देश परदेश भीख माँगता हुआ किसी प्रकार जीवन निर्वाह कर रहा हूँ। यही मेरी अपनी कथा है।”
भिखारी की आँखों में आँसू भर आये थे, मेरा भी हृदय छलक पड़ा। माता-पिता का वह लाड़-प्यार जो बालकों को अशिक्षित एवं अयोग्य रहने देता है कितना घातक है, यह देख कर मुझे बड़ा दुख हुआ। साथ ही उन मित्र कहलाने वाले डाकुओं पर क्षोभ आया, जो खाते-पीते घरों के बालकों को फँसाने के लिए अपना जाल ताने फिरते हैं और अपने स्वार्थ के लिए उन्हें बिलकुल बरबाद कर देते हैं।
भिक्षुक भिक्षा लेकर चला गया, पर मेरे मन पर यह अमिट प्रभाव छोड़ गया कि भले घरों के बालकों को नष्ट करने वाली दो ही बातें हैं-
(1) माता-पिता का अनावश्यक लाड़ प्यार।
(2) दुष्ट मित्रों की संगति। इसके द्वारा लाख के घर खाक हो जाते हैं।