Magazine - Year 1942 - Version 2
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Language: HINDI
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प्राणों का विस्तार
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(श्री निरंकार देव सेवक)
इस अखिल ब्रह्माण्ड में बिखरे पड़े हैं प्राण मेरे॥
प्राण मेरे सूर्य मंडल में प्रभा बने जगमगाते।
प्राण मेरे शून्य के शशि तारकों में झिलमिलाते॥
प्राण की मदिरा पिये दिन-रात पृथ्वी झूमती सी-
वायु बन कर प्राण मेरे व्योम को सिर पर उठाते॥
है हुई उत्पन्न मुझसे ही सकल हलचल जगत की-
विश्व की चैतन्यता ही प्राण की पहचान मेरे॥
इस अखिल ब्रह्माण्ड में बिखरे पड़े हैं प्राण मेरे॥
डडडड अपने सरित सर सागरों में देखता हूँ।
डडडड अपने विपिन गिरि गह्वरों में देचाता हूँ।
डडडड में लाख चौरासी बना बन्दी पड़ा मैं-
डडडड व्योम जलिल चर नरों में देखता हूँ॥
डडडड आरंभ से ही हर दिशा में, हर तरफ से-
डडडड झंकार आती सुन रहे हैं कान मेरे॥
इस अखिल ब्रह्माण्ड में बिखरे पड़े हैं प्राण मेरे॥
दीन-दुखियों की व्यथा डडडड मेरे हृदय की।
चिर वियोगिनि की कथा डडडड ना मेरे हृदय की॥
है सबल का विश्व साथ डडडड दुर्बल का न कोई-
मानवों की यह प्रथा डडडड वेदना मेरे हृदय की।
व्ँस कभी पाया न सुख डडड मैं अमर सहचर दुखों का-
सिसकियाँ भरते इसी से, अश्रु सिंचित गान मेरे॥
इस अखिल ब्रह्माण्ड में बिखरे पड़े हैं प्राण मेरे॥
सभ्यतायें लुट चुकी हैं, उच्च उन्नति के शिखर पर।
जातियाँ सोई अनेकों जागरण के गीत गा कर॥
आज के नृपराज संभव हैं बने कल के भिखारी-
पी सका अमरत्व का विष कौन किस्मत का सिकंदर?
है सृजन विध्वंस मेरे, भाग्य की लिपि में लिखे से-
खूब देखे हैं समय ने, सब पतन उत्थान मेरे॥
इस अखिल ब्रह्माण्ड में बिखरे पड़े हैं प्राण मेरे॥
*समाप्त*