Magazine - Year 1945 - Version 2
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Language: HINDI
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मानवों के प्रति
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युग-युग के बिछुड़े हम मानव, आओ अब मिल जाएं!
देखो, ललित लताएं द्रुम को पहनातीं फूलों की माला।
भौंरे उड़-उड़ कर मधु पीते, कुँज बने सुन्दर मधुशाला॥
है मादकता भरी मनोरम, छलक रहा है छवि का प्याला।
यहीं कहीं तो छिपा हुआ है वह मनमोहन मुरलीवाला॥
बन कर हम सब बन के पंछी, आओ हिल-मिल गाएं!
ये नभ-चुम्बी पर्वत, होकर नत चूमेंगे चरण हमारे।
चूर-चूर हो मिट जाएंगे इष्ट-मार्ग के कंटक सारे॥
साथी होंगे रात और दिन, सूर्य, चन्द्र, चमकीले तारे।
जीवन की मरु-भूमि मनोरम मृदु फूलों से गात संवारे॥
सत्य-सुधा-धारा में मन का कल्मष मकल बहाएं!
एक सूत्र में बंधे हुए हम बन्धन की ये कड़ियाँ तोड़ें।
खोए मोती ढूँढ़-ढूँढ़ कर आओ बिखरी लड़ियाँ जोड़ें॥
विषम-स्वार्थमय-भावों की इस मृग-मरीचिका से मुँह मोड़ें।
नाद-मुग्ध कर भोले-भाले हिरनों का वध करना छोड़ें॥
अखिल-विश्व में मानवता का घर-घर दीप जलाएं!
मानव मानव का शोषण कर हाय! आज फूला न समाता,
एक रत्न-संचय करता है, एक न सूखी रोटी पाता!
अरे! आज मानव अपने को ‘मानव’ कहने में न लजाता,
बर्बर पशु, मोरी के कीड़े, अब क्या मानवता से नाता?
करें दूर यह तुम, जीवन में ज्योति अखण्ड जगाएं!
युग-युग के बिछुड़े हम मानव, आओ, अब मिल जाएं!
युग-युग के बिछुड़े हम मानव, आओ, अब मिल जाएं!
युग-युग के बिछुड़े हम मानव, आओ, अब मिल जाएं!