
सतीधर्म का आदर्श
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(पं. रामदहिन मिश्र)
आर्य कवियों ने अनेक आदर्शों की सृष्टि की है। उनमें आर्य सतियों के चरित्र में जिस प्रेमादर्श की सृष्टि की है उसकी समालोचना करना सरल नहीं है। कहा गया है कि सतियों का प्रेम गोपियों के प्रेम के तुल्य है। उसमें वैसा ही निःस्वार्थ भाव है, वैसी ही एक-निष्ठता है और वैसा ही स्वामी का गौरव। इसी भाव से परिपुष्ट होकर वह देवभक्ति में परिणत होकर मनुष्य का देवत्व लाभ करा देता है। इसी सती-प्रेम की आलोचना करने से प्रेमतत्व को भली भाँति समझ सकते हैं।
कामानुराग से प्रेम एकदम भिन्न है। पति को सुखी बनाकर सती आप सुखी होना चाहती है। वात्सल्य प्रेम का जो उच्च धर्म है वही सती-प्रेम का भी लक्षण है। जिस प्रकार सन्तान को सुखी कर माता पिता सुखी होते हैं उसी प्रकार पति के सम्बंध में भी सती का अनुराग होता है। इससे प्राकृतिक प्रेम यह नहीं चाहता कि हम स्वयं सुखी हों। वह केवल प्रणय पात्र को ही सुखी करना चाहता है। उसी सुख से प्रेम की परितृप्ति होती है। किन्तु काम इस प्रकार धर्मपूर्ण नहीं है। कामानुराग दूसरे के द्वारा आप सुख सम्भोग करना चाहता है। इन्द्रिय-लालसा की परितृप्ति करके काम चरितार्थ होना चाहता है। प्रेम परार्थ पर है और कामानुराग स्वार्थ पर।
प्रेम के परार्थ पर होने के कारण ही सती अपने पति के गुण-दोष में निरपेक्ष रहती है। गुण देखकर जो प्रेम करेगा वह दोष देखकर घृणा भी करेगा। दोष सभी में रहता है, इससे रुपज और गुणज अनुराग स्थायी नहीं होता। किन्तु प्रकृत प्रेम गुण-दोष का पक्षपाती नहीं होता। माता-पिता अपनी सन्तान के दोष गुण से निरपेक्ष होकर उनका आदर, यत्न और स्नेह करते हैं, उनका प्रेम सन्तान के दोषगुण से जैसा निरपेक्ष बना रहता है वैसा ही सती का प्रेम भी दोषगुण से निरपेक्ष रहा करता है। माता-पिता के स्वाभाविक प्रेम का जो यह अपक्षपात है वही सती-प्रेम का आदर्श है। इसी से मनु ने कहा है कि पति में भले ही हजारों दोष हों, किन्तु वह सती के लिये परम पूजनीय हैं। केवल मनु ही क्यों, महाभारत आदि सभी आर्य ग्रन्थों में सर्वत्र यही उपदेश है। प्रेम के इस उच्च शिखर तक कामानुराग कभी नहीं पहुँच सकता। कामानुराग रूप और गुण के वशीभूत रहता है। रूप चिरस्थायी नहीं होता और गुण अत्यन्त दोष विहीन हो ही नहीं सकता। इससे उसके पात्र अपात्र का सदा परिवर्तन हुआ ही करता है। आज जिसे सुन्दर और गुणी समझ, कामना ने उसे अपनाया, कल एक अन्य व्यक्ति उसकी अपेक्षा भी अधिक गुणवान् और रूपवान् देख पड़ा। ऐसा होते ही कामना की प्रबल प्रवृत्ति उसकी ओर झुक पड़ी। कामना स्थिर नहीं, चंचल है। किन्तु प्रेम का धर्म है स्थिरता। प्रेम निश्चल और एकनिष्ठ होता है। क्योंकि वह दोष से विचलित नहीं होता, गुण का पक्षपाती नहीं बनता। इसीलिये आर्य सती का प्रेम अत्यन्त अनुरागपूर्ण, स्थिर अचंचल और एकनिष्ठ होता है, किन्तु कामान्धों का अनुराग सर्वदा अस्थिर और विचलित होता रहता है।
प्रकृत प्रेम निःस्वार्थ और एकनिष्ठ होने के कारण आकाँक्षा-रहित रहता है। जो दोष गुण से निरपेक्ष रहता है, जो दूसरे से सुखी होना नहीं चाहता, उसकी आकाँक्षा ही क्या होगी? सती का प्रेम कोई व्यवसाय नहीं है-वह बदला नहीं चाहता। सती यह कभी नहीं कह सकती कि पहले तुम प्रेम करो, फिर मैं भी प्रेम करूंगी। पहले दो तो पीछे ग्रहण करो। प्रकृत प्रेम इस प्रकार का कोई विनियम व्यापार नहीं है। क्या शकुन्तला ने पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों से प्रेम कर उनसे कुछ बदला चाहा था? पति का प्रेम सराहनीय है, पर ऐसा नहीं है कि पति का प्रेम होने से ही सती अपने पति को प्रेम करे। हाँ, यह बात अवश्य है कि सती-प्रेम के साथ पति प्रेमिका संयोग हो जाय तो मणि काँचन का संयोग हो जायगा, किंशुक में सौरभ भर जायगा, केतकी कण्टक शून्य हो जायगी, चन्दन में फूल खिल जायेंगे और ऊख में फल लग जायगा। ऐसा न होने पर भी सती अपने पति से प्रेम करती है। “नाथ तुम्हारे करने ही से मैं भी कहो, करूंगी प्रेम? तुम्हें छोड़कर और न जानूँ एक यही है मेरा नेम।”
वात्सल्य प्रेम जैसा निःस्वार्थ रहता है वैसा ही निःस्वार्थ दाम्पत्य प्रेम भी होना चाहिए। बालबच्चे सयाने होने पर हमारी रक्षा करेंगे, क्या इसी आशा से माता-पिता सन्तान से स्नेह करते हैं? वे अपत्य प्रेम की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रहते। वे कब यह चाहते हैं कि जब हमारे लड़के बच्चे प्रेम करना सीख लेंगे तभी हम उनसे प्रेम और उनका यत्न करेंगे? नहीं, वे उनके प्रेम की अपेक्षा न करके अपने अपत्यों को प्राण की अपेक्षा न करके अपने अपत्यों को प्राण की अपेक्षा भी अधिक प्यार करते हैं। आर्य सती भी जब सुयोग्य वर के साथ पिता द्वारा ब्याह दी जाती है तब वह पतिगृह में आकर पतिप्रेम की प्रतीक्षा करके बैठी नहीं रहती। उसमें यह भाव नहीं होता कि जब पति मुझसे प्रेम करेंगे तभी मैं भी उनसे प्रेम करूंगी। वह विवाह के बाद ही पति सेवा में लग जाती है और उसे तन-मन-धन समझकर आदर करती है। वह समझती है कि पति ही मेरा जीवन-सर्वस्व है। पति का प्रेम भी उससे होता है। पति भी पत्नी-प्रेम की प्रतीक्षा में बैठा नहीं रहता। विवाह के बाद ही पति भी पत्नी को स्नेह से देखने लगता है। आर्यों का दाम्पत्य विनिमय विहीन और प्रेमाकाँक्षा से रहित होता है। किन्तु कामानुराग ठीक इसके विपरीत होता है। वह अनुराग परमुखापेक्षी होता है। दूसरे का प्रेम न होने पर कामानुराग उद्दीप्त नहीं होता। वह बदले का व्यापार है। बिना अदला-बदली के पशु-पक्षियों में प्रेम नहीं होता, इसी से ऐसे प्रेम को पाशव प्रेम कहते हैं।