
शास्त्र मंथन का नवनीत
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मूर्खस्य पच्च चिन्हानि गर्वो दुर्ववनं तथा।
काधश्च हठवादश्च परवाक्येष्वनादरः॥1॥
मूर्ख के पाँच चिन्ह हैं- घमंड करना, दुर्वचन बोलना, क्रोध करना, हठ करना और दूसरों की बातों का निरादर करना।
विद्या शौर्यं च दाक्ष्यं च वलं धैर्यं च पंचमम्।
मित्राणि सहजान्याहुर्वर्तयन्ति हितैर्बुधाः ॥ 2 ॥
विद्या, शूरता, चतुरता, बल और धैर्य ये पाँचों बुद्धिमान के स्वाभाविक मित्र हैं। लोग मित्र के समान इनका व्यवहार करते हैं।
लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता।
पंच यत्र न विद्यंते न कुर्याप्तत्र संगतिम् ॥ 3॥
जिस मनुष्य में देशाटन करने की इच्छा, भय, लज्जा, चतुरता और काम पड़ने पर देने की शक्ति, ये पाँच बातें न हों, उसका साथ नहीं करना चाहिए।
दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
उष्णो दहति चाँगारः शीतः कृश्णायते करम्॥ 4 ॥
दुष्ट मनुष्य के साथ मित्रता और प्रीति नहीं करनी चाहिए। अंगार गरम रहने पर तो हाथ को जलाता है और ठंडा होने पर हाथ को काला कर देता है।
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते,
निघर्पणाच्छेदन-ताप-ताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते,
त्यागेन, शीलेन, गुणेन, कर्मणा ॥ 5 ॥
जैसे घिस कर, काट कर, तप कर और कूट कर इन चार रीतियों से सोने की परीक्षा की जाती है, वैसे ही त्याग, शील, गुण और कर्म से पुरुष की परीक्षा होती है।
सत्यं व्रूयात् प्रियं व्रूयान्नव्रूयात्सत्समप्रियम।
शुष्क बैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्सह ॥ 6 ॥
सत्य बोले, प्रिय बोले, परन्तु अप्रिय सत्य न बोले और किसी के साथ बिना कारण सुखा बैर विवाद भी न करें।
प्रस्तावसदृशं वाक्यं स्वभावसदृशं प्रियम्।
आत्म-शक्ति-समं कोपं यो जानाति स पंडितः॥ 7॥
जो मनुष्य प्रसंग के अनुसार बोलना, स्वभाव से ही प्रिय बनना और अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करना जानता है, वह पंडित है।
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वत्कव्यं वचने का दरिद्रता॥ 8 ॥
प्यारी बात बोलने से सब प्राणी सन्तुष्ट हो जाते हैं। इसलिये सदा प्रिय बोलना चाहिए। बोलने में क्या दरिद्रता?
पपात्रिवारयति योजयते हिताय
गुह्यानि गूहति गुणान्प्रकटी करोति।
आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदंति सन्तः॥ 9॥
बुरे कामों से बचाकर अच्छे काम में लगावे, छिपाने योग्य बातों को छिपाकर गुणों को प्रकट कर, विपत्ति के समय में साथ न छोड़े और समय पड़ने पर सहायता दे, बुद्धिमान लोग अच्छे मित्रों के यही लक्षण बताते हैं।
शुचित्वं त्यागिता शौर्यं सामान्यं सुखदुःखयोः।
दाक्षिण्यं चानुरक्तिश्च सत्यता च सुहृद्गुणाः॥ 10॥
पवित्रता, उदारता, शूरता, सुख-दुख में समानता, चतुरता, प्रेम और सत्यता ये मित्रों के गुण हैं।
आरंभ-गुर्वी क्षयिणी क्रपेण
लध्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्ध परार्धभिन्ना
छायेव मैत्री खल-सज्जनानाम्॥ 11॥
जैसे प्रातःकाल की छाया प्रारम्भ में तो बहुत बड़ी और फिर छोटी होने लगती है, यही दशा दुष्टों की मित्रता की है। और सज्जनों की मित्रता दोपहर के पश्चात् की छाया के समान है, जो आरम्भ में तो बहुत छोटी परन्तु अन्त में बढ़ती ही चली जाती है।