Magazine - Year 1949 - Version 2
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Language: HINDI
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यह सम्बंध अटूट
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तू मेरा है, मैं तेरा हूँ,-यह सम्बंध अटूट।
सत्य यही इतना इस जग में, और-और सब झूठ!
हम पहले तो एक साथ थे, कितना अपनापन था!
मन की बात कहूँ क्या, तब तो एक हमारा तन था!!
तूने ही कौतुकवश मुझको प्रथम-प्रथम बिलगाया,
दो होकर मिलने के सुख का अद्भुत लोभ दिखाया।
खेल-खेल में तू प्रकाश बनता, बनता मैं छाया,
ब्रह्म नाम तूने अपनाया, मैं कहलाया माया!
पर वह तो था खेल, खेल में रहती इतनी छूट!
सत्य छिपाने से छिप सकता, लाख कहे जो झूठ?
बीत गया दिन अलग-विलग रह, अब रजनी की बारी,
जाने क्यों दृग भर-भर आते, मन लगता है भारी!
एक भाव फिर-फिर आता है,-सोच-सोच पछताता,
नाम-रूप-परिवर्तन उस छन मुझे तनिक चौंकाता!
किन्तु दूसरी स्निग्ध भावना करती है तल शीतल,
एकरूपता मलिन सिद्धि, मन-मिलन-साधना निर्मल।
सिद्धि लुटे, पर कहीं साधना की भी मचती लूट?
शाश्वत सत्य यही इतना और सब क्षणभंगुर, झूठ!