Magazine - Year 1949 - Version 2
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Language: HINDI
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रोगी या निरोग रहना आपके अपने हाथ की बात है।
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(कविराज श्री हरनामदासजी बी. ए.)
संसार के सारे काम स्वास्थ्य पर ही निर्भर हैं। केवल स्वस्थ मनुष्य ही धन कमा सकता है, जातीय, सामाजिक, नैतिक, वैयक्तिक और सब प्रकार के कर्त्तव्यों का पालन कर सकता है, जीवन और संसार के सुख उठा सकता है। रुग्ण व्यक्ति कुछ नहीं कर सकता। रोगी तो दूसरों पर बोझ है। उसका अपना जीवन तो निरानन्द होता ही है, वह दूसरों के जीवन को भी निरानन्द बना देता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य का कर्त्तव्य है कि स्वस्थ रहने का पूरा-पूरा यत्न करे और यदि किसी कारण स्वास्थ्य में कोई दोष आ ही जाये तो उसे प्रारंभ में ही दूर करने में देरी न करें, क्योंकि रोग बढ़ जावे तो फिर कठिनाई से दूर होता है, पर नया रोग शीघ्र दब जाता है।
आजकल रोग बहुत बढ़ रहे हैं। इसका कारण एक तो यह है कि लोग दिनों दिन विषय-वासनाओं के दास होते जाते हैं। इन्द्रियाँ उनके वश में नहीं रहीं। दिन भर चरते ही रहेंगे। इसके अतिरिक्त दो समय भोजन करेंगे, उसमें भी तेज मसाले, चटनियाँ, खटाइयाँ और मिठाइयाँ होंगी। दूध और माँस, चावल और सरका, मछली और मिठाई आदि विरुद्ध आहार एक ही समय करने से परहेज न करेंगे। जुकाम ने चाहे निढाल कर रखा हो पर मलाई की बर्फ, आइसक्रीम और गोलगप्पे (पानी के बताशे) अवश्य खाएंगे। दिन भर दफ्तर में काम की अधिकता के कारण चाहे तबियत लेटने के लिए लाचार बहुत कर रही हो, पर बारह बजे तक सिनेमा अवश्य देखेंगे। विषय वासना वश में नहीं। जीवन के तत्व वीर्य को इस निर्दयता के साथ नष्ट किया जाता है कि जवानी में ही बुढ़ापे का मजा देखने के अतिरिक्त उनमें रोग का मुकाबला करने की शक्ति नहीं रहती।
तनिक सी सर्दी गर्मी या भोजन की गड़बड़ी से रोग तुरन्त आक्रमण करता है। इस प्रकार रोग दिनों दिन बढ़ रहे हैं।
रोगों के बढ़ने के उत्तरदायी किसी हद तक छात्रालय और होटल भी हैं वहाँ 8-8 दिन की सड़ी बुसी भाजी पकती हैं, रोटियों पर सूखा कच्चा आटा थोपा जाता है, प्रातः सायं उड़द की दाल ही पकती रहती हैं। बीमारियाँ बढ़ने के साथ-साथ हकीम डॉक्टर भी बढ़ते जाते हैं। परिणामतः साधारण से साधारण बातों के लिए भी लोग उनका आसरा ताकते हैं। वैद्यजी मुझे तीन छींकें इकट्ठी आ गई, औषधि दीजिये। ओह कयामत आ गई, छींकें इकट्ठी? परमात्मा ही बचाये सिर दर्द, जुकाम, थकान, कब्ज तो रोजमर्रा की बात है। जो लोग अपनी आदतें और भोजन में सुधार करने के बजाय वैद्य या डाक्टरों की मुहताजी करते हैं, वे चलते-फिरते अस्पताल बन जाते हैं और आजीवन औषधियों के चक्कर से नहीं छूटते। तबियत दवाइयों की ऐसी आदी हो जाती है कि फिर दवाई के बिना चलना कठिन हो जाता है, स्वास्थ्य और धन दोनों का सत्यानाश होता है।
प्राचीन काल में जब कि वैद्य बहुत थोड़े थे, 20-20 कोस पर कठिनता से कोई औषधालय मिलता था, उस समय लोग कम बीमार होते थे। यह नहीं कि उस समय संसार में रोग थे ही नहीं, तब लोगों के मन की दशा और थी, लोग समझते थे कि रोगी हो गये तो चिकित्सा किस से करायेंगे। इसलिए वे शरीर में कोई दोष देखते ही लंघन (उपवास) कर लेते थे, क्योंकि उपवास संसार के बहुत से रोगों की उत्तम चिकित्सा है, यदि आरंभ में ही उचित समय पर किया जाय तो आजकल परहेज कहाँ? पेट में दर्द हो रहा है, पर माँस अवश्य खाना है, हलुवा और मटर पनीर घर में पके हैं उन्हें क्यों कर छोड़ा जाय? हमारे पूर्वजों का औषधियों पर एक पैसा भी खर्चना बहुत भारी प्रतीत होता था, पर आज कल आमदनी का एक बड़ा भाग वैद्य डाक्टरों की भेंट हो जाता है। यह भी खर्च का एक आवश्यक भाग हो गया है। इस कारण लोगों को अब यह खर्च अधिक प्रतीत ही नहीं होता। कुपथ्य और कुकर्म भी करते रहते हैं और औषधियाँ खाते रहते हैं।
यह भी चालू है और वह भी चालू है। आज से 50-60 वर्ष पहले तक की बूढ़ी स्त्रियाँ उपवास, स्वेद (पसीना) और भोजन के खास-खास कड़े परहेजों से बड़ी-बड़ी बीमारियों को ठीक कर लेती थीं। वे कभी इतने लम्बे चौड़े नुस्खों की आवश्यकता नहीं समझती थीं। साधारण चीजों सोंठ, पीपील, हरड़, आँवला, सनाय, अमलतास, गुलकन्द, बाँसा, निरायता, चाकसू, गूगल, सज्जीखार, एरंडबीज, दालचीनी, लौंग, सौंफ, अजवायन, नौसादर आदि से ही प्रायः प्रत्येक रोग को आरंभ में ही जीत लेती थीं मलेरिया, हैजा (विशूचिका), मिआदी बुखार (टाइफ़ाइड, सन्निपात) जिस रोग के दिन आये, उसी की बाबत अपने नगर के वैद्य वृद्धों से बचाव की बातें पूछ कर अपने परिवार को उनसे बचाये रखती थीं। पर अब प्रायः नये जमाने के स्त्री-पुरुषों के दिमाग से ये विचार दूर होते जाते हैं। डॉक्टर वैद्य की पराधीनता लोगों को प्रतीत ही नहीं होती, यह भावना ही रोग के चंगुल से हमें मुक्त नहीं होने देती। कुछ विचारिये कुछ सोचिये।
मैं प्रायः रोगियों से घिरा रहता हूँ। मेरे कानों में प्रतिक्षण रोगियों के दुःख दर्द के किस्से पड़ते रहते हैं। रोगी की दर्द भरी कहानी, उसकी पल-पल पर बढ़ती हुई परेशानी, उनके परिवार की बेचैनी, उसके बच्चों के सहमे हुये चेहरे, धड़कते हुये दिल, उन सब की चिंता और लाचारी, उनका बार-बार अत्यन्त करुण स्वर में पूछना- क्यों कविराज जी? आपने क्या देखा है? आपने क्या समझा है? क्या यह रोगी अच्छा हो जायेगा? इस जीवन और मृत्यु की खैंच-तान को देखकर कौन पत्थर दिल होगा जो न पसीजेगा। मैं पाठकों से छिपाना नहीं चाहता, अनेक बार ऐसा दृश्य देखकर मेरा दिल भर आया, आँखों में आँसू आ गये। रोगी और उसके परिजनों से नजर बचाकर मैं किसी बहाने दूसरे कमरे में चला गया, मुँह धोकर और दिल को मजबूत करके फिर लौट आया। रोगी को विदा करते ही मैंने अनेक बार दिल में कहा मेरी भी ऐसी दशा हो सकती है। मेरे बच्चों को इसी प्रकार रोग घेर सकते हैं। परन्तु कुछ क्षणों के पश्चात ही हृदय को एक शाँति सी मिल जाती कि कोई रोग हमारी ओर से लिए हुए बिना नहीं आ सकता। रोगों के मूल कारणों की खोज करने से नब्बे प्रतिशत सिद्ध हुआ कि इनकी तह में कोई न कोई चस्का है। खाने का चस्का, पीने का चस्का और स्त्री संभोग का चसका, रंडीबाज़ी का चसका और इसी प्रकार के अनेक अन्य चस्के अदूरदर्शी और मन की मौज करने वाले लोगों को पथ-भ्रष्ट कर देते हैं। वे लोग आरंभ में प्रकृति के संकेत को समझने और अपनी भूल सुधारने से इन्कार करते हैं। परिणाम यह होता है कि रोग बढ़कर असाध्य हो जाता है और प्रकृति अपना बदला चुका लेती है।
मैंने उनको विपत्ति में फंसते देखा जो उड़द की दाल जैसी हानि रहित प्रतीत होने वाली चीज लगातार कई वर्ष तक प्रातः सायं अधिक मात्रा में और काफी घी डालकर खाते रहे। उनसे उन के पेट की मशीन ऐसी बिगड़ी कि सुधारे न सुधार सकी। माँस भक्षण में अधिकता करने वाले हजारों को मधुमेह, गठिया, जोड़ों के दर्द आदि रोगों के तरह कष्ट पाते देखा। स्त्री-संभोग में कोई दिन खाली न छोड़ने वाले लाखों जीवन से हाथ धो बैठे, नित्य सिनेमा दिखने वाले सैंकड़ों ऐसे भी नवयुवकों को जानता हूँ, जिन को अब दिन में ऊंट दिखाई नहीं देता। व्यायाम से जी चुराने वाले-जिनको आराम तलबी का चस्का कुछ हाथ पैर हिलाने नहीं देता-करोड़ों हैं, जो जीते तो हैं, पर जीवन का वह मधुर आनन्द उठाने में वंचित हैं। जो एक पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति को प्राप्त है। किसी के विबन्ध (कब्ज) है। किसी को खाना अच्छी तरह नहीं पचता, किसी का लहू बिगड़ रहा है। किसी का जुकाम पीछा नहीं छोड़ता, किसी को चार छः मील चलते साँस फूल जाता है, किसी का शरीर चूहे जितना, किसी का कद बटेर जितना कोई मजनू की तरह दुर्बल लैला की अंगुली की तरह पतला एक से एक बढ़कर। एक अंग्रेज लेखक ने बहुत ही ठीक लिखा है- “मनुष्य मरता कभी नहीं, वरन् अपने आपको स्वयं ही मार देता है। हम वैद्य हकीम और डॉक्टर लोग इस सचाई को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। इसमें रत्ती भर भी झूठ नहीं।”
इन समस्त कुपथ्यों और दुराचारों का प्रभाव इतना धीरे-धीरे होता है कि हम जान नहीं पाते कि कब और किस तरह ये हमारे स्वास्थ्य भवन की एक-एक कड़ी (शहतीरी) को, हमारे स्वास्थ्य की पुस्तक के एक-एक पृष्ठ को घुन कीड़े की तरह खा जाते हैं।
जहाँ स्वास्थ्य के नियमों का उल्लंघन करने से इतनी विपत्तियों का सामना करना पड़ता है, वहाँ स्वास्थ्य के नियमों का पालन करने से असंख्य सुख-सम्पत्ति से भेंट होती है। आप विपत्ति चाहते हैं या सुख-सम्पत्ति? आपका उत्तर स्वभावतः यही होगा कि ‘सुख-सम्पत्ति’। निश्चय ही आपकी यह इच्छा पूरी होनी न असंभव है और न कठिन। आज ही प्रकृति की आवाज सुनो, मैं दृढ़तापूर्वक कहता हूँ कि दो चार मास में ही आप अपने स्वास्थ्य में आकाश-पाताल का अन्तर पाएंगे। परन्तु इस संसार में प्रत्येक सुखोपभोग की प्राप्ति के लिए त्याग और परिश्रम की आवश्यकता है। इसी प्रकार स्वास्थ्य भी उन्हीं को अपनाता है, जो उसकी प्राप्ति के लिए सच्चे दिल से यत्न करते हैं और चस्कों को तिलाँजलि दे देते हैं। बैठे-बैठाये न धन सम्पत्ति मिलती है और न बैठे-बैठाये स्वास्थ्य मिलता है।
मित्रो! स्वास्थ्य इस संसार में कीमती से कीमती, सुन्दर से सुन्दर और बलवान से बलवान है। धनियों की धनिकता का रहस्य, सौंदर्यशालियों के सौंदर्य का रहस्य और महावीरों की वीरता का रहस्य स्वास्थ्य है। हमें प्रतिदिन यह बात अपने परिवार के तथा संपर्क में आने वालों के दिमाग में घुसेड़नी चाहिए कि यदि हम संकल्प कर लें कि बीमार नहीं होना और संयम तथा नियम से जीवन व्यतीत करके रोग को दूर भगाए रखना है, तो निश्चय ही यह संकल्प सिद्ध होगा। दृढ़ निश्चय से विद्यार्थी पास होते हैं, दृढ़ संकल्प के स्वास्थ्य चाहने वाले मनुष्य अपने स्वास्थ्य की नैय्या को रोग के भंवर से बचाए रखते हैं।