Magazine - Year 1950 - Version 2
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Language: HINDI
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मिथ्या प्रदर्शन, और झूठी नामवरी
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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)
भारत में केवल धनिक पुरुष ही नहीं, साधारण स्थिति तथा निम्न वर्ग को भी अपव्यय तथा मिथ्या प्रदर्शन की भावनाएँ उन थोथे व्यक्तियों को नष्ट करती हैं, जो दूसरों के सन्मुख अपना अतिरंजित एवं झूठा स्वरूप रखना चाहते हैं। आज के युग का अभिशाप वे आदतें हैं जिन्होंने हमें व्यर्थ-व्यय में फँसा दिया है।
हम देखते हैं कि मध्यवर्ग तथा निम्न वर्गों में एक ओर घर में पत्नि और बच्चे फटे हाल रहते हैं, संतान टुकड़ों को तरसती है, मेरे तुम्हारे आगे हाथ पसारती है, तो दूसरी ओर दिखावा पसन्द पति अपने कपड़े-लत्ते, फैशन तथा जिह्वा की तृप्ति के निम्न आवश्यकता से अधिक व्यय करता है। पुरुष सभा सोसायटी में बैठता है, दूसरों को बढ़िया-2 सूटों, नेकटाई और बूट में देखता है। तो स्वयं भी उनका अनुकरण करता है। वह अपनी स्थिति, आय और जिम्मेदारियों को नहीं समझता। यदि समझता है, तो समझ कर भी भूलना चाहता है।
मिथ्या प्रदर्शन के अनेक रूप हैं-(1) चटकीली भड़कीली पोशाक (2)मित्रों में प्रतिष्ठा रखने के हेतु अपव्यय (3) विवाह, उत्सव, मेले प्रतिष्ठाओं जन्म-मरण संस्कारों में अनावश्यक व्यर्थ (4) दान, दहेज, रिश्वत, चन्दा इत्यादि में अपनी आय की उपेक्षा कर अमितव्यय (5) जाति बिरादरी भाई बन्धुओं के मध्य अपनी झूठी शान रखने के लिए अपव्यय (6) अपनी गन्दी आदतों-सिगरेट, चाय, शराब, सिनेमा, बाल-डाँसिंग व्यभिचार, इत्यादि के वश में आकर नाना प्रकार के भोग विलासों में फिजूलखर्ची। (7) प्रतियोगिता-अमुक व्यक्ति ने अपने लड़के की शादी में 2000) व्यय किये हैं तो हम 4000) रु. व्यय करेंगे। अमुक ने अमुक काम में इतना खर्च किया है, अतः हमें इतना करना चाहिये। इस प्रकार पारस्परिक कम्पटीशन में अनेक व्यक्ति बरबाद होते हैं।
मिथ्या-प्रदर्शन की भावना मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से थोथेपन, संकुचितता, उथलेपन, और छिछोरेपन की प्रतिक्रिया है। जो व्यक्ति जितना कम जानता है, पढ़ा लिखा, अविवेकी और नासमझ है, वह उतना ही बाह्य प्रदर्शन करता है। जो स्त्रियाँ बिना पढ़ी लिखी मूर्ख हैं, बनाव शृंगार में अत्यधिक दिलचस्पी लेती हैं। लज्जा तक का ध्यान नहीं रखती। इसी फिजूलखर्ची का यह दुष्परिणाम है कि आज महिला जगत् में, विशेषतः पंजाबी नारी समाज में फैशन-परस्ती बुरी तरह अभिवृद्धि पर है। शाम को बड़े शहरों में ढेर की ढेर दिखावा पसंद नारियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्रों आभूषणों तथा सौंदर्य के अन्य प्रसाधनों से विभूषित निकलती हैं। इन्हें देखकर कौन कह सकता है कि भारत निर्धन देश है या यहाँ अन्न संकट है। प्रतिदिन बड़े-बड़े शहरी में दो से ढाई मन तक पाउडर और इसी अनुपात में क्रीम, सुर्खी, सेन्ट इत्यादि व्यय होते हैं। धोबियों, नाइयों और दर्जियों के बिल निरन्तर वृद्धि पर हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के फैशनेबल वस्त्र तैयार हो रहे हैं। सुनार आभूषणों के चक्र में डाल कर असंख्य धन लूट रहे हैं।
डॉ. सेमुएल स्माइल्स ने एक बड़े पते की बात लिखी है “दैनिक चर्या में हमारा सदा यही विचार रहा करता है कि किसी प्रकार हम दूसरों से कम न समझे जावें। समाज में हमारा उतना ही आदर हो, जितना दूसरे करते हैं तथा हमारे पास उतनी ही दिखावे की सामग्री हो, जितनी दूसरों के पास है। इन्हीं वस्तुओं..सुन्दर टायलेट, फोटो, बढ़िया फर्नीचर, रेडियो, किस्से कहानियों की पुस्तकें, हैट, बिजली का सामान, बढ़िया ड्रेस बाजे, मनोरंजन के सामान, फाउन्टेन पेन के संग्रह में हम सारी आमदनी खर्च कर डालते हैं। कभी कभी जरा सी वस्तु के निमित्त कर्ज लेते नहीं डरते। न जाने हमारे दिमाग में यह खोटा विचार कैसे घुस गया है कि जैसा दूसरे करें, वैसा हम करें। यदि हमारा दूसरा भाई घोड़ा गाड़ी रखता है, बहुत से नौकर रखता है, बड़े बढ़िया मकान में रहता है, प्रतिदिन नये नये कपड़े बदलता है, अच्छे अच्छे खाने खाता है और दूसरों को खिलाता है, तो हमको भी ऐसा ही करना चाहिए, तब ही हमारी बात बनी रहेगी। परन्तु यह कभी नहीं विचारते कि इतना व्यय करने की हमारी आमदनी भी है, या नहीं। दूसरों के समान हम प्रतिष्ठा पाना तो आवश्यक समझते हैं पर उसके कारणों और साधनों पर कभी विचार नहीं करते।
रुपये को मितव्ययिता और सावधानी से व्यय करने से प्रतिष्ठा में वृद्धि है, न कि ऋण लेकर या उधार व्यय करने से। ऋण के कारण बड़ी बड़ी जायदादें नष्ट हुई हैं। बड़े से बड़े रईस और तालूकेदार इसी फिजूलखर्ची के कारण सर्वस्व स्वाहा कर चुके हैं। लाखों का धन, बड़ी-बड़ी स्टेटें विलासिता, व्यभिचार, भोगविलास, झूँठे दिखावे की भट्ठी में नष्ट हुए हैं।
जिनमें आत्मबल और स्वाभिमान है, वे सच्ची तथा झूँठी प्रतिष्ठा में अन्तर समझते हैं। आत्मबल वाले महापुरुष बाह्य प्रदर्शन में नहीं, प्रत्युत आन्तरिक विकास में अपनी बुद्धि, तर्कशक्ति, अध्ययन, मनन, योग्यता की वृद्धि में गर्व का अनुभव करते हैं। वे सरल सादे वस्त्रों का प्रयोग करते हैं। साधारण किन्तु पौष्टिक भोजन काम में लाते हैं, आमदनी से आधा व्यय करते हैं। अपनी मौलिकता के प्रकाश में उन्हें दूसरों के अनुकरण से अधिक स्वाद आता है। वे स्वावलम्बी होने के साथ आत्मनिग्रही भी होते हैं। उनका जीवन अंधानुकरण में नहीं, प्रत्युत अपनी विशेषताएँ प्रकाशित करने में लगता है।
महात्मा गान्धी जी को लीजिये। वस्त्रों की दृष्टि से उनके पास एक खद्दर की धोती रही है, उसके साथ खद्दर की कमीज तथा चादर इत्यादि, भोजन में वे बकरी दूध, गेहूँ की चपाती, फल, तरकारियाँ, खजूर इत्यादि लेते रहे हैं। मकान अति साधारण किन्तु स्वच्छ। रहन-सहन में सादगी, दिखावे से सर्वदा दूर। उनकी विशेषता थी आन्तरिक विकास, आत्मनिष्ठा, सत्याग्रह अध्ययन तथा मनन। भारत के लिए रहन-सहन की दृष्टि से उन्होंने भारतीय आदर्श उपस्थित किया था।
अनेक व्यक्ति रस्म रिवाजों के दास बन रहे हैं। जो कुछ हमारे पूर्व पुरुषों ने किया, वही हम भी करेंगे। जो कुछ हमारे कुटुम्ब में होता चला आया है, वह हमें जारी रखना चाहिए। ऐसा सोचते समय हम यह भूल जाते हैं कि उनकी तथा हमारी परिस्थितियों में बहुत अन्तर आ गया है। फिजूल के रस्म रिवाज को रोकने का भरसक प्रयत्न हमें करना चाहिए। हम स्वयं उनसे बचें, तथा दूसरों को उनसे बचायें।
यदि हमारे पास रुपया है तो उसे शृंगार तथा दिखावे में खर्च करने के स्थान पर हमें ऐसे आवश्यक पदार्थों में व्यय करना चाहिए जिनसे स्थायी लाभ हो। जेवर कदापि आवश्यक चीज नहीं हैं। आवश्यक पदार्थ ये हैं।
(1) पौष्टिक पदार्थ, अच्छे-अच्छे फल, तरकारियाँ सूखे मेवे, दूध दही।
(2) साफ सुथरे वस्त्र-जो चलाऊ हों, धुल सकें और मजबूत रहें।
(3) स्वच्छ मकान-जिसमें वायु का प्रवेश खूब हो, आसपास स्वच्छ हो।
(4) संतान के लिए उत्तमोत्तम शिक्षा, पत्र, पत्रिकाएं अच्छी पुस्तकें
(5) बचत-रोग, वृद्धावस्था, विवाह, मृत्यु मकान आदि के लिए।
(6) दान-सत् शिक्षा और दीन दुखियों के लिए सहायता।
यदि हमारी आमदनी थोड़ी है तो हमें स्मरण रखना चाहिए कि हमारी सब आवश्यकताएं और दिल बहलाव की चीजें तो पूर्ण नहीं हो सकतीं। अतः हमें अपनी आवश्यकताओं में सबसे पूर्व रखना होगा। जो पूरी नहीं हो सकतीं उनके प्रति आत्म संयम से काम लेना होगा, मन का दमन करना होगा। जो चीजें हम क्रय नहीं कर सकते उनके प्रति मन में इच्छाएं करना ही अपने जीवन को दुःखमय बनाना है। अभाव की इच्छा जीवन को अस्त व्यस्त कर देती है। जब मनुष्य की बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती तो वह असत्य, अविचार, बेईमानी का पथ ग्रहण करता है, घर घर भीख माँगता है, चोर डाकू बन कर जाति और देश को कलंकित करता है।
जो आमदनी हो उससे कम व्यय कीजिये और थोड़ा थोड़ा अपनी भावी आवश्यकताओं के लिए अवश्य बचाते चलिये। अपनी चादर देख कर पाँव फैलाइये। ऋण बुरी बला है-यह झूँठ नीचता, कुटिलता, चिंता और मायाचार की जननी है। प्रतिष्ठित से प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी क्षण भर में अपमानित कर देना उसके लिए साधारण सी बात है। दूसरों का अनुकरण कर केवल दिखावे मात्रा के लिए व्यय करना सबसे बड़ी मूर्खता है, बजट बना कर खर्च न करना निरर्थक और दुःखमय है।