Magazine - Year 1950 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
स्त्रियों को भी व्यायाम आवश्यक है
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री गणेशदत्त “इन्द्र” आगरा)
अथर्ववेद में कहा है-
“देवैर्दत्तेन मणिना जांगिडेन मयोभुवा।
विष्कन्धं सर्वारक्षाँसि व्यायामें सहाभहे।” 2/4/4
अर्थात्-देव प्रदत्त मणि के समान श्रेष्ठ आनन्द वर्द्धक, रोगों के नाशक व्यायाम के द्वारा विघ्न और राक्षसों को हम दबा दें। यह वेद मंत्र स्पष्ट कह रहा है कि व्यायाम आनंद का देने वाला रोग नाशक, विघ्न और दुष्टों को दूर हटाने वाला है। आनंद सभी के लिये अपेक्षित है, वह स्त्री हो या पुरुष, निरोग स्त्री-पुरुष दोनों को ही आवश्यक हैँ विघ्नों से सभी बचना चाहते हैं, और दुष्टों से बचने के लिये पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को कहीं विशेष आवश्यकता रहती है।
स्त्री-पुरुष के भेद की बात ही छोड़िये। व्यायाम की तो प्राणीमात्र को आवश्यकता है। बिना व्यायाम के जीवन ही नहीं। प्रकृति प्रत्येक प्राणी को व्यायाम की ओर स्वयं प्रेरित करती है। छोटा सा शिशु जो अभी घुटनों भी नहीं चल सकता, लेटे लेटे ही अपने हाथ पैर हिला डुलाकर व्यायाम कर लेता है। यदि वह ऐसा न करे तो उसका स्वास्थ्य दिनानुदिन खराब होकर वह मर जायेगा। पशु पक्षी भी ऐसा ही व्यायाम नित्य अपनी शक्ति के अनुसार किया करते हैं। कुत्तों को देखिये, वे दौड़ते हैं आपस में खेलते हैं इत्यादि। उनके नैसर्गिक व्यायाम को प्रकट करते हैं। पक्षी उड़ते हैं, जलचर तैरते हैं, थलचर पशु दौड़ते भागते हैं। परन्तु मनुष्य प्राकृतिक नियमों को तोड़ते जाना ही अपनी बुद्धिमता की श्रेष्ठता मानता है। वह हाथ पैर नहीं हिलाना चाहता। लेटे बैठे ही सब काम कर डालने में अपनी मनुष्यता मानता है। यह मनुष्य की भूल है। वह ज्यों ज्यों परिश्रम से हट कर, आराम तलब बनता जायेगा, उसका पतन होगा।
जिस प्रकार जीवन चलाने के लिये मनुष्य को वायु, जल, अन्न, प्रकाश आदि की जरूरत है, उसी भाँति व्यायाम की भी अत्यन्त आवश्यकता है। फिर वह चाहे स्त्री हो या पुरुष। शरीर दोनों के हैं, समान इन्द्रियाँ और समान अवयव हैं। ऐसी दशा में व्यायाम भी दोनों ही को आवश्यक हैं। मैं, अखाड़े में कुश्ती पछाड़ने के लिये, अथवा सर्कस में अपना काम दिखाने के लिये किये जाने वाले व्यायाम को व्यायाम नहीं कह रहा हूँ। मेरा तात्पर्य उसी व्यायाम से है जिससे स्वास्थ्य ठीक रहे, आत्मरक्षा की जा सके और सुन्दर सबल तथा दीर्घायु बच्चे उत्पन्न किये जा सकें। ऐसे पवित्र अनुष्ठान में स्त्री-पुरुष दोनों को समानता से संलग्न रहने पर ही उक्त उद्देश्यों की पूर्ति हो सकती है।
जिस प्रकार पुरुषों ने स्त्री जाति को दबाये रखने के लिये “न स्त्री स्वातंत्र्य मर्हति” कह कर उनके पढ़ने लिखने तक के अधिकार छीन लिये, उसी प्रकार अपनी कमजोरी को छिपाये रखने के लिये स्त्रियों को व्यायाम से भी वंचित रख दिया। यदि प्राचीन समय में भी वर्तमान काल की स्त्रियों जैसी पीले मुख वाली, निस्तेज, निर्बल, रोगी, और डरपोक स्त्रियाँ होतीं तो, कीचक को एक धप्पे में जमीन पर चारों खाने चित्त गिरा कर अपने सतीत्व की, उस बल गर्वित नीच से द्रौपदी रक्षा कदापि नहीं कर सकती थी। जनक नन्दिनी देवी सीता महादेव जी के कठिन पिनाक को, जिसे उठा कर मोर्चा चढ़ा देना राक्षस जैसे पराक्रमी की शक्ति के बाहर था-बचपन में ही उधर से इधर उठाकर रखने में समर्थ न होती। रावण के यहाँ अपने पतिव्रत को नहीं बचा सकती थीं। यह सब उनके व्यायामशील होने का ही प्रभाव था। उन दिनों लड़कों की भाँति लड़कियाँ भी व्यायाम, घोड़े की सवारी, रथ परिचालन और शस्त्रास्त्र चलाना सीखती थीं। तभी वह हमारी उन्नति का हीरक-युग था।
आज पुरुषवर्ग स्त्रियों को बलवान बनाने में घबराता है। वह जानता है कि इनके बलवान होने पर हमारा बाबूपना धूल में मिल जायेगा। उसकी शान तभी तक है और उसकी निर्बलता की दुकान तभी तक है जब तक कि स्त्रियाँ बलवान नहीं बन जातीं। इसीलिये तो वे कहते हैं कि स्त्रियों को व्यायाम हानिकार है। व्यायाम से उनका सौंदर्य नष्ट हो जायेगा। सुकुमारता जाती रहेगी। मर्दानापन आ जायेगा। वे वन्ध्या हो जायेंगी और उनमें से स्त्रीत्व का नाश हो जायेगा इत्यादि। किन्तु ये सब बेप्रमाण और भ्रामक बातें हैं। व्यायाम से सौंदर्य कभी नाश नहीं हो सकता बल्कि व्यायाम तो सुँदरता प्रदान करता है। हाँ, दुबले पतले कमजोर हाथ पैर, निस्तेज पीला शरीर, फीका सफेद मुँह ही सौंदर्य मान लिया गया तो निराली बात है। इस कमजोरी और रोगी दशा का नाम ही सुकुमारता है तो बड़ी भारी भूल है। यदि स्त्री का शरीर प्रायः अस्वस्थ रहे, सिर दुखता रहे, चक्कर आते हों, दो चार कदम चलकर ही थक जाती हो, भोजन न पचता हो तो उसे पद्मिनी समझ बैठना या अत्यन्त सुकुमार मानकर अपने अहोभाग्य मानने लगना भूल है। वह तो बेचारी अस्वस्थ है, मृत्यु की ओर बढ़ रही है। व्यायाम के अभाव में ही उसकी यह दशा है न कि वह शिरीष-सुमन की भाँति स्वाभाविक सुकुमार है। यदि पोच और लचपचा शरीर ही स्त्रित्व का सूचक हो तो फिर कुछ कहना ही व्यर्थ है, परन्तु ये सब भूलें हैं। व्यायाम से न तो स्त्रियों में पुरुषत्व का उदय होता है और अव्यायाम से पुरुषों में ही स्त्रीत्व आता है।
यह स्पष्ट हो गया होगा कि स्त्रियों को व्यायाम की प्रथम आवश्यकता है। व्यर्थ की छूछी और शुष्क दलीलें पैदा करके स्त्रियों को व्यायाम से विरत करना, राष्ट्र के लिये अत्यन्त घातक है। आज भारत के अतिरिक्त सभी देशों में स्त्रियाँ जाग उठी हैं। वे पुरुषों से कदम मिलाकर चल रही हैं। भयंकर से भयंकर कामों में पुरुषों की समानता कर रही हैं। युद्ध विद्या सीख रही हैं। लड़ाई के मैदानों में जा रही हैं। अपने पुरुषार्थ से विपक्षियों को लोहे के चने चबवा रही हैं। पृथ्वी पर, समुद्र तल पर और आकाश में सर्वत्र पुरुषों के साथ प्रतियोगिता कर रहीं हैं, परन्तु हमारा देश अभी स्त्रियों के व्यायाम को ठीक नहीं समझ रहा है। यही कारण है कि आये दिन बंगाल और सीमा प्राँत से स्त्री-हरण के संवाद समाचार पत्रों में पढ़ने को मिलते हैं!!! घर में बिल्लियों के लड़ मरने से डर कर घबरा जाने वाली, कुत्ते को भगाने में डरने वाली, और शरीर पर चुहिया के चढ़ जाने पर चीत्कार कर उठने वाली स्त्रियों से और उनके गर्भ द्वारा उत्पन्न सन्तानों से राष्ट्र का कुछ भी हित नहीं हो सकता।
यह स्पष्ट है कि स्त्रियों को व्यायाम हानिकारक नहीं अपितु अत्यन्त लाभप्रद है। स्त्रीत्व के लोप का, सौंदर्य और सुकुमारता के नाश का, तथा बाँझ हो जाने का भय मानना भूल है। आप यहाँ यह प्रश्न करेंगे कि अभी पुरुषों को ही व्यायाम प्रेम नहीं है और लाखों माँग पट्टी वाले, मुख पर तेल की वार्निश किये, निस्तेज और हतवीर्य बाबू इस देश में हैं, उन्हें व्यायाम की ओर प्रवृत्त न करके स्त्रियों के व्यायाम का प्रश्न उपस्थित कर बैठना कहाँ की बुद्धिमानी है? परन्तु यह प्रश्न व्यर्थ ही सा है हम पहिले ही कह आये हैं कि स्त्री हो या पुरुष मनुष्य मात्र को व्यायाम की जरूरत है। वे बाबू लोग न करें तो न सही-पुरुषों का बहाना लेकर स्त्रियों की शारीरिक उन्नति में बाधा पैदा करना न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। पुरुष तो खुली हवा में घूम फिर कर थोड़ा बहुत व्यायाम कर भी लेते हैं, परन्तु स्त्रियाँ तो घरों में बन्द रह कर अपने जीवन के दिन काट रही हैं। वे पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा बीमार, रोगी और निर्बल रहती हैं, क्षय रोगी स्त्रियों को ही ज्यादा होता है। पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की ही अधिक मृत्यु होती है। हमारे कहने के सत्यासत्य का निर्णय किसी भी शहर में जाकर किया जा सकता है।
स्त्रियों के स्वास्थ्य को साधारणतया ठीक रखने को हमारे घरेलू व्यायाम ही काफी हैं, परन्तु नाली के नलों ने, मशीन की चक्कियों ने, कपड़ों की मिलों ने उसे चौपट कर दिया। कई बड़े बनने के शौकीन और बाबू कहलाने वालो ने जान बूझकर स्त्रियों को अकर्मण्य, आलसी और रोगी बना डाला। घर में जीवित प्रतिमाओं की भाँति उन्हें रख कर उनके स्वास्थ्य को चौपट कर डाला। चक्की पीसना, पानी भरना, धान कूटना, छाछ बनाना, कपड़े धोना, पशु पालना, कडबी काटना, चर्खा काटना प्रभृति अनेक घरेलू व्यायाम हैं, जिन्हें स्त्रियाँ सहज ही करके स्वस्थ, सबल और निरोग रह सकती हैं। मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि ये घरेलू व्यायाम भारतीय नारी समाज के कल्याणार्थ एक झोंपड़ी से लगाकर राज महलों तक पुनः प्रचलित हों। इन्हें बालिकाएं, युवतियाँ और वृद्धायें सभी यथाशक्ति करके स्वास्थ्यलाभ कर सकती हैं।
इसके अतिरिक्त दूसरे भी अनेक व्यायाम हैं जो स्त्री जाति के लिये हितकर, उपादेय एवं आवश्यक हैं। हम आगे कभी थोड़े बहुत व्यायाम कन्याओं, युवतियों और वृद्धाओं के लिये अलग-अलग संक्षेप में लिखेंगे। जो स्त्रियाँ सदा रोगिणी रहती हैं, वे घरेलू व्यायामों को अवश्य करें। चक्की पीस कर ही विविध रोगों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। जो पानी भर सकें वे कुएं से पानी खींचना शुरू करदें। कुछ दिनों में ही स्वास्थ्य उन्नत दिखाई पड़ेगा। जब स्त्रियाँ ऋतुमती हो तब व्यायाम भी बन्द कर दें। इसी प्रकार गर्भकाल में भी व्यायाम नहीं करना चाहिये। बहुत ही हल्का व्यायाम लेते रहना चाहिये। बिलकुल व्यायाम न लेने से भी प्रसव काल में बड़ी तकलीफें उठानी पड़ती हैं। हमारे उक्त विवेचन से आप समझ ही गये होंगे कि स्त्री जाति को व्यायाम की कितनी आवश्यकता है।