Magazine - Year 1950 - Version 2
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Language: HINDI
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संतों की अमृत वाणी
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तुलसी माया नाथ की, घट घट आन पड़ी।
किस किस को समझाइये, कूये माँग पड़ी॥
है नियरे दीखे नहीं, धिक धिक ऐसी जिन्द।
तुलसी या संसार के, हुआ मोतिया बिन्द॥
कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय॥
पपिहा प्रण कबहुँ न तजे, तजे तो तन बेकाज।
तन छूटे तो कुछ नहीं, प्रण छूटे तो लाज॥
जिन जैसा सत्संग किया, वैसा ही फल लीन।
कदली साँप भुजंग मुख, बून्द एक गुण तीन॥
हरिजन से तो रूठना, संसारी से हेत।
सो नर ऐसे जाएंगे, ज्यों मूरी का खेत॥
सिंहों के लहडे नहीं, हंसों की नहिं पाँत।
लालों की नहिं बोरियाँ, संतों की न जमात॥
देह धरे का दण्ड है, सब काहू को होय।
ज्ञानी काटे ज्ञान से, मूरख काटे रोय॥
तरुवर पत्तों से कहे, सुनो पात एक बात।
या घर ये ही रीति है, इक आवत एक जात॥
जो ऊगै सो अस्त हो, फूले सो कुम्हलाय।
चिनिया मन्दिर गिर पड़े, जनमे सो मर जाय॥
हंसा बगला एक सौ, मान सरोवर माहि।
बगुला ढूंढ़े मछली, हंसा मोती खाहि॥
निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करत सुभाय॥
सभी खिलौना खाँड के, खाँड खिलौना नाहिं।
तैसे सब जग ब्रह्म में, ब्रह्म जगत है नाहिं॥
तत्व वस्तु जिसको मिली, सो क्यों करत पुकार।
सूरदास की कामिनी, किल पर करे सिंगार॥
काम बिगाड़े भक्ति को, ज्ञान बिगाड़े क्रोध।
लोभ बिराग बिगाड़ दे, मोह बिगाड़े बोध॥
साँचे बिन सुमरन नहीं, भय बिन मनि न होय।
पारस से परदा रहे, कंचन किस बिध होय॥
आशा तो एक राम की, दूजी आश निराश।
नदी किनारे घर करे, कभी न मरे पियास॥
लघुना से प्रभुता बढ़े, प्रभुता से प्रभु दूर।
चींटी मिस्री खातहे, हाथी फ कत धूर॥
नानक नन्हा हो रहो, जैसी नन्हीं दूब।
और घास जल जायगी, दूब रहेगी खूब॥
करनी बिन कथनी कथे, गुरुपद लहे न सोय।
बातों के पकवान सों, धापे नाही कोय॥
तुलसी गुरु प्रताप से, ऐसी जान पड़ी।
नहीं भरोसा श्वाँस का, आगे मौत खड़ी॥
तुलसी बिलंब न कीजिये, भजिये नाम सुजान।
जगत मजूरी देत है, क्यों राखें भगवान॥
माला मन से लड़ पड़ी, तू मत बिसरे मोय।
बिना शस्त्र के सूरमा, लड़त न देखा कोय॥
भजन करन को आलसी, भोजन को हुशियार।
तुलसी ऐसे पतित को, बार-बार धिक्कार॥
अरब खरब लों द्रव्य है, उदय अस्त लों राज।
बिना भक्ति भगवान की, सभी नरक का लाज॥
तुलसी या संसार में, पंच रतन हैं सार।
संतमिलन अरुहरिभजन, दयादीन उपकार॥
तुलसी या जग भय, कर लीजे दो काम।
देने को टुकड़ा भला, लेने को, हरि नाम॥
सन्स बंधन आधीनता, परतिय मात समान।
इतने में हरि ना मिलें, तुलसीदास जमान॥
राम नाम मणि दीप धरु, जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहिरौ, जो चाहत उजियार॥
धन जोबन यों जायगो, जा बिधि उड़त कपूर।
नारायण गोपाल भज, क्यों चाटे जग धूर॥
राम नाम जपते रहो, जब लग घट में प्रान।
कबहुँ तो दीनानाथ के, भनक पड़ेगी कान॥
तनसे मन से बचन से, देत न काहु दुःख।
तुलसी पाप झरत हैं, देखत उनका मुक्ख॥
एक भरोसो एक बल, एक आश विश्वास।
स्वाति सलिल हरिनाम है, चातक तुलसीदास॥
संत सभा झाँकी नहीं, कियो न हरिगुण गान।
नारायण फिर कौन विधि, तु चाहत कल्यान॥