Magazine - Year 1950 - Version 2
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Language: HINDI
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विस्मृत-शहीद
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श्री मोहन लाल जी अवस्थी “मोहन”
वे थे बड़वानल से जिनको अरि सागर ढूंढ़ नहीं पाया।
स्वातंत्र्य सुरा आरुण्य सदा जिनकी आँखों में था छाया॥
जिनका कर खींच आजादी को सर के बल ले आया।
सुख क्या होता है जग में जिनके तन ने जान नहीं पाया॥
सुन उनकी रण हुँकार भयंकर कब अरि के उर हिले नहीं?
वे काले थे मतवाले जिनके आगे दीपक जले नहीं॥
हम उनके गरम गरम शोणित में अपना खून मिला न सके।
शोणित की होली युद्ध क्षेत्र में अरि को कभी खिला न सके॥
कुछ सोच न अपनी वाणी से धरती आकाश हिला न सके।
हम उनकी तरह मृतक पुरुषों को छू कर कभी जिला न सके॥
पर दीन दुखी मनुजों के भी उर को हम धैर्य दिला न सके।
उनकी प्यासी आत्मा को नयनों की दो बूँद पिला न सके॥
थी गिरा वायु में गूंज उठी उनकी “सीधी तलवार करो”।
अपने मुष्टिक से चूर चूर नभ चुम्बी उच्च पहाड़ करो॥
खिलवाड़ अगर करना है तो युद्धस्थल में खिलवाड़ करो।
है अगर प्यार करना सीखा तो मातृभूमि को प्यार करो॥
यदि चलना ही है तो यह दुर्गम वन बीहड़ पथ पार करो।
यदि करना है जग में कुछ तो भारत का उद्धार करो॥
वे चले बवंडर से अपने उर में अगणित अरमान लिए।
वे चले महा अत्याचारी अरि शासन का अवसान लिए॥
वे चले कालिका सी प्यासी हाथों में नग्न कृपाण लिए।
वे चले शीश से कफन बाँध मुट्ठी में अपने प्राण लिए॥
वे चले प्रलय ले आँखों में भय से सारा जग डोल उठा।
“लो खून, हमें आजादी दो” बच्चा बच्चा यह बोल उठा॥
अब आजादी को पाकर के मद में हम ऐसे भूल गये।
आजादी पर मरने वालों के आज नाम तक भूल गये॥
जो किये हमारे लिए उन्होंने आज काम हम भूल गए।
जो उजड़े बस न सके अब तक वे आज धाम हम भूल गए॥
थे चुने उन्होंने शूल हमारे पथ के हम सब भूल गए।
हम भूल गये, उनको जो थे फांसी के झूले झूल गए॥
*समाप्त*