Magazine - Year 1951 - Version 2
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Language: HINDI
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आश्चर्यजनक अनुभव
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(चौधरी अमर सिंह जी, इन्दोर)
अन्य साधनों की अपेक्षा मैं गायत्री मंत्र को इस वास्ते महत्व देता हूँ कि जब मैं इस साधना से पूर्व अन्य प्रणालियों से साधना करता रहा तो किसी भी सिद्धि की प्राप्ति मुझे इतनी मात्रा में नहीं हुई जितनी कि इसके साधना से थोड़े काल में हुई जिनका वर्णन संक्षेप से नीचे दिया जावेगा।
मुझे कई बार इसके साधना से बिना इच्छा किये अद्भुत लाभ प्राप्त हुये हैं। उनमें से थोड़े से का वर्णन इस प्रकार का है (क) कई बार या अन्य किसी प्रिय व्यक्ति के रोग ग्रसित होने पर मन में ज्ञान प्राप्त हुआ कि इस रोग का अमुक उपचार किया जावे तो लाभ होगा अन्य था अमुक प्रकार की व्याधि उत्पत्र होगी। इन संकेतों से तदनुसार ही फल मिला (ख) तीन वर्ष पूर्व मैं एक ऐसे कार्य में प्रवृत्त हुआ था जो मेरी बुद्धि, शक्ति , पराक्रम से बाहर था। उस कार्य में जहाँ त्रुटि होती तो स्वयं एक अव्यक्त शक्ति साथ ही साथ बताती जाती कि यहाँ यह त्रुटि हुई है सुधार लो, तो उसी त्रुटि को अन्य प्रकार से जाँच करने पर वह त्रुटि विदित हो जाती व सुधार ली जाती। इस प्रकार वह कार्य भी अलौकिक रीति से पूर्ण हो गया। (ग) सन् 1950 ई॰ में इन गर्मी के दिनों में मैं एक ग्राम में था कि पास ही छोटे 2 बच्चे व मेरी एक कन्या एक फूस के मकान में खेल रहे थे कि एक छोटे से बच्चे ने वहाँ आग लगा दी। आग लगने से 10 मिनट पूर्व किसी अज्ञात शक्ति ने मुझे स्पष्ट शब्दों में बताया कि मकान से बाहर निकलो-बाहर निकल कर मैं एक पानी के नल के नीचे नहाने लगा कि इतने में आग लग गई। परन्तु मैंने तुरन्त लोग इकट्ठे किए व अधिक हानि नहीं हुई। इन बातों का प्रमाण है कि यह सर्व गायत्री के प्रभाव से हुआ है। माता गायत्री मेरे साथ माता का सा बर्ताव करती रही हैं।
मेरे ग्राम से 14 मील दूरी पर कुछ समय एक साधु रहते थे जो कि गायत्री की साधना में सिद्ध थे। वह कई बार आश्चर्यजनक कार्य लोक समूह के सामने भी करके दिखा देते थे। जैसे खाली बोतल को झट किसी द्रव्य से भरकर दिखा देना व लोगों को वह द्रव्य पिला भी देना।
श्री विद्यारण्य ऋषि के प्रार्थना करने पर गायत्री देवी ने सोने की वर्षा दक्षिण देश में की है (देखिये जपयोग पृष्ठ 65 श्री स्वामी शिवानन्द ऋषिकेश द्वारा प्रकाशित) श्री सूदन स्वामि ने 17 बार पुरश्चरण किया परन्तु क्योंकि उसने पूर्व जन्म में 15 ब्राह्मणों की हत्या की हुई थी उसे कोई सिद्धि प्राप्त न हुई। अठारहवाँ पुरश्चरण करते ही उसे भगवान के दर्शन हुये (देखिये उपरोक्त जपयोग पृष्ट 66) प्रायः आजकल के साधक जहाँ भजन करके हटते है तो तुरन्त झूठ बोलना इत्यादि कुकर्मों को करने लग पड़ते हैं। उन्हें सिद्धि कहाँ ?