Magazine - Year 1952 - Version 2
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कुसमय में उद्बोधन (Kavita)
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यदि संध्या बढ़ती आती है, गति मन्द-मन्द मन्थर चलकर।
संगीत रुक गया है दिन का, उसके इस नीरव इंगित पर॥
साथी-संगी भी नहीं एक, सूना सा है अनन्त अम्बर।
यदि अंग-अंग में भी तेरे, आई है गहरी क्राँति उतर॥
जाग्रत है अन्तर में तेरे यदि निस्वर आशंका महान।
सोये हैं सारे दिग्-दिगन्त अपने अवगुण्ठन श्याम तान॥
मेरे विहंग, अन्धे विहंग, पर पंख अभी तू बन्द न कर।
यह जो स्वर है सम्मुख तेरे, यह नहीं विजन का स्वर मर्मर।
यह तो है अजगर-सा गर्जन, फूत्कार कर रहा है सागर॥
लहलहा रहा या नहीं कुन्द, कुसुमों वाला निकुँज मनहर।
लहराती सागर की यह तो, कल्लोल कर रही फेन-लहर॥
रे कहाँ यहाँ उद्यान वही, जिसमें मृदु पल्लव मंजु-फूल।
वह आश्रय-शाखा, नीड़ कहाँ, रे, कहाँ यहाँ वह रुचिर कूल॥
मेरे विहंग, अंधे विहंग , पर पंख अभी तू बन्द न कर।
अब भी तेरे आगे विहंग, है रात बड़ी लम्बी-दूभर।
सम्मुख सुदूर अस्ताचल पर, है अब भी ऊँघ रहा दिनकर॥
संसार सकल निःश्वास रोक, एकान्त, स्तब्ध आसन ऊपर।
रजनी के ये धीमे-धीमे, है एक-एक गिन रहा प्रहर॥
तिर अंधकर सागर अकूल कढ़ अभी अभी ही लिये बाँक।
पश्चिम-दिशान्त पर वह सुदूर है क्षीण चन्द्रमा रहा झाँक॥
मेरे विहंग, अन्धे विहंग, पर पंख अभी तू बन्द न कर।
भय नहीं, भीति भी नहीं अरे, रे स्नेह-मोह का पाश किधर।
आशा न यहाँ आशा केवल, छल है जगत में-झूठा-नश्वर॥
मुँह में न अरे वाणी कोई, बैठना वृथा न रुदन लेकर।
टिक रहने को घर-बार नहीं फूलों की सेज नहीं सुन्दर॥
हैं पंख, पंख बस विद्यमान, फैला आँगल-सा आसमान।
है निबिड़-भयावह अन्धकार, है कहीं न ऊषा-दिशा-ज्ञान॥
मेरे विहंग, अन्धे विहंग पर पंख अभी तू बन्द न कर।
*समाप्त*
(श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनु. सुधीन्द्र बी. ए.)
(श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनु. सुधीन्द्र बी. ए.)