Magazine - Year 1952 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मेरे जीवन के तीन प्रमुख सिद्धान्त
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री आचार्य विनोबा भावे)
अपने जीवन में मैं तीन बातों को प्रधान पद देता हूँ। उनमें पहली है उद्योग। अपने देश में आलस्य का भारी वातावरण है। यह आलस्य बेकारी के कारण आया है। शिक्षितों का तो उद्योग से कोई ताल्लुक ही नहीं रहता। और जहाँ उद्योग नहीं वहाँ सुख कहाँ? मेरे मत से जिस देश से उद्योग गया उस देश को भारी घुन लगा समझना चाहिए। जो खाता है उसे उद्योग तो करना ही चाहिए, फिर वह उद्योग चाहे जिस तरह का हो। पर बिना उद्योग के बैठना काम की बात नहीं।
घरों में उद्योग का वातावरण होना चाहिए। जिस घर में उद्योग की तालीम नहीं है उस घर के लड़के जल्दी ही घर का नाश कर देंगे। संसार पहले ही दुःखमय है। जिसने संसार में सुख माना है उसके समान भ्रम में पड़ा और कौन होगा? रामदास जी ने कहा है—”मूर्खामाजी परम मूर्ख। जो संसारी मानी सुख।” अर्थात् वह मूर्खों में भारी मूर्ख है जो मानता है कि इस संसार में सुख है। मुझे जो मिला दुःख की कहानी सुनाता ही मिला। मैंने तो तभी से यह समझ लिया है और बहुत विचार और अनुभव के बाद मुझे इसका निश्चय हो गया है। पर ऐसे इस संसार को जरा सा सुखमय बनाना हो तो उद्योग के सिवाय दूसरा इलाज नहीं है, और आज सबके करने लायक और उपयोगी उद्योग सूत-कताई का है। कपड़ा हरेक को जरूरी है और प्रत्येक बालक, स्त्री, पुरुष सूत कातकर अपना कपड़ा तैयार कर सकता है। चर्खा हमारा मित्र बन जायगा, शाँतिदाता हो जायगा—बशर्ते कि हम उसे सम्हालें। दुःख होने या मन उदास होने पर चर्खे को हाथ में ले लें तो फौरन मन को आराम मिलता है। इसकी वजह यह है कि मन उद्योग में लग जाता है और दुःख बिसर जाता है। गेटे नामक कवि का एक काव्य है उसमें उसने एक स्त्री का चित्र खींचा है। वह स्त्री बहुत शोक-पीड़ित और दुखी थी। अन्त में उसने तकली सम्हाली। कवि ने दिखाया है कि उसे उस तकली से साँत्वना मिली। मैं इसे मानता हूँ।
स्त्रियों के लिए तो यह बहुत ही उपयोगी साधन है। उद्योग के बिना मनुष्य को कभी खाली नहीं बैठना चाहिए। आलस्य के समान शत्रु नहीं है। किसी को नींद आती हो तो सो जाय, इस पर मैं कुछ नहीं कहूँगा, लेकिन जाग उठने पर समय आलस्य में नहीं बिताना चाहिए। इस आलस्य की वजह से ही हम दरिद्र हो गये, परतंत्र हो गये। इसीलिए हमें उद्योग की ओर झुकना चाहिए।
दूसरी बात जिसकी मुझे धुन है, वह भक्ति मार्ग है। बचपन से ही मेरे मन पर यदि कोई संस्कार पड़ा है तो वह भक्ति मार्ग का है। उस समय मुझे माता से शिक्षा मिली। आगे चलकर आश्रम में दोनों वक्त की प्रार्थना करने की आदत पड़ गई। इसलिये मेरे अन्दर वह खूब हो गई। पर भक्ति के माने ढोंग नहीं है। हमें उद्योग छोड़कर झूठी भक्ति नहीं करनी है। दिन भर उद्योग करके अन्त में शाम को और सुबह भगवान का स्मरण करना चाहिए। दिनभर पाप करके, झूठ बोलकर, लबारी-लफ्फाजी करके प्रार्थना नहीं होती। वरन् सत्कर्म करके दिन भर सेवा में बिताकर के वह सेवा शाम को भगवान् को अर्पण करनी चाहिए। हमारे हाथों अनजाने हुए पापों को भगवान क्षमा करता है।
पाप बन आवे तो उसके लिए तीव्र पश्चाताप होना चाहिए। ऐसों के पाप ही भगवान माफ करता है। रोज 15 मिनट ही क्यों न हो, सबको—लड़कों को, स्त्रियों को—इकट्ठे होकर प्रार्थना करनी चाहिए। जिस दिन प्रार्थना न हो वह दिन व्यर्थ गया समझना चाहिए। मुझे तो ऐसा ही लगता है। सौभाग्य से मुझे अपने आसपास भी ऐसी ही मंडली मिल गई है। इससे मैं अपने को भाग्यवान मानता हूँ। अभी मेरे भाई का पत्र आया है। बाबा जी उसके बारे में लिख रहे हैं कि आजकल वह रामचंद्र भाई के ग्रन्थ पढ़ रहे हैं। उन्हें उस साधु के सिवाय और कुछ नहीं सूझ रहा है। इधर उसे रोग ने घेर रखा है, पर उसे उसकी परवा नहीं है। मुझे भाई भी ऐसा मिला है। ऐसे ही मित्र और गुरु मिले। माँ भी ऐसी ही थी। ज्ञानदेव ने लिखा है कि भगवान् कहते हैं—मैं रोगियों के हृदय में न मिलूँ, सूर्य में न मिलूँ और कहीं भी न मिलूँ, तो जहाँ कीर्तन—नामघोष चल रहा है वहाँ तो जरूर ही मिलूँगा। लेकिन यह कीर्तन कर्म करने, उद्योग करने के बाद ही करने की चीज है। नहीं तो वह ढोंग हो जायगा। मुझे इस प्रकार के भक्तिमार्ग की धुन है।
तीसरी और एक बात की मुझे धुन है, पर सबके काबू की वह चीज नहीं हो सकती। वह चीज है खूब सीखना और खूब सिखाना। जिसे जो आता है उसे वह दूसरे को सिखाये और जो सीख सके उसे वह सीखे। कोई बुड्ढा मिल जाय तो उसे वह सिखाये। भजन सिखाये, गीता पाठ करावे, कुछ न कुछ जरूर सिखाये। पाठशाला की तालीम पर मुझे विश्वास नहीं है। पाँच-छह घंटों बच्चों को बिठा रखने से उनकी तालीम कभी नहीं होती। अनेक प्रकार के उद्योग चलने चाहिए और उसमें एक-आध घंटा सिखाना काफी है। काम में से ही गणित इत्यादि सिखाना चाहिए। क्लास इस तरह के होने चाहिये कि एक पैसा मजदूरी मिली तो उसे पहला दर्जा और उससे ज्यादा मिली तो दूसरी दर्जा। इसी प्रकार से उन्हें उद्योग सिखाकर उसी में शिक्षा देनी चाहिए।
मेरी माँ ‘भक्ति-मार्ग-प्रदीप’ पढ़ रही थी। उसे पढ़ना कम आता था, पर एक-एक अक्षर टो-टोकर पढ़ रही थी। एक दिन एक भजन के पढ़ने में उसने 15 मिनट खर्च किये। मैं ऊपर बैठा था। नीचे आया और उसे वह भजन सिखा दिया। और पढ़ा कर देखा, पन्द्रह—बीस मिनट में ही वह भजन उसे ठीक आ गया। उसके बाद रोज मैं उसे कुछ देर तक बताता रहता था। उसकी वह पुस्तक पूरी करा दी। इस प्रकार जो-जो सिखाने लायक हो वह सिखाते रहना चाहिए और सीखते भी रहना चाहिए। पर यह सबसे बन आने की बात नहीं है। पर उद्योग और भक्ति तो सबसे बन आ सकती है। उन्हें करना चाहिए और इस उद्योग के सिवाय मुझे तो दूसरा सुख का उपाय दिखाई नहीं देता है।