Magazine - Year 1952 - Version 2
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Language: HINDI
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आपत्तियों से डरिये मत
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तुषाराणाँ प्रपातेऽपि प्रयत्नो धर्म आत्मनः।
महिमाच प्रतिष्ठाच प्रोक्तोऽपारः श्रमस्यहि॥
अर्थ- आपत्ति आने पर भी प्रयत्न करना आत्मा का धर्म है। प्रयत्न की महिमा और प्रतिष्ठा अपार है।
मनुष्य के जीवन में विपत्तियाँ, कठिनाइयाँ, विपरीत परिस्थितियाँ, हानियाँ और कष्ट की घड़ियाँ भी आती ही रहती हैं। जैसे रात और दिन समय के दो पहलू हैं वैसे ही सम्पदा और विपदा सुख और दुख भी जीवन रथ के दो पहिये हैं। दोनों के लिए ही मनुष्य को धैर्यपूर्वक तैयार रहना चाहिए।
विपत्ति में छाती पीटें और न सम्पत्ति में इतराकर चलें।
कठिन समय में मनुष्य के चार साथी हैं (1) विवेक (2) धैर्य (3) साहस (4) प्रयत्न। इन चारों को मजबूती से पकड़े रहने पर बुरे दिन धीरे धीरे निकल जाते हैं। और वे जाते समय अनेक अनुभवों, गुणों, योग्यताओं तथा शक्तियों का उपहार दे जाते हैं। चाकू पत्थर पर घिसे जाने पर तेज होता है, सोना अग्नि में पड़कर खरा सिद्ध होता है, मनुष्य कठिनाइयों में पड़ कर इतनी शिक्षा प्राप्त करता है जितनी कि दस गुरु मिलकर भी नहीं सिखा सकते। इसलिए कष्ट से डरना नहीं चाहिए वरन् उपरोक्त चार साधनों द्वारा संघर्ष करके उसे परास्त करना चाहिए।
मनुष्य जीवन में दुख और कठिनाइयों का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। कठिनाइयों के आघातों में ही प्रगति का विधान छिपा हुआ है। यदि सदा केवल सरलता और अनुकूलता ही रहे तो चैतन्यता घटती जायगी और मनुष्य शनैःशनैः आलसी, और अकर्मण्य बनने लगेगा उसके मनः क्षेत्र में एक प्रकार का अवसाद उत्पन्न हो जायगा जिसके कारण उन्नति, अन्वेषण, आविष्कार और महत्वाकाँक्षाओं का मार्ग रुद्ध हुए बिना न रहेगा। जब तक दुख की अनुभूति न हो तब तक सुख में कोई आनन्द नहीं मिल सकता। रात न हो सदैव दिन ही रहे तो उस दिन से किसे क्या आनन्द मिलेगा? यदि नमक मिर्च, कडुआ कसैला स्वाद न हो और केवल मीठी ही मीठी सदा खाने को मिले तो वह मधुरता एक भार बन जायगी। इसी प्रकार सुख में आनन्द का आस्वादन होना तभी संभव है जब दुख का पुट साथ-साथ में हो। दुख को हम बुरा कहते हैं पर वस्तुतः वही प्रगति का वास्तविक केन्द्र है।
संसार में जितने महापुरुष हुए हैं, उनकी महानता, यश एवं प्रतिष्ठा का कारण उनकी कष्ट सहिष्णुता ही है। राजा हरिश्चन्द्र यदि भंगी के हाथों न बिके होते तो वे भी मामूली राजा रईसों की भाँति मर खप गये होते, कोई उनका नाम भी न जानता होता। दधिचि, शिवि, प्रहलाद, मोरध्वज, सीता, दमयन्ती, द्रौपदी, कुन्ती, आदि के जीवन में यदि कठिनाई न आतीं, वे लोग भोग ऐश्वर्य से पूरित जीवन बिताते रहते तो उनकी महानता का कोई कारण शेष न रहता। दुर्गम पर्वतों पर उगने वाले वृक्ष ही विशाल आकार के और दीर्घजीवी होते हैं, जो फुलवारी नित्य सींची जाती है वह कुछ ही दिन में मुरझाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देती है। जो समाज एवं राष्ट्र परिश्रमी और कष्ट सहिष्णु होता है वही विजय और उन्नति का वरण करता है। इतिहास बताता है कि जो जातियाँ सुखोपभोग में डूबी वे थोड़े ही समय में हतप्रभ होकर दीनता और दासता के गर्त में गिर पड़ी।
हमारे पूर्वज कष्ट सहिष्णुता के महान लाभों से भली प्रकार परिचित थे, इसलिए उन्होंने उसके अभ्यास को जीवन व्यवस्था में प्रमुख स्थान दिया था। तितीक्षा और तपश्चर्या के कार्यक्रम के अनुसार वे दुखों से लड़ने का वैसा ही पूर्णाभ्यास करते थे जैसे युद्ध-स्थल में लड़ने से पूर्व फौजी जवान को बहुत दिन तक युद्ध कौशल की शिक्षा प्राप्त करनी होती है। राजा रईसों के बालक भी प्राचीन काल में शिक्षा प्राप्त करने के लिये ऋषियों के गुरुकुलों में जाया करते थे और कठोर श्रम-जीवी दिनचर्या को अपना कर विद्याध्ययन करते थे। जैसे जलाशय को पार करने का अवसर मिलने पर तैराक को बड़ा उत्साह और आनन्द होता है वैसे ही कष्ट सहिष्णु जीवन के अभ्यासी को नाना प्रकार की उलझनों और आपत्तियों को पार करने में अपने पौरुष और गौरव के विकास का उत्साहवर्धक अवसर दिखाई पड़ता है। इसके विपरीत जो लोग केवल सुख ही सुख को चाहते हैं, वे अति सामान्य-रोजमर्रा के जीवन में आती रहने वाली घटनाओं से भी ऐसी घबराहट, चिन्ता, बेचैनी और पीड़ा अनुभव करते हैं मानों उन के सिर पर कोई भारी वज्र टूट पड़ा हो।
कठिनाइयाँ हर मनुष्य के जीवन में आती हैं, उनका आना अनिवार्य और आवश्यक है। प्रारब्ध कर्मों के भोग के बोझ को उतारने के ही लिए नहीं वरन् मनुष्य की मनोभूमि और अन्तरात्मा को सुदृढ़, तीक्ष्ण, पवित्र, प्रगतिशील, अनुभवी और विकसित करने के लिए भी कष्टों एवं आपत्तियों की भारी आवश्यकता है। जैसे भगवान मनुष्य को दया करके नाना प्रकार के उपहार दिया करते हैं वैसे ही वे दुख और आपत्तियों का भी आयोजन करते हैं, जिससे मनुष्य का अज्ञान, अहंकार, आलस्य, अपवित्रता और व्यामोह नष्ट हो। किसी विद्वान का यह वचन पूर्णतया सत्य है कि “एक आपत्ति दस गुरुओं से अधिक शिक्षा देती है।”कठिनाइयाँ आने पर हतप्रभ, किंकर्त्तव्यविमूढ़ या कायर हो जाना और हाथ पैर फुलाकर रोना झींकना शुरू कर देना, अपने को या दूसरों को कोसना सर्वथा अनुचित है। यह तो भगवान् की उस महान् कृपा का तिरस्कार करना हुआ। इस प्रकार तो वह कठिनाई कुछ लाभ न दे सकेगी वरन् उलटे निराशा, कायरता, अवसाद, दीनता, आदि का कारण बन जायगी। कठिनाई देखकर डर जाना, प्रयत्न छोड़ बैठना, चिन्ता और शोक करना किसी सच्चे मनुष्य को शोभा नहीं देता। आपत्ति एक प्रकार से हमारे पुरुषार्थ को ईश्वरीय चुनौती है। जिसे स्वीकार करके ही हम प्रभु के प्रिय बन सकते हैं। अखाड़े के उस्ताद, पहलवान नौसिखिये पहलवानों को कुश्ती लड़ना सिखाते हैं तो उन्हें पटक मार कर दाव पेंच सिखाते हैं। नौसिखिये लोग पटक खाकर शोक संतृप्त नहीं हो जाते वरन् अपनी भूल को समझ कर फिर उस्ताद से लड़ते हैं और धीरे-धीरे पूरे एवं पक्के पहलवान बन जाते हैं। ईश्वर ऐसा ही उस्ताद है जो आपत्तियों की पटक मार मार कर हमारी अनेक अपूर्णताएं दूर कर पूर्णता तक पहुँचाने की महान् कार्य करता है।
गायत्री का “तु” अक्षर इस रहस्य को हमें बताता है। वह स्पष्ट करता है कि कठिनाइयों से डरने या घबराने की कोई बात नहीं, वह तो इस सृष्टि का एक उपयोगी, आवश्यक एवं सार्वभौम विधान है। उससे न तो दुखी होने की जरूरत है, न घबराने की, न किसी पर दोषारोपण करने की। हाँ, हर आपत्ति के बाद नये साहस और नये उत्साह के बाद उस परिस्थिति से लड़ने की और प्रतिकूलता को हटाकर अनुकूलता उत्पन्न करने के लिए प्रयत्नशीलता की आवश्यकता है। यह प्रयत्न आत्मा का धर्म है, इस धर्म को छोड़ने का अर्थ अपने को अधर्मी बनाना है। प्रयत्न की महिमा अपार है। आपत्ति द्वारा जो दुख सहना पड़ता है उसकी अपेक्षा उसे विशेष समय में विशेष रूप से प्रयत्न करने का जो स्वर्ण अवसर मिला उसका महत्व अधिक है। प्रयत्नशीलता ही आत्मोन्नति का प्रधान साधन है जिसे आपत्तियाँ तीव्र गति से बढ़ाती हैं।
प्रयत्न, परिश्रम, एवं कर्त्तव्य-पालन से मनुष्य के गौरव एवं वैभव का विकास होता है। जो आनन्दमय जीवन का रसास्वादन करना चाहता है उसे गायत्री शब्द का उपदेश सुनना चाहिए और कठिनाइयों से निर्भय होकर अपने कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ता पूर्वक आरुढ़ हो जाना चाहिए और हँसते हुए हर स्थिति का मुकाबला करना चाहिए।