Magazine - Year 1952 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
वितंडावादों से बचने की नीति
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
गायत्री का महत्व असाधारण है। वह एक ईश्वरीय वरदान है। इस महामंत्र में वह सब ज्ञान-विज्ञान भरा हुआ है। जिसकी मनुष्य जाति को-सारे संसार को-आवश्यकता है। आत्मा को अनन्त शक्ति प्रदान करने वाली ब्रह्म विद्या से लेकर इन 24 अक्षरों में अनेक प्रकार की साँसारिक विधाएँ भी छिपी हुई हैं।
अखण्ड ज्योति संस्था की ओर से लम्बे समय से इस महाविज्ञान सम्बन्धी कुछ शोध हो रही है। हजारों प्राचीन ग्रन्थों का अध्ययन करके गायत्री सम्बन्धी जानकारियों का संकलन, देशव्यापी गायत्री उपासकों के अनुभवों का संग्रह, महान तपस्वियों एवं विद्वानों का सहयोग, रहस्यमय सिद्ध पुरुषों की खोज, स्वयं की कठोर तपश्चर्याएँ, उपलब्ध ज्ञान का प्रयोग एवं परीक्षण आदि मार्गों द्वारा इस दिशा में जो कार्य हुआ है उसकी जानकारी रखने वाले विज्ञ पुरुषों को बड़ा हर्ष और सन्तोष है। इस कर्क प्रगति को देखते हुए ऐसा विश्वास होता है कुछ ऐसे आश्चर्यजनक परिणाम जल्दी ही सामने आवेंगे जिन पर भारत के आध्यात्मिक जगत को गर्व हो सके।
भारतीय संस्कृति एवं ज्ञान-विज्ञान के एकमात्र बीज मन्त्र गायत्री की महान प्रतिष्ठा की पुनः स्थापना करने के लिए सभी आध्यात्मिक पुरुषों विद्वानों एवं साधकों के सहयोग की आवश्यकता है। वह हमें मिलता भी है और आशा है कि दैवी प्रेरणा से यह कार्य हो रहा है उसी की सहायता से अधिकाधिक सत्पुरुषों का सच्चा सहयोग हमें और भी अधिक प्राप्त होगा।
दूसरी ओर हमें इस बात पर कभी-कभी खेद भी होता है कि कुछ सज्जन अपने पाण्डित्य का प्रदर्शन करने के लिए ऐसे अभिमत प्रकट कर देते हैं जिससे अल्प श्रद्धा वाले लोगों में अकारण मतिभ्रम पैदा हो जाता है। ऐसे अनेक मतिभ्रम फैलाये जाने की सूचनाएं हमें मिलती रहती हैं और हमसे उनके स्पष्टीकरण या प्रत्युत्तर माँगे जाते हैं। ऐसे अवसरों पर एक विचित्र उलझन सामने आती है। हमारी सीमित शक्तियाँ गायत्री माता के चरणों में संलग्न हैं। हम उसकी गोदी में बैठकर वह पयपान करना चाहते हैं जो अभीष्ट है। वितंडावादों में उलझने का न तो हमारे पास समय है और न इच्छा, न रुचि, न शक्ति। अपने जीवन भर के विनम्र अन्वेषणों तथा देवतुल्य गुरुजनों की चरण रज के प्रसाद स्वरूप जो कुछ प्राप्त हुआ है उसे हमने अपनी पुस्तकों में प्रकाशित कर दिया है और करते रहते हैं। कोई गुरुजन कृपा करके हमारी कभी कोई भूल बता देते हैं तो उनके अनुग्रह के लिए अनेक उपकार मानते हुए तत्क्षण अपनी भूल को सुधार लेते हैं ऐसे अनुग्रह के लिए विद्वानों और अनुभवियों को हम सदा आमंत्रित भी करते रहते हैं ताकि लक्ष की ओर अधिक आशाजनक प्रगति हो सके।
हमारी प्रार्थना पर ध्यान न देकर कुछ सज्जन मतिभ्रम फैलाने में ही औचित्य अनुभव करते हैं। वे मौखिक रूप से एवं कभी-कभी अखबारों में छपा कर ऐसे विचार प्रकट करते हैं जिससे-बड़ी कठिनाई से उत्पन्न हुई लोगों की साधन श्रद्धा, विचलित हो जाती है और वे अपने आध्यात्मिक प्रयत्नों को छोड़ बैठते हैं। संभवतः वे सज्जन “धर्म रक्षा” की दृष्टि से ऐसे विचार प्रकट करते होंगे पर होता उसके विपरीत है। क्योंकि उनके अभिमत किसी मजबूत आधार पर निर्धारित नहीं होते। अपनी अल्पज्ञता का ध्यान न रखते हुए जब मनुष्य पूर्णता एवं सर्वज्ञता का अहंकार धारण कर लेता है तब उससे प्रायः अनुचित कार्य ही बन पड़ते हैं।
यों तो समय-समय पर अनेक आक्षेप और विरोध सामने आते रहते हैं और अपनी निर्धारित नीति के अनुसार हम उनकी उपेक्षा करते रहते हैं। ऐसा ही एक विरोध अभी हाल में बम्बई के एक गुजराती पत्र में छपा है। जिसमें अखण्ड-ज्योति द्वारा संचालित गायत्री मन्त्र लेखन का विरोध किया है, उस विरोध के जो कारण दिये गये है वे बड़े मनोरंजक हैं। पाठकों का कुछ मनोरंजन हो इस दृष्टि से उसका उल्लेख नीचे किया जाता है
विज्ञप्ति को छपाने वाले कोई ‘शास्त्री’ सज्जन हैं। उनमें मन्त्र लेखन का निषेध तीन तर्कों के आधार पर किया है। (1) हमारे पास चार-पाँच पुस्तकें गायत्री सम्बन्धी हैं। उनमें से किसी में मन्त्र लेखन का विधान नहीं है (2) पुष्टि मार्ग के एक आचार्य ने कोई गुरुदीक्षा मंत्र पुस्तक में छप जाने पर उस कार्य का विरोध किया था (3) किसी तंत्र ग्रन्थ में लिखा है कि “मंत्र, माला तथा यन्त्र गुरोरपि न दर्शयेत्’ अर्थात् माला, मंत्र और यन्त्र इन्हें गुरु को भी न दिखाना चाहिए।”
आइए इन तर्कों की परीक्षा करें और देखें कि क्या सचमुच शास्त्री महोदय की बात युक्ति संगत है—
(1)उनके पास 4-5 पुस्तकें गायत्री संबंधी हैं। और चूँकि इनमें मन्त्र लेखन सम्बन्धी समर्थन या विरोध नहीं है। इसलिए वे सोचते हैं कि संसार में गायत्री साहित्य केवल 4-5 पुस्तकों का ही है। उनमें मन्त्र लेखन का विरोध भले ही न हो पर समर्थन नहीं है तो वह विरोध ही मान लेना चाहिए। यदि वे सज्जन चाहते तो यों भी सोच सकते थे कि संभव है संसार में गायत्री विद्या की जानकारी मेरे पास जो 4-5 पुस्तकें में है उनके अलावा भी किसी और ग्रन्थ में हो, जो मेरे देखने में न आई हो। और चूँकि इन पुस्तकों में कहीं विरोध नहीं है इसलिए संभव है किसी अन्य ग्रन्थ में मन्त्र लेखन का समर्थन हो। परन्तु वे ऐसा क्यों सोचते? उन्हें तो विरोध करने से काम था। अपने पास मन्त्र लेखन के विरोध में कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है— न सही। समर्थक प्रमाण 4-5 पुस्तकों में न होना यही विरोध के लिए पर्याप्त प्रमाण है।
सच बात यह है कि गायत्री सम्बन्धी विज्ञान से सम्बन्धित लगभग 800 प्राचीन ग्रन्थ है जिनमें से उन्हें 795 का कुछ भी पता नहीं हैं। इतनी दुर्बल जानकारी के आधार पर एक सुसंचालित तपश्चर्या का विरोध करने के लिए वे तत्पर हुए हैं।
(2)पुष्टि मार्गी गुरु दीक्षा का मन्त्र उस सम्प्रदाय के आचार्य ने किसी पुस्तक में छापने का विरोध किया था। वे पंडित जी समझते हैं कि गायत्री भी किसी सम्प्रदाय का कोई ऐसा ही मन्त्र है जो केवल गुरुदीक्षा देने के काम आता है। उसे प्रकट कर देने से शिष्य लोग गुरु अपेक्षा न रखेंगे और उसे जान लेने से स्वयं ही उनके ज्ञाता बन जावेंगे।
पंडित जी यह भूल जाते हैं कि गायत्री वेद मंत्र हैं। प्रेस न होने से पहले वेद हस्त लिखित होते थे और अब प्रेस हो जाने पर तो लाखों की संख्या में वेद मंत्र प्रेस में छपते हैं। मन्त्र लिखे जाने का या छपने का आज तक किसी बड़े से बड़े कट्टरपंथी ने विरोध नहीं किया। यदि ऐसा निषेध होता तो कहीं कोई वेद या वेद मन्त्र छपा हुआ या लिखा हुआ दृष्टिगोचर न होता। पुष्टि मार्गी सम्प्रदाय के गुरु दीक्षा मंत्र और गायत्री मन्त्र को एक समान मान लेने और उनके आचार्य के विरोध को एकमात्र प्रमाण मान लेने पर उसका फलितार्थ क्या होगा, इस बात को वे सज्जन विरोध के उत्साह में बिल्कुल भूल गये हैं। यदि उनकी बात स्वीकार कर ली जाय तो उन्हें उन 4-5 पुस्तकों से भी वंचित होना पड़ेगा जिनके आधार पर वे मंत्र लेखन में सन्देह करते हैं। चूँकि वे शास्त्र को मानने वाले हैं। पुष्टि मार्गी आचार्य का वाक्य ही उनका शास्त्र है। ऐसी दशा में उन्हें हर एक उस पुस्तक का पूर्ण निषेध करना चाहिए। जिससे वेद मन्त्र छपे या लिखे हों। गायत्री की भाँति ही अन्य वेद मन्त्र भी हैं। इतना न हो तो कम से कम जिस पुस्तक में गायत्री का उल्लेख हो उसे तो उन्हें ‘अछूत’ ही मानना चाहिए।
(3)किसी तंत्र ग्रन्थ का श्लोक है कि मंत्र, माला, और यंत्र गुरु को भी न दिखाये। यहाँ उनने मंत्र शब्द देखकर सभी मन्त्रों को एक लाठी से हाँक दिया है। वाममार्गी, कौल, सावर तंत्र के मन्त्र में और दक्षिण मार्गी, वेदोक्त मंत्रों में कोई अन्तर है या नहीं यह उन्हें पता नहीं। वे गायत्री को साँवर तंत्र का ऐसा मन्त्र मानते हैं जिसे मारण आदि अभिचारों के लिए प्रयोग किया जाता है और इतना गुप्त रखा जाता है कि और को तो क्या गुरु को भी न बताया जाय। यदि वेद मन्त्रों को इसी श्रेणी में रख लिया जाय तो फिर वेद विद्यालय पूर्णतया बन्द करने पड़ेंगे। क्योंकि मन्त्र को शिष्य भला गुरु को किस प्रकार सुना सकेगा? गुरु शिष्य से उसके वेद पाठ को पूछ भी कैसे सकेगा? क्योंकि इसे मालूम है कि मन्त्र को तो गुरु को भी सुनाना निषेध है। इसी प्रकार वेद गान—वेदपाठ, सामगान आदि भी बन्द करने होंगे। और विवाहादि संस्कारों में तथा यज्ञों में जो मन्त्रों का उच्चारण होता है वह निषिद्ध, शास्त्र विरुद्ध ठहरेगा।
पाठक देखेंगे कि उपरोक्त बातों में कितना तथ्य है? शास्त्री महोदय कितने दुर्बल आधार को लेकर एक कितने महत्वपूर्ण धर्म कार्य का विरोध करने खड़े हुए हैं? इससे उन्हें क्या लाभ हुआ? सम्भव है किसी महत्वपूर्ण बात का विरोध करने से लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने और अपने पांडित्य का प्रकाश करना उनका मंतव्य हो जैसा कि आमतौर से होता है। यदि ऐसा हो तो हम शास्त्री महोदय तथा समय-समय पर ऐसे ही विरोध करने वाले अन्य सज्जनों की प्रसन्नता के लिए एक बड़ा स्वर्ण सुयोग भी उपस्थित कर सकते हैं। वह यह कि वे यदि अपनी बातों का आधार मजबूत समझते और हमारी बातों को अप्रामाणिक समझते हों तो इसके लिए एक विद्वज्जनोचित शास्त्रार्थ कर लें और उसमें यह शर्त रख लें कि (1) जिसकी बातें अप्रमाणिक सिद्ध हों उसे गोली मार दी जाय (2) विजेता को पराजित की सारी सम्पत्ति दे दी जाय। इन शर्तों को स्वीकार कर लेने से उन महानुभावों को तीन लाभ हो सकते हैं (1) उनकी विद्वता की विजय दुन्दुभी चारों ओर बज जायगी और जिस भावना की कुल बुलाहट से वे निर्मूल आक्षेप करने को बाध्य होते हैं उस प्रवृत्ति की भली प्रकार तृप्ति हो जायगी (2) अपनी विद्वत्ता के पुरस्कार में उन्हें हजारों रुपये की सम्पत्ति जीतने का लाभ मिलेगा (3) यदि वे सचमुच हमारे विचारों में कोई शास्त्र विरुद्ध व समझते होंगे तो उन्हें धर्मोद्धार का श्रेय भी मिलेगा।
वास्तविकता यह है कि उपासना और साधना का, आध्यात्मिकता का विषय तपस्वियों और साधना से सम्बन्ध रखता है। जिन व्यक्तियों की इस क्षेत्र में गति है, अनुभव है उन्हीं को कुछ कहना या बोलना चाहिए। यों साहित्य के अंतर्गत सभी बातें आती हैं। पुस्तकों में बहुत कुछ लिखा है पर केवल पुस्तकीय ज्ञान के आधार पर हर व्यक्ति को हर विषय में बोलने का अधिकार नहीं होता। शास्त्री लोग व्याकरण की, साहित्य की बारीकियों को आसानी से समझ सकते हैं, उस विषय में वे प्रामाणिक भी हो सकते हैं। परन्तु हर विषय में उनकी प्रामाणिकता नहीं हो सकती। जैसे एक डॉक्टर चिकित्सा तो खूब कर सकता है पर वकील, इंजीनियर, चित्रकार, शिल्पी आदि के कार्यों का उसे कोई अनुभव नहीं होता। इसी प्रकार यह भी संभव है कि कोई व्यक्ति अक्षर ज्ञान की दृष्टि में पूर्ण पंडित होते हुए भी साधना, योग एवं अध्यात्म के क्षेत्र में बिल्कुल अनजान हो। ऐसी दशा में उसे अपनी मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए और उसे यह भी जानना चाहिए कि सभी आध्यात्मिक रहस्य पुस्तकों में लिखे हुए नहीं हैं। पुस्तकों से बाहर भी बहुत कुछ मौजूद है।
संसार में अनेक अधार्मिक कार्य हो रहे हैं। चोरी, बेईमानी, दगाबाजी, व्यभिचार, व्यसन, नास्तिकता आदि सभी कार्य शास्त्र विरुद्ध हैं। धर्मध्वजी लोगों के व्यक्तिगत आचरणों में भी शास्त्र विरुद्ध कार्यों की कमी नहीं रहती, इन सब बातों के सम्बन्ध में जो लोग सदैव मौन रहते हैं उन प्रसंगों पर बोलने या लिखने की उन्हें कुछ भी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती, परन्तु जब कोई कल्याण कारक श्रेष्ठ कार्य होता है तो गायत्री जैसी सर्वथा हानि रहित उपासना में भी बाल की खाल निकाल कर अधार्मिक सिद्ध करने और लोगों को उस मार्ग से रोकने के लिए उनका शास्त्रीय ज्ञान उछल पड़ता है।
इस सम्बन्ध में हम अपने पाठकों से एक ही बात कहना चाहेंगे कि—साधना पथ पर किसी का पथ-प्रदर्शन करते हुए हम जानते हैं कि हमारी जिम्मेदारी कितनी महान है। किसी को गलत सलाह दी जाय तो अपनी श्रद्धा, गुरु भक्ति, सच्चाई और साधना के बल पर वह साधक तो उस गलत साधना से भी अभीष्ट फल प्राप्त कर लेगा पर उसको जो फल मिलेगा वह उस पथ-प्रदर्शक की साधना में से कट कर मिलेगा और यदि उसके पास तप की इतनी पूँजी नहीं है तो उसे पेशगी उतना पुण्य फल उन शिष्यों को देना पड़ेगा और उसकी पूर्ति के लिए उसे हजारों जन्मों तक पिसना पड़ेगा। स्पष्ट है कि ऐसा करने में हमारा कोई लाभ नहीं। हम लोकहित के लिए, दूसरों को कल्याण मार्ग पर ले जाने की पुण्य भावना से प्रेरित होकर ही दूसरों को कोई साधना संबन्धी सलाह देते हैं इसमें हमारा कोई आर्थिक या भौतिक स्वार्थ नहीं होता फिर हम क्यों किसी का गलत पथ-प्रदर्शन करेंगे? और क्यों अकारण अपनी हजारों जन्मों की तपश्चर्या को नष्ट करेंगे?
कल्याण मार्ग पर कोई विरले ही प्रवृत्त होते है जिनके शुभ संस्कार प्रबल हैं उन्हें श्रेष्ठ पथ पर श्रद्धा एवं निष्ठा प्राप्त होती है। जिन्हें कल्याण प्राप्त नहीं होना है-वे यदि किसी प्रकार खड़े भी कर दिये जायं तो कोई न कोई विघ्न, प्रमाद, मतिभ्रम सामने आ खड़ा होता है और उनकी दुर्बल श्रद्धा नष्ट हो जाती है। तप और यज्ञ में अनेक विघ्न आते हैं उन्हीं विघ्नों में से ‘मतिभ्रम’ भी एक है। जो मूर्खों द्वारा; विद्वानों द्वारा, स्वजनों द्वारा, परिजनों द्वारा उपस्थित किया जा सकता है। ऐसा पूर्व काल में भी होता था और अब भी होगा। सन्मार्ग पर ले चलने वाली सतोगुणी शक्तियाँ संसार में कम हैं और रास्ता चलने वालों को रोकने वाली आसुरी शक्तियाँ बहुत हैं। वे अपना काम अवश्य करेंगी। हमारे या किसी और के द्वारा उन्हें पूर्णतया रोका नहीं जा सकता। इसीलिए हम सदा से ऐसे विवादों से दूर रहते हैं और आगे भी रहेंगे। हमने अब तक किसी आक्षेप का उत्तर नहीं दिया और आगे भी किसी वितंडावाद में पड़ने का हमारा विचार नहीं है। हमारे पास अपने लक्ष को पूर्ण करने में प्रवृत्त रहने लायक समय और साधन हैं। दूसरों को लोकहित की दृष्टि से उचित सलाह एवं शिक्षा देते रहना हमारा ब्राह्मणोचित कर्त्तव्य है उसे हम यथा सम्भव पालन करते रहते हैं। हमारी ही बातें ठीक मानी जायं ऐसा कोई हमारा आग्रह भी नहीं है, और न कोई इसमें संकुचित स्वार्थ ही है। हर व्यक्ति अपने विवेक एवं अन्तःप्रेरणा का अनुकरण करके आसानी से सत्य-असत्य का निर्णय कर सकता है।
यह पंक्तियाँ तो हमने अपनी नीति के स्पष्टीकरण करने मात्र के लिए लिखी हैं। जिससे पाठक तरह-तरह के आक्षेपों में भ्रमित होकर हमारा अकारण समय नष्ट न करें। इन पंक्तियों में एक सज्जन के आक्षेपों का प्रसंग वशात् ही उल्लेख हो गया है। किसी का प्रत्युत्तर देना हमें अभीष्ट नहीं, जिस बात को हम पूर्ण सत्य, उपयोगी एवं प्रामाणिक समझते हैं केवल उसी को दूसरों के सामने उपस्थित करते हैं। अपनी बातों की प्रामाणिकता के लिए हमारे पास ठोस आधार होते हैं इसलिए हम निरर्थक विवादों से अपने समय और शक्ति को सदैव बचाते रहते हैं। वितंडावाद से हमें घृणा है इसलिए उससे दूर रहना ही हमें अभीष्ट है।