Magazine - Year 1952 - Version 2
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Language: HINDI
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कर्मयोग का रहस्य
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(श्री स्वामी विवेकानन्द जी)
मधुमक्खी छत्ते पर मधु चूसने के लिए बैठी। परन्तु उनके पैर छत्ते में फँस गये, अब वह निकलने नहीं पाती। अपनी दशा पर जब हम विचार करते हैं, तब अपने आपको ठीक उसी मधुमक्खी की सी अवस्था में पाते हैं। जीवन का यही सारा रहस्य है। यहाँ हम किसलिए हैं? हम मधु चूसने के लिए आये हैं परन्तु अपने आपको जब देखते हैं, तो हमें अपने हाथ, पैर उस मधु में ही लिपेटे हुए मिलते हैं। यहाँ हम ग्रहण करने के लिए आये हैं। किन्तु स्वयं शासित हो रहे हैं। यहाँ सुखोपभोग करने आये हैं, किन्तु स्वयं उपभुक्त हो रहे हैं। हम कर्म करने आये हैं किन्तु हमारे ही ऊपर कर्म किया जा रहा है। सदा ही हमें यह बात ज्ञात होती है। यह बात जीवन की हर एक बात में पाई जाती है।
दुःख, क्लेश का यही कारण है कि हम निग्रहित हो रहे हैं। बद्ध हो रहे हैं। इसीलिए गीता का कथन है कि निरन्तर कर्म करते जाओ, आसक्त मत होओ, बन्धन में मत पड़ो। संसार के समस्त पदार्थों से सम्बन्ध विच्छेद करने की शक्ति अपने में बनाये रहो। मनुष्य में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह इच्छानुसार किसी भी वस्तु से, चाहे वह उसे कितनी भी प्रिय क्यों न हो, अपना सम्बन्ध त्याग सके। मान लीजिए कि किसी वस्तु के प्राप्त करने के लिये आप लोग व्यग्र भाव से प्रयत्न कर रहे थे, अन्त में बड़ी दौड़-धूप बड़े परिश्रम के बाद आप उसे प्राप्त कर सकते हैं वह एक ऐसी वस्तु है, जिसके हाथ से निकल जाने पर आप को क्लेश भी कम न होगा। परन्तु फिर भी आप में इतना आत्मबल होना चाहिए कि इच्छा होने पर किसी समय भी आप उस वस्तु का प्रसन्न भाव से परित्याग कर सकें, उस वस्तु में आपकी जरा भी आसक्ति न हो।
दुर्बल के लिए संसार में स्थान नहीं है। वह न तो इस जन्म में अपने लिए स्थान बना सकता है और न दूसरे ही जन्म में । दुर्बलता मनुष्य को दासता की ओर ले जाती है। दुर्बलता के ही कारण, मनुष्य को शारीरिक तथा मानसिक सभी प्रकार के क्लेश सहन करने पड़ते हैं। वास्तव में दुर्बलता मृत्यु है। हमारे चारों ओर लाखों की संख्या में कीटाणु फैले हुए हैं। परन्तु जब तक हमारा शरीर दुर्बल नहीं हो जायगा, तब तक उन सब का सामना करने की शक्ति हममें रहेगी, तब तक वे हमें जरा भी हानि न पहुँचा सकेंगे। सम्भव है कि हमारे इर्द-गिर्द दुख-क्लेश के लाखों कीटाणु उड़ रहे हों परन्तु इसके लिए डरने की आवश्यकता नहीं है। जब तक हममें आत्मबल रहेगा, जब तक हममें मानसिक दुर्बलता न आ पावेगी तब तक वे सारे कीटाणु हमारे पास तक फटकने का साहस न करेंगे। यह एक महान् सत्य है। सबलता ही जीवन है और दुर्बलता मृत्यु। सबलता ही सुख है। जीवन चिरन्तन है, अमर है।
आसक्ति ही संसार के सारे सुखों की जड़ है। हमारी अपने मित्रों तथा सम्बन्धियों में आसक्ति है, हम जितने भी शारीरिक तथा मानसिक कार्य करते हैं उन सभी में हमारा हृदय उलझा रहता है। हमारा मन बाह्य पदार्थों भौतिक पदार्थों में रमा है। ऐसी बात क्यों है? वह इसलिए कि इन पदार्थों से हमें सुख मिलता है। परन्तु केवल यह आसक्ति ही मन की यह उलझन ही, हमारे सारे दुःखों का एकमात्र कारण है। इसके अतिरिक्त भला ऐसा और कौन सा कारण हो सकता है? सुख प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि इच्छा करने पर हम किसी पदार्थ के मोह से छुटकारा प्राप्त कर लें। इस विश्व प्रकृति का आनन्द तो वही सौभाग्यशाली प्राप्त कर सकेगा जो कि सभी वस्तुओं को अपनी समस्त शक्ति से अपना सके, परन्तु साथ ही साथ इन समस्त वस्तुओं का परित्याग करने की भी उसमें शक्ति हो।
भिक्षुक कभी सुखी नहीं रहता। वह केवल मुट्ठी भर अन्न पाता है, कोई दयालु हृदय का व्यक्ति उसकी दया पर दुखी हो आदर से देता है और कोई चार बातें सुनाकर देता है। पर जो भी हो भिक्षुक सदा ही एक तुच्छ जीव, दया का पात्र समझा जाता है। उसे कोई सम्मान की दृष्टि से नहीं देखता। समस्त दिन की दौड़-धूप के बाद वह जो कुछ पाता है उसे क्या वह संतुष्ट हृदय से खाता है?
हम सभी लोग भिक्षुक हैं। जो भी काम करते हैं उसके बदले में कुछ न कुछ चाहते अवश्य हैं। हम सभी लोग व्यापारी हैं। हम जीवन में व्यापार करते हैं, धर्म-कर्म में व्यापार करते हैं, पुण्य में व्यापार करते हैं, परमार्थ में व्यापार करते हैं। हमें धिक्कार है प्रेम तक में इस वैश्य वृत्ति को नहीं त्याग सकते।
जहाँ आप व्यापार करने के विचार से चलते हैं वहाँ लेन-देन का प्रश्न हो तो फिर उसी नियम पर आरुढ़ रहिए। व्यापार के लिए समय कभी अनुकूल रहता है और कभी प्रतिकूल। बाजार का भाव कभी स्थिर नहीं रहता, वह चढ़ता-उतरता रहता है। इससे घाटा उठाने के लिए सदा ही तैयार रहना चाहिए। इस प्रकार की वृत्ति धारण करना आइने में अपने आपको देखना है। आइने के सामने खड़े होकर आप जिस प्रकार की अपनी मुखाकृति बनाते हैं, ठीक वैसे ही वह आइने में प्रतिबिम्बित होती है। यदि आप हँसते हैं तो आइने से भी आप ही की तरह के किसी आदमी का हँसता हुआ चेहरा दिखाई पड़ता है। यही खरीदना और बेचना है, देना और लेना है।
हम निग्रहित होते हैं, बन्धन में पड़ते हैं, कैसे? इसलिए नहीं कि हम कुछ देते हैं, बल्कि इसलिए कि हम कुछ चाहते हैं। प्रेम करके हम दुख पाते हैं। परन्तु दुख हमें इसलिए नहीं मिलता कि प्रेम करते हैं। हमारे दुख का कारण यह है कि हम प्रेम के बदले में प्रेम उपलब्ध करना चाहते हैं। जहाँ इच्छा नहीं है, चाह नहीं है, वहाँ दुख क्लेश भी नहीं हैं।
हमारी अभिलाषायें, हमारे अभाव समस्त संकटों के आदि कारण हैं। इन्हीं की बदौलत हमें तरह-तरह के दुख-क्लेश सहन करने पड़ते हैं अभिलाषायें सफलता और असफलता के नियमों से बँधी हुई हैं। ये दुखों को लाकर ही रहेंगी।
कोई वस्तु माँगिये नहीं, किसी को यदि कुछ दीजिए या उसका किसी प्रकार का उपकार कीजिए तो बदले में उस व्यक्ति से किसी प्रकार की आशा न कीजिए। आपको जो कुछ देना हो दे दीजिए। वह हजार गुना अधिक होकर आपके पास लौट आवेगा। परन्तु आपको उसके लौटने या न लौटने की चिंता ही न करनी चाहिए। अपने में देने की शक्ति रखिए, देते चलिए। देकर ही फल प्राप्त कर सकेंगे। यह बात सीख लीजिए कि सारा जीवन दे रहा है। प्रकृति देने के लिए आपको बाध्य करेगी। इसलिए प्रसन्नतापूर्वक दीजिए। आज हो या कल, आपको किसी न किसी दिन त्याग करना पड़ेगा ही।
जीवन में आप संचय करने के लिए आते हैं। संसार में सम्पदाएँ खूब मुट्ठी बाँध कर लिया करते हैं परन्तु प्रकृति आपका गला दबा कर आप से मुट्ठी खुलवा लेती हैं। जो कुछ आपने ग्रहण किया है, वह देना ही पड़ेगा, चाहे आपकी इच्छा हो या न हो। जैसे ही आपके मुँह से निकलता है, ‘नहीं, मैं न दूँगा,’ उसी क्षण जोर का धक्का आता है। आप घायल हो जाते है। संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है जो जीवन की लम्बी दौड़ में प्रत्येक वस्तु देने, परित्याग करने के लिए बाध्य न हो। इस नियम के प्रतिकूल आचरण करने के लिए जो जितना ही प्रयत्न करता है वह अपने आपको उतना ही दुखी अनुभव करता है। नहीं। आप जितना भी देंगे, उतना ही लौटकर आपके पास आवेगा। इस कमरे में जितनी भी हवा है उसे जितनी शीघ्रता से निकाल दीजिएगा, बाहर की हवा से कमरा उतनी ही शीघ्रता से भर जायगा। यदि आप कमरे के दरवाजों और खिड़कियों से लेकर छोटे-छोटे सूराख तक बन्द कर दें तो भीतर की हवा वहाँ की वहाँ रहेगी अवश्य, परन्तु कमरे में फिर बाहर की न प्रवेश कर सकेगी। कमरे की हवा बँधी रहेगी और वह विकृत होते-होते विषैली हो जायगी। नदी निरन्तर बहकर अपना जल समुद्र में पहुँचा रही है और बाहर के जल से वह भरती जा रही है। आप त्याग के रहस्य को समझिए। और भिक्षुक न बनिए वरन् अनासक्त हूजिए।