Magazine - Year 1952 - Version 2
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Language: HINDI
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अन्तःकरण चतुष्टय का परिचय
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मानव शरीर के दो भाग हैं एक जड़ दूसरा चेतन। जड़ भाग में हाड़, माँस, रस, रक्त आदि से बना हुआ स्थूल शरीर है। इसके भीतर जो चेतना शक्ति काम करती है उसी के कारण जीवन स्थिर रहता है। उस चेतना का अन्त होते ही मृत्यु हो जाती है और शरीर तत्काल सड़ने लगता है।
चेतना शक्ति को चार भागों में बाँटा गया है। इस विभाजन का तात्पर्य यह है कि उसकी कार्य प्रणाली चार दिशाओं में काम करती है। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार इन चारों की सम्मिलित शक्ति को अन्तः करण चतुष्टय कहते हैं आइये, इनका कुछ परिचय प्राप्त करें।
(1)मन का कार्य इच्छा करना, चाहना, कल्पना करना है। तरह तरह की वस्तुओं की इच्छाएँ मन के द्वारा होती हैं, कल्पना करना इसका प्रधान गुण है, इसलिए क्षण में पृथ्वी के एक कोने से दूसरे कोने तक पहुँच जाता है इसकी उड़ान बड़ी तेज है। मन की बराबर तीव्र गति से और कोई नहीं दौड़ सकता। यह एक स्थान पर देर तक स्थिर नहीं रहता। भोग-भोगने का साधन तो इन्द्रियाँ हैं पर कारण, मन है। मन की इच्छा और प्रेरणा से ही इन्द्रियाँ विविध प्रकार के भोगों के लिए संलग्न होती हैं। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय भी कहा जाता है, यद्यपि वह अन्य इन्द्रियों की भाँति दिखाई नहीं देता तो भी रसानुभूति में सबसे आगे है, सब का नेता है। यदि मन उदास हो, खिन्न हो, तो आकर्षक भोग भी नहीं सुहाते और यदि मन की प्रेरणा प्रबल हो तो निर्बल इन्द्रियाँ भी उत्तेजित होकर उधर लग जाती हैं। मन की इच्छाएं और कल्पनाएं यदि सन्मार्ग गामी हों तो मनुष्य को आत्म कल्याण का मार्ग प्राप्त करने में देर नहीं लगती और यदि वह कुमार्ग गामी हों तो पतन का गहरा गर्त सम्मुख ही उपस्थित है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए गीताकार ने कहा है, कि-”मन एवं मनुष्याणाँ कारणं बन्ध मोक्षयो” अर्थात् मन ही मनुष्य के बंधन और मुक्ति का कारण है। वश में किया हुआ मन, सबसे बड़ा मित्र है और असंस्कृत मन से बढ़कर मानव प्राणी का दूसरा शत्रु नहीं। यही कारण है कि आत्मकल्याण की इच्छा करने वाले को मन को वश में करने की ओर विशेष ध्यान देना पड़ता है।
(2)बुद्धि का कार्य है- निर्माण करना। मन अनेक प्रकार की ऊबड़-खाबड़ कल्पनाएं करता रहता है। बुद्धि उसमें से उपयोगी कल्पनाओं को स्वीकृत करती है और अनुपयोगियों को त्याग देती हैं। तर्क करना बुद्धि का प्रधान हथियार है। कारण, परिस्थिति, अनुभव, उदाहरण, अवसर, प्रमाण, साधन, पात्र, सामर्थ्य आदि का ध्यान रखते हुए, इन कसौटियों पर कसते हुए, बुद्धि यह निर्णय करती है कि क्या करना चाहिए क्या न करना चाहिए। यह तो हुई बुद्धि की सामान्य कार्य पद्धति। विशुद्ध बुद्धि ऋतम्भरा बुद्धि प्रायः उच्च कोटि की आत्माओं की ही होती है।
साधारण मनुष्यों की बुद्धि श्रेय या प्रेम में से एक पक्ष की ओर झुकी होती है। श्रेय का अर्थ है— आत्मा का स्वार्थ, परमार्थ। प्रेम का अर्थ है साँसारिक सुख, भौतिक लाभ। जैसे मुकदमें में वादी और प्रतिवादी के वकील एक ही बात पर परस्पर विरोधी तर्क करते हैं और अपने पक्ष को निर्दोष तथा दूसरे पक्ष को दोषी सिद्ध करने के लिए बड़ी प्रभावपूर्ण बहस करते हैं उसी प्रकार श्रेयानुगामिनी बुद्धि उन तर्कों को प्रधानता और मान्यता देती है जो आत्मा के स्वार्थ को पूरा करते हों, चाहे उनके लिए कुछ साँसारिक लाभों को छोड़ना भी पड़ता हो। इसी प्रकार प्रेयानुगामिनी बुद्धि को वे तर्क, प्रमाण और उदाहरण पसंद आते है जो साँसारिक सुख साधनों को बढ़ावें फिर चाहें धर्म कर्त्तव्य को उसके लिए छोड़ना भी क्यों न पड़ता हो।
विवेकशील मनुष्य वे है जो दोनों का समन्वय करते हैं। वे ऐसी नीति एवं कार्य पद्धति को अपनाते हैं जो दोनों लाभों को साथ ले चले। वे जानते हैं कि ‘अति’ करना यह मध्यम स्थिति में उचित नहीं। सामान्य जीवन में अति लोभ की भाँति अति त्याग भी कष्ट दायक है। अति भोग की भाँति अति तितीक्षा भी स्वास्थ्य के लिए अहितकर है। धर्म पूर्वक जीविका कमाना असंभव नहीं है, संयमपूर्वक ऐश्वर्य का उपयोग न हो सके ऐसी बात नहीं है, गृहस्थ में रहकर राजा जनक की भाँति विरक्त रहना असाध्य नहीं, स्वार्थ और परमार्थ का एकीकरण हो सकता है। यही मध्यम मार्ग बुद्धिमान मनुष्यों को प्रिय होता है। इस साधना के उपरान्त धीरे-धीरे बुद्धि की स्थिति ऊँची हो जाती है तब वह ऋतम्भरा प्रज्ञा कहलाती है। उस दशा में वह स्वार्थ और परमार्थ दोनों पक्षों को छोड़ देती है केवल दैवी प्रेरणा एवं ईश्वरीय आज्ञा ही उसका आधार रह जाता है परमहंस और जीवन मुक्त आत्माएँ उसी दिव्य प्रेरणा के आधार पर काम करती हैं।
(3) चित्त का तात्पर्य-स्वभाव, आदत, टेव, अभ्यास, संस्कार। दीर्घ काल तक जो विचार पद्धति एवं कार्य प्रणाली अभ्यास में, उपयोग में आती रहती है, मनुष्य उसका आदी हो जाता है। उसे छोड़ने में बड़ी हिचकिचाहट होती है। जैसे दो मित्र दीर्घ काल से साथ साथ रहते चले आये तो स्थायी वियोग के अवसर पर उनकी भावना उमड़ आती है और वे अलग नहीं होना चाहते। इसी प्रकार जो स्वभाव, विचार, आचार बहुत दिनों से अभ्यास में आये हैं वे चित्त में संस्कार रूप से जम जाते हैं और जीवन का क्रम उसी आधार पर चलने लगता है। भिखारी, चोर, नशेबाज, दुराचारी, आलसी स्वभाव के मनुष्य जानते हैं कि हमारी गतिविधि हमारे लिए दुखदायी है पर उनके मस्तिष्क और शरीर को ऐसा अभ्यास पड़ा होता है कि अनिच्छा होते हुए भी आदत से लाचार होकर उसी कर्म में बार-बार प्रवृत्त हो जाते हैं। कई व्यक्ति रूढ़ियों, मूढ़ विश्वासों अन्य परम्पराओं और पुरातन पंथी से ऐसे बेतरह चिपके होते हैं कि विवेक बुद्धि, उपयोगिता सामयिक आवश्यकता आदि का कुछ भी प्रभाव उन पर नहीं पड़ता और जो कुछ भला-बुरा अब तक होता चला आया है उसमें तनिक भी परिवर्तन स्वीकार नहीं करते। यह चित्त की स्थिति का ही खेल है।
धन को सुरक्षित रखने के लिए तिजोरी का घर में रहना आवश्यक है। पर यदि दुर्गन्धयुक्त गंदगी तिजोरी भर रखी जाय तो तिजोरी का भी दुरुपयोग होता है और गन्दगी की बदबू से होने वाली हानि भी चिरस्थायी हो जाती है। चित्त के संबंध में भी यही बात है। प्रभु ने मनोमय कोष में चित्त का बहुमूल्य भाग इसलिए दिया है कि उसके द्वारा उत्तम स्वभाव को सुरक्षित और चिरस्थायी रखा जा सके। आजकल हमारे चित्त बड़ी दुर्दशा में हैं उनमें बुरी आदतें, नीच विचारधाराएँ, सड़ी-गली परंपराएं, तुच्छ कामनाएँ भरी पड़ी होती हैं।
जैसे कच्ची मिट्टी पानी को सोख लेती है और पानी रंग तथा गंध को देर तक अपने में धारण किये रहती है उसी प्रकार मन के द्वारा जो विचार किये जाते हैं और शरीर द्वारा जो कार्य होते हैं उनका औचित्य-अनौचित्य, पाप-पुण्य, चित्त में संस्कार रूप से जम जाता है। यह संस्कार ही समयानुसार परिपाक होकर दुख-सुख के कर्म भोगों का निर्णय करता है। चित्त का संशोधन और परिमार्जन हो जाय तो उसमें जमे हुए जन्म-जन्मान्तरों के कुसंस्कार भी विनष्ट हो जाते हैं और चालू प्रारब्ध भोगों के अतिरिक्त भविष्य में बनने वाले दुखदायी कर्म भोगों की अनायास ही जड़ कट जाती है।
चित्त में जमे हुए कुसंस्कारों का मूलोच्छेदन करना और नये सुसंस्कारों को मजबूती से गहराई तक जमाना, आध्यात्मिक साधकों के लिए आवश्यक होता है। इसलिए संस्कार भूमि का, चित्त चेतना का परिमार्जन करना मनोमय क्षेत्र की साधना में एक महत्वपूर्ण कार्य समझा जाता है।
(4)अहंकार का अर्थ है—अपने आपके सम्बन्ध में मान्यता। मैं कौन हूँ-इस प्रश्न का उत्तर विभिन्न व्यक्तियों के मन में विभिन्न प्रकार का होता है। कोई अपने को व्यवसाय के आधार पर, कोई सम्पत्ति के आधार पर, कोई जाति के आधार पर, कोई सम्प्रदाय के आधार पर अपने को प्रधानता देता है। ऐसी ही विविध मान्यताओं से लोग अपने आपके संबन्ध में मान्यता बनाते हैं। जन समुदाय से पूछा जाय कि आप लोग अपने-अपने को क्या समझते हैं तो ऐसे उत्तर मिलेंगे जिससे पता चलेगा कि यह लोग अपने को ब्राह्मण, वैश्य, लखपती, गरीब, जमींदार, किसान, भिखारी, हिन्दू, ईसाई, विधुर, विवाहित, शिक्षित, अशिक्षित, अभागा, भाग्यवान, कैदी, शासक, रोगी, रूपवान, चोर, दानी, आदि परिस्थितियों का अपने आपको प्रतीक मानते हैं। यह मान्यता ही वह साँचा है जिसमें ढलकर वस्तुतः वह वैसा ही बन जाता है।
अपने सम्बन्ध में स्थिर की गई भावना को, मान्यता को अहंकार कहते हैं। अभिमान और अहंकार को कई व्यक्ति एक बात समझते हैं। यह शब्द समानार्थी भले ही समझे जाते हों पर अध्यात्म शास्त्र में अहंकार का प्रयोग ‘आत्म मान्यता’ के सम्बन्ध में ही होता है। अहंकार मन का वह भाव है जो मोटी दृष्टि से कुछ विशेष उपयोगी नहीं जान पड़ता पर वस्तुतः इसका भारी महत्त्व हैं। ईश्वर और जीव की पृथकता का प्रधान आवरण यह ‘अहम्’ ही है। यह अहंता जब तक रहती है तब तक सायुज्य मुक्ति नहीं हो सकती। ईश्वरीय प्रचण्ड तेज की एक छोटी चिंगारी जब अपने अस्तित्व की प्रथम मान्यता कर लेती है और ‘मैं’ का एक छोटे दायरे में अनुभव करती है तभी वह जीव संज्ञा को प्राप्त कर लेती है। ईश्वर से पृथकता में मैं की मान्यता ही जीवन का मूल कारण है। इस मान्यता को हटाकर, द्वैत को मिटाकर जब मैं और तू को एक कर दिया जाता है तो वह अद्वैत भाव ही ब्रह्म सायुज्य में परिवर्तित हो जाता है। कहा गया है कि—”अपनी खुदी मिटा दे, तुझको खुदा मिलेगा।”
अहंकार जिस प्रकार का होगा, उसी के अनुसार हमारे विचार, विश्वास, आदर्श होंगे। इच्छा और आकांक्षाएं उसी क्षेत्र में उन्नति एवं सफलता प्राप्त करना चाहेंगी। जिसके मन में अपने सम्बन्ध में यह निश्चित विश्वास है कि मैं अमुक नाम के भिखारी के अतिरिक्त और कुछ नहीं हूँ उसकी विचारधारा भिक्षा में और कार्य प्रणाली याचना में अधिक सफलता प्राप्त करने के लिए ही अग्रसर हो सकती है। आध्यात्मिक व्यक्तियों का अहंकार सज्जन, सत्पुरुष, महात्मा, आदर्शवादी, लोकसेवी, महापुरुष, ईश्वर भक्त, के रूप में होता है इसलिए वह इसी क्षेत्र में अग्रसर होता है। वह सम्पदाओं की अपेक्षा सद्गुणों में सुख एवं सफलता अनुभव करता है। तदनुसार उसके जीवन की गतिविधि उस ढांचे में ढ़ल जाती है जो आत्मा की महानता, प्रतिष्ठा और सुख शान्ति के अनुरूप होती है।
अन्तः करण चतुष्टय के चारों भागों को, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को, जब सात्विकता के शान्तिमय पथ पर अग्रसर किया जाता है तो हमारी चेतना शक्ति का दिन-दिन विकास होता है। यह मानसिक विकास अनेक सफलताओं और सम्पत्तियों का पिता है। मनोबल से बड़ी और कोई सम्पत्ति इस संसार में नहीं है। मानसिक दृष्टि से जो जितना बड़ा है उसी अनुपात से संसार में उसका गौरव होता है अन्यथा शरीर की दृष्टि से तो प्रायः सभी मनुष्य लगभग समान होते हैं। उन्नति के इच्छुकों को अपने अन्तः करण चतुष्टय का विकास करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि इस विकास में ही साँसारिक और आत्मिक कल्याण सन्निहित है।