Magazine - Year 1953 - Version 2
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Language: HINDI
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पारिवारिक वातावरण में सुधार
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(श्री सच्चिदानन्द जी मिश्र, आरा)
मनुष्य के जीवन में अनेक प्रकार की बाधाएं और असुविधाएं आती हैं, थोड़े से लोग तो ऐसे होते हैं जो उनकी परवाह नहीं करते और स्थिर चित्त से अपने रास्ते चलते रहते हैं। पर अधिकाँश व्यक्ति ऐसे होते हैं जो छोटी मोटी और कभी कभी की बाधाएं ही बर्दाश्त कर पाते हैं, आये दिन कि कष्टों से उनका चित्त व्याकुल हो जाता है।
अपनी स्थिति उन अधिकाँश व्यक्तियों जैसी ही है अन्य कठिनाइयों की उपेक्षा आए दिन का पारिवारिक कलह मुझे बहुत त्रासदायक लगता है। गरीबी में रहना और सुखी रोटी खाना-सम्पन्न किन्तु पारिवारिक कलह युक्त जीवन की अपेक्षा बुरा नहीं है। ऐसी मेरी मान्यता है।
मेरा एक छोटा भाई है महेशानन्द। उससे मेरी धर्मपत्नी की पटती न थी, आये दिन दाँता किट किट होती रहती, दफ्तर से काम करके जब घर आता और कलह मचा देखता तो चित्त घबराता और इच्छा होती कि ऐसे गृहस्थ से विरक्त होना अच्छा। घर के झगड़ों को सुलझाने की कोशिश भी बहुत की, पर जब कुछ सफलता न मिली तो निराश हो भगवान में चित्त लगाने लगा। ईश्वर भक्ति के लिए गायत्री का जप मुझे उत्तम मार्ग लगा उसे और अधिक तत्परता पूर्वक बढ़ाने लगा।
छोटा भाई महेशानन्द, पिताजी की मृत्यु के बाद बहुत रोगी हो गया था, रोग से निवृत्त होने पर उसकी भी प्रवृत्ति गायत्री उपासना में बढ़ी। मैंने उसे गायत्री उपासना की सलाह दी और उसने मनोयोग पूर्वक नित्य नियमित जप आरम्भ कर दिया। उसका स्वास्थ्य बहुधा खराब रहता था, पर जब से उसने गायत्री की पूजा आरम्भ की है तब से उसका स्वास्थ बहुत सुधरा है। बहुत दामों की दवाएं जितना लाभ नहीं पहुँचा सकती थीं, उससे अधिक निरोगता उसे पूजा द्वारा प्राप्त हुई है।
दूसरी ओर मेरी स्त्री के स्वभाव में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो रहा है। वह दिन दिन मधुरभाषिणी, सहनशील और विवेकवान होती जा रही है, फलस्वरूप अब वह गृह कलह नहीं होता जिसके कारण मेरा चित्त दुखी रहता था और गृहस्थ त्यागकर विरक्त बनने की बात सोचा करता था।
भाई की अस्वस्थता का निवारण पत्नी का स्वभाव परिवर्तन यह छोटी घटनाएं हो सकती हैं। पर मेरी दृष्टि में यह दोनों ही अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, इनके अभाव में मेरा चित्त सदैव दुखी रहता था, पर अब बहुत कुछ शान्ति का अनुभव करता है।