Magazine - Year 1953 - Version 2
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Language: HINDI
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सच्ची शिक्षा का महान आयोजन
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(श्री श्याम मनोहर दुबे, बसाई)
मेरे जीवन का अधिकाँश समय अध्ययन कार्य में ही बीता है। शिक्षा को मैं मनुष्य जीवन की सर्वोपरि आवश्यकता समझता हूँ। इसलिए उसे श्रेष्ठतम लोक सेवा समझकर मैं पूर्ण तत्परता और उच्च श्रद्धा के साथ अध्यापन कार्य में प्रवृत्त रहता हूँ। मेरी आजीविका का एकमात्र साधन अध्यापकी ही रही है परन्तु कभी भी मैंने उसे व्यवसाय नहीं माना। यदि भूखा रह करके मुझे यह कार्य करना पड़े तो दूसरे व्यवसाय में करोड़पती होने का अवसर ठुकराते हुए भी अपने इस परम प्रिय कार्य में भूखा मरने की श्रद्धा मुझमें मौजूद है।
शिक्षा एक विज्ञान है। जिसका उद्देश्य मनुष्य के मस्तिष्क का ऐसा निर्माण करना है जिससे वह अपने मन में मनुष्यता के उपयुक्त सद्गुण, सद्भाव, सद्विचार और सत्कर्मों का आदि बन सके। शिक्षित उसे ही कहना चाहिए जो दूसरों के लिए आनन्दवर्धक एवं उपयोगी हो। जिस शिक्षा से मनुष्य के गुण, भाव, विचार और कार्य अनीति युक्त बनते हों, जिससे मनुष्य स्वार्थी, दुर्गुणी एवं दूसरों की परेशानी बढ़ाने वाला बनता हो वह शिक्षा, शिक्षा नहीं। ऐसी मेरी मान्यता आरम्भ से ही रही है।
अध्यापक क्षेत्र में मैंने जीवन भर प्रयोग किये हैं। एक समय मेरा विचार था कि प्राथमिक शिक्षा के समय ही बालकों पर अच्छे संस्कार डाले जा सकते हैं इसलिए ग्रेजुएट होते हुए भी मैंने प्राइमरी पाठशाला चलाई। कुछ दिन के अनुभव से देखा कि इस आयु के छोटे बालकों पर स्कूल में नहीं घर पर ही उसके सहचरों एवं अभिभावकों के चरित्र का अनुकरण करने का ही प्रभाव पड़ता है। स्कूल के मास्टर द्वारा वे अक्षर ज्ञान सीखते हैं पर उसके उपदेशों का कोई बहुत प्रभाव ग्रहण नहीं करते। यह देखकर मैंने वह नौकरी छोड़ दी।
हाई स्कूल में नौकरी की, वहाँ देखा कि अंग्रेजी स्कूलों का वातावरण, एवं शिक्षा पद्धति का क्रम ऐसा है कि वहाँ कोई अध्यापक मशीन के पुर्जे की तरह अपनी ड्यूटी भुगत देने के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर सकता। यहाँ मन नहीं लगा तो अन्यत्र काम करने की सोची। एक कॉलेज में प्रोफेसरी मिल गई। वहाँ भी मनोरथ पूरा न हुआ। लड़के बराबरी का दावा करते थे, अहंकार और उच्छृंखलता की उस क्षेत्र में ऐसी बाढ़ थी कि वहाँ मुझे लू लू बनाया जाने लगा, वहाँ से भाग अपना बिस्तरा समेटा।
अब की बार संस्कृत पाठशाला ले बैठा। साथ साथ प्रौढ़ पाठशाला भी लगाई। दोनों के विद्यार्थी अपना एक विशिष्ट उद्देश्य लेकर आते थे। संस्कृत का कोर्स इतना कठिन था कि विद्यार्थी को अधिकाँश समय व्याकरण घोटते रहने तथा परीक्षा में उत्तीर्ण होने की रट में लगे रहते थे। प्रौढ़ लोगों को अपने कार्यों से बहुत थोड़े वक्त के लिए समय मिलता वह समय उन्हें साक्षर बनाने की शिक्षा में ही व्यतीत हो जाता। इस प्रकार मैंने अनेक बार इस्तीफे दिये और अनेक नई जगह तलाश की। अनेक बार अपने संकलकत्व में भी विद्यालय चलाये परन्तु किसी भी में मनोनुकूल सुविधा न मिली परीक्षा उत्तीर्ण करने में ही विद्यार्थी तथा उसके अभिभावकों की रुचि होती है। परीक्षा में उत्तीर्ण होने में जो बातें काम दें वही उनकी दृष्टि में पढ़ाई है बाकी बातों को वे अनावश्यक ही नहीं समय को बर्बाद करने वाली भी मानते हैं। ऐसी शिक्षा पद्धति के साथ मेरे आदर्शों की पटरी नहीं बैठ सकी। जिन बातों को मैं शिक्षा कहता हूँ उनका इस वातावरण के लिए न कोई स्थान है न आदर। ऐसी दशा में मेरा वर्षों का प्रयास आरण्य रोदन के समान व्यर्थ हो गया। अब तक के मेरे प्रयोग प्रायः निष्फल रहे।
इन कारणों से खिन्न होकर मैंने आचार्य जी से पूछा कि मैं शिक्षक बनना चाहता था, शिक्षा में मेरी असाधारण श्रद्धा है। परन्तु क्या करूं वर्तमान परिस्थितियों में वैसी शिक्षा के लिये न तो कहीं अवसर दिखाई देता है और न उत्साह। ऐसी दशा में मुझे क्या करना चाहिये? उन्होंने मुझे मथुरा बुलाया और एक ऐसी शिक्षा पद्धति समझाई जो सचमुच ही असाधारण थी। उन्होंने गायत्री गीता और गायत्री स्मृति के मन्त्रों को पाठ्यक्रम बनाकर गायत्री विद्यालय चलाने की योजना बताई। मेरे आनन्द का ठिकाना न रहा। नौकरी से मैंने इस्तीफा दे दिया और स्वतंत्र रूप से एक गायत्री विद्यालय चलाने लगा। इस बात को एक वर्ष से अधिक होने को आया। गायत्री के 24 अक्षर 1 प्रणव 1 व्याहृतियाँ इस प्रकार 26 दिन का कोर्स होता है। 4 दिन चार रविवारों को छुट्टी रहती है। इस प्रकार एक महीने में एक कक्षा पूरी हो जाती है। शिक्षा काल में विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य सात्विक आहार, तपस्वी दिनचर्या, नित्य जप, नित्य हवन, आदि का कार्यक्रम रहता है। हमारा यह विद्यालय भ्रमणशील रहता है। एक एक महीने में एक गाँव में रह कर अब तक बाहर स्थानों पर यह विद्यालय चल चुका है। बीस से लेकर चालीस तक स्त्री पुरुष इन शिक्षा सूत्रों में सम्मिलित हुए और उन्होंने जीवन के प्रत्येक पहलू पर आवश्यक ज्ञान प्राप्त किया। विचार विनिमय और शंका समाधान का पर्याप्त अवसर रहने, गायत्री के अक्षरों में सन्निहित शिक्षा को भली प्रकार हृदयंगम कराया जा सका।
जिन लोगों ने यह शिक्षा प्राप्त की है उनमें से अधिकाँश के जीवन में भारी परिवर्तन हुए हैं। उनकी गाली देने की, नशेबाजी की, समय का अपव्यय करने की, गन्दे रहने की आदतें छूटी हैं। दहेज, मृतकभोज, बालविवाह, आदि 3 रीतियों में कमी हुई है। कटु भाषण, द्वेष कलह, मनोमालिन्य, फूट, पार्टीबन्दी, मुकदमे बाजी, आदि की अग्नि बुझी है और लोगों ने व्यायाम करना, पुस्तकें पढ़ना आरम्भ कर दिया है, फालतू समय में छोटे गृह उद्योगों द्वारा पैसे कमाने लगे हैं। गायत्री जप, सन्ध्या वन्दन, रामायण पाठ, उपवास, हवन आदि धार्मिक कृत्यों का एक नया सिलसिला उन लोगों में चल पड़ा है। जो स्त्री पुरुष एक महीने की छोटी सी अवधि में इस शिक्षा में सम्मिलित हो रहे हैं, उनने अपने अपने घरों का वातावरण ही बदल दिया है। उनके बदले हुए विचार और स्वभाव ने उन घरों में एक नई ही चेतना पैदा कर दी है।
इस प्रकार मैं देखता हूँ कि शिक्षा के सम्बन्ध में जो स्वप्न जीवन भर मैं देखता रहा वह अब पूरे होने जा रहे हैं। साधारण व्याख्यानों से, छुटकारा वार्तालाप का वह प्रभाव नहीं पड़ता जो गायत्री के माध्यम से, एक नियमित और निश्चित पाठ्यक्रम द्वारा अध्ययन एवं मनन करने से होता है। कोई भी कार्य एक मुख्य उद्देश्य लेकर किया जाता है और उस उद्देश्य के अनुसार ही परिणाम होता है, जो लोग परीक्षा उत्तीर्ण होने का प्रणाम पत्र लेने के उद्देश्य से पढ़ते हैं उन्हें उसी लक्ष की पूर्ति में अपनी पढ़ाई की सफलता दिखती है। परन्तु जिनने जीवन निर्माण के लिए, आत्म शाँति के लिए, गायत्री माता का सन्देश सुना है, वे अपनी शिक्षा की सार्थकता इसी में देखते हैं कि वे प्रतिष्ठा, शाँति, सम्पन्नता और उन्नति का जीवन उपलब्ध करें। उनका यह संकल्प पूर्णरूप से सफल न भी हो तो भी पूर्ण स्थिति में भारी परिवर्तन हो जाना निश्चित है। इसके अनेकों प्रत्यक्ष उदाहरण इस एक वर्ष की अवधि में मैंने देखे हैं।
जब मैं मथुरा गया था तब आचार्य जी ने अपनी योजनाएं बताई थीं कि वे किस प्रकार देश में चलते फिरते गायत्री विद्यालय स्थापित करके धर्म और नीति को भारतीय जीवन में ओत प्रोत करेंगे। मेरा जो तुच्छ अनुभव है उसे देखकर यह अनुभव होता है कि ऐसे ही हजारों शिक्षक जब देश भर में फैल जायेंगे तो नवीन समाज की रचना, नवीन युग का निर्माण कठिन न रहेगा। मैं देववादी नहीं समाज सेवा और राष्ट्र निर्माण में ही मेरी रुचि है मुझे लगता है कि इन दोनों ही महान् आवश्यकता की पूर्ति में आचार्यजी का गायत्री आन्दोलन बहुत भारी योग देगा। इसी दृष्टि से मैं गायत्री संस्था में सम्मिलित हुआ हूँ। इस योजना के द्वारा मुझे अपने समाज में और राष्ट्र का भारी कल्याण होता दिखाई पड़ रहा है।