Magazine - Year 1953 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
भगवान महावीर के अमृत वचन
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(उत्तराध्ययन सूत्र से)
सेंध लगाते हुये पकड़ा गया चोर किस तरह अपने कर्म से काटा जाता (पीड़ित होना) है उसी तरह से यह जीवन इस लोक और परलोक में अपने-अपने कर्मों द्वारा पीड़ित होते हैं क्योंकि संचित कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता।
संसार को प्राप्त जीव दूसरों के लिए (या अपने जीवन व्यवहार में) जो कर्म करता है वे सब कर्म उदय (परिणाम) काल में खुद उसको ही भोगने पड़ते हैं। उसके (धन में भागीदार होने वाले) बन्धु बान्धव कर्मों में भागीदार नहीं होते।
(ललचाने वाला) मन्द-मन्द स्पर्श यद्यपि बहुत ही आकर्षण होता है किन्तु संयमी उसके प्रति अपने मन को आकृष्ट न होने देने, क्रोध को दबावे, अभिमान को दूर करे, कपट (मायाचार) का सेवन न करे और लोभ को छोड़ देवे।
जो अपनी वाणी (विद्वत्ता) से ही संस्कारी गिने जाने पर भी तुच्छ और परनिंदक होते हैं तथा राग द्वेष से जकड़े रहते हैं वे परतन्त्र और अधर्मी हैं ऐसा जान कर साधु उनसे अलग रह कर शरीर के अन्त तक (मृत्युपर्यंत) सद्गुणों की ही आकाँक्षा करे।
काया और वचनों से मदान्ध बना हुआ तथा धन और स्त्रियों में आशक्त बना हुआ वह, जैसे केंचुआ मिट्टी को दो प्रकार से इकट्ठी करता है उसी तरह, दो तरह से कर्मरूपी बल को इकट्ठा करता हैं।
भिक्षाचरी करने वाला भिक्षु भी यदि दुराचारी होगा तो वह नरक से नहीं छूट सकता।
आत्मवत् सर्वत्र सब जीवों को मानकर (अर्थात् जिस तरह हमें अपने प्राण प्यारे हैं उसी तरह दूसरों को भी अपने अपने प्राण प्यारे हैं ऐसा जान कर) भय और बैर से विरक्त आत्मा किसी भी प्राणी के प्राणों को न हरे (न मारे या न सतावे)।
बन्ध और मोक्ष की बातें करने वाले, आचार का व्याख्यान देने पर भी स्वयं कुछ आचरण नहीं करते। वे मात्र वाग्शूरता (वाणी की बहादुरी) से ही अपनी आत्मा को (झूठा) आश्वासन देते हैं।
भिन्न-भिन्न तरह की (विभिन्न) भाषाएँ (इस जीव को) शरणभूत नहीं होती हैं तो फिर कोरी विद्या का अधीश्वरपन (पण्डितवन) क्या शरणभूत होगा? पाप कर्मों द्वारा पकड़े हुये मूर्ख कुछ न जानते हुये भी अपने को पण्डित मानते हैं।
जैसे एक मनुष्य ने एक कानी कौड़ी के लिये लाखों स्वर्ण मुद्राएँ (मोहरें) खर्च कर दीं अथवा एक रोगमुक्त राजा ने अपथ्य रूप केवल एक आम खाकर अपना सारा राज्य गँवा दिया (वैसे ही जीवात्मा क्षणिक सुख के लिये अपना तमाम कर्म बिगाड़ लेता है)।
विषयों ने उसे एक बार जीता (वह विषयासक्त हुआ) कि इससे उसकी दो तरह से दुर्गति होती है जहाँ से बहुत लम्बे समय के बाद भी निकलना उसके लिये दुर्लभ हो जाता है।
यदि मनुष्य भव के भोग, दाब की नोक पर स्थित जलबिंदु के समान है तो दिन−प्रतिदिन क्षीण होने वाली इस छोटी सी आयु में कल्याण मार्ग को क्यों न ताना (साधा) जाय?
अधीर (आसक्त) पुरुष तो सचमुच बड़ी ही कठिनता से इन भोगों को छोड़े पाते हैं, उनके भोग सुखपूर्वक सरलता से नहीं छूटते। (किन्तु) जो सदाचारी साधु होते हैं वे इस अपार दुस्तर संसार सागर को तैर कर पार कर जाते हैं।
यदि कोई इस लोक को उसकी तमाम विभूतियों के साथ एक ही व्यक्ति को उसके उपभोग के लिये देदे तो भी उसकी तृप्ति नहीं होगी क्योंकि यह आत्मा (बहिरात्मा-कर्मनाश में जकड़ा हुआ जीव) दुष्प्राप्य (बड़ी कठिनता से सन्तुष्ट होने वाला) है। (सदा असन्तुष्ट ही रहती है)।