Magazine - Year 1953 - Version 2
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Language: HINDI
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विवेक वचनावली (Kavita)
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जाहु वैद घर आपने तेरा किया न होय।
जिन या देदन निर्मई भला चरेगा सोय॥
आब गई आदर गया नैनन गया सनेह।
ये तीनों तबही गये जबहिं कहा कछु देह॥
प्रेम न बाड़ी ऊपजै प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजा जेहि रुचै सीस देह लै जाय॥
छिनहि चढै छिन ऊतरै मो तो प्रेम न होय।
अघट प्रेम पिंजर बसै प्रेम कहावै सोय॥
प्रेम प्रेम सबकाई कई प्रेम न वीन्हें को।
आठ पहर मीना रहै प्रेम कहावै सोय॥
जब मैं था तब गुरु नहीं अब गुरु मैं हम नाहिं
प्रेम गली अति साँकरी ता में दो न समाहि॥
जा घट प्रेम न संचरै सो घट जान मसान।
जैसे खाल लुहार की साँस लेत बिन प्रान॥
जल में बसै कमोदिनी चन्दा बसै अकास।
जो हैं जाकों भावता सो ताही के पास॥
तत्व तिलक माथे दिया सुरति सरवनी कान।
करनी कण्ठी कण्ठ में परसा पद निर्वान॥
कबिरा माला मनहिं की और सँसारी भेख।
माला फेरे हरि मिलैं गले रहँट के देख॥
बिनवत हौं कर जोरिकै सुनिये कृपा निधान।
साधु संगत सुख दीजिये दया गरीबी दान॥
अवगुन मेरे बाप जी बकसु गरीबनिवाज।
जो मैं पूत कपूत हौं तऊ गिता को लाज॥
साहिब तुमहिं दयाल हौ तुम लगि मेरी दौर।
जैसे काग जहाज को सूझैं और न ठौर॥
सिष तो ऐसा चाहिये गुरु को सबकछु देय।
गुरुतो ऐसा चाहिये मिष से कछु नहिं लेय॥
तरयर तासु बिलम्बिये बारह मास फलन्त।
सीतल छाया सघन फल पंछी केल करन्त॥
साधु कहावत कठिन हैं ज्यों खाँड़े की धार।
डगमगाय तो गिर परे निःचल उतरै पार॥
गाँठी दाम न बाँधई नहिं नारी से नेह।
कह कबीर तार साधु के हम चरनन की खेह॥
जाति न पूछो साधु की पूछि लीजिये ज्ञान।
मोल करो तलवार का पड़ा रहने दो म्यान॥
कबिरा संगत साधु की हरै और ही व्याधि।
संगत बुरी असाधु की आठों पहर उपाधि॥
कबिरा संगत साधु की ज्यों गन्धी की बास।
जो कछु गन्धी दे नहीं तौ भी बास सुबास॥
पौथी पढ़ पढ़ जग मुआ पण्डित हुआ न कोय
ढाई अक्षर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय॥