Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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यज्ञ द्वारा तीर्थों की स्थापना
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यज्ञ का महत्त्व—सृष्टि के आरम्भ काल में ही स्रष्टा ने सहस्र वर्ष का यज्ञ किया था।
सिसृक्षमाणो विश्वंहि यजतेविस्रजतपुरा।
संत्रं हि ते अतिपुण्यं च सहस्रपरिवत्सरान्॥6॥
तपो गृहपतेयत्र ब्रह्मा चैवाभवत्स्वयम्।
इडाया यत्र पत्नीत्वं शामित्रं यत्र बुद्धिमान्॥7॥
ब्र. पु. पूर्व भाग प्रक्रियापाद अ. 1 श्लोक 5।6।7
अर्थ—कल्प के आरम्भ काल में जिस समय सृष्टि की रचना की जा रही थी, उस समय अति पुण्य मय महायज्ञ का अनुष्ठान सहस संवत्सर के लिये हुआ था। इस महायज्ञ के अनुष्ठाता स्वयं ब्रह्मा जी थे, और उनकी पत्नी इड़ा जहाँ उपस्थित थीं और शामित्र बुद्धिमान भी उपस्थित था।
यज्ञ से सृष्टि की रचना का ब्रह्म पुराण में इस प्रकार वर्णन है:—
विष्णु की नाभि से निकले हुए कमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पाँच तत्व पहले ही उत्पन्न हो चुके थे। उस समय अन्य कोई भी वस्तु प्रकट नहीं हुई थी। ब्रह्मा मौन बैठे हुए थे। वह किंकर्तव्य विमूढ़ की अवस्था में थे। कारण उनको कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था, आकाशवाणी हुई, जगत की सृष्टि करो। यह सुनकर ब्रह्मा ने कहा—मैं कैसे, कहाँ और किस साधन से सृष्टि की रचना करूं। उत्तर मिला—यज्ञ करो, इससे तुम्हें शक्ति प्राप्ति होगी। यज्ञ ही विष्णु है, यह सनातन सत्य है। ऐसा सोचकर यज्ञ करो। इसके करने से कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है। ब्रह्माजी ने पुनः प्रश्न किया−कहाँ और किस वस्तु का यज्ञ करूं। आकाशवाणी ने ब्रह्मा को रहस्य समझाया।
ब्रह्माजी ने रहस्य को समझा और उसके आदेशानुसार यज्ञ का संकल्प किया। यज्ञ यज्ञ संकल्प करते ही इतिहास, पुराण आदि सब शास्त्रों का उन्हें ज्ञान हो गया। तत्काल ही सम्पूर्ण वेद उन्हें ज्ञात हो गए। सब आवश्यक सामग्रियां स्वयं ही उपस्थित हो गई इस प्रकार भगवान ब्रह्मा ने यज्ञ प्रारम्भ किया। इस पुरुष से अनेक वस्तुयें प्रकट हुई। मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, मुख से इन्द्र और अग्नि, जाँघों से वैश्य, पद से शूद्र, प्राण से वायु, कान से दिशाएँ मस्तक से सम्पूर्ण स्वर्ग लोक, मन से चन्द्र, नेत्र से सर्प, नाभि से अन्तरिक्ष तथा पृथ्वी की उत्पत्ति, रोम कूपों से ऋषि, केशों से औषधियाँ, नखों से पशु (जंगली) आदि प्रकट हुए। इन सब के अतिरिक्त सब कुछ स्थावर जंगम तथा दृश्य−अदृश्य जगत उस ब्रह्मा से उत्पन्न हुआ। इतना होने पर पुनः पुनीत वाणी सुनाई दी, ब्रह्मन्! सब पूर्ण हो गया। अब सब पात्रों की अग्नि में आहुति कर दो। यूप ‘प्रणीता’ कुश, ऋत्विक्, यज्ञ, स्रुवा, पुरुषों और पाश−सबका विसर्जन कर दो। इस प्रकार भगवान के आदेशानुसार ब्रह्मा ने यज्ञ से समस्त सृष्टि की रचना की।
ब्रह्माजी के प्रणीता का जो जल था वह प्रणीता नदी के रूप में परिवर्तित हो गया। फिर प्रणीता का कुशों से मार्जन करके विसर्जन किया। मार्जन के समय प्रणीता के जल की बूंदें इधर−उधर अनेक स्थानों पर गिरीं, जहाँ−जहाँ इस जल की बूंदें पड़ीं, वहीं उत्तम गुण वाले तीर्थों की उत्पत्ति हो गई। उन तीर्थों की यात्रा, ध्यान, स्नान आदि यज्ञ फल देने वाले हैं। भगवान विष्णु का जिसमें सदैव निवास है वह सर्वगुण सम्पन्न गोमती−प्रणीता स्वर्ग को देने वाली है। संमार्जन करने के बाद जिस स्थान पर कुश गिरे थे, वह स्थान, कुश−तर्पण तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हो गया। यज्ञ करते समय, विन्ध्य पर्वत के उत्तर में, जहाँ यूत खड़ा किया, वह स्थान भगवान विष्णु का प्यारा क्षेत्र बन गया। वह स्थान जहाँ पर यज्ञ किया गया था, वहाँ तीन कुँड हैं, जो यज्ञेश्वर स्वरूप है। वह स्थान देवयजन के नाम से लोकों में प्रसिद्ध हो गया। दण्डकारन्य ब्रह्मा के यज्ञ का मुख्य स्थान है इसी प्रकार उस महायज्ञ द्वारा अनेक तीर्थों की उत्पत्ति हुई।
मारकंडेय पुराण में गोवर्धन पर्वत का महात्म्य करते हुए बताया गया है कि उस स्थान पर नान्दी जी के आदेशानुसार एक बड़ा यज्ञ हुआ। इस यज्ञ के फल स्वरूप गोवर्धन पर्वत प्रमुख तीर्थ बन गया और भगवान ने उसे अंगुली पर उठा कर बहुत बड़ा श्रेय प्रदान किया।
ब्रह्म पुराण, अध्याय 18, 21, 22, 23 में यज्ञों के द्वारा ही जम्बू द्वीप की महानता होने का प्रतिपादन है:—
तपस्तप्यन्ति यतयो जुहवते चात्र याज्विनः।
दानाना चात्र दीयन्ते परलोकार्थ मादरात्॥ 21॥
पुरुषैयज्ञ पुरुषों जम्बूद्वीपे सदेज्यते।
यज्ञोर्यज्ञमयोविष्णु रन्य द्वीपेसु चान्यथा॥ 22॥
अत्रापि भारतंश्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महामुने।
यतो कर्म भूरेषा ययोऽन्या भोग भूमयः॥ 23॥
अर्थ—भारत भूमि में यति लोग तपश्चर्या करते हैं, यज्ञ करने वाले हवन करते हैं तथा परलोक के लिये आदर पूर्वक दान भी देते हैं, जम्बूद्वीप में सत्पुरुषों के द्वारा यज्ञ भगवान का यजन हुआ करता है। यज्ञों के कारण यज्ञ पुरुष भगवान विष्णु जम्बूद्वीप में ही निवास करते हैं। इस जम्बूद्वीप में भारतवर्ष श्रेष्ठ है। यज्ञों की प्रधानता के कारण इसे (भारत को) कर्मभूमि तथा और अन्य द्वीपों को भोग भूमि कहते हैं।
तीर्थों की स्थापना वहाँ−वहाँ ही हुई, जहाँ−जहाँ बड़े यज्ञ हुए। ‘प्रयाग‘ शब्द में ‘प्र’ उपसर्ग को हटा देने पर “याग“ शब्द रह जाता है। याग—यज्ञ की प्रचुरता रहने के कारण ही वह स्थान−तीर्थराज प्रयाग बना। काशी—वाराणसी के दशाश्वमेध घाट इस बात के साक्षी हैं कि इन स्थानों पर, दस बड़े बड़े यज्ञ हुए हैं और उसी के प्रभाव से इन स्थानों को इतना प्रमुख स्थान मिला। कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य आदि सभी क्षेत्रों—तीर्थों को उद्भव यज्ञों से हुआ है। जिस स्थान पर यज्ञ होते हैं, वह स्थान तीर्थ बन जाता है। इसके कुछ विवरण देखिये:—
असीम कृष्णे विक्रानते राजन्येऽनुपमत्विषी।
प्रशासतीमा धर्मेण भूमिं भूमिपसत्तमे॥ 12॥
ऋषयः संशितात्मानः सत्यव्रत परायणाः।
ऋजवो नष्ट रजसः शान्ता दान्ता जितेन्द्रियाः ॥13॥
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे दीर्घ सत्रं तु ईजिरो।
नद्यास्तीरे दृषद्वत्याः पुण्याद्याः शुचि रोधसः॥14॥
—वायु पुराण, प्रक्रिया पाद, प्रथम अध्याय
अर्थ—जिस समय अनुपम कान्तिवान, विक्रमशाली नरपति श्रेष्ठ राजा असीम कृष्ण धर्म पूर्वक इस पृथ्वी पर शासन करते थे, उस समय पवित्र पुलिना दृषद्वती नदी के तीर पर धर्म क्षेत्र−कुरुक्षेत्र में, सरल, शान्त, दान्त, जितेन्द्रिय, रजो−गुणविहीन, सत्यपरायण ऋषियों ने दीर्घ सत्र—बहुत दिनों तक निरन्तर होते रहने वाला महायज्ञ किया था।
ऋषियों ने सूत जी से प्रारम्भिक महायज्ञ के स्थान, समय, प्रकार आदि के सम्बन्ध में प्रश्न किया। उसके उत्तर में सूत जी कहते हैं:—
सिसृक्षमाणा विश्वं हि यत्र विश्वसृजः पुरा।
सत्र हि ईजिरे पुण्यं सहस्र परिवत्सरान्॥5॥
तपोगृहपतिर्यत्र ब्रह्माऽभवत् स्वयम्।
इलावा यत्र पत्नीत्वं शामित्रं यत्र बुद्धिमान्॥ 6॥
मुत्युश्चक्रे महातेजास्तस्मिन्सत्रे महात्मनाम्।
विविध ईजिरेतत्र सहस्रं प्रतिवत्सरान्॥ 7॥
भ्रमतो धर्मचक्रस्य यत्र नेमिर्शोर्यत्।
कमणातेन विख्यात नैमिषं मुनि पूजितम्॥ 8॥
—वायु पुराण, प्र. पा., द्वि. अ.
अर्थ—जहाँ विश्व की सृष्टि की इच्छा से सृष्टि के आदि काल में (ब्रह्मा) श्रष्टाओं ने हजारों वर्ष पर्यन्त पवित्र यज्ञ किया था। जिस यज्ञ में स्वयं तप ही यजमान और स्वयं ब्रह्मा जी ब्रह्मा बने थे, जहाँ इला ने पत्नीत्व का तथा शामित्र का काम स्वयं बुद्धिमान−तेजस्वी मृत्यु देव ने किया था। महान् आत्माओं के इस दीर्घ एवं विशाल−यज्ञ में धर्म की नेमि घूमते घूमते विशीर्ण हो गयी थी−(यानी धर्म की इसीलिये ऋषि मुनि पूजित उस प्रदेश का नाम नैमिषारण्य पड़ गया।
स्कन्द पुराण महेश्वर खण्ड में उल्लेख है कि वृत्रासुर ने इन्द्र को ऐरावत हाथी समेत निगल लिया। इससे देवताओं में हाहाकार मच गया। तब आकाशवाणी हुई।
आकाशवाणी के अनुसार देवताओं ने आशुतोष शंकर का मन्त्र जप तथा उसका दशाँश हवन किया। इस यज्ञ प्रभाव से इन्द्र, वृत्र सुर का पेट फाड़ कर निकल आये।
उदार बुद्धि वाले विरोचन पुत्र बलि ने शुक्राचार्य से पूछा:—
भगवन् ! इन्द्र किस प्रकार हमारे अधीन हो सकते हैं?
शुक्राचार्य ने उत्तर दिया:—
हे दैत्यराज! तुम विश्वजित् नामक यज्ञ करो। यज्ञ के बिना यह कार्य सिद्ध नहीं हो सकेगा।
शुक्राचार्य ने बलि से यज्ञ प्रारम्भ कराया। विधि पूर्वक जब यज्ञ में आहुति दी ही जा रही थी, उसी समय अग्नि से एक बड़ा ही अद्भुत रथ उत्पन्न हुआ। वह कान्तिवान रथ भाँति भाँति के शस्त्रों से संयुक्त एवं अस्त्रों से सुसज्जित था। यज्ञ पूर्ण करने के उपरान्त राजा बलि उसी रथ पर सवार होकर सेना सहित स्वर्ग पहुँच गये। देवगण इन्द्रपुरी को राक्षसों से घिरा देख गुरु बृहस्पति के पास गये और बोले:—इस समय हम क्या करें।
बृहस्पति ने देवताओं से कहा:—ये दैत्य लोग अभी यज्ञ समाप्त करके आये हैं। गुरु की बात सुन सभी देव व्याकुल होकर बिना लड़ाई किये ही, स्वर्ग छोड़, कश्यप जी के पवित्र आश्रम पर चले गये।
नारद जी के पूछने पर ब्रह्मा जी कहते है:—
वेदों के आधार ब्राह्मण तथा ब्राह्मण के देवता अग्नि हैं। अग्नि में आहुति डालने वाला ब्राह्मण, यज्ञ में भगवान का भजन करता हुआ सम्पूर्ण जगत को धारण करता है।
स्कन्द पुराण में वर्णन है कि धर्मात्मा राजा दिवोदास का वचन सुनकर ब्रह्मा जी बड़े संतुष्ट हुए, उन्होंने यज्ञ सामग्रियों का संग्रह किया और राजर्षि दिवोदास की सहायता पाकर काशी में दश अश्वमेध नामक महा यज्ञों द्वारा भगवान का यजन किया। तभी से वहाँ वाराणसी पुरी में मंगल दायक दशाश्वमेध नामक तीर्थ प्रगट हुआ। पहले उसका नाम रुद्र सरोवर था।
इसी प्रकार अयोध्या के सम्बन्ध में उल्लेख है कि अयोध्यापुरी में सूर्यवंशी राजा वैवस्वत मनु, चक्रवर्ती नरेश के पद पर प्रतिष्ठित थे। वे सदा यज्ञ और दान में लगे रहते थे। इससे उनके शासन काल में अयोध्या पुरी के भीतर मृत्यु, रोग, और वृद्धावस्था का कष्ट किसी को भी नहीं होता था।
सूर्यवंश में ही राजर्ष सांकलायन हुए, जिनके राज्य काल में समूची पृथ्वी शस्य श्यामला एवं धन धान्य से सम्पन्न थी। गायें स्वयं ही इच्छानुसार दूध देती थीं।
एक समय अयोध्या राज्य में बारह वर्ष तक वर्षा नहीं हुई। वशिष्ठ मुनि के निर्देश से वे मारकण्डेय मुनि के पास गये। मारकण्डेय मुनि ने इस संकट से पार पाने के लिए सांकलायन से कहा कि आप नर्मदा नदी के पुनीत तट पर रुद्र यज्ञ का अनुष्ठान करो। इससे वर्तमान उपद्रव की शान्ति होगी और बादल भी इच्छानुसार जल देने लगेंगे राजा ने आदेशानुसार विधि पूर्वक यज्ञ पूर्ण किया और पुनः सभी जीव सुखी और सम्पन्न हो गये।
सूर्यवंश में चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त प्रसिद्ध हैं। उन्होंने नर्मदा और वागु के संगम में एक श्रेष्ठ यज्ञ किया था, जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, गणेश तथा महादेव जी ने प्रत्यक्ष होकर अपना भाग ग्रहण किया ब्रह्मदत्त के उस यज्ञ में आकर वे सभी पाप मुक्त हो गये और ब्रह्मा जी के लोक को गए। यज्ञ के प्रभाव से वह नर्मदा वागु संगम भी एक पवित्र तीर्थ बन गया।
जब रामचन्द्र जी धर्मारण्य गए और वहाँ इस स्थान की प्रतिष्ठा बढ़ाने का उपाय वशिष्ठ जी से पूछा तो उन्होंने उत्तर दिया:—
यज्ञं कुरु महाभाग धर्माण्ये त्वमुत्तमम्।
दिने दिने कोटि गुणं यावद्वर्षशतं भवेत्॥
—एक. पु., ब्र. ख., 3 घ., आ. 35, श्लोक 14
अर्थ—हे महाभाग रामचन्द्रजी! आप इस धर्मारण्य में उत्तम यज्ञानुष्ठान कीजिये इस यज्ञ के प्रभाव से इस स्थल की पवित्रता की शक्ति एक सौ वर्ष तक बढ़ती चली जायगी, जो (पवित्रता—तीर्थ रूपता) मनुष्यों में कोटि−कोटि सद्गुणों का विकास और वृद्धि करती रहेगी।
काशीराज दिवोदास ने ब्रह्मा जी के कथन को स्वीकार कर यज्ञ सामग्री एकत्रित की। इसकी (दिवोदास जी) सहायता से ब्रह्माजी ने दश अश्वमेध नामक यज्ञों से महायज्ञेश्वर भगवान् का यजन किया और—
तीर्थ दशाश्वमेधाख्यं प्रथितं जगती तले।
तदा प्रभृति तत्रासीद्वाराणत्यां शुभप्रदम्॥
पुरा रुद्र सरो नाम तीर्थ कलशोद्भव।
दशाश्वमेधकं पश्चाज्जातं विधि परिग्रहात्॥
स्क., पु., ख. 4, उ. सं., अ. 52, श्लो. 68, 69
अर्थ—उस दिन से दशाश्वमेध नाम से वह तीर्थ प्रख्यात हुआ। पहले उसका नाम रुद्र सरोवर था। दश अश्वमेध यज्ञ करने से ही उसका नाम दशाश्वमेध तीर्थ हुआ।
—भगवान राम ने लंका विजय के हेतु रामेश्वरम् में भगवान शिव का महान यज्ञ किया और विधिविधान से शिवलिंग की स्थापना की। उसी दिन से रामेश्वरम् पावन पवित्र तीर्थ बन गया।