Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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विश्वास (Kavita)
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चलते-चलते चरण थके पर लक्ष्य न अब भी पास है!
समझ नहीं पाती क्यों फिर भी यह मन नहीं निराश है!
जीवन-सन्ध्या पर सूनापन घिरता चारों ओर से,
बन्दी पथ होता जाता है घने तिमिर की डोर से,
भीड़ मौन हो गये, विश्व का कोलाहल निस्पंद है,
सब कुछ सुप्तप्राय पर केवल नीरवता स्वच्छंद है,
अर्ध खुले यह मेरे लोचन भय से त्रस्त निहारते,
पर तुम मेरे साथ अभी भी मुझको यह विश्वास है!
पग के साथ- साथ में चलती गीतों की झंकार है,
और गीत से बंधा टेक-सा किसी पथिक का प्यार है,
संभल-संभल कर चलना कोई सुन न सके पद-चाक को,
जिसने देखी छांह ने देखे वह जीवन के ताप को,
वैसे सदा अतृप्ति मनुज के मन में, मरुथल में रही,
पर करुणा-जल देख उमड़ती भूले मृग की प्यास है!
इसका भय है नहीं कि हिमगिरि अड़ा हुआ है राह में,
नौका खे न सकेंगे लघु कर सागर के उत्साह में,
गिरि से टकरा संघर्षों का बादल बना पुनीत है,
और किनारा पा लेने की मौन विसर्जन रीति है,
किरण-डोर से अमृत भरता पुलकित हो आकाश जब,
लहर-लहर पर महल बनाती तब यह चलती श्वास है!
नभ पर चढ़ा निशीथ कह रहा तेरा साहस व्यर्थ है,
मुरझायी कौमुदी कह रही सम्भव बहुत अनर्थ है,
ढलता चांद इशारा करता तू पद-गति को मोड़ दे,
और तीसरा प्रहर मनाने लगा कि तू हठ छोड़ दे,
पर मैं तो वह कोकिल जिसका पतझर हो आधार है,
श्वास स्वयं उड़ाना, अकेला नीड़ बना आकाश है!
जहां कि अन्तिम चरण पड़ेगा, रुक जायेगी साधना,
शीश झुकेगा, हो जायेगी शान्त युगों की भावना,
बन जायेगी अमिट, अधूरी रह कर मन की कामना,
पत्थर बन कर मूर्तिमान हो जायेगी आराधना,
मैं, मेरे पूजित का मन्दिर, मौन नियति की चेतना,
साधन दुर्लभ, किन्तु का सिद्धि का मिला मुझे आभास है!
*समाप्त*