Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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साँस्कृतिक विकास की एक रूप रेखा!
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दैवी संस्कृति-देवतुल्य आचार विचारों की पद्धति का ही दूसरा नाम भारतीय संस्कृति है। इस पद्धति के अनुसार जीवन का निर्माण करने का अर्थ निश्चित रूप से यह है कि मनुष्य भौतिक सुख सम्पदाओं की अपेक्षा सद् आध्यात्मिक सद् गुणों, सद् विचारों, सत्कार्यों को अधिक महत्व दे और वह स्वार्थ की संकीर्णता से बढ़ कर परमार्थ की महानता में पदार्पण करें। इस राजमार्ग पर चलने में ही मनुष्य का व्यक्तिगत लाभ और संसार का सामूहिक कल्याण का तत्व छिपा हुआ ह। भारतीय संस्कृति की सुरक्षा प्रतिष्ठा और अभिवृद्धि एक प्रकार से विश्वमानव की सर्वश्रेष्ठ सेवा, और परमात्मा की सर्वोत्तम उपासना है।
अखण्ड ज्योति के अगले अंकों में हम क्रमशः यह बताते चलेंगे कि हिन्दू धर्म की एक एक कड़ी किस प्रकार अत्यन्त ही बुद्धि संगत, उपयोगी एवं विज्ञान सम्पन्न आधारों पर विनिर्मित हुई है और उसको कितने गम्भीर परिणामों की संभावना सन्निहित है। यहाँ इन पंक्तियों में तो आज हमें यह विचार करना है कि भारतीय तत्वज्ञान को घर-घर में, मन-मन में पहुँचाने के लिए हमें क्या करना चाहिए। राजनैतिक और आर्थिक पंचवर्षीय योजनाएं सामने आती रहती है, पर उनसे भी महत्वपूर्ण-साँस्कृतिक योजनाएं हैं, जिनके बिना मनुष्य का मानसिक और आत्मिक विकास अवरुद्ध ही रह जाता है।
राजनैतिक नेताओं का कार्यक्षेत्र राजनैतिक और आर्थिक है। वे उसी क्षेत्र में अपनी योजना और कार्य क्षमता का उपयोग कर सकते हैं। साँस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक योजनाओं का आगे बढ़ाना उनके लिए कठिन है, क्योंकि जो लोग मनुष्य की नैतिक श्रद्धा के गहन अन्तस्तल का अपने आदर्श जीवन के द्वारा स्पर्श कर सकते हैं वे ही किन्हीं से नैतिक विचारों को बनाने और बदलने में सफल हो सकते हैं। इसलिए यह कार्य नेताओं का नहीं, त्यागी और तपस्वी धर्म सेवियों का है। हमारा यह कर्तव्य है कि संस्कृति विकास की योजनाएं बनावें और जनता जनार्दन के अन्तस्तल में छिपे हुए श्रद्धा तत्वों का आह्वान करके जन मानस को उचित दिशा में अग्रसर करें। नीचे कुछ ऐसे ही कार्य क्रम उपस्थित किये जाते हैं।
(1) भारतीय तत्वज्ञान के उच्चकोटि के विद्वान मिल कर निम्न बातों की शोध करें।
(अ) भारतीय धर्म का आज जो रूप है उसमें कितना अंश प्राचीन मूल संस्कृति के अनुकूल और उपयोगी है। और कितना अवाँछनीय अंश समय की विकृतियों के साथ उसमें मिला है। जिस प्रकार सोना और पीतल की मिलावट को चतुर सुनार शोध कर अलग अलग कर देता है उसी प्रकार सनातन आर्य संस्कृति की शुद्धता और विदेशी आक्रमणों, स्वार्थी तत्वों तथा समय की विकृतियों के कारण समावेश हुई रूढ़ियों को अशुद्धता को अलग अलग छाँट दिया जाय।
(ब) हिन्दू परम्पराओं के अनुसार प्रचलित रीति रिवाजों पर अनेक दृष्टिकोण से विचार किया जाय और उनकी उपयोगिता अनुपयोगिता को स्पष्ट किया जायं
(स) व्रत, पर्व, और त्यौहारों के मूल उद्देश्य ढूंढ़े जायं और उनके मनाने का वास्तविक उद्देश्य तथा कार्यक्रम तलाश किए जायं। आज की परिस्थिति में इन्हें किन सुधारों के साथ मनाना उचित है इस प्रश्न पर गहराई से विचार किया जाय।
(द) शास्त्रों में जो परस्पर विरोधी, सिद्धाँत तथा आदर्श पाये जाते हैं उनको एक सुव्यवस्थित रूप से जनता के सामने इसे रूप में रखा जाय कि वे एक दूसरे के विरोधी नहीं वरन् पूरक प्रतीत हों। दार्शनिक और धार्मिक मतभेदों के कारणों को बताते हुए उनका समन्वय किया जाय।
(य) पौराणिक अलंकारिक गाथाएं जो कहीं कहीं असंभव और अनैतिक सी दीखती हैं। उनमें पहेलियों की बुझौअल की तरह कुछ रहस्य छिपे हुये हैं। इन रहस्यों के - गूढाथ को प्रगट करके जनता में फैले हुए उन भ्रमों को दूर किया जाय जिनके कारण जनता में धार्मिक अविश्वास और सन्देह बढ़ता है।
(फ) देवी, देवताओं के अस्तित्व,विभिन्न रूप, उनके विचित्र वाहन ,तथा विचित्र इतिहास ऐसे हैं जिन के रहस्यों को साधारण व्यक्ति आज समझने में असमर्थ है। इसलिए इन बातों को संदिग्ध समझा जाता है। विद्वानों का काम है कि देववाद का वैज्ञानिक रूप सर्व साधारण के सामने प्रस्तुत करें।
(ग) भारतीय पुनर्जन्मवाद, परलोकवाद, अद्वैत द्वैत और चैत्र वाद, वर्णाश्रम धर्म, स्पर्शास्पर्श, कर्मविपाक, आदि दार्शनिक विषयों का सरल रूप सर्व साधारण जनता के समझने योग्य रीति से उपस्थित किये जाय।
(ह) भारतीय आचार विचार रहन सहन, भाषा, सेवा भाव एवं परम्पराओं की उपयोगिता एवं आवश्यकता को इस रूप में उपस्थित किया जाय कि जनता उनको अपनाना अपने लाभ की बात समझालें।
(2) षोडश संस्कारों को परिष्कृत रूप में उपस्थित किया जाय। बहुत लम्बा समय और धन व्यय कराने वाले विधानों को सरल बना कर संस्कारों को ऐसे ढंग से कराया जाय कि सर्व साधारण को उनमें रुचि एवं आकर्षण हो।
पुँसवन सीमान्त संस्कार के मय गर्भस्थ बालक के प्रति गर्भिणी के तथा गर्भिणी के प्रति घर वालों के कर्तव्यों का उपदेश विस्तार पूर्वक किया जाय। नाम कारण के समय बालक के सुविकसित करने के लिए घर वालों को समुचित ज्ञान दिया जाय। यज्ञोपवीत के समय बालक को द्विजत्व की आदर्शमय जीवन की शिक्षा दी जाय। विवाह के समय पति-पत्नी को उनको उनके कर्तव्य भली प्रकार समझाये जायं और उनकी कर्तव्यों के पालन की-चिन्ह पूजा के रूप में नहीं वरन् विधिवत् प्रतिज्ञा कराई जायं। अंत्येष्टि संस्कार के समय जीवन की नश्वरता, सत्कर्मों की श्रेष्ठता आदि का विस्तृत विवेचन किया जाय। इस प्रकार प्रत्येक संस्कार कर्तव्य भावनाओं को गहराई तक मजबूत करने वाला बनाया जाय। साथ ही उन्हें इतना सरल बनाया जाय कि गरीब आदमी भी उन्हें हँसी खुशी करा सकें। ऐसी सरल संस्कार पद्धति बनाई जाय जिसका उपयोग साधारण व्यक्ति भी कर सकें।
(3) त्यौहारों को मनाने की ऐसी रीति बनाई जायँ, जिससे हर एक त्यौहार कुछ शिक्षा, तथा प्रेरणा दे सके। त्यौहारों के उत्सव सामूहिक रूप से मनाये जायं और उसमें छिपे छुए संदेशों का समझा जाय और उनसे प्रकाश ग्रहण किया जाय।
(4) भारतीय महापुरुषों के उन प्राचीन चरित्रों को अधिक प्रकाश में लाया जाय जो जन साधारण को उपयोगी प्रेरणा दे सकते हैं। रामायण, महाभारत, भागवत आदि कथा ग्रन्थों में से युग निर्माण करने वाली कथायें चुनी जायं ओर उनकी छाप, उत्तम रीति से जनता के मन पर बिछाने के लिए प्रवचन, कविता, गायन, अभिनय आदि द्वारा जन मन पर इस ढंग से अंकित की जाय जिससे उन आदर्शों की अपने जीवन में चरितार्थ करके लोग महानता की ओर अग्रसर हों।
(5) वेद शास्त्रों की पुस्तकें तथा शिक्षाएं सर्व साधारण के लाए सरल बनाई जायं।
(6) संस्कृत भाषा का प्रचार किया जाय।
(7) उपासना में गायत्री उपासना को सर्वप्रथम स्थान दिलाये जाय तैसे मुसलमानों में ‘कलमा’ को प्राप्त है।
(8) यज्ञ भारतीय अध्यात्म विज्ञान का मूल आधार है। इस विद्या के ज्ञाता लोग इसकी प्रामाणिक खोज करें कि यज्ञ द्वारा रोग निवारण, मनोभावों की शुद्धि, वर्षा, प्राण शक्ति की वृद्धि, धर्म बुद्धि, मस्तिष्क विकास, सकाम प्रयोजनों की सिद्धि आदि भौतिक लाभ किस प्रकार होते हैं और इससे आध्यात्मिक लाभों का कारण क्या है ? इन तथ्यों की जिस प्रकार विज्ञान के विभिन्न वस्तुओं पर खोज होती है उसी प्रकार इस विज्ञान पर गहरी एवं प्रामाणिक खोज की जाये।
(9) तीर्थों को चंद पण्डे पुजारियों की जीविका का माध्यम और मुफ्त में स्वर्ग लूटने के लिये आतुर अन्ध विश्वास का केन्द्र न रहने दिया जाये, वरन् वहाँ जो धन व्यय होता है उसका ऐसा सदुपयोग हो जिससे लोगों को धार्मिक शिक्षा एवं प्रेरणा प्राप्त होती रहे।
(10) जिन लोगों की जीविका दान दक्षिणा से चलती हैं उनको जनता की धार्मिक सेवा में लगाया जाये।
(11) गोवंश की रक्षा और वृद्धि के लिये ठोस कार्यक्रम बनाये जाये।
(12) साँस्कृतिक सेवा के लिये अपना समय देने वाले कार्य कर्ता बड़ी संख्या में तैयार किये जाये और उनको कार्य करने की शिक्षा देने के लिये स्थान पर शिक्षण शिविर या विद्यालय चलाये जाये।
(13) छोटे बड़े अनेक साँस्कृतिक सम्मेलन एवं उत्सव बराबर होते रहें। इनका नाम प्राचीन काल की तरह यज्ञ-आयोजन भी हो। साधारण सभा सम्मेलन करने की अपेक्षा ऐसे बृहद् यज्ञ करना अधिक प्रभावोत्माद हो सकता है जिनमें साँस्कृतिक शिक्षा तथा प्रेरणा के लिये वचनों की प्रचार की तथा परस्पर विचार विनिमयों की समुचित व्यवस्था हो।
(14) प्रत्येक मन्दिर को साँस्कृतिक शिक्षा प्रचार की एक संस्था बना दिया जाये जैसा कि प्राचीन काल में वस्तुतः वे होते थे। पुजारी का कार्य मूर्ति पूजा के बाद साँस्कृतिक संगठन एवं उस मन्दिर संस्था से संबन्धित अनेक धार्मिक कार्यक्रमों का संचालन ही है। हर मन्दिर में इस प्रकार की लगन वाले ही पुजारी रहें।
(15) साधारण संगीत शिक्षा के ऐसे छोटे-छोटे केन्द्र हो, जहाँ उत्कृष्ट भावनाओं को जगाने वाले गीतों का गाना तथा उन्हें बाजों पर बजाना सिखाया जाये।
(16) प्रदर्शनी, अभिनय, संगीत, कवि सम्मेलन प्रतियोगिता, गोष्ठी, चित्र पर आदि द्वारा साँस्कृतिक भावनाओं का प्रचार।
(17) सस्ते ट्रैक्ट तथा पत्र पलिकाओं द्वारा एवं परचे, पोस्टर आदि के मध्यम से लोगों की प्रवृत्तियों को धर्म मार्ग की ओर मोड़ना।
(18) गीता प्रेस की रामायण गीता परीक्षा आर्य समाज की आर्य कुमार दल की धार्मिक परीक्षा ईसाइयों के बाइबिल कोर्स की भाँति पत्र व्यवहार शिक्षा एवं प्रमाण पत्र देने वाली ऐसी परीक्षाओं का आयोजन किया जाये जिनके आकर्षण से लोग अधिक धर्म-ज्ञान प्राप्त करें।
(19) महिलाओं का मानसिक विकास करने के लिये महिला कार्यकर्ताओं के दल तैयार हों।
(20) सरकार पर साँस्कृतिक विकास के लिये अधिक सुविधाएं देने के लिए दबाव डालना।
इस प्रकार के और भी जो समय सूझ पड़े। अनेक कार्यक्रम हो सकते हैं कार्यक्रम बनाना सहज है। समयानुसार, आवश्यकतानुसार वे बन भी जाते हैं, आवश्यकता उन कार्य-कर्ताओं की है जो जन मन में भारतीय तत्वज्ञान की प्रतिष्ठापना करने के लिए तत्पर हों। भागीरथ ने घोर तप करे स्वर्ग निवासिनी गंगा को धरती पर उतारा था। आज ऐसे भागीरथों की भारी आवश्यकता है जो हमारे मुरझाये हुए मनः क्षेत्रों को सींचने के लिए साँस्कृतिक गंगा को अवतारित कर सकें। भारत-भूमि वीर विहीन नहीं रही है, उसने तपस्वी भागीरथों को जन्म देना बन्द नहीं कर दिया है- यह बात इन परीक्षा की घड़ियों में सिद्ध होकर रहे, ऐसी भगवान से प्रार्थना है।