Magazine - Year 1955 - Version 2
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Language: HINDI
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भारतीय संस्कृति का आधार
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(पं. तुलसी रामजी शर्मा, वृन्दावन)
भारतीय संस्कृति का मूल आधार सदाचार है। मनुष्य का जीवन नीति, धर्म, प्रेम, सेवा संयम एवं परमार्थ परायण होना चाहिए, तभी उसे वर्ग, मुक्ति, ईश्वर प्राप्ति आदि आध्यात्मिक सत्परिणाम प्राप्त हो सकते हैं। नीचे ऐसे ही शास्त्र वचनों को दिया जाता है:-
चरित्र-शील-इन्द्रिय-निग्रह-वृत सदाचार इत्यादि ये सब एकार्थक हैं। चरित्र की परिभाषा इस प्रकार मिलती है-चरित्रम् पापात्मक क्रियारम्भमात्र त्याग इति बौद्धाः (सर्व लक्षण संग्रह) सर्वथा वद्य योगानाँ त्यागश्चारित्रमुच्यते। (सर्व दर्शन संग्रहः)
अर्थात्-पाप कर्मों का सर्वथा त्याग करना ही चरित्र है। चरित्रवान् की प्रशंसा और चरित्र ही की निन्दा में शास्त्र भरा पड़ा है। पाठकों के सन्तोष कुछ वचन लिखते हैं-
चरित्रवान् ही पण्डित एवं बुद्धिमान् है।
न पण्डितोमतोराम बहु पुस्तक धारणत्।
परलोक भयं यस्य तमाहुःपण्डितं बुधाः।।13।।
(विष्णुधर्मोत्तर पु. ख. 2 अ॰ 51)
हे राम? बहुत पुस्तक पढ़ने से पंडित नहीं माना जाता, जिसको परलोक का भय है, उसको बुद्धिमान् जन पण्डित कहते हैं।।13।।
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि नसेवते।
अनास्तिकःश्रद्धधान एतत्पण्डितलक्षणम् ।।16।।
(म॰ भा॰ उद्योग॰ अ॰ 33)
जो उत्तम कर्मों का सेवन करता है निन्दित कर्मों से बचता है वह आस्तिक है (यहाँ के किये कर्मों का फल अवश्य परलोक में भोगना पड़ेगा) गुरु एवं शास्त्र में विश्वास है, ऐसा पुरुष पण्डित है।।16।।
स बुद्धिमान् योग करोति पापम् ।।15।।
(गरुड़ पु॰ पूर्व खंड अ॰ 115)
वह पुरुष बुद्धिमान् है जो पाप नहीं करता ।
चरित्र से ही मनुष्य पूज्य माना जाता है।
वृत्तेन भवत्यार्योन धनेनन विद्यया।।53।।
(म0 भा0 उ0 अ0 90)
आचरण से ही मनुष्य श्रेष्ठ माना जात है, धन एवं विद्या से नहीं ।।53।।
वृत्तस्थ मपिचाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः। ।।193।।
(पद्म पु. सृष्टि खण्ड अ. 47)
चरित्रवान् चाण्डाल को देवता ब्राह्मण समझते हैं ।।19।।
शूद्रोऽपि शील सम्पन्नों ब्राह्मणादधिको भवेत्।
ब्राह्मणो विगताचारःशूद्राद्धीनतरो भवेत् ।।31।।
(भविष्य पु॰ अ॰ 44)
सदाचार सम्पन्न शूद्र भी ब्राह्मण से अधिक है।
दुराचारी ब्राह्मण शूद्र से गया हुआ है ।।111।।
(म॰ भा॰ वन॰ अ॰ 313)
चारों वेदों का जानकार ब्राह्मण यदि दुराचारी है, तो वह शूद्र से गया बीता है ।। 111 ।। इसलिये-
वृत्तं यत्नेन संरक्ष्यं ब्राह्मणेन विशेषतः ।
अक्षीण वृत्तोनक्षीणोवृत्त तस्तु हतोहतः ।। 109 ।।
(म॰ भा॰ वन॰ अ॰ 353)
वृत्त की (अपने चरित्र, चाल चलन) भले प्रकार रक्षा करनी चाहिये अर्थात् कोई काम बदनामी का न करें और ब्राह्मण विशेष रूप से अपने चरित्र को अच्छा बनावे। जो चाल चलन से गिरा नहीं, वह गिरा नहीं और जो व्यवहार में गिर गया (बदनामी के काम करने लगा) वह गिर गया ।। 109 ।।
न कुलं वृत्तहीनस्य प्रमाणमिति मेमतिः ।
अन्त्येष्वपिहिजातानाँ वृत्तमेव विशिष्यते ।। 41 ।।
(म॰ भा॰ उ॰ 34)
मेरी समझ में अच्छे कुल में उत्पन्न होने पर भी जो मनुष्य दुराचारी है, वह आदरणीय नहीं। यदि नीच कुल में उत्पन्न हुआ भी सदाचारी है, तो वह मान्य है कारण कि सदाचार ही उत्तमता का हेतु है ।। 41 ।।
कुलानि समुपेतानि गोभिः पुरुषतोर्थतः ।
कुलसंख्याँनगच्छन्ति यानि हीनानिवृत्ततः ।। 28 ।।
जो कुल, गौ, पुरुष और धन से भरपूर हैं, परन्तु चरित्र ये हीन हैं, वे कुल उत्तम कुलों की गणना में नहीं आ सकते।
(म॰ भा॰ उ॰ अ॰ 36)
वृत्ततस्त्वविहीनानि कुलान्यल्पधनान्यापि।
कुलसंख्यांचगच्छंति कर्षन्तिचमद्यशः ।। 29 ।।
(म. भा. उ. अ. 36)
जो कुल सदाचार से युक्त और धन से हीन भी हैं, तो भी वे उत्तम कुलों की गणना में आते हैं और बड़ा नाम पाते हैं ।।29।।
यज्ञदान तपांसीह पुरुषस्य न भूतंय।
भवन्ति यः सदाचारं समुललंध्य प्रवर्तते ।।7।।
(मार्कण्डेय पु0 अ॰ 31)
जो पुरुष सदाचार को त्याग कर संसार मार्ग में प्रवृत्त होते हैं, उनके किये हुए यज्ञ, दान, तप, मंगल देने वाले नहीं होते ।। 7 ।।
सदाचार से तीनों लोक जीते जाते हैं।
शीलेन हि त्रयोलोकाः शक्याजेनुं न संशयः।
नहि कि चिदसाध्यं वैलोके शीलवताँ भवेत् ।।
(म॰ भा0 शाँ0 124।15)
शील से तीनों लोक जीते जाते हैं इसमें संशय नहीं और संसार में शीलवानों को कुछ भी असाध्य (कठिन कार्य) नहीं ।। 15 ।।
अद्रोह सर्व भूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्चदानं चशीलमेतत्प्रशस्यते ।। 65 ।।
मन, वाणी, शरीर से किसी से वैर न करना, सब पर कृपा दृष्टि रखना, दान देना इस प्रकार का बर्ताव यह कहाता है ।। 65 ।।
यदन्येषाँहितं नस्य दात्मनः कर्मपौरुषम् ।
अपत्रपेत वायेनन तत् कुर्यात् कथंचन।। 66 ।।
अपना कर्म यदि किसी के लिये अहित कर हो या जिस कार्य से समाज में लज्जित होना पड़े, उस कार्य को कभी न करें ।। 66 ।।
तत्तुकर्म तथा कुर्याद्येनश्लाध्येतसंसदि।
शीलं समासे नैतत्ते कथितं कुरु सत्तम ।। 67 ।।
ऐसा कर्म करें जिससे समाज में प्रशंसा प्राप्त हो, यह संक्षेप में शील का लक्षण है । 67 ।।
यदयप्यशीला नृपते प्राप्नुवन्ति श्रियं कचित् ।।
नमुंजतेचिरं तातस मूलाश्चन संतिते ।। 68 ।।
यद्यपि कभी 2 अशील पुरुष भी सम्पत्ति प्राप्त कर लेते हैं, फिर भी आखिर में जड़ से नष्ट हो जाते हैं।। 68 ।।
(म॰ भा0 शाँ0 अ॰ 124)
सदाचारी ही भगवद् भक्त है।
नहीं दशंसं वननं त्रिषुलोकेषु विद्यते ।
दयामैत्रीय भूतेषुदानं च मधुराचवाक्।।
(म॰ भा0 आदि0)
परमेश्वर का वशीकरण ऐसा तीनों लोकों में नहीं जैसा कि दुखियों पर दया करनी, बराबर चालों से मित्रता, उदारता और मीठी वाणी। नीलकंठ टीका कार ने लिखा है कि ‘संवननं संभजनं परमेश्वर स्या राधनम्’ अर्थात् इस वचन में ‘संवननं’ का अर्थ परमेश्वर की आराधना है।। 12 ।।
ब्रह्म सत्यं दम शौचं धर्मों ह्री श्री घृर्तिःक्षमा।
यत्रतंत्र रमे नित्यमहं सत्येन तेशपे ।। 30 ।।
वेद, सत्य व्यवहार, दम (इन्द्रिय निग्रह) पवित्रता धर्म (वर्णाश्रम सम्बन्धी) लज्जा (बुरे कर्मों से बचना) श्रीः (शोभा-कान्ति) धीरज, क्षमा इन बातों का जहाँ निवास है, तेरी शपथ पूर्वक कहता हूँ, (श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है) वहाँ मेरा निवास है।। 30 ।।
नैष ज्ञानवताशक्य तपसा नैवचेज्यया।
सम्प्राप्तुमिन्द्रियाणाँतु संयमे नैवशक्यते ।। 9 ।।
(म॰ भा0 शाँ0 अ॰ 280)
परमात्मा केवल शास्त्र ज्ञान, तपस्या, एवं यज्ञ से नहीं मिलता, हाँ इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को बुरे कर्मों से हटाना) से मिलता है ।। 9 ।।
यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम् ।
कर्मणा मनसावाचा ब्रह्मसम्पद्यते तदा ।। 57 ।।
जब मन वाणी, शरीर से किसी प्राणी के प्रति बुरा भाव नहीं होता, तब ब्रह्म को प्राप्त होता है।
(म॰ भा0 शाँ0 अ॰ 175/57)
तितिक्षया करुणया मैत्र्या चाखिल जन्तुषु।
समत्वेन च सर्वात्मा भगवान् सम्प्रसीदति ।। 13 ।।
(श्री0 भा0 4/11)
सहन शीलता, करुणा, मित्रता और सब प्राणियों में समता का करने भगवान प्रसन्न होते हैं।। 13 ।।
दयया सर्वभूतेषु सन्तुष्टया येन केनवा।
सर्वेद्रियोपशान्त्या चतुष्यत्याशुजनार्दनः।।
(श्री0 भा0 4/31/19)
सब प्राणियों पर दया करने से, अनायास मिली वस्तु से प्रसन्न रहने से और इन्द्रिय निग्रह से भगवान शीघ्र प्रसन्न होते हैं ।।19।।
निरपेक्षं मुनिशान्तं निर्वैरंसम दर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूये येत्यंघ्रिरे
(श्री0 भा0 11/14/16)
जिसको कुछ परवाह नहीं, मननशील, शाँत चित्त, किसी से बैर नहीं, समदृष्टि (किसी से रागद्वेष नहीं) ऐसे पुरुष के मैं (श्री कृष्णचंद्र कहते हैं) पीछे 2 चलता हूँ कि ऐसे की चरण रेणु से मैं पवित्र हो जाऊँ ।। 16 ।।
विप्रान् स्वलाभ सन्तुष्टान् साधूनृभूत सुहृत्तमान्।
निरहंकारिणः शान्तान्भमस्येशिरसाऽसकृत्।।
(श्री0 अ॰ 10/52/30)
अनायास हुए में सन्तोष करने वाले, साधु (पर कार्य को साधने वाले) सब प्राणियों के प्यारे अहंकार रहित, और शाँत चित्त ऐसे ब्राह्मणों के लिये मैं (श्रीकृष्ण कहते हैं) बारंबार प्रणाम करता हूँ ।।30।।
पर पत्नी पर द्रव्य परहिंसासुयोमतिम्।
करोति पुमान् भूपतोष्यते तेन केशवः।।
पर स्त्री, पर द्रव्य और हिंसा से जो बचा है भगवान उस पर प्रसन्न रहते हैं ।।13 ।।
परापवादं पैशुन्यमनृतंचनभाषते।
अन्योद्वेगकरं चापितोष्यते तेन केशवः 14
(विष्णु पु0 3।8)
पराई निन्दा, चुगलखोरी, मिथ्या, दूसरे को दुख दाई वचन इन से जो बचा है, भगवान उस पर प्रसन्न रहते हैं। 14।
तप्यंते लोक तापेन प्रायशः साधवोजनाः।
परमाराधनंतद्धि पुरुषस्याखिलात्मनः।।44।।
(भा0 8/7)
प्रायः करके सज्जन पुरुष लोक ताप से तप जाते हैं अर्थात् मनुष्यों पर विपत्ति देख उसको दूर करने के लिये दुख उठाते हैं और यही (दूसरों का दुख दूर करना) भगवान् की परम आराधना है।।44।।
रागाद्यपेतं हृदयंवाग दुष्टानृतादिभिः।
हिंसादिशून्यकायश्चह्येतदीश्वरपूजम्।।
(भविष्य पु0 1/112/3 सूत संहिता ज्ञान
योग खण्ड 14/11 दर्शनोपनिषद् 28)
राग आदि से हृदय शून्य हो। मिथ्या, कठोर भाषण, चुगल खोरी आदि से रहित वाणी हो, हिंसा, चोरी, व्यभिचार से रहित शरीर हो, इस प्रकार का बर्ताव ही ईश्वर पूजन है।
अहिंसासत्गमस्तेयं ब्रह्मचर्या परिग्रहौ।
वर्तते यस्यतस्यैवतुष्यतेजगताँपतिः ।।20।।
(नारद पु0 अ॰ 14 )
अहिंसा, सत्य, चोरी का त्याग, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह (किसी पदार्थ में आसक्ति का न रखना इन के पालन करने वाले पर भगवान प्रसन्न रहते हैं ।।20।।
(अपूर्ण)