Magazine - Year 1955 - October 1955
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Language: HINDI
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जगदम्बा के प्रति (kavita)
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हे जगदम्बा! हे शारदा माँ! भू को तूने धन्य किया।
त्रिपुर सुन्दरी प्रेममयी का तूने अभिनव रूप लिया।
जिससे तेरे चरणों में हम पहुँचे सीधे हो गतमार।
सोम रूपिणी! स्वर्ण! कान्ति हे! अमर कीर्ति की ज्योतिधार।
विश्ववन्द्य हरि के उज्ज्वलतम अन्तरतम में तेरा स्थान।
नियमित होती सृष्टि वहीं से कारा चुना क्षेम पर जान।
पृथ्वीतल यह डारागृह सा बना हुआ बन्धन कारी।
मुक्त कराती आती तू जग, मंगलकारी! अविकारी।
छद्मवेष में, माया से मानव तन श्वीकार किया।
लीला−लीला ही में तूने माँ! जग का उद्धार किया।
अरुण राग रंजित सुन्दर आनन पर कान्ति विराज रही।
दिव्य छटा पावन तेरे सुख−मण्डल ऊपर साज रही।
तू बसन्त की ओस बिन्दू सी जीवन−डाली छू जाती।
सौम्य मनोहर पूर्ण इन्दु बन अन्धकार हर ले जाती।
शुभ्र मल्लिका की सी तू मुस्कान लिये ऊपर आती।
हृदय−गगन को आलोकित कर तू उसमें ही रम जाती।
दिग्-दिगन्त में यह नीला सा विस्तृत सागर लहराता।
इसकी चंचल लहरों में भी तेरा रूप निरख आता।
झरते झरनों में से जैसे झर-झर की ध्वनि सुन पड़ती।
हत्-कम्पन में तू वैसी ही अविरल ताल भरा करती।
सुमन-सुवास सरी खी चहुंदिशि व्याप रही सत्ता तेरी।
नीरवता को गुंजा रही है अनुपम नीरवता तेरी।
हृदय हारिणी ऊषा सी चू इस जग में अवतीर्ण हुई।
घोर-घन-घटा जिससे तम की जीर्ण-शीर्ण विदीर्ण हुई।
*समाप्त*