Magazine - Year 1955 - October 1955
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Language: HINDI
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शारीरिक अस्वस्थता से निवृत्ति
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अन्धे को आँखें मिलीं
(शीतला प्रसाद जी, आजमगढ़)
मेरी आयु उस समय सोलह वर्ष की थी। मैं हाई स्कूल की उच्च कक्षा में पढ़ता था। अचानक ही मेरे पड़ोस में चेचक की बीमारी फैली। मैं भी उससे आक्रांत हो गया। परीक्षा का समय आ गया था। दुर्भाग्य की भयंकरता बड़ी ही प्रबल थी । मैं तीन महीना चेचक तथा उससे उत्पन्न कष्टों को भोगता रहा। अन्ततः चेचक ने मेरी दोनों आँखें अपहरण कर लीं। मैं बहुत रोया। चलने फिरने में भी दूसरों का सहारा लेते हुए बढ़ी ही पीड़ा होती। एक दिन रात में मैंने अत्यन्त ही हार्दिक विलाप के स्वर में गायत्री माता से प्रार्थना की कि हे माता! इस बेबसी भरे नारकीय जीवन से तो मुझे उठा ही ले, वही अच्छा! क्या यही यन्त्रणा देने के लिये तथा उसकी अनुमति लेने के लिये ही तुमने मुझे इतनी शिक्षा लेने का अवसर दिया था। हाय! माँ! क्या तुम्हारा वात्सल्य जरा भी द्रवित नहीं होता? मैं फूट−फूट कर रोने लगा। मुझे लगता जैसे मां सामने ही खड़ी है और मेरा कण−कण आंसू बनकर मां के दयालु पाद-पद्मों पर चढ़ता जा रहा है।
सहसा ही अन्तर में सान्त्वना का अवतरण हुआ और उसी की शीतल छाया में मैं सो गया। प्रातः अरुण−वेला में उठा, तो देखा कि मुझे अरुणोदय का आभास झलक रहा है। प्रसन्नता और गायत्री माता के प्रति कृतज्ञता के भाव से मेरा सब कुछ भर उठा। 24 दिन में मैं आँखों से,−शरीर से सभी तरह स्वस्थ उल्लसित होकर गायत्री माता के यज्ञ रूपी मुख में आज्याहुति दे रहा था।
क्षय रोग से मुक्ति
(श्री देवीसिंह जी, बोहत)
सुना था कि क्षय रोग की निश्चित आराम करने वाली कोई दवा ही नहीं है। मेरे दुर्भाग्य से −पूर्व जन्म के पापों के कारण मुझे क्षय रोग हो गया। फेफड़े से काफी खून गिरने लगा था। मेरे जीवन से सभी निराश हो गये थे।—मैं भी हताश था। “मरता क्या न करता” मैंने करुणा प्रार्थना के भाव में गायत्री उपासना की और आज मैं तपैदिक जैसे रोगराज के कराल कवलों से बचकर माता की कृपा शक्ति प्रदर्शन का एक उपादान वन रहा हूं। मैं विश्वास दिलाता हूँ कि किसी संकट से उबार चाहते हैं, वे माता की शरण अवश्य ग्रहण करें। उधार होकर ही रहेगा।
असाध्य रोग का निवारण
(ठा॰ खिलाबन सिंह, दमोह)
आज से तीन वर्ष पहले मेरे पेट में असह्य पीड़ा होती थी। दर्द से सदा ही बेचैन रहता था, जिसके कारण खाना, पीना, सोना सभी से बेबसी हित वंचित रह जाना पड़ता था। भूख लगने पर कदाचित थोड़ा सा दूध भी पी लिया तो पतले दस्त आने लगते।
दमोह में जितने भी प्रसिद्धि पाये हुये वैद्य और डाक्टर हैं, सबसे एक−एक करके इलाज कराया, पर जरा भी आराम न पा सका। यहाँ से निराश हो जबलपुर गया और विक्टोरिया चिकित्सालय में इलाज कराना प्रारम्भ किया। एक्सरे के द्वारा परीक्षण कर डाक्टर ने बताया कि तुम्हारे पेट के नल और पित्ताशय की थैली में छाले हैं। आराम होने के लिये आपरेशन कराना पड़ेगा। फिर इस चिकित्सालय को छोड़ मैं बम्बई किंग एडवर्ड हास्पिटल में दाखिल हुआ, पर यहाँ भी अच्छे−अच्छे सभी डाक्टरों ने आपरेशन कराना ही सर्वोत्तम बताया।
आपरेशन से मैं बेहद डरता था, अतः वहाँ से निराश होकर सीधे घर चला आया। इलाज से आराम होने का विश्वास जरा भी नहीं रहा था, अतः एक मात्र भगवान ही मेरा सहारा था। भगवद् उपासकों की संगति करना और उनके संग भगवद् कृपा की चर्चा हुआ करती।
मेरे एक साथी और भक्त ने कहा−केवल बातें बनाने से नहीं, कुछ करने से भगवद् कृपा की प्राप्ति होती है। तुम अपना सब कुछ गायत्री माता को सौंप दो और नियमित उपासना करो। मुझे उनकी सलाह बड़ी प्यारी लगी। तब तक कुछ प्रेम−भक्ति मेरे हृदय में जग चुकी थी। मैं नियमित गायत्री जप करने लग गया। दो चार दिन के उपराँत ही मेरी बेचैनी और दर्द घटने लगे। मुझे स्फूर्ति का बोध हुआ और आज माता की कृपा से निराशा, आशा बनी और आशा, उत्साह एवं स्वास्थ्य में परिणत हो गयी।
मैं अपने अनुभव के बल से यह दावे के साथ सभी सज्जनों से अनुरोध करता हूँ कि आप सर्वतोभावेन आपको−मातृ चरणों में सौंप दें, निश्चय ही देर−सबेर में आपका मंगल और कल्याण होगा।
पागलपन दूर हुआ
श्री ॐकार पाटिल, खाम गाँव मस्तिष्क की विकृति के रोगी थे। उनके मन के विचार एवं भाव सदा ही अस्त व्यस्त और टूटे−फूटे से रहते। उसमें कोई शृंखला नहीं रहती। लोग उन्हें उन्मत्त और पागल कहते। पैसे की उनके पास कमी नहीं थी, अतः इस रोग को शान्त कराने के लिये विभिन्न चिकित्सकों से भाँति−भाँति के इलाज करवाये, पर, कभी किसी से कोई लाभ न हुआ। एक अयाचित प्रेरणा से उन्होंने अपने कल्याण के लिये गायत्री उपासना प्रारम्भ कर दी। उन्हें अद्भुत शान्ति मिली। विचारों का बिखरना घटने लगा और आज माता की कृपा से उन्हें पागल कहने वाले लोग ही,एक विचारशील व्यक्ति मान कर, उनके विचारों की प्रतिष्ठा करते हैं। यह है माता की वात्सल्य भरी अनुकम्पा। आज उन्होंने एक डूबे हुए मान−वजीवन को उबार लिया।
खामगाँव वासी श्री शुकदेव भावजी की छाती के एक भाग में बहुत वेदना होती थी। इलाज के लिये अधिक पैसे खर्च करने में असमर्थ थे। डाक्टर से पूछने पर उन्होंने बताया कि पहले तुम्हें अपने उस भाग का फोटो खिंचवाना होगा, फिर जाँच करने पर इतने−इतने रुपये इलाज में खर्च करने होंगे। उसने देखा— मैं वैसा इलाज कराने के योग्य नहीं हूँ। अतः सभी सभी ओर की सभी आशा भरोसा छोड़कर उस ने गायत्री माता की शरण लेने का निश्चय किया। जप करने के दूसरे तीसरे दिन ही उसकी वेदना में आश्चर्य पूर्ण कमी आई। फिर तो उसका उत्साह और हौसला बढ़ता ही गया। कुछ ही दिनों में वह सम्पूर्ण वेदनाओं से छुटकारा पा गया और आज माता की कृपा से उन्हीं की याद करते हुए मस्ती से पुरुषार्थ करते हुए वे अपनी जीविका चला रहे हैं।
श्री महादेव चन्द्रकान जी (खामगाँव) की पत्नी दमा से आक्राँत थी। दमा के भयंकर वेग को उन्हें अपनी आँखों से देखने के अवसर जीवन में बारंबार आये। वे कहते हैं, ‘मर जाना बेहतर है किंतु प्राण छूटने की सी दशा में घंटों तड़पते रहना, बहुत ही बड़ा दुर्भाग्य है। किसी नरक का कष्ट इससे अधिक क्या हो सकता है? यह दुस्सह पीड़न अवश्य ही किसी भयंकर पापों का परिणाम ही हो सकता है।”
पैसे की कमी के कारण वे अपनी पत्नी का इलाज कराने में असमर्थ थे और उनकी पीड़ा से स्वयं इनके अन्तर में ‘बिच्छू−दंशन’ चलते रहते थे। कोई उपाय नहीं देख कर बेबसी से ही इन्होंने गायत्री उपासना का आश्रय लिया। उपासना के थोड़े ही दिन उपासना का आश्रय लिया। उपासना के थोड़े ही दिन बाद उन्हें कैसे इलाज के लिये पर्याप्त पैसे मिल गये, इसे वे बताना पसन्द नहीं करते। इस इलाज को तथा इलाज के आवरण में दमा रोग की मुक्ति को, वे गायत्री माता का ही प्रसाद मानते हैं।
मृत्यु के मुख में से लौटा
(कविराज वासुदेव कृष्ण जोशी, काव्यतीर्थ, चूरू)
करीब एक साल पहले की बात है:—मेरे घर से कुछ ही दूर पर एक काली माता का मन्दिर है। उस मन्दिर के पुजारी जी के युवक पौत्र का विवाह अगले वर्ष ही हुआ था। विवाह के उपराँत उस पर ज्वर का जो आक्रमण हुआ, वह सैकड़ों चिकित्साओं और औषधियों से भी नहीं छूटा। चिकित्सकों की असफलताओं से उस युवक के हृदय में निराशा की भावना बढ़ती गयी। अन्ततः उसे औषधि मात्र से अरुचि और अविश्वास हो गया। वह मृत्यु शय्या की और दिनों दिन बढ़ता जा रहा था, फिर उसने औषध लेना स्वीकार नहीं किया। लगता जैसे वह स्वयं ही मृत्यु की गोद में समा जाना चाहता था। मैं स्वयं चिकित्सक हूँ। उसकी बढ़ती हुई जर्जरता और शीर्णता को देख कर मैंने स्वयं बिना मूल्य उसकी चिकित्सा करने का निश्चय किया और पुजारी जी से इसके सम्बन्ध में कहा—पर लड़का औषधि लेने के लिए तैयार नहीं हुआ। तीन बार इसके लिये मैंने प्रयत्न किया पर वह नहीं ही तैयार हुआ। चौथी बार जबकि मृत्यु शय्या पर ही जा पड़ा था। न कुछ बोलने की शक्ति ही उसमें रह गयी थी। मैं मैट्रिक पास, उस विवाहित युवक को यों मरते देख बड़ा ही करुणातुर हो उठा था। मैंने गुरुदेव का स्मरण कर चौथी बार सलाह दीया—यदि आप तैयार होइये तो बिना दवा के ही आपका पौत्र आरोग्य प्राप्त कर लेगा। पुजारी जी शीघ्रता से प्रसन्नता पूर्वक इसके लिए तैयार हो गये। मैंने गुरुदेव का स्मरण करते हुए कह दिया कि आप 15 दिन तक गायत्री मन्त्र की प्रतिदिन 25 माला जप की जाये और जप पूरा होने पर उसकी परिपूर्ति यथा शक्ति हवन द्वारा कर दीजिये। पुजारी जी ने बड़ी श्रद्धा से संकल्प लिया और जप करने लगे। लगभग सात दिन जप करने के बाद लड़के ने स्वयं कहा—मैं औषधि लूँगा। तदुपरान्त एक वैद्य जी ने औषधि दी और वह रोग मुक्त हो गया। यहाँ तक कि उसी महीने में मन्दिर के सामने वाले विद्यालय में उसे नौकरी भी मिल गयी। पुजारी जी मुझे सारी कहानी सुनाते हुए धन्यवाद देने लगे। मैंने कहा—जिस गायत्री माता ने उसे बचाया है, उसकी उपासना आप लोग कभी नहीं भूलें, यही मेरे लिए सच्चा धन्यवाद है। पुजारी जी ने स्वीकृति जतायी और मैं यह सोचता घर आया—कि गुरुदेव का यह वाक्य अमोध और पूर्ण सत्य है कि “किसी की गायत्री साधना कभी व्यर्थ नहीं जाती।”
नया जीवन मिला
(श्रीमती कान्ता देवी त्यागी, धामपुर)
मैं एक वर्ष से पित्त, वायु रोग से बड़ी दुःखी थी। हर समय जी घबराता था, न नींद आती थी, न भूख लगती थी। हालत दिन प्रति दिन बिगड़ती जा रही थी। अधिक कमजोर हो गई थी। बाँया हाथ बिल्कुल बेकार हो चला था। उसमें जरा भी दर्द होने अथवा ठसका लगने से पसीने में नहा जाती थी और जी घबराने लगता था। अन्दर दम सा घुटता था। डाक्टर वैद्य तरह−तरह के रोग बता कर डराया करते थे। बहुतेरा इलाज कराया,कभी दो दिन को कुछ आराम मिला, पर फिर वही बात। मैं चारपाई से मिल गई थी। चलना फिरना तो दूर रहा खड़े होने तक की शक्ति नहीं रही थी। हर समय प्राणान्त का भय सामने उपस्थित रहता।
माता की कृपा से 1 दिन मेरी ननद बिजनौर से घर आई। बिजनौर में उन्हें किसी यज्ञ में पाँच−पाँच पैसे वाली आठ पुस्तकें भेंट स्वरूप मिली थीं। उन्होंने वह पुस्तकें मुझे दिखाई और मुझे गायत्री जप करने को कहा। पुस्तकें पढ़ने को मेरी इच्छा थी, पर मैं पढ़ने में असमर्थ थी। अन्त को मेरी ननद जी ने ही रात को काम से निपटने के बाद मेरे पास बैठ कर उन पुस्तकों को पढ़कर सुनाना शुरू किया। मुझे सुनते सुनते नींद आ जाती, यहाँ तक कि मुझे यह भी पता न रहता कि बीबी जी अभी पुस्तक पढ़ रही है और लैम्प जल रहा है। जब वह मुझे टोकती तो अचानक नींद आ जाने से मुझे शर्म मालूम पड़ती थी।
दोपहर को मेरा जी चाहता था कि पुस्तकें पढूँ पर उस समय ननद जी काम से थककर सो जाती थीं। मैं उन्हें जगाना उचित न समझती। आखिर एक दिन साहस करके मैंने पुस्तक उठा ली और देवी प्रेरणा वश दो घन्टे में सब पुस्तकें पढ़ ली। उस दिन मैंने अनुभव किया कि मुझे अब दीखने लगा।
शुरू के दिन मैंने बिस्तर पर पड़े पड़े ही जप किया। दूसरे दिन मुँह हाथ धोकर कपड़े बदल कर तथा पृथ्वी पर बैठकर दो मालाएं की। तीसरे दिन शिव रात्रि थी। बहुत दिनों से स्नान भी नहीं किया था। उस दिन स्नान कर के तीन मालाएं की। सन् 1954 की होली से 5 मालाएं जपना प्रारम्भ कर दिया। चैत्र नवरात्रि के आरम्भ से आज तक 11 मालाएं नित्य चल रही हैं, साथ ही 24 मन्त्र भी रोज लिखना आरम्भ कर दिया। साथ में एक पड़ोसी डाक्टर से साधारणतया भी लेती रही। आवश्यकता पड़ने पर अब भी कभी कभी दवा ले लेती हूँ। अब माता की कृपा से मैं स्वस्थ हूँ।
जब मैं बीमार थी, उन्हीं दिनों मेरे पति देव हिन्दू मुस्लिम दंगे के अभियोग में फँस गये, यद्यपि वह घर से निकले भी नहीं थे। विरोधियों ने फँसाने की कोई कसर न छोड़ी, परन्तु माता की कृपा से वह निरपराध सिद्ध हुये। इसके अतिरिक्त हाल में ही मेरी कन्या का विवाह एक सुयोग्य वर के साथ सुसम्पन्न हो चुका है। हम सब परिवार के लोग माता की अनुकम्पा से सुखी जीवन व्यतीत करते हुये माता की अपार दया का अनुभव कर रहे है।
कठिन रोग से छुटकारा
(श्री हजारीलाल शर्मा, पाँडोला, श्योपुर−मुरैना)
लगभग डेढ़ साल से मैं मधुमेह से पीड़ित था। शरीर अत्यन्त दुर्बल हो गया था किसी काम में मन नहीं लगता था। हकीम, वैद्य डाक्टर कोई छोड़ा नहीं। दिन पर दिन स्वास्थ्य गिरते जाने से मुझे अत्यधिक चिंता रहने लगी। सौभाग्य से कुछ माह पूर्व मुझे गायत्री तपोभूमि मथुरा में हो रहे विशद् गायत्री महायज्ञ के संबंध में पर्चे मिले। साथ ही एक प्रति “गायत्री ज्ञानांक” की पढ़ने को मिली। मैंने ध्यान से पढ़ा और उससे प्रभावित होकर मैंने पूज्य आचार्य जी को पत्र में अपनी सब व्यथा सुनाई और उससे निवृत्ति पाने का उपाय पूछा। उन्होंने दया करके मुझे गायत्री उपासना व गायत्री हवन करने का उपदेश किया। हकीम,वैद्यों से तो मैं परेशान हो चुका था। मैंने आचार्य जी के बताये मार्ग पर पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास से कार्य करना आरम्भ कर दिया। मैं विशय गायत्री यज्ञ का भागीदार भी बना। माता गायत्री की ऐसी कृपा हुई कि मेरे स्वभाव में बड़ा परिवर्तन हो गया और लगभग अस्सी फीसदी रोग नष्ट हो चुका है। शरीर में बल की वृद्धि हो रही है, काम करने को जी चाहता है, भूख भी खूब लगती है। चित्त सात्त्विकता की और बढ़ रहा है आशा है शीघ्र ही शेष रोग भी अच्छा हो जावेगा। मुझे दृढ़ विश्वास है कि गायत्री उपासना जीवन की हर दिशा में लाभकारी है।
अनेक व्याधियाँ दूर हुईं।
(श्री साँवल सिंह जी नमाना, कोटा)
मैंने जीवन का अधिकाँश भाग अँधेरे में बिताया। माता ने कृपा की और सहसा एक दिन खातौली ग्राम जा पहुँचा। वहाँ श्री वीरेन्द्र सिंह जी ने धार्मिक चर्चा चलाई। परम पूज्य आचार्य जी का परिचय देने के बाद श्री वीरेन्द्र सिंह जी ने मुझे गायत्री माता की शरण में आने को बाध्य किया। श्री विरेन्द्र सिंह जी के आदेशानुसार मैंने माता की शरण ग्रहण की, जिससे नये जीवन का संचार हुआ। मैं दुर्भाग्य से कितनी ही प्रकार की व्याधियों में ग्रसित था। मैं कभी कभी अपने जीवन से निराश हो उठता था। किसी काम में मन नहीं लगता था। शरीर दिन दिन निर्बल हो रहा था। माता की असीम कृपा से इन सब व्याधियों से छुटकारा मिला। इस समय सुख के स्वप्न देख रहा हूँ।
श्वेत कुष्ठ में आराम
(बंशीलाल लाठी, मालेगाँव)
किसी के निर्मल शरीर में श्वेत−कुष्ठ का कलंकी रोग, व्यक्ति के शरीर को भले ही कष्ट न दे, पर उसके मन प्राण में तीव्र बिच्छू−दंशन भर देता है। मेरे दुर्भाग्य से दाड़ी तथा छाती के ऊपर श्वेत कुष्ठ के चकत्ते निकल आये। अनेक उपचार कराने पर भी कुछ लाभ नहीं हुआ। अंत में इसके घृणित चंगुल से छुटकारा पाने के लिये गायत्री माता की शरण ली। थोड़े दिन के के विधिपूर्वक जप से दाढ़ी पर का दाग छूट गया। छाती के दाग भी अधिकाँश मिट चुके हैं। ऐसी आनंददायिनी माता की याद से किसका दिल प्रफुल्लित न होगा। उनकी कृपा की याद कर लेने से तो रोम−रोम पुलकित होने लगता है।
फोड़ा अच्छा हुआ
(लक्ष्मीनारायण शर्मा, पढ़ाना)
कुछ दिन पूर्व अचानक मेरे दोनों नितम्बों में दो गाँठ जैसे फोड़े उठते हुए प्रतीत हुए। मैंने प्रारंभ में तो उस और ध्यान ही नहीं दिया,किन्तु धीरे−धीरे बढ़ कर जब वह प्रस्तर सम और लाल सुर्ख हो गये, साथ ही पीड़ाओं के वेग बढ़ने लगे तो दर्द से व्याकुल हो वैद्यों की शरण में जाना पड़ा। उन्होंने दशाँग लेप दिये, पर कुछ लाभ नहीं हुआ। और अन्य अनुभवी लोगों की औषधियों का प्रयोग हुआ, पर पीड़ा के उद्वेग में जरा भी कमी नहीं आई। मेरे भाग्य से उस निराशा भरी बेबसी के काल में श्री गोवर्द्धन शर्मा जी भी पधारे। उन्होंने कहा—अरे! तुम इस साधारण से रोग में घबड़ा गये। गायत्री माता की कृपा के द्वारा यह एक दिन में ही शान्त हो सकता है। मैंने पूछा—मैं तो जप का विधान जानता नहीं। किस भाँति जप करने से मेरा शुभ होगा, यह बतावें। उन्होंने बताया:—
माता की एक छवि लेकर उसका पञ्चोपचार विधि से पूजन कर घृत का दीपक जला लो। तत्पश्चात् ध्यान करके संयत चित्त से सिर्फ 108 बार जप करो। यही पर्याप्त है।
मैंने ठीक उसी भाँति उक्त संख्या में जप किया। मेरी पीड़ा दूर हो गयी और तीसरे दिन ही वह गाँठ चिन्हावशेष हीन हो गया। इस से बड़ कर और प्रत्यक्ष कृपा क्या हो सकती है।
(श्री चिंरजीलाल ऐरिनपुरा रोड)
मैं जबाई बाँध ऐरिनपुरा रोड पर कार्य कर रहा हूँ। मेरी माता मेरे पास ही हैं। एक समय मेरी माता जी बहुत बीमार हो गई। उन्हें खून के दस्त शुरू हो गये। वैद्य डाक्टरों की दवाएं असफल रही। मैं माता गायत्री पर भरोसा करके जप करने बैठ गया। एक घण्टा तक जप करने पर उन्हें लाभ हुआ और शीघ्र ही वे पूर्ण स्वस्थ हो गई। जब कभी मैं गायत्री हवन भी करता हूँ मेरे पास भस्म रखी थी, उसका भी प्रयोग किया था। एक दिन मेरे एक मित्र की बच्ची को बिच्छू ने काट लिया। मैंने गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर उस भस्म का कटे स्थान पर लेप कर दिया। थोड़ी देर में जहर उतर गया और उसे नींद आ गई।
अम्ल शूल दूर हुआ
(श्री प्रतापचंद्र बोस, इन्द्रनगर )
मैं विगत छह वर्षों से अम्लशूल से उत्पीड़ित था। सैकड़ों चिकित्सायें असफल हो गयी। अनेकों चिकित्सकों की ‘धन्वन्तरि’ ‘पियूषपाणि’ ख्यातियों को यह वृत्रासुर की भाँति निगल गया।
गुरुदेव की कृपा से मैंने गायत्री माता का अञ्चल पकड़ा और अन्य सारी आशाओं को एकदम दूर फेंक दिया।
कुछ ही दिन तक नियमित जप करने के उपराँत, मेरे स्वास्थ्य में विस्मयकारी अभिवृद्धि प्रारम्भ हुई और आज मैं सम्पूर्ण तथा रोग मुक्त होकर गुरुदेव एवं माता की कृपा से सुखी−जीवन व्यतीत कर रहा हूँ। उसी कृपा से हमारी गिरी हुई आर्थिक दशा भी सुधर गयी। होमियोपैथी−चिकित्सा में मेरी अच्छी ख्याति हो गयी है और एक शिष्ट मानवोचित भोजनाच्छादन का उपभोग करते हुए, वर्ष में पाँच सौ रुपये बच जाते हैं।
मेरी भाभी भी छह सात वर्ष से दमा रोग से दुस्सह कष्ट सह रही थी। मेरे कहने एवं प्रोत्साहन देने पर वह दो से पाँच माला तक गायत्री मंत्र का जप,आज छः महीने से कह रही है। आज श्वास रोग का पूर्व वेग एवं कष्ट घट कर आधा रह गया है और उसमें भी शीघ्रता से सुधार होता नजर आ रहा है।
हैजे में माता की कृपा से प्राण रक्षा
(श्री कपिलदेव झा, वानूछपरा )
आज से ढाई वर्ष पहले हम वोतिया आ रहे थे। रास्ते में एक गाँव में जोरों से महामारी का भयंकर रोग अपना ताण्डव−नाच कर रहा था। वहाँ हमारे सम्बंधी थे। उनके बुलाने पर हम उनके घर गये। वहाँ जाते ही मृत्यु स्वरूपा−विशूचिका ने मुझ पर भी धावा बोल दिया। कितने वमन और दस्त हुए इसका कोई हिसाब नहीं। दो चार घण्टे में मेरी आँखें खन्दक जैसी भयावनी हो गयीं। मैं साक्षात कंकाल बन गया। मुझे कभी−कभी होश आ जाता। डाक्टर आये। औषधि पिलाई गई,(इञ्जेक्शन) सूई भी दी गयी, पर कोई परिवर्तन नहीं। सभी मेरे जीवन की आशा खो बैठे। स्वयं मैं भी मरने की बाट जोह रहा था।
सन्ध्या हो चुकी थी। मेरे जीवन में अन्धकार बढ़ता ही जा रहा था। बेचैनी तीव्र हो रही थी। रात्रि के आठ बजे थे। मेरी साँस क्रमशः सूक्ष्म होती जा रही थी। अब मैं दम तोड़ने ही वाला था कि सहसा मेरे आगे एक सौम्य श्वेत, उज्ज्वल गौर वर्णा दिव्य नारी खड़ी हो गयी। ठीक सरस्वती के समान ही रूप एवं सारी वेष−भूषा थी। मैंने गायत्री उपासक के नाते यही सोचा,गायत्री बुद्धि को प्रेरणा देती है, अतः सरस्वती ही गायत्री है। उन्हें देखते ही मेरे जलन−मेरी बेचैनी, न जाने एक क्षण में ही कहाँ उड़ गयी। उन्होंने मेरे शरीर को स्पष्टतया छूकर मुझे पुनः जीवन दिया और मधुमयी स्वर लहरी में किसी वैदिक मंत्रों का उच्चारण करती हुई आशीर्वाद दिया। मैं स्वस्थता और सचेतनता का अनुभव करने लगा। पुनः उन्होंने कहा—मेरा यह दर्शन, स्पर्श,आशीष एवं वार्ता किसी से नहीं कहना। पुनः वे कहने लगीं−सारी नारी जाति को मातृभाव से देखना , मन ही मन उनके चरणों में प्रणाम करना− इसे निभाने का प्रयत्न करना। इतना कहते ही वे मेरी दृष्टि से सहसा ही अन्तर्ध्यान हो गयीं। आज गुरुदेव के आदेश में−माता का आदेश मानकर ही मैं उसे सब के समक्ष प्रगट कर रहा हूँ।
मेरा तो जीवन समाप्त हो चुका था। आज जिन प्राणरक्षिका माता की अनुकम्पा से मैं मानव शरीर में स्थित हूँ—वह भी उन्हीं के चरणों में सदा−सर्वदा के लिए चढ़ाने का प्रयत्न कर रहा हूँ।