Magazine - Year 1956 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
धर्म और सदाचार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(पं. तुलसीराम शर्मा, वृन्दावन)
अलोलजिह्वसमुपस्थितो धृति,
निधायचक्षुर्यु गमात्रमेवतत्।
मनश्चवाचं च निगृह्य चंचलं
भयभिवृत्तोमम भक्त उच्यते॥113॥
( म॰ भा॰ आश्व॰ अ॰ 101)
जिसकी जीभ चपल नहीं अर्थात् व्यर्थ के बकवाद से रहित हैं। भोजन में आसक्त नहीं, धीरज धारण करने वाला है ( विपत्ति सम्पत्ति में एक रस रहता है) चलते समय जो चार हाथ दृष्टि डालकर चलता है (चारों ओर को व्यर्थ नहीं देखता ) चंचल मन वाणी का नियम में रखकर ( मन में बुरे विचार नहीं लाता, वाणी से असत्यादि भाषण नहीं करता) कर्तव्य कर्म पालन करने में निर्भय रहता है, वह मेरा (श्री कृष्णचन्द्र कहते हैं) भक्त कहाता हैं॥113॥
सर्वाभयप्रदानं च सर्वानुग्रहणं तथा।
सर्वोपकारकरणं शिवस्यराधनं विदुः॥30॥
( शिव पु॰ उत्तरार्ध वा॰ 7 अ॰ 3 )
सब को अभय दान देना, सब पर कृपा दृष्टि रखना, सब का उपकार करना, इसको शिवजी की आराधना समझनी चाहिये॥30॥
अहिंसा सत्य मस्तेयं दयाभूतेष्वनुग्रहः।
यस्येतानिसदा विप्रास्तस्य तुष्यति शंकरः॥16॥
(सौर पु॰ अ॰ 48)
अहिंसा, सत्य, चोरी न करना, दया, कृपादृष्टि ये जिस मनुष्य में है, उस पर शंकर भगवान् प्रसन्न रहते हैं॥ 16॥
चरित्रवान् पुरुष भगवान् के बराबर है।
अन्य दुखे नयो दुखीयोऽन्यहर्षेणहर्षितः।
स एव जगतामीशोनररुपधरोहरिः॥ 69॥
( नारद पु॰ पूर्वखंड अ॰ 7)
अन्य के दुख से जो दुखी है, अन्य के हर्ष से जो हर्षित है, वह जगत का ईश नर रूपधारी भगवान् है॥ 69॥
पुस्योपदेशी सदयः कैतवैश्चविवर्जितः।
पाप मार्ग विरोधी च चत्वारः केशवोपमाः॥17॥
(पद्म पु॰ क्रियायोगसार खंड 7 वा॰ अ॰ 1)
धर्मोपदेशक, दयावान्, छल-कपट से शून्य, पाप मार्ग के विरोधी ये 4 भगवान् के तुल्य है॥17॥
ज्ञानरत्नैश्चरत्नैश्च पर सन्तोष कृन्नरः।
सज्ञेयः सुमतिर्नूननररुप धरोहरिः॥
( पद्म पु॰ 7वाँ क्रियायोगसार खंड अ॰ 1)
ज्ञानरूप रत्नों से और द्रव्यादि से जो-जो सत्पुरुषों को संतोष करता है, ऐसे पुरुष को मनुष्य रूपधारी भगवान् समझना चाहिये॥ 19॥
द्वयं यस्यवशेभूयात् स एवस्याज् जनार्दनः॥29॥
(वैशाख माहात्म्य 22)
शिश्न और जिह्वा ये दो जिसके वश में हैं, वह भगवान् है॥ 29 ॥
अनाढ्यामानुपेवित्ते आढय़ावेदेपु ये द्विजाः।
तेदुर्द्धर्पादुष्प्रकम्प्या विद्यात्तान ब्रह्मणस्तनुम॥
( म॰ भा॰ उ॰ अ॰ 43/39 )
जो द्विज मानुषी धन (स्त्री-पुत्र सुवर्णादि) के धनी नहीं हैं और वैदिक धन ( अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, शम, दम ) के धनी हैं, वे विवेकियों के मत में ब्रह्म के शरीर हैं, वे बड़े तेजस्वी और दुष्प्रकम्प्य हैं॥ 39 ॥
श्री शंकराचार्य जी ने इस वचन के भाष्य में लिखा है कि—‘वेदेषु वेद प्रतिपाद्य अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य शमादि साधनेषु’ अर्थात् वेद में कहे अहिंसा, सत्य आदि में लगा हुआ पुरुष ब्रह्म का शरीर है।
चरित्रवान् सुखी रहता है।
तत्र कर्म प्रवक्ष्यामि सुखी भवति येनवै।
आवर्तमानोजातीषु यथान्योन्या सुसत्तम॥14॥
दानं व्रत ब्रह्मचर्य यथोक्तं ब्रह्म धारणम्।
दमः प्रशान्तताचैव भूतानाँ चानुकम्पनम्॥13॥
संयमश्चानृशंस्यञ्च परस्वादानवर्जनम्।
व्यलीकानामरणं भूतानाँ मनसामुवि॥16॥
मातापित्रोश्च शुश्रू पा देवतातिथि पूजनम्।
गुरु पूजाघणाडडडड शौचं नित्यामिन्द्रिय संयमः॥17॥