Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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कर्मयोग ही जीवन-विद्या है
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( श्री स्वामी शिवानन्द जी महाराज )
मनुष्य-समाज की स्वार्थहीन सेवा कर्मयोग है। यह हृदय को शुद्ध करके अंतःकरण को आत्म-ज्ञान रूपी ज्योति प्राप्त करने योग्य बना देता है। विशेष बात तो यह हैं कि बिना किसी आसक्ति अथवा अहंकार के आपको मानव-जाति की सेवा करनी होगी। कर्मयोग में कर्मयोगी सारे कर्मों और उनके फल को भगवान् के अर्पण कर देता है। ईश्वर में एकता रखते हुए आसक्ति को दूर करके सफलता या निष्फलता में समान रूप से रह कर कर्म करते रहना कर्मयोग है।
कर्म क्या है-जैमिनी ऋषि के मतानुसार अग्निहोत्रादि वैदिक कर्म है। भगवद्गीता के अनुसार निष्काम भाव से किया हुआ कोई भी कार्य कर्म है। भगवान कृष्ण ने कहा है, निरन्तर कर्म करते रहो, आपका धर्म फल की चाहना न रखते हुए कर्म करते रहना ही है। गीता का प्रधान उपदेश कर्म में अनासक्ति है। श्वास लेना; खाना, देखना, सुनना, सोचना आदि सब कर्म हैं।
कर्मयोग के रूप-अपने गुरु या किसी महात्मा की सेवा कर्मयोग का सर्वोच्च रूप है। इससे आपका चित्त जल्दी शुद्ध हो जावेगा। उनकी सेवा करने से उनके दिव्य तेज का आपके ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ेगा। आपको उनसे दैवी प्रेरणा प्राप्त होगी। शनैः शनैः आप उनके सद्गुणों को ग्रहण कर लोगे।
कर्मयोगी के लक्षण-कर्मयोगी को विशाल हृदय होना चाहिये। उनमें कुटिलता, नीचता, कृपणता और स्वार्थ बिल्कुल नहीं होना चाहिये, उसे लोभ, काम, क्रोध और अभिमान रहित होना चाहिये। यदि इन दोषों के चिन्ह भी दिखाई देवें, तो उन्हें एक एक करके दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए, वह जो कुछ भी खाये, उसमें से पहले नौकरों को देना चाहिये, यदि कोई निर्धन रोगी दूध की चाहना रखकर उसी के घर में आये और घर में इसके लिये दूध नहीं बचा हो तो उसे चाहिए कि अपने हिस्से का दूध उसे फौरन ही देदे और उससे कहे हे नारायण! यह दूध आपके वास्ते हैं, कृपा कर इसे पीलो, आपकी जरूरत मुझसे ज्यादा है। तब ही वह सच्ची उपयोगी सेवा कर सकता है।
कर्मयोगी का स्वभाव प्रेमयुक्त , मिलनसार, समाज सेवी होना चाहिए। उसे जाति, धर्म या वर्ण के विचार बिना हर एक व्यक्ति के साथ मिलना चाहिए, उसमें सहनशीलता, सहानुभूति, विश्व-प्रेम, दया और सब में मिल जाने की सामर्थ्य होनी चाहिए। उसे दूसरों के स्वभाव और रीति से संयोग रखने की क्षमता होनी चाहिए, उसे उपस्थित बुद्धि होनी चाहिए, उसका मन शान्ति और सम होना चाहिए। उसे दूसरों की उन्नति में प्रसन्न होना चाहिए उसको सारी इन्द्रियों पर पूरा संयम होना चाहिये, उसे अत्यन्त साधारण जीवन बनाना चाहिए, यदि वह विलासी जीवन बिताता है और हर एक वस्तु केवल अपने ही लिये चाहता है तो वह अपनी सम्पत्ति दूसरों को कैसे बाँट सकता है? उसे अपने स्वार्थ को जला डालना चाहिए।
ऐसा ही मनुष्य अच्छा कर्मयोगी बन जाता है और अपने लक्ष्य को जल्दी प्राप्त कर लेता है।
कर्मयोगी का भाव—कर्मयोग, भक्ति योग अथवा ज्ञानयोग के साथ मिला होता है। जिस कर्मयोगी ने भक्ति योग से कर्मयोग को मिलाया है उसका निमित्त भाव होता है। वह अनुभव करता है कि ईश्वर के हाथों में निमित्त मात्र है, इस प्रकार वह धीरे-धीरे कर्मों के बंधन से छूट जाता है, कर्म के द्वारा उसे मोक्ष मिल जाता है। जिस कर्मयोगी ने ज्ञानयोग और कर्मयोग को मिलाया है वह अपने कर्मों में साक्षी भाव रखता है। वह अनुभव करता है कि प्रकृति सब काम करता है और वह मन और इन्द्रियों की इन्द्रियों की क्रियाओं और जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं का साक्षी भाव रखकर कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है।
कर्मयोगी निरन्तर निःस्वार्थ सेवा से अपनी चित्त कर लेता है। वह कर्मफल की आशा न रखता कार्य करता है, वह अहंकारहीन अथवा कर्तापन शूर रहित होकर कार्य करता है, वह हर एक ईश्वर को देखता है, वह अनुभव करता है कि संसार परमात्मा के व्यक्तित्व का विकास है वह जगत् वृन्दावन है। वह कठोर ब्रह्मचर्य व्रत करता है, वह करता हुआ मन से ‘ब्रह्मार्पणम्’ रहता है, अपने सारे कार्य ईश्वर के अर्पण है और सोने के समय कहता है—‘हे प्रभो! मैंने जो कुछ किया है आपके लिये है, आप होकर इसे स्वीकार कीजिये। वह इस प्रकार फल को भस्म कर देता है और कर्मों के में नहीं फँसता, वह कर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है, निष्काम कर्मयोग से उसकी चित्त-शुद्धि और चित्तशुद्धि होने पर आत्मज्ञान प्राप्त हो डडडड देश-सेवा, समाज-सेवा, दरिद्र-सेवा, पितृ-सेवा, गुरु-सेवा यह सब कर्मयोग डडडड कर्मयोगी दास-कर्म और सम्मान पूर्ण कर्म नहीं करता, ऐसा भेद अन्य जन ही किया करते हैं। कुछ साधक अपने साधन के प्रारम्भ में बड़े डडडड नम्र होते हैं, परन्तु जब उन्हें कुछ यश डडडड मिल जाता है तब वे अभिमान के शिकार हैं।
डडडड में तथा अमरीका में बहुत से धनी लोग दान करते हैं, वे बड़े-बड़े अस्पताल और संस्थाएँ बनाते हैं। वे यह सब कुछ केवल मनुष्य-जाति पर दया करने के नाते करते हैं, उनके लिये यह सब समाज-सेवा है, यह विचार नहीं होता कि यह संसार प्रभु की डडडड विस्तार है और ईश्वर समाज का आधार मनुष्य ईश्वर का व्यक्तित्व प्रकट करता है। डडडड रहित होकर कर्तापन की बुद्धि को छोड़ फल की आशा को छोड़कर सेवा नहीं करते, डडडड यह सेवा-योग (कर्मयोग) नहीं है। उनके सेवा केवल दान विषयक कर्म है, उनके लिये सेवा केवल मनुष्यता का धर्म है, उनमें किसी दर्जे तक मनुष्य-जाति के लिये सहानुभूति इस सेवा के द्वारा बढ़ जाती है, उनको कर्मयोग के अभ्यास से चित्तशुद्धि करके आत्मज्ञान प्राप्त करने का विचार नहीं आता, उनको जीवन के लक्ष्य (उद्देश्य)का कुछ ज्ञान नहीं होता, उनको ईश्वर की सत्ता में भी दृढ़ विश्वास नहीं होता। जो कर्मयोग के सिद्धान्त को समझकर ईश्वर की सत्ता में दृढ़ विश्वास रखते हुये कर्म करते हैं वे अपने लक्ष्य को जल्दी पहुँच जावेंगे।
कर्मयोग का अभ्यास—कर्मयोग के अभ्यास के लिये बहुत धन होना आवश्यक नहीं हैं, आप अपने तन और मन से सेवा कर सकते हैं। यदि किसी निर्धन रोगी को सड़क के किनारे पड़ा हुआ देखो तो उसको थोड़ा जल या दूध पीने को दो, मीठे आश्वासन से उसको प्रसन्न करो, उसको ताँगे में बैठाओ और पास के अस्पताल में ले जाओ, यदि तुम्हारे पास ताँगे का किराया देने के लिये पैसा नहीं है तो रोगी को अपनी पीठ पर उठाकर ले जाओ और उस को अस्पताल में दाखिल कराने का इन्तजाम करदो। यदि तुम इस प्रकार सेवा करोगे तो तुम्हारा चित्त जल्दी शुद्ध हो जावेगा। निर्धन, निःसहाय मनुष्यों की इस प्रकार की सेवा से परमात्मा ज्यादा खुश होता है, न कि धनी लोगों की शान-शौकत से की हुई सेवा से।
यदि किसी के शरीर के किसी अँग में घोर पीड़ा हो तो उसके उस अँग का धीरे-धीरे दबाओ और अपने हृदय से प्रार्थना भी करो कि हे भगवान् इस मनुष्य का दुःख दूर कर इसको शान्ति में रहने दे और इसका स्वभाव अच्छा हो जावे।
यदि आप किसी मनुष्य या पशु का खून बहता हुआ देखो तो कपड़े के लिये इधर-उधर मत भागे फिरो, बल्कि अपनी धोती या कमीज में से, कुछ परवा नहीं कितना भी कीमती हो एक टुकड़ा फाड़ कर उसके पट्टी बाँध दो, यदि वह कीमती रेशमी कपड़ा भी है तो भी उसको फाड़ने में शंका मत करो।
अपेतोअन्तुषणयासुग्न देव डडडड अस्थ लो डडडड तावतः द्युमि ह भित्कु डडडड भिर्व्षक्त यमेददात्व डडडड॥
यजु॰ 35/1॥
पदार्थ-जो देवपीयवः) दिव्य गुण सम्पन्न व्यक्ति यों से द्वेष करने वाले, (पणयः) आततायी (असुम्ना) अकारण ही दुःख देने वाले हैं, वे यहाँ से (अपयन्तु) दूर चला जावे (लोकः) देखने योग्य (यमः) सबों को शासन में रखने वाले (द्यभिः) प्रकाशमान (अहोभिः अक्तुभिः दिन और रात्रियों के साथ (अस्य) इस (सुतावतः) वेद की शिक्षा में चलने वाले, वेद विहित प्रशस्त कर्म करने वाले सत्जनों से सम्बन्धित (अस्मै) इस मनुष्य के लिये (व्यक्तम) प्रत्यक्ष (अवसानम) अवसान को दयातु देवे।1॥
भावार्थ—जो लोग दिव्य गुण सम्पन्न ऋषियों से द्वेष करते तथा आततायी बनकर अकारण ही दुःख पहुँचाते हैं, ऐसे मनुष्यों के लिये सभी लोकों और लोगों का नियन्ता परमेश्वर प्रत्यक्ष ही मृत्यु का विधान करे।
इस मन्त्र से स्पष्ट हो जाता है, कि सत्पुरुषों को सताने वाले आततायियों के लिए, सर्व नियन्ता भगवान् स्वयं ही उसके विनाशार्थ, परिस्थितियाँ उत्पन्न कर देते हैं।
यह दुःख पहुँचाना कई प्रकार से होता है। कोई कटु वाणी से, कोई पद से ठोकर मार कर, कोई हाथ से और कोई मन से ही कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं। जैसा वह करता है, उसी प्रकार का फल उसे मिलना आरम्भ हो जाता है। जितने ही उच्चकोटि के सन्तों को कोई कष्ट देगा, उतना ही क्रूर परिणाम उसे भुगतान पड़ेगा। अब विलम्ब और शीघ्रता की बात ही क्या। यदि उस मनुष्य के पापों के फल भोगने की बारी आ चुकी है, तो उसको देर न लगेगी। उसके तो परमाणु विवशता से निकले, उन्होंने तुरन्त अपना परिणाम दिखा दिया। यदि उसके पुण्य प्रबल हैं, तो वह परमाणु गुप्तचर की तरह उसके गिर्द फिरते रहेंगे। वह समय समय पर उस व्यक्ति को स्वरूप दिखाते हैं और उसको भय उत्पन्न हो आता है। किसी के साथ मेरा रोष है तो वह परमाणु घूमेंगे और मेरे आकार को उसके सामने लायेंगे और वह भय को सुदृढ़ कर देंगे। जब उसके पुण्य क्षीण होकर पाप भाग का काल आ गया है तो उस समय तुरंत फल भुगतता है।
अतः हमें सदा ऐसे कर्मों से सावधान रहना चाहिए। नित्य-प्रति अपनी जाँच पड़ताल करनी चाहिए। जिसके परमाणु निकलते हैं, वही उसे मार देने को पर्याप्त है। कहा भी है
पापी को मारने में पाप महाबली है।
चाह डडडड कन डडडड चाह दर पेश
जो दूसरों के लिये कुँआ खोदता है वह उसी में आप गिरता है।
किसी ईश्वर भक्त, ब्रह्मनिष्ठ, धर्मनिष्ठ व्यक्ति का तिरस्कार करना— उसे दुःख देना, ब्रह्म हत्या है। इसकी पुष्टि में आगे तीन सच्ची घटनाओं से हमारी आंखें खुल जानी चाहिए—
पहली घटना—
जालन्धर से करतारपुर, जाने वाले एक बस में खिड़की के पास साधु महात्मा बैठे थे। एक नवयुवक कोट, हैट, बूट, पतलून पहने वहाँ आये (उसे भी करतारपुर जाना था ) और टिकट लेकर बस पर चढ़े और जिस सीट पर साधु बैठा था, उसी पर बैठना चाहा। साधु से रोब के स्वर में कहा— आप इधर आकर बैठिये, वहाँ मैं बैठूँगा। साधु मगरुर भी होते हैं साधु ने अनसुनी कर दी। दूसरी बार नवयुवक ने डाँटकर कहा—पर साधु न हिला, उसने उत्तर में कहा—आप जहाँ खड़े हैं वही बैठ जाइये। इस पर नवयुवक को क्रोध आ गया और उसने साधु को दो तमाचे लगाये और कहा—सीट खाली करो, इधर आओ। साधु ने बिना कुछ बोले जगह छोड़ दी और एक तरफ होकर बैठ गया। नौजवान ने गर्व से भर कर कहा-अब होश ठिकाने आ गये। जब तक तमाचे नहीं खाये, सीट नहीं छोड़ा। अपने हठ का मजा चख लिया। साधु मौन रहा। बस करतारपुर पहुँचा।
“जो ममभगत सों बर करत है, सो निज बैरी मेरो।” (सूरदास) कहने वाले भगवान से भक्तों का यह अपमान नहीं सहा गया और वह जिद और शान वाला युवक बस से उतरते ही पागल हो गया।
दूसरी घटना-
श्री सत्यभूषण आचार्य के जामाता के छोटे भाई चेतनदास जी कैम्वलपुर रेलवे पर काँटे वाली की ड्यूटी पर था। एक साधु स्टेशन पर आया काँटे वाले ने साधु से कहा कि स्टेशन पर मत ठहरे। साधु ने न माना। इस पर पावों से ठोकर मार-मार कर साधु को स्टेशन से बाहर निकाल दिया। साधु ने कहा, बड़ा अच्छा। साधु चला गया। चेतन दास को दौरे आने शुरू हो गये जैसे कोई किसी की मरम्मत कर रहा हो। खूब चीखे, पीटे। मैं लाहौर में श्री जगदीश चन्द्र जी के घर ठहरा हुआ था। चेतनदास को यहाँ लाया गया और मुझे इनकी सारी बीती सुनायी गयी। मैंने स्वयं चेतनदास से वृत्ताँत जानना चाहा और उससे कहने के लिए कहा—उसने ज्यों ही वर्णन करना प्रारम्भ किया कि लोट-पोट हो गये, वही चीख पुकार, वही मार पीट। यह जोर का दौरा हुआ, मैंने अपनी आँखों देखा और कहा कि इसे श्री आचार्य जी के पास कमालिया गुरुकुल भेज दो और वहाँ रह कर यह गायत्री अनुष्ठान करे। आचार्य जी की देख-रेख में चेतनदास जी ने गायत्री अनुष्ठान किया और तब से दौरे आना बन्द हो गया।
ब्रह्मनिष्ठ का तिरस्कार भयंकर पाप है और उसका परिणाम भी भयंकर ही होता है।
तीसरी घटना—
इसी अप्रैल मास की घटना है। पूर्णमासी का यज्ञ वैदिक भक्ति साधन आश्रम में हो चुकने के उपरान्त, काठमाण्डू का एक युवक अपनी माता के साथ अपनी स्थिति बताने आया था। मैं अभी सीढ़ियों से उतरा ही था कि युवक ने अपना वृत्तान्त सुनाना आरम्भ किया।
इतने में वह नीचे गिर पड़ा, जैसे बानर ऊपर को उछलते हैं, ऐसे ही मानो किसी शक्ति ने उसको ऊपर उछालकर भूमि पर पटक मारा। एकबार नहीं, अनेकों बार ऊपर उछलता और नीचे गिर पड़ता। मैं शौच जा रहा था। वापस आने पर आचार्य जी ने भी आँखों देखा वृत्तान्त सुनाया। मैंने उसे गायत्री अनुष्ठान का परामर्श दिया। अनुष्ठान करने के बाद से एकबार हल्का सा दौरा आया था।
यह है ब्रह्म हत्या का फल और यह जाता है ब्रह्म निष्ठ के आशीर्वाद से ही।
भाव एवं विचारों को पढ़ें। यजुर्वेद, अध्याय 1 मन्त्र 19 के भाष्य में महर्षि लिखते हैं—
भावार्थ--मनुष्यों को अपने विज्ञान से अच्छी प्रकार की वस्तुओं, पदार्थों को इकट्ठा करके उनसे यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिए, जो कि दृष्टि और बुद्धि को बढ़ाने वाला है, वह अग्नि तथा मन से सिद्ध किया हुआ, सूर्य के प्रकाश को त्वचा के समान सेवन करता है।
यजुर्वेद अध्याय 1 मंत्र 31
तेजोऽसि शुक्र मस्यमृतमति।
(यह यज्ञ) प्रकाश और शुद्धि का हेतु-मोक्ष सुख का देने ( वाला है ) तथा सब अन्नादि पदार्थों की पुष्टि करने तथा जल का हेतु, श्रेष्ठ गुणों से प्रीति कराने और किसी को खण्डन करने योग्य नहीं है।
महर्षि के इन शब्दों को ध्यान से नहीं पढ़ा-इसी से यह भ्रम हुआ कि यज्ञ से केवल वायु और मल की शुद्धि होती है। यह तो उसका आधिभौतिक
फल है, जो प्रत्येक स्थिति में मिलता है, चाहे वह
(यज्ञ) योग-बुद्धि से नहीं भी किया गया हो, तो भी, किन्तु इसका आधिदैविक और आध्यात्मिक फल ओर है, जो योग बुद्धि और भक्ति भाव से किये जाने पर ही मिलता है।
(स्थूल विश्व में) कोई ऐसी वस्तु नहीं सिवाय यज्ञ के, जो हमारे अन्दर से निकले विषैले परमाणुओं का निषेध करदे। यज्ञ से ही ऐसे परमाणु निकलते हैं जो हमारे अन्दर के दुःख, घृणा, ईर्ष्या और क्रोधादि के परमाणुओं को जाकर बदल देते हैं। यज्ञ सबसे सुगम साधन हैं, अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष को सिद्धि कराने वाले हैं।
हम योग-बुद्धि से तथा भक्ति भावना से यज्ञ करके प्रतिदिन अपने अन्दर में देखना चाहिये कि हमारी कौन सी कुवासना बदल रही है, कितनी बदली है और कितनी बाकी है। उसके कारण और शुद्धि क्रम पर विचार करें
वृहद् यज्ञों में यहाँ घी, सोम और मधु-दुग्ध की धारायें चलती हैं, वहाँ ऐसे-ऐसे रंग निकलते हैं, जो हमारी कुवासनों को शुभेच्छाओं में परिणत कर देते हैं। विशेष कर लाल, नीला, इन्द्रधनुष, श्वेत और बरार्क के से जो रंग निकलते हैं, वह मन, अहंकार, चित्त और बुद्धि को पवित्र करते तथा काम क्रोधादि का विनाश करते हैं अतः हे मानव शरीर धारियों! तुम्हारा जीवन अनन्त मूल्यवान है, इसका अधिक से अधिक लाभ उठाओ। यज्ञ को, योग-बुद्धि तथा भक्ति भाव से करने पर, अपने अन्दर सचमुच थोड़े ही दिनों में कायाकल्प होते हुए पाओगे।
प्रभ, सबों पर ऐसी कृपा करे, कि यह विचार, जो अतिनवीन है, सबों को जच जाय और इसे आचरण में उतार कर सभी अपना कल्याण बना लें।