Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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विडम्बना (Kavita)
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( श्री गुलाब )
तुमसे बँधा प्रकाश मृत्यु से जीवन, जड़ता ने गति बाँधी।
बंधा इस तरह मैं, भू-नभ के बीचों बीचबंधे ज्यों आँधी।
सागर के दोनों कूलों पर मैंने नाव टिकानी चाही—
दो दुनिया हैं, मेरे दो हाथों में दोनों आधी आधी ॥
अन्धकार लहरों के तट पर, मैं प्रकाश में ढंका अकेला।
मेरे चारों ओर लगा है चञ्चल छायाओं का मेला।
मैं इनका हो सका न पर जिनका खुद उनने हंसी उड़ाई—
देख दूर से छोड़ न पाते मुझे रत्नमय सागर बेला ॥
मैंने कहा कि स्वप्न मिला है और सत्य भी मुझे न भाया।
मैं अम्बर का हो न सका धरती के हित हो गया पराया।
मयख्वारों दुनियाँदारों दोनों ने दूर हटाया मुझको —
कहा एक ने ढोंगी पागल, समझ दूसरा कुछ मुस्काया॥
कहा जीवितों ने मृत मुझको मृत्यु साँस से डर कर भागी।
काया लादे हुए प्रेत-सा फिरा चतुर्दिक् मैं गृह-त्यागी।
खड़ी दो युगों के सन्धि-स्थल पर ज्यों किसी महाकवि की कृति।
मैं जागा तब दुनिया सोयी, मैं सोया तब दुनिया जागी॥