Magazine - Year 1956 - Version 2
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यज्ञ विज्ञान सम्मत है
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(पं. तोताराम शर्मा, M.S.C. प्रेम महाविद्यालय, वृंदावन)
वेदोक्त अर्थ जीवन यज्ञमय कहा गया है, और यज्ञ की भावना को नित्य जाग्रत रखने को ही प्रत्येक आर्य के लिए पंच महायज्ञ करने की व्यवस्था की गई है। पञ्च महायज्ञों में वे हमारे नित्य धर्म सम्मिलित हैं जो आर्य जीवन के प्रतीक हैं। यह हमारे लिए विशेष विचारणीय है कि अश्वमेधादि विशेष यज्ञों को वह महत्व नहीं मिला है जो इन पंचमहायज्ञों को दिया गया है, क्योंकि समाज के व्यक्तियों के जीवन का निर्माण उनके दैनिक कार्यों से ही सम्भव है विशेष कार्य तो विशेष अवसरों पर विशेष व्यक्तियों द्वारा ही किये जाते हैं।
इन पञ्च महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ (संध्या और स्वाध्याय द्वारा आत्म निरीक्षण तथा आत्म सुधार करना) देवयज्ञ (अग्निहोत्र द्वारा पञ्चभूतों के विकारों की निवृत्ति)। पितृयज्ञ (अपने को जीवन और शिक्षा देने हारे माता पिता और गुरुजनों की सेवा सत्कार) ऋषियज्ञ (वेदादि सत् शास्त्रों के स्वाध्याय और उनके उपदेशों के प्रचार में यथाशक्ति क्षेम देना) और बलिवैश्वदेव यज्ञ (गाय बैल, अश्व, श्वानादि पशुओं से सेवा लेने के फलस्वरूप जो हमने उन्हें कष्ट पहुँचाया है उसका प्रत्युपकार करने के लिए उनको प्रथम खिलाना) सम्मिलित है। इन पञ्च महायज्ञों में देवयज्ञ का सम्बन्ध हवन यज्ञ में है, और हवन यज्ञ का संबंध हमारे व्यक्तिगत भौतिक जीवन से विशेष है। यद्यपि हवन का प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर विशेष पड़ता है, परन्तु परोक्ष रूप से यह हमारे सारे जीवन को प्रभावित करता है। हमारे शारीरिक स्वास्थ्य के इस व्यापक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए ही कहा गया है कि ‘शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्’ अर्थात् शरीर ही सब प्रकार के धर्मों की सिद्धि का साधन है। और शरीर को स्वस्थ रखने का साधन हवन यज्ञ है। इस प्रकार हमारे सम जीवन सफलता का मूल साधन परोक्ष रूप से हवन सिद्ध होता है।
शरीर विज्ञान विदों के मतानुसार हमारा शरीर अंतःवाह्य इन्द्रियों के अतिरिक्त सहस्रों मन्त्रों का समुदाय है और शारीरिक स्वास्थ्य इन अंगों के डडडडडड 2 व्यापार निर्भर है। इस शरीर के इन डडडड अंगों द्वारा हम इस विश्व के अनेक पदार्थों का भोग करते हुए उन्हें अनेक प्रकार से विकृत और दूषित करते हैं। हम सुन्दर और सुस्वादु भोजन से दुर्गन्ध मल-मूत्र निकाल कर प्रकृति के पदार्थों को दूषित करते हैं। यद्यपि हमारे मल-मूत्र को पौधे खाद बनाकर हमारे लिए फिर से भोज्य पदार्थ बना देते हैं परन्तु हमारे मलमूत्र का बहुत कुछ सूक्ष्म अंश डडडड जल और पृथ्वी में शेष रह जाता और हमारे स्वास्थ्य पर दूषित प्रभाव करता है। इस दूषित प्रभाव की निवृत्ति के लिए ही हवन यज्ञ की व्यवस्था हमारे जीवन में की गई है।
प्राचीन भारतीय विचार-पद्धति के अनुसार हमारे भौतिक जगत का आधार पंचभूत माने गए हैं, और यही पंचभूत हमारे शरीर के भी आधार हैं। पाँच स्थूल भूत और सूक्ष्म भूत हमारे स्थूल और सूक्ष्म शरीर के आधार हैं। इसलिए हमारे शरीर को निर्दोष बनाने के लिए इन पंचभूतों का निर्दोष होना आवश्यक है।
कुछ आधुनिक विचारकों के मत में हवन द्वारा स्वास्थ्य लाभ सम्भव नहीं, क्योंकि हवन द्वारा कार्बनद्विओषित (कार्बनडाइ ऑक्साइड) ही उत्पन्न होती है, और यह कार्बनद्विओषित मनुष्य के लिए अहितकर है। परन्तु इन लोगों का यह विचार गलत है, क्योंकि विधिपूर्वक किये हुये हवन में कार्बनद्विओषित की मात्रा अल्पतम बनती है, और आहुत हव्य का अधिकाँश भाग ऐसे सूक्ष्म भाग में परिणत होता जाता है जो दिग्दिगंत में व्याप्त हो। होमियोपैथी की अतिसूक्ष्म औषधि की नाई हमारे शारीरिक और मानसिक विकारों को दूर करने में समर्थ हो सकता है।
रसायन शस्त्र के ज्ञाता जानते हैं कि काष्ठादि पदार्थों के जलने और गर्म करने से सदा ही कार्बनद्विओषित नहीं बनता। कार्बन के विशुद्ध रूप कोयले को भी ऐसी विधि से आँच पर तपाया जा सकता है कि उससे कार्बनद्विओषित न बनकर अन्य अनेक उपयोगी पदार्थों की उपलब्धि हो। कोयले से कोलगैस बनाते समय जो काला कलूटा और दुर्गन्ध कोलतार मिलता है उसी से रसायनज्ञों ने अनेक प्रकार के रंग और सुगन्धियाँ निर्माण की हैं। वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि कोयले को खुली वायु में अविज्ञजन की पर्याप्त मात्रा के साथ जलाने से जहाँ केवल कार्बनद्विओषित मिलती है, उसी कोयले को किसी वेद पात्र में वायु के नियमित संपर्क के साथ जलाने से अनेक अन्य ऐसे रासायनिक द्रव्य मिलते हैं जो हमारे बड़े काम आते हैं।
हवन करते समय जो सावधानियाँ बरतने का विधान दिया जाता है उनके अनुसार आहुत हव्य पूर्णतया जलकर “कार्बनद्विओषित” नहीं बनाती, वरन् उनका वाष्पी भवन होकर उनमें ऐसे रासायनिक परिवर्तन होते हैं जिनके द्वारा अनेक उपयोगी पदार्थ अत्यन्त सूक्ष्म मात्रा में उत्पन्न हो दिग्दिगंत में व्याप्त हो प्राणियों का उपकार करते हैं। हवन करते समय समिधा को केवल बाहर की ओर लगाने का प्रयोजन यह है कि समिधा के जलने से जो ताप उत्पन्न होता है वह हव्य का केवल ‘वाष्पी भवन’ करे, जलाये नहीं। हवन कुँड का ऊपर से खुला होना और नीचे संकुचित होने का भी यही प्रयोजन है कि हव्य में अविज्ञजन मित मात्रा में पहुँचे। अधजले हव्य को कुरेद कर जलाने का निषेध भी यही प्रमाणित करता है कि हवन में हव्य को पूर्णतया जलने न देकर उसका ‘वाष्पी भवन’ किया जाता है, और उसमें ऐसे पदार्थों को ही डाला जाता है जिनके वाष्पी भवन से उपयोगी द्रव्य वायुमण्डल में फलकर प्राणियों का हित साधन करें।
हवन से वृष्टि सहायता मिलने का उल्लेख पाया जाता है। इसका आशय यह है कि हवन द्वारा वायु में कुछ ऐसे परिवर्तन होना चाहिये जो वृष्टि में सहायक सिद्ध हों। भौतिक विज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि किसी स्थान पर वृष्टि हो सकने के लिए अनेक साधनों की आवश्यकता होती है। वायु में पर्याप्त आर्द्रता होना वृष्टि का यद्यपि मुख्य साधन है परन्तु अकेली आर्द्रता से वृष्टि नहीं हो सकती। आर्द्रता के साथ-साथ तापमान का गिरना भी आवश्यक है। आर्द्रता और ठंडक के साथ-साथ एक तीसरा साधन भी आवश्यक है। वायुमण्डल में धूल आदि के ऐसे रेणुओं का होना जिन पर जल वाष्प की बूंदें जम सकें। धूल के रेणुओं के अतिरिक्त वैद्युदाणुओं (आयनो) में यह क्षमता पाई गई है कि वायुमंडल की वाष्प को लघु बूँदों में बदल दे। वैज्ञानिक अन्वेषणों का यह एक उपयोगी विषय होगा कि हम यह जान सकें कि हवन में किन-किन पदार्थों के होमने से किस-किस प्रकार के आयन बनते और वे किस प्रकार वर्षा में सहायक हो सकते हैं।
हवन से उपलब्ध इन सूक्ष्म अंशों और आयनों की उपयोगिता के सम्बन्ध में उन्हीं को सन्देह होगा जिन्हें वर्तमान विज्ञान की उस प्रगति का ठीक-ठीक परिचय नहीं मिला जिसके फलस्वरूप यह सिद्ध है कि स्थूल जगत की स्थूलता का आधार सूक्ष्माति सूक्ष्म वैद्युत अणु या ऐसी तरंगें हैं जिसके स्वरूप की कल्पना करना भी कठिन है। होमियोपैथीक पद्धति से निर्मित औषधियों के चमत्कारपूर्ण प्रभाव को जिसने अपने अनुभव से जाना है उसे भी हवन के रोगनाशक प्रभाव में किञ्चित सन्देह न होगा।
हवन की उपयोगिता में हमारे अविश्वास या सन्देह के दो कारण हैं- एक तो हमारा अति स्थूलदर्शी हो जाना तथा दूसरे विधिवत् प्रयोग द्वारा हवन की इस उपयोगिता को प्रमाणित करने की कोई योजना न होना। वर्तमान चिकित्सा पद्धतियों के विकास का इतिहास इस ओर स्पष्ट संकेत कर रहा है कि हमारे शरीर की रचना इतनी जटिल है कि केवल वैज्ञानिक विधि से ही इसे पूरा नहीं जाना जा सकता है। हमारे शरीर में ऐसे अनेक सूक्ष्म अंग हैं जिन्हें प्रकृति के अत्यंत सूक्ष्म पदार्थ प्रभावित कर देते हैं। इसलिए यह कहना भूल है कि हवन द्वारा हमारे रोगों की निवृत्ति मानना भ्रांति है। यह कहना तो ठीक है कि हवन सम्बंधी हमारा ज्ञान इस समय इतना अपूर्ण है कि इसके द्वारा सभी विशिष्ठ रोगों की चिकित्सा का दावा उस समय तय नहीं किया जा सकता जब उसे प्रयोग से सिद्ध न किया जा सके। प्रसन्नता की बात है कि गायत्री तपोभूमि द्वारा ऐसी खोजें और प्रयोगात्मक परीक्षाओं की व्यवस्था की जा रही है। हवन निःसंदेह एक लोकोपयोगी कार्य है और इसका प्रभाव मानव जीवन के लिये हितकर ही होता है।