Magazine - Year 1956 - Version 2
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यज्ञों का विस्तृत क्षेत्र
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(आचार्य पं. श्री गोपालचन्द्र मिश्र, एम.ए. काशी हिन्दू विश्वविद्यालय)
भारतीय परम्परा के अनुसार प्राणियों के ज्ञान शक्ति विद्या बुद्धि बल आदि की न्यूनाधिकता के कारण अविकारानुरूप प्राणि-कल्याण के अनेक साधन बताये गए हैं। उनमें यज्ञ भी एक प्राणि-कल्याण का उत्कृष्ट साधन है। गीता 3।9 में भगवान् ने सभी कार्यों को बन्धन स्वरूप बतलाया है परन्तु यज्ञ को—यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽय कर्मबन्धनः॥ कहकर बन्धन कारक नहीं बताया है। अतएव उन बुद्धिमानों को भी पवित्र करने वाले (पावनानि डडडडषिणाम्) कार्यों में परिगणित किया है। वेदभाष्यकार आचार्य महीधर ने कार्यों के—प्रशस्त, अप्रशस्त, श्रेष्ठ, श्रेष्ठतम ये चार भेद किये हैं। इनमें यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म बताया है और इस अर्थ को श्रुति का समर्थन भी प्राप्त है।
इस महत्वपूर्ण यज्ञ कार्य के भेद उपभेदों की इयन्ता करना साधारण कार्य नहीं है। गीता के चतुर्थाध्याय के यज्ञनिरूपण प्रकरण में यज्ञ के 15 मुख्य भेद बतलाए हुए हैं। यदि इनकी विभिन्न शाखाओं की गणना की जाय तो यज्ञक्षेत्र को ‘अनन्त’ कह कर ही विश्राम करना पड़ेगा। अतएव हम इन भेदों की ओर न जाकर यज्ञकर्म के मुख्यशास्त्र ‘कल्प’ और उसके विद्वानों की परम्परा की ओर ही ध्यान देकर कुछ उपयोगी विचार उपस्थित करते हैं।
महर्षि वेदव्यास की उत्कृष्ट रचना श्रीमद्भागवत् भगवान् के श्रीमुख का—
‘वैदिकस्तान्त्रिको मिश्र इति में त्रिविधोमखः॥’11।27।7
यह वचन है इसके अनुसार सामान्यतया वैदिक, तान्त्रिक और मिश्र ये तीन यज्ञानुष्ठान की शैलियाँ ज्ञात होती है। यहाँ तान्त्रिक और मिश्र शब्द की व्याख्या में विचारकों के विभिन्न मत दीख पड़ते हैं। कुछ लोग तान्त्रिक शब्द से तन्त्र दर्शन प्रतिपादित योग आदि क्रियाओं का, तथा कई विचारक दक्षिण और वाममार्ग नाम से प्रसिद्ध तन्त्र पद्धति के कार्यों का निर्देश बताते हैं। परन्तु याज्ञिक विचारकों के अनुसार—
‘कर्मणाँ युगपद् भावस्तन्त्रम्’ (1।7।1)
इस कात्यायन महर्षि की परिभाषानुसार एक कार्य में ही विभिन्न शाखाओं में प्रतिपादित अनेकताओं का अविरोधी संकलन करना ‘तन्त्र’ शब्द का अर्थ है। ऐसे ही कार्यों को ‘तान्त्रिक’ शब्द से निर्दिष्ट किया गया है। इस अर्थ के मान लेने पर इस प्रकरण में ही आगे कहे गये भगवदर्चा सम्बन्धी सभी विधान सुसंगत हो जाते हैं। और ऐसी ही तान्त्रिक कार्यों के लिए आजकल स्मार्त शब्द का व्यवहार प्रचलित है। शास्त्रकारों ने स्मार्त शब्द की जो व्याख्या की है उससे भी अनेक शाखाओं तथा अनेक वेदों के कार्यों का एक जगह संमिश्रण माना गया है।
‘मिश्र’ शब्द साधारण मिलाव का अर्थ रखता है। मिश्र शब्द से ऐसे कार्यों का संकेत है जिसमें वेद और तन्त्र का सम्मिश्रण हो। याज्ञिक परम्परा के विचार से यहाँ मिश्र शब्द से पौराणिक कार्यों का संकेत है। उनकी दृष्टि में वेद और तन्त्र का सम्मिश्रण ही पौराणिक विधान है।
उक्त याज्ञिक विचार से मख अर्थात् यज्ञ के श्रौत (=वैदिक) स्मार्त (=तान्त्रिक) और पौराणिक (=मिश्र) ये तीन यज्ञ की मुख्य शैलियाँ हैं।
श्रौतयज्ञ
श्रुति अर्थात् वेद के मन्त्र और ब्राह्मण नाम के दो अंश हैं। इन दोनों में या दोनों में से किसी एक में सांगोपांग रीति से वर्णित यज्ञों को ‘श्रौतयज्ञ’ कहते हैं। श्रौत कल्प में ‘यज्ञ’ और ‘होम’ दो शब्द हैं। जिसमें खड़े होकर ‘वषट्’ शब्द के द्वारा आहुति दी जाती है और याज्या पुरोनुवाक्या नाम के मन्त्र पढ़े जाते हैं। वह कार्य ‘यज्ञ’ माना जाता है जिसमें बैठकर ‘स्वाहा’ शब्द के द्वारा आहुति दी जाती है वह होम कहा जाता है। श्रौतयज्ञ-इष्टियाग, पशुयाग और सोमयाग इन नामों से मुख्यतया तीन भागों में विभक्त है। श्रौतयज्ञों के विधान की एक स्वतन्त्र परम्परा है उस प्रयोग परम्परा का जिस कार्य में पूर्णतया उल्लेख हो उसे ‘प्रकृतियाग‘ कहते हैं। और जिस कार्य में विशेष बातों का उल्लेख और शेष बातें प्रकृतियाग से जानी जायँ उसे ‘विकृतियाग‘ कहते हैं। अतडडडडडडड एवं श्रौतयज्ञों के तीन मुख्य भेदों में क्रमशः दर्शपूर्णमासिष्टि, अग्नीषोभीय पशुयाग, और ज्योतिष्टोम सोमयाग ये प्रकृतियाग हैं। अर्थात् इनमें से किसी दूसरे कर्म से विधि का ग्रहण नहीं होता। इन प्रकृतियागों के जो धर्म ग्राही विकृतियाग व अनेक हैं उनकी इयत्ता का संकलन भिन्न-भिन्न शाखाओं के श्रौतसूत्रों में किया गया है। यहाँ का बिना परिचय के नाम गिनाना अनुपयुक्त और अरोचक होगा। अतः श्रौत यज्ञ का सर्वसामान्य परिचय इस प्रकार समझना चाहिये—
श्रौतयज्ञ—आहवनीय, गार्ह्यत्य, दक्षिणाग्नि इन तीन अग्नियों में होते हैं इसलिए इन्हें ‘त्रेताग्नि यज्ञ’ भी कहते हैं। प्रायः सभी श्रौतयज्ञों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से, कम या अधिक रूप से तीनों ही वेदों के मन्त्रों का उच्चारण होता है अतः श्रौतयज्ञ ‘त्रयी’ साध्य हैं। इनमें यजमान स्वयं शारीरिक क्रिया में उतना व्यस्त नहीं रहता जितने अन्य ब्राह्मण जिन्हें ‘ऋत्विज्’ कहते हैं वे कार्य संलग्न रहते हैं। श्रौतयज्ञ का इष्टियाग प्रायः 4 वैदिक विधान कुशल ब्राह्मण विद्वानों के सहयोग से हो सकता है। पशुयाग में 6 ऋत्विज् होना आवश्यक होता है। सोमयाग में 16 ऋत्विज् होते हैं। इष्टियाग में अन्नमय प्रधान रूप से हवि अर्थात् देवताओं के लिए देय द्रव्य है। पशुयाग में प्रधान रूप से ‘पशु’ हवि है। सोमयाग में प्रधान हवि सोम होती है। सोमयाग के महान् यज्ञ सत्र और अहीन नाम से कहलाते हैं। सत्रयाग में ब्राह्मण जाति के 17 से 24 तक आहिताग्नि वैदिक विद्वान ही रहते हैं। ये सभी यजमान होते हैं। और इन्हीं में से 16 व्यक्तियों को ‘ऋत्विज्’ का कार्य करना पड़ता है। इसमें दक्षिणा नहीं दी जाती हैं और यज्ञ का फल सब यजमानों को बराबर पूरा मिलता है। अहीनयाग में एक या अनेक अग्निहोत्री यजमान हो सकते हैं। परन्तु इसमें ‘ऋत्विज्’ अलग होते हैं जिन्हें दक्षिणा दी जाती है। इस अहीनयाग का फल केवल यजमानों को ही मिलता है।
इन श्रौतयज्ञों का प्रचार आजकल भारतवर्ष में नहीं के बराबर है। क्योंकि आजकल का मानव बहुमुखी और बहुधन्धी है। उसे कोई शास्त्रीय बन्धन पसन्द नहीं है। श्रौतयाग करने का वही अधिकारी है जिसने विधिपूर्वक श्रौत अग्नियों का आधान लिया है और प्रतिदिन सायं प्रातः अग्निहोत्र में श्रद्धापूर्वक विधानुकूल समय लगाता है। श्रौताग्निहोत्री को अग्नि की निरन्तर रक्षा करनी पड़ती है। अग्नियों के रखने के लिए एक सुंदर अग्निहोत्र शाला चाहिए। कुछ यज्ञों में दूध, दही चाहिये वह बाजारू नहीं होना चाहिये। अग्निहोत्री स्वयं गौ रख कर आवश्यकता होने पर मन्त्रों द्वारा दूध दुहाता है। और मन्त्रों से ही दही जमाता है। अतएव गौ रक्षा करना भी आवश्यक है। प्रत्येक पन्द्रहवें दिन ‘प्रतिपद्’ तिथि को इष्टियाग करना आवश्यक है जिसमें हवनीय द्रव्य तथा ऋत्विजों की दक्षिणा आदि भी आवश्यक है। इन सब साधनों को कथञ्चित् सुलभ कर लेने पर भी सबसे मुख्य बात जो परम आवश्यक है और जिसका अत्यन्त अभाव है वह है वेद की याज्ञिक परम्परा का प्रायोगिक पूर्णज्ञान। आज इसका लोप होता जा रहा है। जिस प्रकार आज हम वेद के उन अर्थों के सम्बन्ध में अनभिज्ञ हैं जिनसे जल-स्थल-नभ सम्बन्धी चमत्कारी वैज्ञानिक मन्त्र क्रियाओं का ज्ञान हो सकता था वैसे ही वर्तमान परिस्थिति, शिक्षा समाज एवं सरकार की उपेक्षा वृत्ति से 10,15 वर्ष के भीतर याज्ञिक प्रयोग पद्धति से भी सर्वथा अनभिज्ञ हो जायेंगे ऐसा प्रतीत होता है।
स्मार्त यज्ञ
इनको श्रोत सूत्र कारों ने पाक यज्ञ तथा एकाग्नि शब्द से व्यवहार किया है। इनके मुख्यतया– हुत, अहुत, प्रहुत और प्राशित ये चार भेद हैं। जिन कार्यों में अग्नि में किसी विहित द्रव्य का हवन होता हो वह हुत यज्ञ है। जिससे हवन न होता हो केवल किसी क्रिया का करना मात्र हो वह अहुत यज्ञ है। जिसमें हवन और देवताओं के उद्देश्य से द्रव्य का ‘वलि’ संज्ञा से त्याग हो वह प्रहुत यज्ञ है। और जिसमें भोजन मात्र ही हो वह प्राशित यज्ञ है।
(पा. गृ. 1।4।1।)
स्मार्त यज्ञ का आधारभूत अग्नि शास्त्रीय और लौकिक दोनों प्रकार का होता है। शास्त्रीय अर्थात् आधान विधि के द्वारा स्वीकृत अग्नि औपासन, आवसथ्य, गृह्य, स्मार्त आदि शब्दों से कहा जाता है। इस अग्नि में जिसने उसको स्वीकार किया है। उसके सम्बन्ध का ही हवन हो सकता है। साधारण अग्नि लौकिक अग्नि है। इसे संस्कारों द्वारा परिशोधित भूमि में स्थापित करके भी स्मार्त यज्ञ होते हैं। स्मार्त यज्ञों की संख्या श्रौत यज्ञों की भाँति अत्यधिक नहीं है। इन यज्ञों की विधि और इयत्ता बताने वाले ग्रन्थ को ‘गृह्यसूत्र’ या ‘स्मार्त सूत्र’ कहते हैं। पञ्चमहायज्ञ, षोडशसंस्कार और और्ध्वदेहिक (प्रचलित मृत्यु के बाद की क्रिया) प्रधानतया स्मार्त हैं। स्मृति ग्रन्थों में उपदिष्ट कार्य जिनका (विनायक शान्ति आदि का) पूर्ण विधान उपलब्ध गृह्यसूत्रों में नहीं मिलता है वे भी याज्ञिकों की परम्परा में स्मार्त ही कहलाते हैं। स्मार्त यज्ञ में प्रायः अकेला भी व्यक्ति कार्य कर सकता है। हवन वाले कार्यों में एक ब्रह्मा की तथा भोजनादि में अनेक व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। गृह्या संग्रहकार ने स्मार्त यज्ञों में यजमान ब्रह्मा और आचार्य (नामभेद) इन तीन की आवश्यकता बताई है।
इस समय शास्त्रीय अग्नि वाले कार्य प्रायः लुप्त से हैं क्योंकि इनमें भी अग्निरक्षा आदि का कार्य आजकल की प्रवृत्ति के अनुकूल नहीं बैठ पाता। जिनमें लौकिक अग्नि का ग्रहण है वे संस्कार, उपाकर्म, अंत्येष्टि, आदि प्रचलित हैं। पर वे भी इन्हीं गिनी संख्या में है। स्मार्त यज्ञों में मानव के नैतिक गुणों के विकास का फल अधिक है। आज इनका प्रचार प्रसार कम हो गया है संभवतः आज की बढ़ती हुई अनैतिकता में हमारे लिए यह भी एक कारण हो।
पौराणिक यज्ञ
श्रुति स्मृति कथित कार्यों के अधिकारी अनधिकारी सभी व्यक्तियों के लिए पौराणिक कार्य उपयोगी है। आज कल इन्हीं का प्रचार और विचार है। पौराणिक कार्यों में यज्ञ शब्द का प्रयोग कल्प सूत्रकारों की याज्ञिक दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। परन्तु गीता के व्यापक क्षेत्र से इनके लिए भी ‘यज्ञ’ शब्द का व्यवहार होता है। अतएव पौराणिक यज्ञों को हवन, दान, पुरश्चरण शान्तिक, पौष्टिक, इष्ट, पूर्त्त, व्रत, सेवा, आदि रूप से अनेक श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। जिन जातियों को वेद के अध्ययन का अधिकार है वे पौराणिक यज्ञों को वेदमन्त्रों सहित करते हैं। और जिन्हें वेद का अधिकार नहीं उनको पौराणिक मन्त्रों से ही करते हैं। हमने भी सभी वर्णों की उपयोगिता की दृष्टि से इनका यह निर्देश किया है।
पौराणिक यज्ञों का विस्तार अधिक है अतएव यहाँ लघुकाय लेख में इनका पृथक् पृथक् विवेचन करना नहीं हो सकता। साधारणतया पौराणिक यज्ञों में गणपति पूजन, पुण्याहवाचन षोडशमातृका पूजन, वसोर्धारा पूजन, नान्दी श्राद्ध इन पाँच स्मार्त अंगों के साथ ग्रहयाग प्रधानपूजन आदि विशेष रूप से होता है। इन यज्ञों में लौकिक अग्नि का विशेष ग्रहण है। इनमें एक से लेकर हजारों तक कार्यक्षम व्यक्ति कार्य के अनुसार ‘ऋत्विज्’ बनाए जा सकते हैं। पौराण यज्ञ में संबद्ध व्यक्तियों की प्रसन्नता अधिक आवश्यक है।
उप संहार
उक्त तीनों ही प्रकार के यज्ञ प्राणि कल्याण के उत्कृष्ट साधन हैं। इसलिए विधि और श्रद्धापूर्वक अधिकारानुसार अनुष्ठान करना आत्मकल्याण और लोक कल्याण का प्रशस्त मार्ग है।