Magazine - Year 1956 - Version 2
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Language: HINDI
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हवन का व्यक्तिगत अनुभव
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(श्रीमती सुशीला देवी मुद्गल, मथुरा।)
अपनी जन्म भूमि पेशावर के आनन्द भरे वातावरण में मेरा बचपन बीता। माँ बाप के दुलार भरे अञ्चल में बालकपन को बिताते हुए और युवावस्था में प्रवेश करते हुए कभी ऐसी कल्पना तक न आई थी कि जीवन के मध्याह्न काल में आपत्तियों के ऐसे पहाड़ टूटेंगे, जिससे जिंदगी का आनन्द तो दूर उसे जीते रहना भी बुरा मालूम पड़े। ईश्वर की लीला और प्रारब्ध का विधान विचित्र है।
देश का बटवारा हुआ। पाकिस्तान अलग हो गया। मेरे आनंदमय जीवन के भी दो टुकड़े हो गये। एक टुकड़ा न जाने कहाँ चला गया। दूसरा टुकड़ा जो दर्द, कराह, बेबसी और बर्बादी से भरा हुआ था वही हमारे हिस्से में आया। भाग्य ने जीवन के खटमिट्ठे अनुभवों को छीन लिया और वह दे दिया जो आज तक चैन नहीं लेने देता। देश के बटवारे ने मेरे जीवन का बटवारा कर दिया। जो मिला सो बहुत ही कडुआ है। उससे सुनने वाले का भी जी दुखता है।
उन दिनों इंसान हैवान बने हुए थे। लगता था अब इंसानियत दुनिया से उठ गई। बेकसूर और बेबस लोग भी गाजर मूली की तरह काटे जा रहे थे। मैं अपनी बच्ची और बच्चे के साथ जान बचाने के लिए अपने साथियों के साथ रावलपिण्डी के रक्षा कैंप में जा रही थी कि रास्ते में कहर टूट पड़ा। गोलियाँ बरसीं। मेरा ढाई वर्ष का मासूम बच्चा गोलियों का निशाना बना, पंख फड़फड़ाते हुए कबूतर की तरह बालक कुछ देर तड़फड़ाया खून के फव्वारों से उससे हमें नहलाया और शाँत हो गया। उस दृश्य की आज भी जब याद आ जाती है तो ऐसा लगता है कि कलेजा कट कट कर मुँह की ओर बाहर को निकलने की कोशिश कर रहा है। अपने इतने प्यारे बच्चों की ऐसी दुर्गति हमने देखी, जैसे किन्हीं अभागों को देखने को मिलती है। जिस समय बालक का प्राण निकला उस समय अन्तर्चीत्कार से मेरा रोम रोम फटा जा रहा है, हजार-हजार बिच्छू नस नस में काट रहे थे, मैं ऐसे समय में मृत्यु से अच्छा वरदान तो क्या माँगती। “हे प्रभु यह नहीं देखा जाता, मुझे उठालो।” यही शब्द मुख से निकल रहे थे।
दयालु प्रभु सच्ची कामना को पूर्ण करने में देर नहीं करते, यह बात सत्य हो गई। दूसरी गोली कड़कड़ाती हुई मेरे सीने में लगी। गोली और छर्रे छाती और पेट के विभिन्न मार्गों में बिखर गये और लगा मानों सिंह अपने बीसियों नाखून से पेट को नोंच कर फाड़ रहा हो। कुछ ही देर में बच्चे का शोक और अपना दर्द शाँत हो गया और बेहोशी ने अपने दामन से मुझे छिपा कर इस तड़पन से बचा दिया।
रावलपिण्डी के अस्पताल में आपरेशन हुआ। गोलियाँ निकाल ली गईं। मौत भी मेरे साथ रहम न कर सकी—दुत्कार कर भाग गई। मैं जिंदा बच गई। रावलपिण्डी से दिल्ली अस्पताल आई। अविन अस्पताल अमेरिकन अस्पताल वर्षों तक भाग्य के साथ बँधा रहा। गोलियों ने शरीर के इतने पुर्जे खराब कर दिये थे कि “आधा मुर्दा” कहा जा सकता था। शरीर का दाहिना भाग बिलकुल काम न करता था। हाथ, पैर, धड़ बेकार था। चारपाई पर ही सारी जीवनचर्या पूरी होती, गुर्दे का दर्द, पेशाब बन्द हो जाना, आँखों की रोशनी कम हो जाना, खून की कमी, नसों की कमजोरी, बेहोशी के दौरे, हड्डी टेड़ी जुड़ जाना, और भी न जाने क्या क्या बलायें पीछे पड़ी थीं, आप्रेशनों और इन्जेक्शनों का ताँता लगा रहता। दिल्ली, आगरा, शिमला, अलीगढ़, मथुरा, वृन्दावन आदि के अस्पतालों में पाँच वर्ष का लम्बा समय से ही व्यतीत हो गया।
तबियत कुछ सुधारी, शरीर काम चलाऊ सहारा देने लगा, अस्पताल छोड़ कर घर आई। फिर भी चैन कहाँ? अनेक रोग पीछे पड़े हुये थे। बेहोशी के दौरे, पेशाब बंद हो जाना, गुर्दे का दर्द, नसों की कमजोरी आदि मुसीबतें पीछे पड़ी हुई थी। इलाज बहुत हो चुका था फिर भी मन न मानता। जिन्दगी बच ही गई तो रोज की तकलीफों से राहत मिले ऐसी चाहत का होना कुछ बेजा नहीं है। मैं भी कुछ रास्ता ढूंढ़ती रहती। दवा दारु के इलाज चलते रहते। साथ ही मेरा मन पूजा पाठ की ओर भी झुका, डाक्टरों की अपेक्षा ईश्वर की ओर देखने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी। कहीं अच्छे संत महात्माओं की बात सुनती तो वहाँ किसी प्रकार पहुँचने की कोशिश करती, शायद उनकी दुआ से कुछ फायदा हो।
एक दिन मुझसे शायद किसी पञ्जाबी ने ही कहा कि—“गायत्री तपोभूमि में रोज यज्ञ होता है। तुम वहाँ जाया करो। हवन से बीमारी दूर होती हैं। एक तपेदिक का मरीज वहाँ से अभी ही अच्छा हो कर गया है।” मैं तपोभूमि गई, वहाँ का व्यवहार और कार्यक्रम मुझे बहुत ही भला मालूम हुआ। जब तब हवन में शामिल होने के लिये जाने लगी। पर मेरा ऐसा भरोसा न था कि हवन से कोई बहुत बड़ा लाभ हो सकता है। जेठ के महीने में तपोभूमि में एक बड़ा हवन हुआ। बाहर के भी बहुत आदमी आये। कोटा रियासत में कोई कनवास जगह है वहाँ की एक पागल लड़की अपने पिता के साथ आई। यज्ञ से उसे भारी लाभ हुआ और उसका हालत ठीक हो गई, यह मैंने अपनी आँखों देखा। इसी तरह भाव-नगर (सौराष्ट्र) की एक स्त्री तपोभूमि में ऐसी आई जिसे सात वर्ष से मृगी आती थी और दो औरतें उसे सहारा देकर खड़ी करतीं, चलती। वह भी एक महीना यज्ञ में शामिल रह कर ठीक हो गई। आचार्य जी यज्ञ द्वारा अनेकों दुखियों को बहुत लाभ पहुँचाते हैं- यह बात मैंने सुनी तो अनेकों के मुँह से थी पर यह दो घटनाएं जब मैंने अपने सामने देखीं तो स्वयं भी हवन का लाभ लेने का निश्चय किया।
आचार्य जी से मैंने पूछा—क्या मेरा रोग भी उस कनवास वाली और सौराष्ट वाली स्त्री की तरह दूर हो सकता है उसने उत्तर दिया—कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता क्योंकि यज्ञों की पूर्ण विद्या लुप्त हो गई है। थोड़ी सी जानकारी हमें है उससे किसी लाभ की पक्की गारंटी नहीं की जा सकती पर इतना अवश्य है कि हवन की वायु से शरीर की निरोगता मन की पवित्रता से वृद्धि अवश्य होती है। इस उत्तर से मुझे सन्तोष तो नहीं हुआ फिर भी आजमाने का इरादा कर लिया। तीन महीने तक दोनों समय हवन पर बैठती रही और आचार्य जी के बताये अनुसार जप; अनुष्ठान तथा उपवास करती रही। इन तीन महीनों में मुझे इतना लाभ हुआ है जितने पिछले पाँच वर्षों में अस्पतालों में भी नहीं हुआ था। यों पूर्ण निरोग तो नहीं हूँ पर अस्सी फीसदी लाभ अवश्य हुआ है। बेहोशी के दौरे, पेशाब बन्द होना आदि उपद्रव तो एक दिन भी नहीं हुए। ऐसा दीखता है कि बाकी बीमारी भी जल्दी ही दूर होगी। हवन से इतना लाभ होता है यह देखकर मुझे आश्चर्य होता है।
पिछले जमाने में लोग हवन के जरिए सब रोग दूर कर लेते थे और सब कामनायें पूरी होती थीं यह बात बिलकुल सच मालूम देती है। मैं, मेरे पति और लड़की हम तीनों ही गायत्री तपोभूमि में यज्ञ में शामिल होते रहते हैं और यह कल्पना करके बड़े प्रसन्न होते रहते हैं कि आचार्य जी जब अस्पताल की विधिवत् व्यवस्था कर देंगे तो हमारे जैसे रोग, शोक चिन्ता और दुःख ग्रस्त मनुष्यों का कितना हित होगा। माता वह दिन जल्दी ही लावें।