Magazine - Year 1957 - Version 2
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Language: HINDI
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भस्म हो गयी (Kavita)
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मुझे होलिका चली जलाने, स्वयं भस्म हो गयी अभागिन।
स्वयं काल का ग्रास बन गई, मुझको खाने वाली बाघिन।
जिस दिन जगत् मारने मुझको भर कर लाया विष का प्याला।
उस दिन मुझ में अमर नशा बन झूम उठा जीवन मतवाला।
अमर अनल पक्षी हूँ मैं तो, मुझको मरने का क्या भय है?
मेरी राख जी उठी फिर से, होता जग को क्यों विस्मय है?
मेरे अंग वायु के, इनको काट सकेगा कोई, बोलो?
मैं तो पानी की धारा हूँ, सुदृढ़ पर्वतों छाती, खोलो।
मेरे उर में झाँक-झाँक कर देखो तुम अपनी तसवीरें।
बालू के कण-कण में अंकित गिरि मालाओं की तकदीरें।
अपने बंदी-गृह में मुझको पकड़-जकड़ कर रखने वाले।
बाहर देखो, मग्न पड़े हैं, वे लोहे से निर्मित ताले।
मेरी लाश गाड़ने को जब कब्र खोदने चली कुदाली,
बोली भूमि,’यहाँ तो जालिम को लाने की इच्छा पाली।’
मेरा जीवन जग के कण-कण में व्यापक है मुझको मारे।
इतनी जान किसी में है क्या, आँखें खोल, अरे हत्यारे।
मेरी एक-एक लोहू की बूँद, अमर जीवन का प्याला।
भोले, मेरी छाती में तुम छेद रहे हो अपना भाला।